मंगलवार, 18 नवंबर 2014

हिन्दू पुनर्जागरण के लिए हिन्दू कांग्रेस

अनिल सौमित्र
गत दिनों में हिन्दू और हिंदुत्व सर्वाधिक चर्चित शब्द रहा है l अधिकांशत: यह चर्चा प्रतिक्रियात्मक होती है l इसलिए हिन्दू और हिंदुत्व शब्द ज्यादातर विवादों में रहता है l नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जब से भाजपा की सरकार बनी है तब से इन शब्दों को एक नया सन्दर्भ मिल गया है l भारत में हालांकि हिन्दू के नाम पर अनेक संगठन हैं l हिन्दू महासभा से लेकर विश्व हिन्दू परिषद्, हिन्दू मुन्नानी, हिन्दू जागरण मंच, हिन्दू सेवक संघ जैसे न जाने कितने संगठन हिन्दुओं के नाम पर काम कर रहे हैं l लेकिन हिन्दुओं की स्थिति दुनिया में तो क्या स्वयं भारत में भी गर्व करने लायक नहीं है l अयोध्या आन्दोलन के दिनों में जरूर नारे लगते थे- गर्व से कहो हम हिन्दू हैं l लेकिन वक्त के साथ अयोध्या आन्दोलन भी नेपथ्य में चला गया और ये नारा भी मद्धिम पड़ गया l हिन्दू विरोधियों ने दुष्प्रचार और अपप्रचार के द्वारा हिन्दू शब्द को साम्प्रदायिकता का पर्यायवाची बना दिया l इस दृष्टि से एक बड़ा बौद्धिक धड़ा भी बैकफुट पर है l विरोधियों और प्रतिक्रियावादियों ने हिन्दू पदावली को फासीवाद, तानाशाही, कट्टर, पोंगा-पंथी, जड़, पुरातनपंथी, नाजीवादी, साम्प्रदायिक और कम्युनल जैसी धारणाओं से युक्त कर दिया है l यही कारण है कि सर्वथा आधुनिक, प्रगतिशील. देशभक्त और राष्ट्रवादी व्यक्ति भी अपने को हिन्दू कहने या कहलाने में हिचकता है l राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों की लाख कोशिशों के बावजूद यह हिचक कम तो हुई है, लेकिन अभी भी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही l जब कभी संघ या कोई अन्य हिन्दू संगठन हिन्दू, हिंदुत्व या हिन्दूपन की बात करता है तो तत्काल नकारात्मक और निन्दात्मक चर्चा का केंद्र बन जाता है l हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के समय से ही यह दुहराता रहा है कि भारत, जिसे आर्यावर्त, भारतवर्ष, हिन्दुस्थान आदि कई नामों से पहचाना जाता है, एक हिन्दूराष्ट्र है l यहाँ के सभी नागरिक हिन्दू हैं l संघ के विचारक, चिन्तक और पदाधिकारी यह कहते रहे हैं कि अगर ब्रिटेन के नागरिकों को ब्रिटिश, अमेरिका के नागरिक को अमेरिकन और रूस के नागरिक को रसियन कहा जा सकता है तो फिर हिन्दुस्थान के नागरिकों को हिन्दू क्यों नहीं! आलोचक और विरोधी इसे संघ का संकीर्ण नजरिया आरोपित करते हैं l चाहे स्वामी विवेकानंद हों या महर्षि अरविंद, सावरकर हों या गुरू गोलवलकर, अशोक सिंहल हों या मोहनराव भागवत, हिन्दू के बारे में कही गई उनकी बातों पर हमेशा विवाद होता आया है l हालांकि संघ के भीतर ही कुछ लोग उदारता, लचीलेपन और समावेशी भाव के कारण संघ को सेक्युलर हो जाने का ताना मारते हैं l दरअसल हिन्दू के बारे में जब कभी चर्चा हुई तो उसके विरोधियों ने आक्रामक आलोचना ही की और इसे विवादित करने का हर संभव प्रयास किया l हर बार यह प्रयास तात्विक और सैद्धांतिक न होकर राजनीतिक ही रहा है l इसमें सदैव सात्विक और सार्थक बहस का अभाव रहा है l हिन्दू की बात हमेशा राजनीतिक दुराग्रहों की भेंट चढ़ता रहा है l हिन्दू की बहस को कोई शास्त्रीय या सैद्धान्तिक आधार मिल पाये इसके पहले ही मीडिया में उसकी बलि ले ली जाती है l इसमें दो राय नहीं है कि हिन्दू की परिभाषा, उसका सिद्धांत और उसकी अवधारणा आमजन के बीच ही नहीं, बल्कि बौद्धिक जगत और अकादमिक क्षेत्र में भी अस्पष्ट और दरकिनार है l ऐसी परिस्थितियों में दिल्ली में 21 से 23 नवम्बर तक विश्व हिन्दू कांग्रेस का आयोजन स्वयं में एक बड़ी घटना है l यह घटना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जब भारत में ही हिन्दू और हिंदुत्व स्वीकार्य नहीं है तो दुनिया में कैसे और किस बिना पर होगा! जब हिन्दू की जन्मस्थली भारत में ही हिन्दू पहचान गर्व का विषय नहीं बन सका है तो विश्व में कब और कैसे बनेगा? दुनिया में जब ईसाइयत और इस्लाम का परचम फहरा रहा है, तो हिन्दू ध्वजा लहराने की क्या संभावना है? क्या इसकी कोई संभावना है कि दुनियाभर में फैले हिन्दू संगठित हो सकें! भाषा, सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से अपना नेतृत्व स्थापित कर सकें! विश्व राजनीति, शिक्षा, व्यापार-वाणिज्य, संस्कृति, मीडिया और विधि-विधान के क्षेत्र में अपनी प्राचीन हिस्सेदारी प्राप्त कर सकें? यह विश्व हिन्दू कांग्रेस इन्हीं संभावनाओं, समस्याओं और चुनौतियों की तलाश करेगा l पर्दे के पीछे रहकर विश्व हिन्दू कांग्रेस की व्यूह रचना करने वाले स्वामी विज्ञानानन्द कहते हैं – विश्वभर में फैला हिन्दू आज मानवाधिकार हनन, नस्लभेद, सांस्कृतिक अपमान, उपेक्षा और भेद-भाव का शिकार है l स्वयं भारत का हिन्दू भी सांप्रदायिक आधार पर उपेक्षा, विषमता और भेद-भाव का शिकार होता रहा है l हम देश और दुनिया में हिन्दुओं का स्वर्णकाल वापस चाहते हैं l बीते दिनों में हम वैभवशाली और शक्तिसम्पन्न थे, आज हो सकते हैं और भविष्य में इसे बनाए रख सकते हैं l नवम्बर के दूसरे पखवाड़े में भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली में आयोजित होने वाले इस तीन दिवसीय ‘विश्व हिन्दू कांग्रेस’ में कुल सात आयामों पर विमर्श होगा l हिन्दू राजनीति, हिन्दू अर्थनीति, हिन्दू युवा, हिन्दू स्त्री, हिंदू शिक्षा, हिन्दू संगठन और हिन्दू मीडिया पर भिन्न-भिन्न फोरम पर चर्चा होगी l विश्व के कई देशों - इंगलैंड, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, और चीन सहित मलेशिया, श्रीलंका, बंगलादेश, भूटान, थाईलैंड आदि देशों के सैकड़ों प्रतिनिधि इस कांग्रेस में सम्मिलित हो रहे हैं l इस विश्व हिन्दू सम्मलेन में भारत सहित कई देशों की राजनीतिक, आर्थिक और मीडिया क्षेत्र की महत्वपूर्ण हस्तियाँ शामिल होंगी l जाहिर है यह सम्मलेन हिन्दू दृष्टियों पर वाद, विवाद और संवाद का साक्षी बनेगा l इस सम्मलेन के बारे में राजनयिकों और खुफिया संगठनों की स्वाभाविक जिज्ञासा होगी l कहने वाले कहने लगे हैं कि हिन्दुओं का आत्म-विश्वास मंद गति से ही सही लेकिन लौटने लगा है l वे हिंदुत्व के चिर-पुरातन और नित्य-नूतन सिद्धांत को पुन: वैश्विक धरातल देने की आशा से भर उठे हैं l दुनिया का विश्वगुरू, सिरमौर बनने की हिन्दू इच्छा जोर मारने लगी है l हिन्दू संस्कृति के वैविध्य और अनेकता में एकता के वैशिष्ट की पुनर्स्थापना की वे बाट जोह रहे हैं l हिन्दू गुण-दोष के आत्मावलोकन और हिन्दू इतिहास के पुनरावलोकन के प्रति आज का हिन्दू गंभीर होने लगा है l विश्व समस्याओं का हरण और विश्व को श्रेष्ठ बनाने की पहल करने को हिन्दू लालायित है l सदियों बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य ने हिंदूवादी करवट ली है l देश में भी और दुनिया में भी भारत के बारे सोच और नजरिया दोनों बदला-बदला दिखाई दे रहा है l संघ प्रमुख मोहनराव भागवत जब कहते हैं कि विश्व की समस्याएं अपने खात्मे के लिए भारत में आती हैं, तो वे संघ के स्वयंसेवकों को आसन्न चुनौतियों का इशारा करते हैं l फिर संघ की शाखाओं में गीत गूंजने लगता है- हिन्दू जगे तो विश्व जागेगा, मानव का विश्वास जागेगा l महर्षि अरविंद, राम कृष्ण परमहंस और विवेकानंद ने भारत के पुनर्जागरण की भविष्यवाणी की थी l भारत के पुनर्जागरण से उनका आशय हिन्दू जागरण से ही था! कमोबेश सभी ने इस जागरण की अवधि भी एक जैसी ही बताई है l तो क्या पुनरोदय की शुरुआत हो चुकी है? विश्व हिन्दू कांग्रेस इस पुनर्जागरण का उत्प्रेरक या घटक बनेगा? हिन्दू कांग्रेस के आयोजक भले ही इसे दुनियाभर के हिन्दुओं को अपनी समस्याओं और चुनौतियों को साझा करने का मंच उपलब्ध कराना कह रहे हों, लेकिन उनकी मंशा सिर्फ इतनी ही हो यह जरूरी नहीं! यह कवायद हिन्दू कांग्रेस के बहाने दुनियाभर के हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों को लामबंद करने, दुनिया को एक नई व्यवस्था और एक नई दिशा देने का दुस्साहस भी हो सकता है l (लेखक पत्रकार और मीडिया एक्टिविस्ट हैं)

रविवार, 29 जून 2014

भगवा आतंक की तर्ज पर व्यापम जाँच

अनिल सौमित्र
व्यापम विवाद ने अनायास ही भगवा आतंक की याद ताजा कर दी है। दोनों मसलों में कुछ बातें समान दिखती हैं। दोनों प्रकरणों में जाँच से ज्यादा ‘मीडिया ट्रायल’ है। दोनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निशाने पर दिखता है। भगवा आतंक प्रकरण में श्री मोहन भागवत और श्री इन्द्रेश कुमार के बहाने संघ निशाने पर था, व्यापम में स्व. श्री सुदर्शन और श्री सुरेश सोनी के बहाने संघ टारगेट पर है। एक की जाँच एनआईए कर रहा है, जबकि दूसरे की एसटीएफ। दोनों मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं। लेकिन दोनों में कांग्रेस और मीडिया अमर्यादित रूप से सक्रिय है। कांग्रेस ने इन दोनों मामलों में जाँच व न्याय की प्रक्रिया और दिशा प्रभावित करने की बेजा कोशिश की है। संघ पर निशाना साधने वाला कोई और नहीं वही काँग्रेस है जो कभी केन्द्र की सत्ता में थी, लेकिन आज विपक्ष की हैसियत भी गवाँ चुकी है। चुनावी राजनीति में लुट-पिट गई कांग्रेस के पास राजनीतिक षड्यंत्र के सिवा कुछ भी नहीं बचा है। भगवा आतंक और व्यापम जाँच में कुछ असमानताएं भी हैं। वहाँ आतंक की घटनाएं थी, यहाँ भ्रष्टाचार है। एक की जाँच का आदेश केन्द्र की यूपीए सरकार ने दिया था, जबकि दूसरे की जाँच मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने दिया है। दोनों ही प्रकरण दुर्भावना और दुर्भाग्यवश ओछी राजनीति के शिकार हो गए हैं। आतंक और भ्रष्टाचार के दोषियों की पहचान और सजा कांग्रेस की षड्यंत्रकारी राजनीति के दुष्चक्र में उलझकर रह गईं। गौरतलब है कि भगवा आतंक की जाँच के दौरान भी भोपाल और मध्यप्रदेश, राजनीति, विवाद और मीडिया ट्रायल का केन्द्र बना था। मीडिया में और मीडिया के लिए काम करते हुए भी संघ मीडिया से परहेज करता रहा है। यही कारण है कि संघ के अनेक वरिष्ठ पदाधिकारी मीडिया के लिए अपरिचित हैं, अनजान हैं। यही कारण है कि संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी अनेक महत्वपूर्ण कार्यों से जुड़े होने के बाद भी शायद पहली बार मीडिया के समक्ष आए और अपना बयान दिया। जो उन्होंने कहा वह सिर्फ मीडिया और राजनीति के लिए ही नहीं समाज के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने छोटे से बयान में कई पहलुओं और सवालों का जिक्र किया है। सह-सरकार्यवाह के रूप में श्री सोनी आरएसएस और भाजपा के बीच लंबे समय से समन्वय व मार्गदर्शन का काम भी करते रहे हैं। इस दरमियान कांग्रेस ही नहीं, बल्कि भाजपा के भी कई नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर कुठाराघात हुआ होगा। यह अस्वाभाविक नहीं है कि आरएसएस और श्री सोनी, कांग्रेस और भाजपा के ही कई नेताओं की आँखों की किरकिरी बन गए। गत लोकसभा चुनाव में संघ ने जिस प्रकार जनजागरण के लिए योजना, रणनीति और क्रियान्वयन किया उसके परिणाम देश और दुनिया के सामने हैं। राजनीति के जानकार और समीक्षक भी यह मानते हैं कि भाजपानीत एनडीए की सरकार और श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में भाजपा से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका है। तब कांग्रेस का संघ से नाराज होना, क्रोधित होना, अपमान और कलंक के बीज बोना स्वाभाविक ही है। लेकिन संघ के इन प्रयासों से जिन भाजपा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और कुटिल प्रयासों को धक्का पहुँचा, वे भी संघ का नुकसान पहुँचाने में निष्क्रिय रहें, यह भी अस्वाभाविक है। श्री सोनी का यह बयान कि व्यापम मामले में संघ के पूर्व सरसंघचालक स्व. श्री सुदर्शन और उनका नाम आना किसी बड़ी राजनीतिक साजिश का हिस्सा है। साजिश के सूत्रधारों के बारे में पूछने पर उन्होंने नाम ढूंढने का काम मीडिया के हवाले कर दिया। साजिश के सूत्रधारों का नाम बताना आवश्यक भी नहीं है, जबकि मीडिया का एक तबका स्वयं इस साजिश का हिस्सा हो। किसी प्रकरण की जाँच या न्याय से राजनीतिक साजिश का कोई संबंध नहीं होता। ऐसी साजिश से तो बस तात्कालिक परिणामों की अपेक्षा होती है। मीडिया इसमें एक उपकरण की तरह उपयोग कर लिया जाता है। मीडिया के सहारे साजिशकर्ता लक्षित व्यक्ति और संगठनों की छवि धूमिल करता है, जाँच की दिशा और निहितार्थ बदल देता है, आम जनता को भ्रमित कर देता है। चाहे संजय जोशी प्रकरण हो या तथाकथित भगवा आतंक अथवा व्यापम घोटाले की जाँच, सभी मामले राजनीतिक साजिश के तात्कालिक उद्देश्यों की भेंट चढ़ गए। संजय जोशी राजनीति के बियाबान में खो गये, भगवा आतंक के नाम पर असली आतंकी गुम हो गये, नकली पकड़े और प्रताडि़त किए गए, कहीं व्यापम घोटाले का भी यही हश्र ना हो जाए! वर्तमान संघ प्रमुख ने पूरे मामले में संघ की संलिप्तता नकारते हुए काननू को अपना काम करने देने की अपील की। संघ के प्रचारक और भाजपा के महासचिव रहे विचारक श्री गोविन्दाचार्य ने संघ और संघ पदाधिकारियों पर लग रहे आरोपों के पीछे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान का हाथ बताकर इस मामले को और तूल दे दिया है। बकौल गोविन्दाचार्य - श्री शिवराज सिंह चैहान खुद पर और परिवार पर लग रहे आरोपों से ध्यान बँटाना चाहते हैं। श्री सुरेश सोनी ने भी छह माह पुरानी एसटीएफ और अदालती कार्यवाई के बीच अचानक संघ के उपर लग रहे लांछन और आरोपों को राजनीतिक साजिश और षड्यंत्र कहा है। इस बीच पुलिस ने अधिकृत रूप से बयान जारी कर उपलब्ध दस्तावेजों और साक्ष्यों के हवाले से संघ या संघ के किसी पदाधिकारी की संलिप्तता को सिरे से खारिज कर दिया है। आरोपी मिहिर कुमार ने भी संघ पदाधिकारी के नाम उल्लेख करने संबंधी बयान को नकार दिया है। व्यापम घोटाला जाँच संबंधी पूरे मामले पर सरसरी निगाह डालते ही राजनीतिक साजिश और मीडिया ट्रायल की बू आती है। मीडिया में मिहिर कुमार को पूर्व सरसंघचालक स्व. श्री सुदर्शन की ‘सेवादार’ बताया गया है। संघ में सेवादार जैसा कोई पद नहीं होता। हां! निज सहायक जरूर होते हैं, लेकिन मिहिर कुमार निज सहायक कभी नहीं रहे। सेवादार का आशय अगर सेवा और सहयोग करने वाले से है तो ऐसे सैकड़ों स्वयंसेवक ‘सेवादार’ के रूप में श्री सुदर्शन जी के साथ रहे होंगे। यह बात किसी के भी गले नहीं उतरती कि श्री सुदर्शन जी ने किसी परीक्षार्थी को इतना विस्तार से बताया होगा कि परीक्षा में जितना सही उत्तर आता हो लिखना, बाकि छोड़ देना। श्री सुदर्शन जी से इतनी और ऐसी बात करने का साहस मिहिर जैसे कम उम्र के स्वयंसेवक तो क्या उनके परिवार के किसी सदस्य में भी नहीं होगी। श्री दिग्विजय सिंह, श्री कटारे या श्री मानक अग्रवाल जैसे नेता चाहें तो अपनी बयानबाजी से घृणा का पात्र भले ही बन जाएं, लेकिन संघ और स्व. श्री सुदर्शन के बारे में उनके बयानों पर कोई भरोसा नहीं करेगा। जहाँ तक एसटीएफ का सवाल है, आज नहीं तो कल उसे यह जवाब देना ही होगा कि जिस प्रकरण की जाँच वह उच्च न्यायालय की निगरानी में कर रहा है, उससे संबंधित दस्तावेज मीडिया को किसके इशारे पर कैसे उपलब्ध हुआ? क्या जाँच संबंधी तथ्यों और दस्तावेजों को उजागर करना, मीडिया ट्रायल करना न्यायालय की अवमानना के दायरे में नहीं आता? जब तक न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध न हो जाए, सजा न हो जाए, जाँच एजेंसी का यह दायित्व नहीं है कि वह आरोपियों और साक्ष्यों को सुरक्षा प्रदान करे? मीडिया ट्रायल करना न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करना नहीं माना जाना चाहिए? सूत्रों के हवाले से प्रकाशित हो रही खबरों को एसटीएफ द्वारा नजरंदाज करना, जाँच से संबंधित चयनित तथ्यों को पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर मीडिया को उपलब्ध कराना राजनीतिक साजिश का हिस्सा ही माना जायेगा। ईमानदारी का अर्थ सिर्फ आर्थिक ईमानदारी नहीं होता। इसे व्यापक संदर्भों में देखा-परखा जाना चाहिए। एसटीएफ की ईमानदारी आर्थिक, नैतिक, कानून और नियमों की कसौटी पर भी परखा जायेगा। अभी तो एसटीएफ की जाँच प्रक्रिया पर भी अंगुली उठने लगी है। बहरहाल व्यापम घोटाले का मामला अब राजनैतिक रंग ले चुका है। जाँच प्रक्रिया न्याय पर सवाल उठने लगे हैं। प्रदेश में सरकार और संगठन पशोपेश में है। मामला जाँच एजेंसी और न्यायालय से परे राजनीतिक दलों और मीडिया के दायरे में जा चुका है। देशी भाषा में कहें तो रायता फैल चुका है। संघ पर आरोपों के छींटे नहीं धब्बे लगाने की कोशिश हुई है। भले ही थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन आरोपों के ये दाग-धब्बे धुल जायेंगे। लेकिन क्या संघ इन साजिश के सूत्रधारों, षड्यंत्रकारियों और कालिखबाजों को ऐसे ही भुला देगा, बिना सबक दिए? बस देखना यही है कि संघ अपने उपर लगे दाग-धब्बों को कितनी जल्दी सफाई कर पाता है, और दाग-धब्बे देने वालों की कब और कैसी धुलाई करता है। (लेखक मीडिया एक्टिविस्ट हैं)

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

मध्यप्रदेश में सेमीफायनल जैसा होगा फायनल !


दावेदारी और हकीकत की गुत्थी अनिल सौमित्र विधानसभा चुनाव वर्ष मतदान प्रतिशत लोकसभा चुनाव वर्ष मतदान प्रतिशत 2013 72.58 2009 69.8 2008 69.28 2004 48.09 2003 67.40 1999 54.88 1998 60.22 1998 61.74 1993 60.66 1996 54.06 देश में जितनी और जैसी राजनीतिक सरगर्मी है, मध्यप्रदेश में नहीं है। मध्यप्रदेश में विधानसभा का चुनाव जरूर आर-पार का था, लेकिन लोकसभा के लिए चुनावी माहौल वैसा नहीं है। भाजपा के लिए तब जैसा शिवराज लहर था, आज वैसा मोदी लहर दिखाई नहीं दे रहा। कांग्रेस कड़े मुकाबले का दावा जरूर कर रही है, लेकिन उसके नेता और कार्यकर्ता मनौवैज्ञानिक दबाव में हैं। विधानसभा की करारी हार से उनके लिए उबर पाना इतना आसान नहीं है। कांग्रेस के कई दिग्गज भाजपा के पाले में आ चुके हैं। कांग्रेसी नेताओं के पाला बदलने का जो सिलसिला विधानसभा में उपनेता प्रतिपक्ष चैधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी से शुरू हुआ था वह थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। विधानसभा चुनाव के दिनों में ही होशंगाबाद के कांग्रेसी सांसद राव उदय प्रताप ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। वे होशंगाबाद से भाजपा के उम्मीदवार हैं। कांग्रेस ने पूर्व प्रशासनिक अधिकारी डा. भागीरथ प्रसाद को भिंड से टिकट दिया। वे पिछले चुनाव में भी कांग्रेस के उम्मीदवार थे। लेकिन इस बार टिकट मिलने के एक दिन बाद ही वे भाजपा के सदस्य बन गये और आज वे भाजपा के उम्मीदवार हैं। कांग्रेस का नेतृत्व राजनीतिक सदमे से उबर पाता इसके पहले ही उसके एक और विधायक ने पार्टी छोड़ दी। कटनी से कांग्रेस के विधायक संजय पाठक अब भाजपा के नेता हो गये हैं। कांग्रेस में अविश्वास, परस्पर शंका और संदेह का माहौल है। कांग्रेस के दिग्गज हैरान हैं, परेशान हैं। कांग्रेस का कौन नेता पिछले दरवाजे से, कौन सामने के दरवाजे से और कौन खिड़की से भाजपा के दर पर चला जाएगा अनुमान लगाना कठिन है। अन्दर-बाहर चर्चा है- जैसे मछली पानी के बिना जीवित नहीं रह सकती वैसे ही कांग्रेसी सत्ता के बिना नहीं रह सकते। पिछली लोकसभा में मध्यप्रदेश से भाजपा के 16 कांग्रेस के 12 और बसपा का एक सांसद था । प्रदेश में सियासत का रंग हर दिन बदल रहा है। मध्यप्रदेश में सांसदों की दलगत सूची गडमड हो गई है। 16 वीं लोकसभा की सूची बहुत बदली हुई होगी। देश की 543 लोकसभा सीटों में 29 मध्यप्रदेश में हैं। नौ सीट आरक्षित है, जबकि 20 सामान्य। आरक्षित सीटों में अनुसूचित जाति के लिए 4 और अनुसूचित जनजाति के लिए 5 है। गत विधानसभा चुनाव में प्रदेश के कुल 4,64,47,767 मतदाताओं में से 72.58 प्रतिशत ने मतदान किया। ताजा आंकड़ों के अनुसार लोकसभा के लिए 4,75,56,564 मतदाता मतदान करेंगे। 15 वीं लोकसभा चुनाव के लिए मध्यप्रदेश में 3,83,90,101 मतदाता थे। पिछले चुनावों में मतदान का इतिहास यह बताता है कि लोकसभा चुनाव में विधानसभा की अपेक्षा मतदान प्रतिशत कम ही होता है। इस चुनाव में भले ही देशभर में कांग्रेस विरोधी हवा है। कांग्रेस समेत अन्य सभी दलों से भाजपा काफी आगे दिख रही है। वैसे ही जैसे भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी समेत अन्य घोषित-अघोषित उम्मीदवारों से काफी आगे दिख रहे हैं। लेकिन इतना तो तय है कि भाजपा का कांग्रेसमुक्त देश का नारा सफल नहीं होगा। मनमोहन के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की जगह भले ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार बन जाये, लेकिन कांग्रेस के गर्त में जाने का अंदेशा कम ही है। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में 29 सीटों के लिए तीन चरणों में मतदान होगा। बालाघाट, छिंदवाड़ा, होशंगाबाद, जबलपुर, मंडला, रीवा, सतना, शहडोल और सीधी में 10 अप्रैल को मतदान हो चुका है। 17 अप्रैल को होने वाला दूसरे चरण का मतदान दस लोकसभा क्षेत्र - भिंड, भोपाल, दमोह, गुना, ग्वालियर, खजुराहो, मुरैना, राजगढ़, सागर और टीकमगढ़ में होगा। इसी प्रकार तीसरे चरण में 24 अप्रैल को शेष बचे दस लोकसभा क्षेत्रों - बैतूल, देवास, धार, इंदौर, खंडवा, खरगोन और मंदसौर, रतलाम, उज्जैन, और विदिशामें होगा। अगर राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सीटों की बात की जाय तो प्रथम चरण में होने वाले मतदान में जहां छिंदवाड़ा में कांग्रेस के दिग्गज केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ के भविष्य का फैसला होना है, वहीं दूसरे चरण में दमोह से भाजपा के उम्मीदवार और पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल, ग्वालियर में मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर और गुना से केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर है। तीसरे चरण के लिए 24 अप्रैल को मतदान होगा। इस दिन इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन, खंडवा से मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरूण यादव, रतलाम से मध्यप्रदेश के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया और विदिशा से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज का राजनीतिक भविष्य एवीएम में कैद हो जायेगा। बहरहाल, चाहे चुनावी सर्वेक्षणों के आधार पर आंकलन करें या बीते चुनावी परिणामों के आधार पर निष्कर्ष निकालें, एक बात साफ है कि 16 मई को भाजपा लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। कांग्रेस दूसरे नंबर पर रहेगी। यही स्थिति मध्यप्रदेश में भी रहने वाला है। हालांकि भाजपा पर कमजोर उम्मीदवार देने का आरोप लग रहा है, लेकिन मतदान के वक्त मोदी लहर पर सवारी कर भाजपा 16 से अधिक सीटें जीतने कामयाब हो जायेगी यह भाजपा को भरोसा है। विधानसभा चुनाव में बसपा, सपा जैसे अन्य दलों को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल पाई। राजनीतिक विश्लेषक आम आदमी पार्टी को कोई खास तवज्जो नहीं दे रहे। आम आदमी पार्टी के उम्मदवारों में अधिकतर एनजीओ पृष्ठभूमि के ही हैं। मध्यप्रदेश में आम आदमी पार्टी जितना भी वोट प्राप्त करेगी उससे कांग्रेस का ही नुकसान होने की संभावना है। टिकट तय करने में देरी. कुछके सांसदों को टिकट काटना और कुछ सांसदों का क्षेत्र बदलना भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकता है। हालांकि इस बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खुलकर मैदान में होने का लाभ भाजपा को जरूर मिलेगा। संघ भले ही खुलकर किसी के पक्ष में प्रचार नहीं कर रहा है। लेकिन अधिकतम मतदान के लिए चलाये जा रहे अभियान का लाभ भी भाजपा उम्मीदवारों को ही मिलना है। स्थानीय भाजपा नेता मोदी फैक्टर के साथ ही शिवराज फैक्टर का भी हवाला दे रहे हैं। विधानसभा चुनाव में भाजपा के अव्वल प्रदर्शन से भाजपा कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हैं। विधानसभा चुनाव में प्राप्त मत और सीटों के आधार पर भाजपा 29 में से 20 से अधिक सीटें जीतने का दावा कर रही है। कांग्रेस कोई बड़ी दावेदारी तो नहीं कर रही है, लेकिन उसके नेता यह मानकर चल रहे हैं कि लोकसभा में उनका प्रदर्शन विधानसभा से बेहतर होगा। लेकिन बड़ा सवाल भाजपा के लिए है। क्या भाजपा सेमीफायनल की तरह फायनल में भी प्रदर्शन कर पायेगी, क्योंकि भाजपा को केन्द्र में सरकार बनाने के लिए एक-एक सांसद के लिए मशक्कत करनी पड़ेगी। मध्यप्रदेश से भाजपा नेतृत्व को काफी उम्मीदें हैं। हमारे देश की सरकारें इतने ही मतदान से बनती रही हैं चुनाव वर्ष मत प्रतिशत सरकार 1952 45.7 कांग्रेस 1957 55.42 कांग्रेस 1962 55.42 कांग्रेस 1967 61.33 कांग्रेस 1971 55.29 कांग्रेस 1977 60.49 जनता पार्टी 1980 56.92 कांग्रेस 1984 63.56 कांग्रेस 1989 61.95 राष्ट्रीय मोर्चा 1991 56.93 कांग्रेस 1996 57.94 एनडीए 1998 61.97 एनडीए 1999 59.99 एनडीए 2004 57.65 यूपीए 2009 56.97 यूपीए 2014 ? ?

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

पाश्चात्य के लिए हिन्दू धर्म के अलावा कोई मार्ग नहीं

अनिल सौमित्र दुनिया में भारत एक अलग, भिन्न प्रकार का देश क्यों है? क्या सिर्फ मानचित्र या भौगोलिक भिन्नता ही, भारत को दुनिया में विशिष्ट बनाता है, या कुछ और बात है? क्या सच में दुनिया के देश भोग भूमि हैं और भारत योग और कर्म की भूमि? राष्ट्रवादी तो भारत को देवभूमि और पुण्यभूमि तक कहते हैं। भारतीय सभ्यता प्रकृति केन्द्रित रही है, यूरोप और पश्चिमी सभ्यता मानव केन्द्रित। यूरोप सहित पश्चिमी देशों का विकास औद्योगिकीकरण, व्यापार, वाणिज्य, उत्पादन, विपणन और प्रौद्योगिकी के आधार पर हुआ है। किन्तु भारतीय सभ्यता का विकास धर्म-आध्यात्म और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर। पश्चिमी देश दुनिया में साम्राज्य विस्तार करते और गुलामों की फौज बढ़ाते रहे। प्राचीन भारत में गुलाम प्रथा कहीं नहीं दिखाई देती। यहां मानवता के प्रति सम्मान प्रारंभ से ही रहा है। हिंसा, बल और लोभ के द्वारा मतान्तरण ईसाई देश अपनी जिम्मेदारी मानते रहे हैं। भारत से सृजित धर्म अनेक देशों में फैले, लेकिन शांतिपूर्ण प्रचार-प्रसार के द्वारा। भारत को दुनिया से, खासकर यूरोप से अलग बताते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि - ‘भारत की वायु शान्तिप्रधान है, यवनों की प्रकृति शक्तिप्रधानय एक गंभीर चिन्तनशील है, दूसरा अदम्य कार्यशीलय एक का मूलमन्त्र है ‘त्याग’, दूसरे का ‘भोग’य एक की सब चेष्टाएं अन्तर्मुखी हैं, दूसरे की बहिर्मुखीय एक की प्रायः सब विद्याएं आध्यात्मिक हैं, दूसरे की आधिभौतिकय एक मोक्ष का अभिलाषी है, दूसरा स्वाधीनता को प्यार करता हैय एक इस संसार के सुख प्राप्त करने में निरुत्साह है, और दूसरा इसी पृथ्वी को स्वर्ग बनाने में सचेष्ट हैय एक नित्य सुख की आशा में इस लोक के अनित्य सुख की उपेक्षा करता है, दूसरा नित्य सुख में शंका करके अथवा उसको दूर जानकर यथासंभव ऐहिक सुख प्राप्त करने में उद्यत रहता है।’(विवेकानन्द, 1997) हालांकि स्वामी विवेकानन्द ने किसी नये सिद्धान्त या दर्शन का प्रतिपादन तो नहीं किया और न ही भारतीय समाज के लिए किसी वैकल्पिक संरचनात्मक प्रारूप का विकास ही किया, किन्तु दुनिया में हिन्दू धर्म और संस्कृति की प्रबल पैरोकारी जरूर की। वे दोहरा काम करते रहे। एक तरफ वे विश्व में भारत की धर्म पताका फहराते रहे, वहीं दूसरी ओर भारत के लोगों, समाज और धर्म का परिष्कार भी करते रहे। काल प्रवाह के साथ हिन्दू धर्म में आई बुराइयों से वे जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहे। स्वतंत्रता और समानता की अवधारणा पर आज यूरोपीय मुलम्मा जरूर चढ़ गया है, लेकिन विवेकानन्द ने उपनिषद् के दर्शन - ‘‘ईशावास्यं इदं सर्वम यत्किंच जगत्यांजगत’’ की प्रस्थापना का हवाला बार-बार देते हुए पश्चिम को स्वतंत्रता, समानता और एकता के सूत्र समझाते रहे। भारत में भ्रमण करते हुए उन्होंने बार-बार सामाजिक और धार्मिक बुराइयों का उल्लेख किया, लेकिन शिकागो सहित अपने तमाम भाषणों में वे इस्लाम और ईसाइयत को चुनौती देते हुए हिन्दू धर्म से सीख लेने का आह्वान करते रहे। भारतीयों को आह्वान करते हुए विवेकानन्द ने कहा- हमारे धर्म का यूरोप और अमेरिका में प्रचार होना चाहिए। आधुनिक विज्ञान ने ईसाई आदि धर्मों की भित्ति बिलकुल चूर-चूर कर दी है। इसके सिवाय, विलासिता ने तो धर्मवृत्ति का प्रायः नाश ही कर डाला है। यूरोप और अमेरिका आशा भरी दृष्टि से भारत की ओर ताक रहे हैं। परोपकार का यही ठीक समय है, शत्रु के किले पर अधिकर जमाने का यही उत्तम समय है। पश्चिमी देशों में नारियों का ही राज, नारियों का ही बल और नारियों की ही प्रभुता है। यदि वेदान्त जानने वाली तेजस्विनी और विदुषी महिलाएं प्रचार के लिए इंग्लैण्ड जाएं, तो मैं निश्चित कहता हूं कि प्रत्येक वर्ष सैकड़ों स्त्री-पुरूष भारतीय धर्म ग्रहण कर कृतार्थ हो जायेंगे। अकेली रमाबाई ही हमारे यहां से गयी थीं, अंग्रेजी भाषा, पश्चिमी विज्ञान और शिल्प आदि में उनका ज्ञान बहुत ही कम था, तो भी उन्होंने सबको चकरा दिया। यदि आप जैसी कोई पधारें तो इंग्लैण्ड हिल जायेगा, फिर अमेरिका की क्या बात है! स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूं कि यदि भारतीय नारियां देशी पोशाक पहने भारत के ऋषियों के मुँह से निकले हुए धर्म का प्रचार करें, तो एक ऐसी बड़ी तरंग उठेगी, जो सारी पश्चिमी भूमि को डुबो देगी। क्या मैत्रेयी, खना, लीलावती, सावित्री और उभयाभारती की इस जन्मभूमि में किसी और नारी को यह साहस नहीं होगा? प्रभु ही जानें! इंग्लैण्ड पर हम लोग धर्म के बल से अधिकार करेंगे, उसे जीत लेंगे - ‘‘नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’’ - इसे छोड़ और कोई दूसरा मार्ग ही नहीं। क्या कभी सभा-समितियों के द्वारा इस प्रतापी असुर का उद्धार हो सकता है? अपनी आध्यात्मिकता के बल पर हमें अपने विजेताओं को देवता बनाना होगा। इंग्लैण्ड, यूरोप और अमेरिका पर विजय पाना- अभी यही हमारा महामन्त्र होना चाहिए। इसी से देश का भला होगा। विस्तार ही जीवन का चिन्ह है, ओर हमें सारी दुनिया में अपने आध्यात्मिक आदर्शों का प्रचार करना होगा।(विवेकानन्द, 1997) दरअसल स्वामी विवेकानन्द एक तरफ तो पाश्चात्य के गुणों का अनुकूलन कर भारत को सशक्त और समृद्ध करना चाहते थे, वहीं प्राच्य की सीख पाश्चात्य को भी देना चाहते थे। कहना न होगा कि पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति का विवेकानन्द पर गहरा प्रभाव था। स्वामीजी के दृष्टिकोण में तर्कवाद और प्रगतिशीलता का एक बड़ा कारण पाश्चात्य चिंतन का प्रभाव था। उनमें एक तरफ जहां आध्यात्मिकता के प्रति जन्मजात प्रवृत्ति तथा प्राचीन धार्मिक प्रथाओं के प्रति आदर था, वहीं दूसरी ओर उनका प्रखर बुद्धियुक्त तार्किक स्वभाव था। बहुत समय तक विवेकानन्द के भीतर दोनों विचारों के बीच संघर्ष चलता रहा। बाद में स्वामी जी ने भारतीय और पाश्चात्य अर्थात् आध्यात्मिक और तार्किक विचारों में सामंजस्य का मार्ग विकसित किया। वे विश्वबन्धुत्व के वाहक बने। उनकी प्रेरणा और प्रयासों से अमेरिका में वेदान्त समिति की स्थापना हुई, थाउजैन्ड आइलैण्ड पार्क में अनेक अन्तरंग शिष्यों का मण्डल तैयार हुआ, राजयोग ग्रन्थ की रचना हुई। इंग्लैण्ड में अनेक व्यक्तियों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। हालांकि विश्व के समस्त धर्मों के आधारभूत वेदान्त के संदेश को पश्चिम में पहुँचाने में स्वामीजी का काफी समय और श्रम लगा, लेकिन भारत और दुनिया को उसका लाभ आज स्पष्ट दिख रहा है। संयुक्त राष्ट्र अमरिका में वेदान्त प्रचार कार्य को स्थायी आधार मिल गया। लन्दन में वेदान्त प्रचार के लिए अनुकूल वातावरण तैयार हुआ। स्वामी जी की यह धारणा दृढ़तर होती गई कि प्राच्य तथा प्राश्चात्य दोनों को पारस्परिक सहायता करनी चाहिए तथा दोनों में सहकारिता की वृद्धि होना जरूरी है। पाश्चात्य की भौतिक चमक-दमक उन्हें चकाचौंध नहीं कर सकी, लेकिन वे पश्चिम की इस चमक-दमक का उपयोग भारत की सामाजिक तथा आर्थिक निर्बलताओं को दूर करने में करना चाहते थे। भगिनी निवेदिता से उन्होंने एक बार कहा था- ‘‘पाश्चात्य में सामाजिक जीवन ब्राह्य उल्लास का ढेरमात्र है, किन्तु उसके नीचे छिपा है भीषण रुदन, उसकी समाप्ति होती है सिसकियों में ... और यहां भारतवर्ष में बाह्यतः दुःख और क्षोभ है, किन्तु अन्तस्तल में है ब्रेफ्रिकरी और आनन्द। पाश्चात्य ने बाह्य जगत् पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया, भारत ने अन्तर्जगत् पर। अब श्रेयस्कर यह है कि प्राच्य और पाश्चात्य दोनों हाथ में हाथ डालकर एक-दूसरे के हितसाधन में लगे, किन्तु इतना अवश्य है कि बिना एक दूसरे के वैशिष्ट को नष्ट किये। पाश्चात्य को प्राच्य से बहुत कुछ सीखना है और इसी प्रकार प्राच्य को पाश्चात्य से। असल में भविष्य गढ़ा जाये दोनों आदर्शों के समुचित सामंजस्य से। तब न प्राच्य रहेगा न पाश्चात्य, बल्कि रहेगी एकमात्र मानवता।’’ (स्वामी विवेकानन्द, 1997)। भारतीयों को संबोधित करते हुए स्वामीजी ने कहा था - पाश्चात्य जातियों से हम थोड़ा-बहुत सीख सकते हैं कि भोग में किस प्रकार सफलता मिल सकती है। किन्तु यह शिक्षा ग्रहण करते समय हमें बहुत सावधान रहना होगा। मुझे बड़े दुःख से कहना पड़ता है कि आजकल हम पाश्चात्य शिक्षा में शिक्षित जितने लोगों को देखते हैं, उनमें से एक का भी जीवन आशाप्रद नहीं है। इस समय हमारी एक ओर प्राचीन हिन्दू समाज और दूसरी ओर अर्वाचीन यूरोपीय सभ्यता है। इन दोनों में यदि कोई मुझसे एक को पसन्द करने के लिए कहे, तो मैं प्राचीन हिन्दू समाज को ही पसन्द करूंगा, क्योंकि अज्ञ होने पर भी, कुसंस्कार के घिरे होने पर भी, हिन्दू के हृदय में एक विश्वास है - उसी विश्वास के बल पर वह अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। भारत में रजोगुण का प्रायः सर्वथा अभाव ही है। इसी प्रकार पाश्चात्य में सत्वगुण का अभाव है। इसीलिए यह निश्चित है कि भारत से बही हुई सतवधारा के ऊपर पाश्चात्य जगत् जीवन का जीवन निर्भर रहता है, और यह भी निश्चित है कि तमोगुण को रजोगुण के प्रवाह से बिना दबाये हमारा ऐहिक कल्याण नहीं होगा और बहुधा पारलौकिक कल्याण में भी विघ्न उपस्थित होंगे। हमको अपने घर की सम्पत्ति सर्वदा सम्मुख रखनी होगी... और फिर संसार के चारों ओर से प्रकाश की किरणें आयें, पाश्चात्य का तीव्र प्रकाश भी आये! जो वीर्यवान है, बलप्रद है, वह अविनाशी है, उसका नाश कौन कर सकता है? विवेकानन्द ने अपने संदेश में हमेशा इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रीय जीवन मूल्य का आधार धर्म है-एक ऐसा धर्म जो समस्त विश्व के आध्यात्मिक ऐक्य का प्रचार करे और जब वह प्राप्त हो जाएगा तब हर चीज स्वतः सिद्ध अपने आप सुधर जायेगी। अपने देशवासियों की पाश्चात्य के प्रति अन्ध-अनुकरण-वृत्ति की भी उन्होंने तीव्र आलोचना की और इसी प्रकार लोगों की रूढ़िवादिता, जातिसंकीर्णता आदि आदि की भी। हिन्दू धर्म में वर्षों से हो रहे क्षरण के बावजूद ईसाइयत और इस्लाम के बरक्श हिन्दू श्रेष्ठता को स्थापित करने का उन्होंने सफल प्रयास किया। विवेकानन्द मूलतः एक धार्मिक व्यक्ति थे। दुनिया में उनकी ख्याति भी एक धार्मिक परिव्राजक के रूप में हुई। वे भारतीय धर्म-तत्व के व्याख्याकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। यह महज संयोग नहीं है कि यूरोप और अमेरिका को अब ईसाई और इस्लामिक दृष्टि के अतिरिक्त एक सर्वथा नई दृष्टि- ‘हिन्दू दृष्टि’ मिली है। अब वे स्वयं को हिन्दू दृष्टि से देखने लगे हैं। यूरोप और अमेरिका के विद्वान भारतीय दर्शन, चिंतन और तात्विक विवेचनाओं में अब पहले से अधिक रूचि ले रहे हैं, शायद भारतीय विद्वानों से भी अधिक। अमेरिका पुनः अपनी खोज में, अपनी पुनरन्वेषणा में लगा है, वह भी हिन्दू रीति-नीति से। अनेक पश्चिमी देशों में अपनी प्राचीन श्रेष्ठताओं का तलाशने और गर्व की अनुभूति का दौर शुरू हो चुका है। वे अब देख पाने की चेष्टा कर रहे हैं कि उनका पुराना पंथ बहुत गहरा था, उनमें भी आध्यात्मिक गहराई थी। वे अब यह जानने, समझने और मानने लगे हैं कि उनके पुरखे इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते थे कि मनुष्य का जन्म पापपूर्ण गर्भ में से ही हुआ है। बल्कि वे मानते थे कि चारों ओर व्याप्त एक महान आत्मा है और उसका महान रहस्य सब ओर व्याप्त है। पश्चिम के अनेक विद्वान अब हिन्दुओं की कही बातों में अपने प्राचीन चिंतन की समानता देखने लगे हैं। अब वे भी प्रकृति में संतुलन और सामंजस्य के नियम पर आस्थावन होने लगे हैं। बहुत कुछ हिन्दू चिंतन के करीब अपने को देखने, तलाशने की एक कोशिश शुरू हो चुकी है। वे अब हिन्दुओं की - ‘सर्वम खलु इदम् ब्रह्म’ की धारणा को स्वीकार करने लगे हैं। स्वामी विवेकानन्द भारत को विश्वगुरू के देखना चाहते थे। वे मानवीयता के श्रेष्ठता के पक्षधर थे। वे चाहते थे कि दुनिया के मानव श्रेष्ठ बनें। इसीलिए वे बार-बार भारत को आर्यावर्त के उद्घोष ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का स्मरण दिलाते रहे। वे इसे सफल होता हुआ देखना चाहते थे। वे यूरोप और भारत दोनों की तत्कालीन स्थिति और भविष्य के प्रति चिंतित थे। कई अवसरों पर स्वामीजी ने भारत और यूरोप-अमेरिका पर अपनी ऐतिहासिक श्रेष्ठताओं को भूलने का आरोप लगाया और प्राचीन गौरव को प्राप्त करने का संकल्प दिलाया। वे अपने भाषण में कहते हैं-‘यूरोप तथा अमेरिकावासी तो यवनों की समुन्नत, मुखोज्ज्वलकारी संतान हैं, पर दुःख है कि आधुनिक भारतवासी प्राचीन आर्यकुल के गौरव नहीं रहे। किन्तु राख से ढकी हुई अग्नि के समान इन आधुनिक भारतवासियों में छिपी हुई पैतृक शक्ति अब भी विद्यमान है। यथा समय महाशक्ति की कृपा से उसका पुनः स्फुरण होगा। भारत जबकि सदियों से विदेशी शासन से ग्रस्त था, यूरोप, इंग्लैण्ड और अमेरिका का वर्चस्व दुनिया में हावी था, ईसाइयत और इस्लाम का दबदबा दुनिया के सिर चढ़कर बोल रहा था। स्वामी विवेकानन्द का प्रयास एक युगान्तकारी पहल थी। बहुत समय बाद भारत लोगों के मन में स्वधर्म का स्वाभिमान जागृत हुआ। आज यूरोपीय देशों, इंग्लैण्ड और अमेरिका में हिन्दू धर्म का जो प्रभाव दिखता है उसकी पृष्ठभूमि में स्वामी विवेकानन्द के प्रयासों को नजरंदाज नहीं किया किया जा सकता। एक समय था जब अत्यन्त शुद्धतावादी विचारों के कारण भारतीय समुद्रपार जाने के खिलाफ थे। प्राचीन भारत में किन्हीं कारणों से समुद्रपार यात्रा के बारे में नकारात्मक या निषेधात्मक धारणाओं का उल्लेख मिलता है। शायद यही कारण रहा कि भारत के सनातन धर्म प्रचार-प्रसार समुद्रपारीय देशों में कम हो सका। प्राचीन हिन्दू समाज आर्यावर्त से बाहर न जा सका। धार्मिक और सांस्कृतिक विस्तार के मामले में हम बहिर्मुखी कम, अन्तर्मुखी ज्यादा रहे। आक्रमण न करना सुरक्षा की गारंटी नहीं होती। भारत धार्मिक व सांस्कृतिक मामलों में भी सदैव सुरक्षात्मक ही रहा, जबकि अन्य सभ्यताएं साम्राज्य की ही दृष्टि से नहीं, अपितु मतों के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से भी आक्रामक ही रहीं। किन्तु विवेकानन्द ने उस मिथक को तोड़ने का काम किया। उन्होंने पश्चिम के लोगों पर हिन्दू धर्म की अमिट छाप छोड़ी थी। पहले आचार्य रजनीश, महर्षि महेश योगी और आज आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर, योग गुरू बाबा रामदेव, इस्कॉन, चैतन्य स्वामी मठ या अन्य आध्यात्मिक व्यक्तियों व संगठनों की जो धाक् पाश्चात्य देशों में दिखाई देती है उसकी पार्श्व भूमि स्वामी विवेकानन्द का व्यक्तित्व और कृतित्व ही है। विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म की सरल और स्वीकार्य व्याख्या की। दुनिया में हिन्दू धर्म को प्रतिष्ठित किया। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया के अनेक देशों में हिन्दू धर्म की पताका फहरा रहा है तो इसके पीछे भी स्वामीजी के योगदान को श्रेय दिया जाना चाहिए। उल्लेखनीय बात यह है कि यूरोप, इंग्लैण्ड और अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों में गरीब, निर्धन या लाचार हिन्दू धर्म के प्रति आकर्षित नहीं हो रहे, बल्कि वहां का अभिजात्य, सम्पन्न और बुद्धिजीवी हिन्दू धर्म स्वीकार कर रहा है। कुछ वर्ष पूर्व हॉलीवुड अभिनेत्री जुलिया राबर्ट्स ने हिन्दू धर्म स्वीकार किया। इसी प्रकार अमेरिका के विद्वान डेविड फ्रॉली ने हिन्दू धर्म अपना लिया। अब वे वामनदेव शास्त्री हो गये हैं। वे दुनिया में वैदिक परम्परा के प्रमुख बुद्धिजीवी माने जाते हैं। वामदेव शास्त्री अमेरिका में ‘अमेरिकन वैदिक इन्सट्टीयूट’ का संचालन करते हैं। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। अमेरिकी समाज हिन्दू धर्म को सनातन जीवन पद्धति से जोड़कर देखने लगा है। विवेकानन्द पहले भारतीय थे जिन्होंने अमेरिका को पहली बार हिन्दू धर्म से प्रत्यक्ष अवगत कराया। हालांकि इसके काफी पहले ही राल्फ वाल्दो इमर्सन ने हिन्दू धर्म का पाठ अमेरिका में किया था। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिकी धरती पर जिस आध्यात्मिकता की शुरूआत की वह कालान्तर में एक प्रवाह बन गई। यह प्रवाह निरन्तर है। आज सामान्य अमेरिकी भी बड़े पैमाने पर हिन्दू जीवन पद्धति अपना रहा है। अमेरिकी लाग दु्रत गति से उदारमना होते जारहे हैं...और यह महान् राष्ट्र शीघ्रता से उस आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होता जा रहा है, जिसका हिन्दुओं को गौरवपूर्ण अभिमान है। (रंगनाथानन्द, 1985)। दरअसल विश्व को भारतीय दृष्टि से देखना भी वैश्विक संतुलन एवं ऋत तथा सत्य की दृष्टि से आवश्यक है और यह हमारा स्वधर्म भी है। दुनिया में ईसाई और इस्लाम का विस्तार तो हो रहा है, लेकिन जीवन पद्धति के नाते यह व्यक्तिगत स्तर पर बड़े पैमाने पर अस्वीकृत हो रहा है। इसके विपरीत हिन्दू जीवन पद्धति का दुनिया में तीव्र विस्तार भले न हो रहा हो, लेकिन विभिन्न वर्गों में व्यक्तिगत स्तर पर यह बड़े पैमाने पर स्वीकार्य और ग्राह्य हो रहा है। भले ही व्यक्तिगत या संस्थागत तौर असंगठित प्रयास ही हो रहा हो, लेकिन हिन्दू जीवन पद्धति के प्रचार-प्रसार की निरन्तरता समकालीन वैश्विक संदर्भों में एक बड़ी उपलब्धि है। भारत ही नहीं, दुनिया के विद्वान मानने लगे हैं कि आज की छोटी-बड़ी लगभग सभी समस्याओं का समाधान हिन्दू जीवन पद्धति में है। आवश्यकता है इसे ईमानदारीपूर्वक आजमाने की। भारत के राष्ट्रवादियों द्वारा यह कहा जाना अतिश्योक्तिपूर्ण हो सकता है कि दुनिया की सभी समस्याएं अपने अंतिम चरण में भारत में आती हैं, अपने खात्मे के लिए। इसलिए चाहे वह आर्थिक विकास का प्रारूप हो या सामाजिक-सांस्कृतिक उन्नति का मार्ग, हिन्दू जीवन पद्धति एक सफल प्रयोग सिद्ध हो रहा है। आतंकवाद, कट्टरता, साम्प्रदायिक उन्माद, शोषण, गरीबी, असमानता और युद्ध जैसी अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं का समाधान भारतीय या हिन्दू जीवन पद्धति में प्रत्याशित है। क्योंकि ‘वसुधैव कुटुम्बकम््’ और ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं, दोनों वैदिक उद्घोषणाएं हैं। इन उद्घोषणाओं का पूर्ण होना, साकार होना विश्व मानवता के लिए शुभ है। यह विश्व सभ्यता के लिए आवश्यक भी है। यह हमारी मानवता के प्रति जिम्मेदारी भी है। स्वामी विवेकानन्द ने अपने दायित्व का निर्वहन बखूबी किया। उनकी प्रेरणाएं हमें उद्वेलित करती हैं कि विश्व मानवता को श्रेष्ठ बनाने के लिए हम अपने गुरुतर दायित्व का निर्वहन करें। स्वामी विवेकानन्द की सार्ध शती वर्ष में हर भारतीय के लिए यह संकल्प का अभिनव अवसर है। संकल्प - ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का। (लेखक मीडिया एक्टिविस्ट हैं) संदर्भ: स्वामी विवेकानन्द 1997 हे भारत! उठो! जागो! रामकृष्ण मठ नागपुर स्वामी विवेकानन्द 1997 हे भारत! उठो! जागो! रामकृष्ण मठ नागपुर स्वामी रंगनाथानन्द 1985 स्वामी विवेकानन्द का मानवतावाद अद्वैत आश्रम कलकत्ता रामस्वरूप, 2007 योग की अध्यात्म विद्या एवं सेमेटिक धर्मपंथ प्रो. रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’ (अनूदित एवं संपादित) भोपाल, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी

रविवार, 1 दिसंबर 2013

8 दिसंबर तक रहस्य, चुप्पी और जीत के दावे

मध्यप्रदेश में 25 दिसंबर को सांय 5 बजे मतदान समाप्त हो गया। मतदान के बाद प्रचार और पार्टियों की सक्रिय खत्म हो गई, लेकिन जीत के दावे, मतों के रहस्य, और चुप्पी बरकरार है। दावों के साथ अनुमानों का दौर भी जारी है। यह सब कुछ 8 दिसंबर तक चलेगा। इसी दिन सभी जनमत सर्वेक्षणों, मतदानपूर्व सर्वे, पार्टियों के दावों और राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमानों की पोल भी खुल जायेगी। फिर मतदान बाद की स्थितियों के विश्लेषण, जीत का जश्न और हार के बहानों का सिलसिला भी शुरू होगा। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में कुल 4,64,47,767 मतदाताओं में से 72.58 प्रतिशत ने अपना मत दिया है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही अंतिम समय में प्रत्याशी तय किए। इस बार के चुनाव में कमोबेश दोनों ही बड़ी पार्टियों के कार्यकर्ताओं के उत्साह में कमी देखने को मिली। राजनीतिक विश्लेषक भी यह बता रहे हैं कि चुनाव आयोग ने जिस प्रकार से मतदाता जागरूकता का अभियान चलाया उसके बाद यह अनुमान था कि मध्यप्रदेश में भी छत्तीसगढ़ की तरह 75 फीसदी से अधिक मतदान होगा। लेकिन दोनों बड़ी पार्टियों के कार्यकर्ताओं में अपेक्षाकृत कम उत्साह और सक्रियता ने मतदान के अनुमानों पर पानी फेर दिया। इस प्रकार 1998 में जहां 60.22 प्रतिशत मतदान हुआ, वहीं 2003 में 67.25 प्रतिशत और 2008 में 69.78 प्रतिशत। 2013 के विधानसभा चुनाव में मात्र 2.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी सामान्य ही मानी जायेगी। यह बढ़ोतरी भी युवा और नये मतदाओं के कारण है। राजनीतिक विश्लेषकों के द्वारा अपेक्षा और अनुमान के मुताबिक मतदान में बढ़ोतरी न होना सत्ता विरोधी भावना के बेअसर होने के तौर पर देखा जा रहा है। इसी प्रकार बढ़े हुए मतदान पर शिवराज और नरेन्द्र मोदी का प्रभाव देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि युवाओं में ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रति आकर्षण तो है, लेकिन शिवराज सिंह चौहान और नरेन्द्र मोदी जैसा प्रभाव नहीं। राजनीतिक दलों के सार्वजनिक दावों से अलग आंतरिक मूल्यांकन, खुफिया रिपोर्ट और विश्लेषकों के अनुमानों का गणित यह बता रहा है कि भाजपा के मतों और सीटों में कुछ कमी तो होगी, लेकिन लगभग 120 सीटों के साथ भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में होगी। कांग्रेस के मतों और सीटों में कुछ वृद्धि हो सकती है। लेकिन कांग्रेस 100 सीटों के भीतर ही रहेगी। बाकि बचे 10-15 सीटों पर बसपा, सपा और निर्दलियों की दावेदारी रहेगी। भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने भी भाजपा सरकार की दावेदारी करते हुए कुछ मंत्रियों के चुनाव हारने की आशंका भी व्यक्त की है। जबकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर ने भाजपा द्वारा पिछली बार से अधिक सीटें जीतने और सरकार बनाने का दावा किया है। उन्होंने इस आशंका को सिरे से अस्वीकार कर दिया है कि भाजपा का कोई मंत्री कड़े मुकाबले में है, या किसी पर हार का संकट है। कांग्रेस ने 130 से अधिक सीटें जीतने का दावा किया है। हालांकि 2008 में भाजपा ने दूसरी बार जीत हासिल कर सरकार का गठन किया था और कांग्रेस के मतों और सीटों में वृद्धि हुई थी। कांग्रेस का लगभग एक प्रतिशत वोट बढ़ने के साथ सीटें 38 से बढ़कर 71 हो गई। गौरतलब है कि पिछले चुनाव में जहां भाजपा के सात और कांग्रेस के 20 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी। मध्यप्रदेश में हर बार की तरह इस बार भी मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है। लेकिन चुनावी निर्णय के बाद यह भी पता चलेगा कि भाजपा और कांग्रेस के कितने प्रत्याशियों की जमानत जब्त होती है। गौरतलब है कि 2008 में कुल 3179 प्रत्याशियों में से 2654 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी। इस बार विधानसभा चुनाव में मुददों पर आरोप-प्रत्यारोप और चेहरे हावी रहे। भाजपा ने शिवराज के चेहरे और सरकार की उपलब्धियों तथा कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के घोटालों, भ्रष्टाचार और महंगाई को मुद्दा बनाने की कोशिश की थी, वहीं कांग्रेस ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पर आरोप को ही अपना मुख्य मुददा बना दिया था। हालांकि कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया का चेहरा आगे करने की कोशिश की, लेकिन वह कांग्रेस क्षत्रपों के चेहरों में ओझल हो गया। आमजनता और विश्लेषकों की माने तो मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, नरेन्द्र मोदी और स्थानीय एन्टी-इनकम्बेंसी सबसे बड़ा मुद्दा रहा। न तो कोई लहर, न ही कोई अंडर करेंट। मतदाताओं ने विश्लेषकों के लिए भी सटीक आंकलन और अनुमान के लिए बहुत कम गुंजाईश छोड़ी है। अनिल सौमित्र भोपाल से

कलह, बगावत और असंतोष ने बिगाड़ा कांग्रेस का खेल

तोड़-फोड़, प्रदर्शन, इस्तीफा और आत्महत्या पर उतारू हुए कांग्रेसी
भोपाल। जैसे ही कांग्रेस प्रत्याशियों की अंतिम सूची जारी हुई असंतुष्ट नेताओं-कार्यकताओं का गुस्स फूट पड़ा। बड़े नेताओं पर अपने चहेतों को टिकट दिलाने और टिकटों की सौदेबाजी करने का आरोप लग रहा है। अनेक जिलों में नेताओं-कार्यकर्ताओं द्वारा इस्तीफे का दौर शुरू हो गया है। प्रदेश कांग्रेश उपाध्यक्ष माणक अग्रवाल ने अपने पद से इस्तीफा देते हुए कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचौरी पर गंभीर आरोप लगाए हैं। मानक अग्रवाल ने सुरेश पचौरी पर हमला बोलते हुए अरोप लगाया िकवह टिकट खरीदने और बेचने का काम करते हैं। पटलवार करते हुए पचौरी ने कहा कि घटिया लोग घटिया बातें करते हैं। पिछड़ा वर्ग विभाग के प्रदेशाध्यक्ष राजेन्द्र गेहलौत और अल्पसंख्यक विभाग के अनेक पदाधिकारियों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। सिंगरौली जिले में देवसर ब्लॉक कांग्रेस के सभी पदाधिकारियों ने गलत व्यक्ति को टिकट देने के विरोध में सामूहिक इस्तीफा दे दिया है। पवई विधानसभा क्षेत्र से घोषित प्रत्याशी अनिल तिवारी ने अपना टिकट बदलने और मुकेश नायक को टिकट देने के विरोध में पार्टी ही छोड़ दी है। अब वे सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। पखवाड़े पहले कांग्रेस में शुरू हुआ प्रदेशव्यापी अन्तर्कलह अपने चरम पर आ पहंचा। बड़े नेताओं ने एक-दूसरे पर टिप्पणी करने में नैतिकता और मर्यादा को तक पर रख दिया। कांग्रेस के दिग्गज दूसरे दलों का दमन थामने में सबसे आगे हैं। टिकट नहीं मिलने से क्षुब्ध आगर विधानसभा क्षेत्र से दावेदारी कर रहे कांग्रेस नेता नरसिंह मालवीय ने विषपान कर आत्महत्या कर ली। वे कांग्रेस के सचिव थे। मालवीय के समर्थकों ने सांसद प्रेमचन्द गुड्डु का पुतला जलाया। जावद में नाराज कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने सांसद मीनाक्षी नटराजन को गांधी भवन में बंद कर दिया। इंदौर के जिला प्रमोद नारायण टंडन को भी कार्यकर्ताओं के विरोध का समाना करना पड़ रहा है। नाराज कांग्रेसियों ने उनका भी पुतला फूंका। हफ्ते भर पहले भाजपा से कांग्रेस में आए देवेन्द्र पटेल को टिकट देने के कारण मामले ने इतना तूल पकड़ा कि विरोध में कार्यकर्ताओं ने प्रदेश कार्यालय में भारी तोड़-फोड़ की। इसके पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया की भतीजी कलावती भूरिया ने भी टिकट के लिए दबाव बनाने के लिए सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था। मालवा क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण जिले इंदौर में भी कांग्रेस का अंतर्कलह उफान पर है। इंदौर के लगभग सभी ९ सीटों पर कांग्रसे के प्रत्याशी का विरोध हो रहा है।

सभी परिवर्तनों के वाहक और साधक बनेंगे युवा

अनिल सौमित्र दुनिया में सृजन और विकास के साथ-साथ विनाश भी हो रहा है. शान्ति और अशांति, दोनों के लिये बहुविध प्रयास हो रहे हैं. दोनों तरह के प्रयासों में लगे लोगों में बहुतायत उनकी है जो युवा हैं. युवा वे हैं जो मन, बुद्धि और शरीर से जवान हैं, तरोताजा हैं. भारत में समस्याएँ और चुनौतियाँ दुनिया की ही तरह मुंह बाए खड़ी हैं. यहाँ भी वे सब कुरीतियाँ हैं जो दुनियाभर में मानवीय सभ्यता को बेचैन किये हैं. यहाँ गरीबी है, भूखमरी है, बेकारी है, अशिक्षा है, बेरोजगारी है, अनुशासनहीनता है, अनैतिकता है. वह सबकुछ है जो किसी मुल्क या समाज को उसके अंत की ओर ले जाती है. लेकिन यही क्यों, और भी बहुत कुछ है. युवा है, हौसला है, उत्साह है, ऊर्जा है, संकल्प है, और सबसे अधिक है चुनौती को अवसर में बदल देने का माद्दा. यह है इसलिए दुनिया का, इस मानव सभ्यता का अस्तित्व है. युवा शक्ति, सिर्फ भारत के लिये नहीं अपितु दुनिया के लिये भी महत्वपूर्ण है. युवा, ऊर्जा का स्रोत है, ऊर्जा का भण्डार है. युवाओं की अपनी आकांक्षाएँ जरूर होंगी, लेकिन भारत राष्ट्र को भी उनसे अनेक अपेक्षाएं हैं. भारत को अगर दुनिया का नेतृत्व करना है तो वह युवाशक्ति के बल पर ही संभव है.
देश-दुनिया में ऐसे कई आंदोलन, ऐसी कई क्रांतियां हुई हैं, हो रही हैं जिसके वाहक और साधक युवा ही हैं. युवाशक्ति ही उसके केन्द्र में है। चाहे आतंकवादी हों या सुरक्षाकर्मी- सेना, पुलिस के सिपाही, युवा ही होते हैं. वैज्ञानिकों-चिकित्सकों की बहुसंख्या भी युवा ही है. फिर अपराध करने वालों में भी युवा ही अधिक हैं. राजनीति, विकास, श्रम, समाज-संस्कृति सबकुछ युवाओं के ही भरोसे है. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन से लेकर भ्रष्टाचार की मुखालफत का 'अन्ना-आंदोलन' तक युवा केंदित रहा है. भारतीय राजनीति युवा शक्ति के प्रभाव का अनुभव सन् 1977, 1980 और 1989 के लोकसभा चुनावों में कर चुकी है. इसमें युवाशक्ति की भूमिका अहम और निर्णायक रही है. यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि भविष्य तो युवाओं का है ही, वर्तमान भी उन्हीं का है. युवाओं में जोश है, जूनून है. वह असीमित उर्जा का भंडार है. कुछ सकारात्मक करने की ललक, संकल्प और प्रेरणा मिल जाये तो भारत को स्वर्णिम होने और दुनिया का सरताज बनाने से कोई रोक नहीं सकता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोळवलकर ने युवकों को संबोधित करते हुए कहा था- हम अपनी सम्पूर्ण शक्ति से देशभक्ति की यह ज्योति जगाएं. उसे देशव्यापी व प्रखर बनाएँ. उस प्रकाश में सम्पूर्ण अज्ञानान्धकार लुप्त हो जाएगा. वह प्रकाश दुनिया की समस्त आसुरी शक्तियों को चुनौती देगा, दृढ नींव पर अजेय खड़ा रहेगा और सम्पूर्ण दुनिया को सिद्ध कर देगा कि हम इस श्रेष्ठ राष्ट्र के सुपुत्र हैं. केवल इसी मार्ग से हम सफल हो सकते हैं. केवल वही राष्ट्र प्रगति में अग्रणी होता जहाँ की युवाशक्ति अपनी क्षमता का एक-एक कण राष्ट्र की प्रगति के लिये दांव पर लगाती है. मैं आग्रह करता हूँ कि स्वयं को प्रसिद्धि, संपत्ति अधिकार की अभिलाषा को देश की वेदी पर न्यौछावर करें इसी में देश की समृद्धि, स्वयं एवं समाज का गौरव है. देश के युवाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में अनेक मील के पत्थर स्थापित किये हैं. वर्त्तमान में तो प्रौद्योगिकी एक ऐसा क्षेत्र है जो युवाओं की पहचान बन गयी है. युवाओं ने साफ्टवेयर विकास और निर्माण में भारत को एक नई पहचान दी है. देश में युवाओं की लगातार बढ़ती अहमियत अब कोई नई बात नहीं रह गई है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और बौद्धिक क्षेत्र में युवा ही अनेक चुनौतियों से लोहा ले रहा हैं और अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रहा है। वे हर तरफ, हर जगह अपनी क्षमता और दक्षता का सबूत दे रहे हैं। कोई भी सामाजिक-राजनैतिक संगठन युवाओं को नजरंदाज नहीं कर सकता। यह तथ्य भारत और संपूर्ण दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है कि एक दशक के बाद एक औसत भारतीय की उम्र सिर्फ 29 साल होगी। जबकि औसत चीनी और अमेरिकी नागरिक 37 साल का होगा। इसी दरम्यान यूरोप में यह औसत उम्र 45 और जापान में 48 वर्ष होगी। जाहिर है कि सभी सरकारों और संगठनों से यह अपेक्षा स्वाभविक ही होगी कि इतनी महत्वपूर्ण आबादी को प्राथमिकता सूची में सबसे उपर रखें। हालांकि दुनिया में युवकों की संख्या कभी भी बहुत अधिक नहीं रही। किन्तु हर दस में से नौ युवा विकासशील देशों में हैं। हमारा सौभाग्य है कि आज दुनियाभर में भारत सर्वाधिक युवा देश है, क्योंकि यहां की 55 प्रतिशत आबादी युवा है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था- ‘‘मेरा विश्वास आधुनिक पीढ़ी में है। उसमें से मेरे कार्यकर्ता आयेंगे और सिंह के समान सभी समस्याओं का समाधान करेंगे।’’ अनेक विविधताओं के कारण युवा आबादी में भी कई प्रकार की विभिन्नताएं विद्यमान हैं। यही कारण है कि इनका प्रबंधन या नियोजन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। युवा उर्जा को अगर उचित तरीके से नियोजित नहीं किया गया तो यह समस्या भी बन सकती है। उम्र के आधार पर युवा वर्ग का निर्धारण कर भी लें तो क्षेत्रीय (ग्रामीण-शहरी), आर्थिक, सामाजिक (जातीय), सांप्रदायिक और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के कारण इनके लिए किसी नीति या योजना का निर्माण सरल नहीं है। युवाओं के बीच ही समता और समानता एक बड़ा सवाल है। प्रदेश के युवाओं को संस्कार, शिक्षा, प्रशिक्षण, कौशल उन्नयन और क्षमता विकास के द्वारा न सिर्फ रोजगार दिया जा सकता है, बल्कि युवा उर्जा के इस अक्षय भंडार को समाज, राष्ट्र और प्रदेश के विकास के लिए सदुपयोग हो सकता हैं। वक्त का तकाजा है कि युवाओं को नालायक समझने की भूल न की जाए, बल्कि उन्हें और अधिक लायक बनाने की कवायद हो। सरकारों और नीति-निर्माताओं को यह विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी कौन-सी परिस्थितियां हैं, जो इस पीढ़ी को उनके उद्देश्यों से विमुख कर देती है, उन्हें असंयमित और अनुशासनहीन बना देती है। ब्रिटिश शासन काल के मंदी के दौर में भी लूट-पाट एवं हिंसा की घटनाएं कम ही होती थी। क्योंकि तब समाज में आदर्शो के प्रति गहरा मूल्यबोध था। मूल्यों का अंकुश समाप्त हो जाने के कारण हिंसा और लूटपाट की घटनाओं का विस्फोट स्वाभाविक है। टी.वी., फिल्मों और साहित्य ने अवांछित तत्वों के प्रति रोमांच और आकर्षण पैदा किया है। जिसके कारण युवाओं में भी काल्पनिक जीवन जीने की लालसा पैदा हुई है। अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई, बेरोजगारी, सामाजिक रिश्तों का अभाव, पारिवारिक विघटन, उपभोगवादी संस्कृति का प्रसार, कानून व्यवस्था के प्रति घटता सम्मान और टूटते सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों ने युवकों के भीतर निराशा पैदा कर दी है, अनेक युवा दिग्भ्रमित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में युवाओं को सही मार्गदर्शन, सक्षम नेतृत्व और समाज व सरकार के स्तर पर समुचित सहयोग के द्वारा ही बेहतर परिणाम की अपेक्षा की जा सकती है। उनकी ऊर्जा और क्षमता को सदमार्ग, सही दिशा और निश्चित लक्ष्य की जरूरत है. अर्नाल्ड टॅायनबी ने अपनी पुस्तक ‘सरवाइविंग द फ्यूचर’ में नव-जवानों को सलाह देते हुए लिखा है कि ‘मरते दम तक जवानी के जोश को कायम रखना।’ जो राजनीति में होता है वही साहित्य और कला के क्षेत्र में भी होता है। नवयुवकों का दिमाग उपजाऊ जमीन की तरह होता है, उन्नत विचारों के बीज बो दें तो वही ऊग आते हैं। इसीलिए ऐथेंस के शासकों को सुकरात का भय था कि वह नवयुवकों के दिमाग में अच्छे विचारों के बीज बोने की क्षमता रखता था। आज इस पीढ़ी के दिल-ओ-दिमाग में विचारों के बीज पल्लवित कराने वाले दिनोंदिन घटते जा रहे हैं। हर क्षेत्र में, चाहे वह कला, संगीत और साहित्य का हो, राजनीति और विज्ञान का हो, उसमें नई प्रतिभाएं उभरती रहती हैं। प्रश्न यह है कि क्या हम उन्हें उभरने का पूरा मौका देते हैं? युवाओं के लिये वर्ष 2013-14 काफी महत्वपूर्ण है. अन्य कारणों के अलावा दो महत्वपूर्ण कारण हैं. पहला कारण है- युवाओं के आदर्श स्वामी विवेकानंद के जन्म की सार्ध सदी और दूसरा कारण है भारत में होने वाला लोकसभा का निर्वाचन. आने वाला समय राजनैतिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आगामी लोकसभा चुनाव के परिणाम नये भारत के निर्माण के लिये निर्णायक होंगे. एक सशक्त, स्वावलंबी और सक्षम भारत के लिये साहसी और पराक्रमी नेतृत्व की जरूरत आ पडी है. भारतीय राजनीति, अर्थनीति और समाजनीति में व्यवस्था परिवर्तन की मांग है. इस मांग को भारत का युवा ही पूरा कर सकता है. आकडों के अनुसार दुनिया में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है, तो भारत में तरुणों की. दुनिया बूढ़ी हो रही है, भारत जवान हो रहा है. लेकिन इस जवान और ऊर्जा से भरपूर भारत को विवेकशील भी होना होगा. यहाँ का लगभग ३५ प्रतिशत मतदाता युवा है. इसीलिये लगभग सभी राजनीतिक दल युवा मतदाताओं पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. सबको मालूम है यही युवा देश भविष्य को गढ़ने वाला है. जो राजनीतिक दल युवाओं के मनोविज्ञान को समझ सकेगा, उसकी आशा-अपेक्षाओं को पढ़ सकेगा, वही युवाओं के समर्थन का हकदार होगा. देश की सरकारों, राजनीतिक दलों और संगठनों को समझना होगा कि युवा अगर हिंसक और आक्रामक हो रहा है तो कहीं-न-कहीं उनकी भी असफलता है. नीतियों, कार्यक्रमों और गतिविधियों में जरूर कोई कमी रही है. हालांकि केन्द्र और राज्यों की सरकारों ने युवा विकास की दृष्टि से काफी प्रयास किए हैं, किन्तु ये सभी प्रयास नाकाफी सिद्ध हुए हैं। अब समय आ गया है कि युवाओं के समझाने की बजाये, पहले उनको समझा जाए. युवा ऊर्जा के सकारात्मक उपयोग के लिये सुदीर्घ नीति, योजना और रणनीति बने. युवा वर्ग स्वयं भी ज्ञान अर्जित करने में दो कदम आगे है. भारत में साक्षरता और ज्ञान का स्तर लगातार बढ़ रहा है. युवाओं को एक बार यह विश्वास हो गया कि उनके ज्ञान, कौशल और श्रम का सदुपयोग होगा तो वे अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार होंगे. बशर्ते वे जिन्हें अपना आदर्श और नेता मानते हैं वे फिर उन्हें निराश न करें. भारत में करोड़ों युवाओं को सक्षम, योग्य और कुशल बनाने के विज्ञान और प्रौद्योगिकी का अभाव है. दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जरूर यह दावा करता है कि उसके पास युवाओं को आवश्यकतानुसार ढालने और गढने का विज्ञान है, प्रौद्योगिकी भी है और साफ्टवेयर भी. कहने को तो आरएसएस स्वयं संगठन का विज्ञान है. संघ की शाखा युवा स्वयंसेवकों के निर्माण की प्रौद्योगिकी और शाखा के विविध कार्यक्रम विभिन्न साफ्टवेयर हैं जिसके माध्यम से समाज और राष्ट्र जीवन के लिये अनेक प्रकार के गुणों से युक्त युवाओं का निर्माण होता है. संघ ने इस प्रकार तकनीक की भाषा में स्वयं को व्यक्त किया है. लेकिन सच्चाई यह भी है कि जिस अनुपात में युवाओं की तादाद बढ़ रही है, उस अनुपात में आरएसएस के प्रयास भी कम पड़ रहे हैं. क्योंकि आतंकवादी और नक्सली संगठन, दूसरे देशों के दुश्मन संगठन भी प्रतिगामी शक्तियों का विस्तार कर रहे हैं. सूचना और संचार तकनीक ने युवाओं में बड़े पैमाने पर नकारात्मक बदलाओं को विकसित किया है. ऐसी स्थिति में चुनौती को अवसर में बदलने वाली युवा शक्ति स्वयं एक चुनौती बनकर देश-समाज के सामने खडी है. अधिकाँश युवा स्वयं के बारे में पहले सोचता है, देश-समाज के बारे में बाद में. इस लिहाज से आज एक ऐसे विज्ञान की सबसे अधिक जरूरत है जो युवाओं को राष्ट्रनिष्ठ बना सके. एक ऐसी प्रौद्योगिकी जो युवाओं को अनुशासित, नैतिक और विवेकशील बना सके. एक ऐसे साफ्टवेयर की जरूरत है जो युवाओं को देश और समाज की आवश्यकता के अनुसार ढाल सके, गढ़ सके. कहना न होगा कि आज देश को एक नए उपकरण की जरूरत है जो युवाओं को सक्षम, कुशल और योग्य बना सके. ताकि ज्येष्ठ और श्रेष्ठ युवा पिछड़े, दरकिनार कर दिए गए युवाओं को साथ लें, उनका विकास करें और उन्हें भी क्षमतावान बनाएँ. यह समय की मांग है. देश, काल और परिस्थिति के लिये आवश्यक भी. अगर ऐसा हो सका तभी सबल, सक्षम और समर्थ भारत का निर्माण हो सकेगा. तभी भारत अपनी समस्याओं से निजात पा दुनिया को समस्याहीन करेगा. तभी स्वामी विवेकानन्द का कहा साकार होगा कि - यह देखो, भारतमाता धीरे-धीरे आँखें खोल रही हैं. वह कुछ ही देर सोयी थी. उठो, उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवान्वित करके भक्तिभाव से उसे उसके चिरन्तन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो! (लेखक मीडिया एक्टिविस्ट हैं)

नक्सलियों के लिए नये स्वर्ग का निर्माण

कांग्रेस कार्यसमिति और यूपीए समन्वय समिति द्वारा अलग तेलंगाना राज्य के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने के बाद 'पृथक तेलंगाना राज्य' का गठन तय हो गया है. कांग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह के अनुसार हैदराबाद पहले दस साल तक दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी रहेगा. लेकिन राज्य के बँटवारे के विरोध में भी प्रदर्शन हो रहे हैं. समर्थन और विरोध दोनों जोरों पर है. दूसरी तरफ तेलंगाना के अलग राज्य बनने की घोषणा के साथ ही अन्य छोटे राज्यों की दबी माँग भी तेज़ हो गयी है. पृथक विदर्भ, गोरखालैंड, बोडोलैंड, बुंदेलखंड, हरित प्रदेश, मिथिलांचल और पूर्वांचल आदि की मांग भी उठाने लगी है.
तेलंगाना के इतिहास पर गौर करने से स्पष्ट है कि एक पृथक राज्य बनने की राह में सबसे बड़ी रुकावट स्वयं कांग्रेस पार्टी रही है. खुद तेलंगाना के कांग्रेस भी यह स्वीकार करते हैं कि इस मामले में इंदिरा, नेहरू से बड़ी विरोधी थीं. कांग्रेस ने तेलंगाना समर्थक हर आवाज को हमेशा दबाने की कोशिश की, भले ही वह आवाज स्थानीय कांग्रेस के नेताओं ने ही क्यों न उठाई हो. कांग्रेस हर बार अलग राज्य बनाने का वादा करती रही और हर बार मुकरती रही. इस मामले में कांग्रेस तेलंगाना के लोगों और नेताओं के साथ लंबे समय से छल करती रही है. वामदल और भाजपा वैचारिक विरोधों के बावजूद तेलंगाना के समर्थक रहे हैं. भाजपा ने 1998 के चुनाव से पहले अलग तेलंगाना का वादा किया था. भाजपा ने बार-बार कहा है कि केंद्र में एनडीए की सरकार बनने पर वह तेलंगाना राज्य की स्थापना का कदम उठाएगी. वाम दलों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को छोडकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित सभी दल तेलंगाना के समर्थन में हैं. उल्लेखनीय है कि शोषण से मुक्ति, जातीय और भाषाई अस्मिता तथा सांस्कृतिक पहचान के साथ ही स्थानीय संसाधनों की लूट और आर्थिक पिछड़ेपन से मुक्ति पृथक राज्यों की मांग का मुख्य आधार रहा है. राजनीतिक चेतना ने शोषण की पीड़ा और लुप्त होती अस्मिता को आवाज दी है. देश के अनेक राज्यों और जिलों में नक्सली आंदोलन का आधार भी कमोबेश यही मुद्दे रहे है. तेलंगाना के सन्दर्भ में माओवादी आंदोलन अत्यंत महत्वपूर्ण है. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बन्दूक के बल पर यह देश पर शासन करने का इरादा रखता है. इसके लिए बकायदा उसने एक कार्ययोजना बना रखी है और उसपर प्रभावी अमल भी कर रहा है. इंस्टीटयूट ऑफ़ कनफ्लिक्ट मेनेजमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार 21 सितम्बर 2004 को पीडब्लूजी और एमसीसी के औपचारिक विलय के बाद माओवादियों का प्रभाव 13 राज्यों के 156 ज़िलों में फैल चुका है. यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) के नाम से देश में युद्धरत माओवादियों का रणनीतिक केंद्र तेलंगाना ही है. माओवादी यहीं से पशुपति से तिरुपति तक फैले अपने रेडकारिडोर को अमलीजामा पहनाना चाहते है. यह महज संयोग नहीं है कि सभी बड़े माओवादी नेता इसी तेलंगाना क्षेत्र के है. समूचे माओवादी आतंक पर उनका ही एकछत्र राज है. केंद्रीय गृहमंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार झारखंड, बंगाल, उडीसा, छात्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और आँध्रप्रदेश में फैला माओवाद आज भी इसी क्षेत्र से संचालित है. तेलंगाना के निकटवर्ती राज्य आज भी माओवादी हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हैं. सीपीआई (माओवादी) पोलित ब्यूरो के अधिकांश सदस्य सहित महासचिव मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति और मिलिट्री कमांडर कट्टा सुदर्शन भी इसी तेलंगाना क्षेत्र के हैं. कई प्रतिवेदनों में इस बात का संकेत मिलता है कि तेलंगाना के माओवादी संगठन पर अपना वर्चस्व कायम रखना चाहते है और इस मामले में वे किसी पर भरोसा नहीं करते. तेलंगाना के माओवादी नेताओं को जातीय और क्षेत्रीय वर्चस्व से कोई समझौता स्वीकार नहीं है. कोई समर्थन करे या विरोध, माओवादी पहले से ही अलग राज्य का समर्थन करते रहे हैं. अलग तेलंगाना राज्य माओवादियों की 'नक्सली राष्ट्रवाद' के सपने को साकार करेगा. माओवादी अपने क्षेत्र विस्तार के लिए वे सारे हथकंडे अपनाते हैं जो एक आतंकवादी और साम्राज्यवादी संगठन अपनाते हैं. इसमें साम, दाम, दंड और भेद के सभी रूप होते हैं. माओवादी अपने मुखबिर बढाते हैं और दुश्मन के मुखबिर को खत्म करते है. उनके समर्थक भारतीय राज्य के सभी अंगों - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका सहित मीडिया में भी विद्यमान हैं. सभी राजनीतिक दलों में उनके शुभचिंतक हैं. वे अपने समर्थकों को छल-बल से संसद और विधानसभाओं में भी पहुंचाते हैं. उनके समर्थक वहाँ भी हैं. आने वाले दिनों में तेलंगाना एक ऐसा राज्य हो सकता है जहां माओवाद खत्म होता हुआ दिखे, लेकिन उसका राजनैतिक प्रभुत्व बढ़ जाए. देश में वे भले ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का विरोध करते हों, लेकिन वे तेलंगाना की विधानसभा में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर काबिज होंगे. उनकी पूरी कोशिश होगी कि वे तेलंगाना में अपनी 'लोकतांत्रिक सरकार' बनाएँ. वे जनता और उम्मीदवार को भय तहा छल-बल से मैनेज करने की पूरी कोशिश करेंगे. एक बार राज्य में शासन मिल जाने के बाद स्वाभाविक रूप से आँध्रप्रदेश में भी उनका दखल बढ़ेगा. फिर क्या यह संभव नहीं कि माओवादी तेलंगाना को रेडकारीडोर की अघोषित राजधानी बना दें. फिर यह भी संभव है कि देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में गुपचुप बैठे उनके समर्थक उन्हें नक्सल राष्ट्रवाद को देश में फैलाने में सक्रिय मदद करें. यह शंका अनुचित नहीं है कि आने वाले समय में तेलंगाना नक्सली राष्ट्रवाद का गर्भनाल बनेगा. गौरतलब है कि 114,800 वर्ग किलोमीटर में फैले तेलंगाना में आंध्र प्रदेश के 23 ज़िलों में से 10 ज़िले ग्रेटर हैदराबाद, रंगा रेड्डी, मेडक, नालगोंडा, महबूबनगर, वारंगल, करीमनगर, निजामाबाद, अदिलाबाद और खम्मम आते हैं. आंध्रप्रदेश की 294 में से 119 विधानसभा सीटें और 17 लोकसभा सीटें भी इस क्षेत्र में आती हैं. करीब 3.5 करोड़ आबादी वाले तेलंगाना की भाषा तेलुगु और दक्कनी उर्दू है. तेलंगाना में खनिज की प्रचुर उपलब्धता के कारण यहाँ एक बड़ा आर्थिक आधार है. इस संसाधन पर अधिकार कर माओवादी अपने विस्तारवादी अभियान को गति दे सकते है. तेलंगाना पर प्रभुत्व मिलने के साथ ही माओवादी वहाँ की राजधानी हैदराबाद में भी ताकतवर हो जायेंगे. आंध्रप्रदेश राज्य का गठन भी भाषाई आधार पर किया गया था. तब भी कम्युनिस्ट नेता कामरेड वासुपुन्यया ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग की थी. माओवादियों ने उनके संघर्ष को आगे बढ़ाया. आज जब तेलंगाना विरोधी कांग्रेस अलग राज्य के लिए तैयार है तब सिवाय माओवादियों के साम्राज्य विस्तार 'पृथक राज्य' का निहितार्थ पूरा होता हुआ नहीं दिखा रहा है. 'विकास के लिए छोटे राज्यों' की अवधारणा असफल सिद्ध हुई है. उतराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ इसका उदाहरण है. राज्य पुनर्गठन के १० वर्षों के बाद इन राज्यों का अपेक्षित विकास नहीं हुआ है. इसके बावजूद अगर छोटे राज्यों की मांग देश के विभिन्न हिस्सों से उठ रही है तो इसके राजनैतिक कारण हो सकते है. लेकिन इतना तो तय है कि राज्यों के गठन की मांग का वहाँ की जनता और क्षेत्र के विकास से कोई सम्बन्ध नहीं है. यह पहला मुद्दा नहीं है जहाँ जनवादी और राष्ट्रवादी एक साथ दिख रहे हैं. लेकिन वाम और दक्षिण जब कभी एक साथ हों तो वह राष्ट्रहित में ही हो यह जरूरी नहीं. कांग्रेस, भाजपा और माओवादियों के समर्थन के बावजूद तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के खतरे है, और ये खतरे राष्ट्रीय हैं. यह राज्यों के पुनर्गठन के बारे में पुनर्विचार करने का मुफीद वक्त है. इसे सिर्फ राजनीतिक ही नहीं, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए.

वैकल्पिक राजनीति का विकल्प

क्या देश की राजनीति यूं ही सरपट दौड़ती जाएगी, या अपनी पटरी बदलेगी? राजनीति में क्या कोई बदलाव, कोई परिवर्तन संभव है? आमजनता को अपने ही प्रतिनिधियों पर भरोसा नहीं रहा. जनप्रतिनिधि अब लोकतंत्र का पहरुआ नहीं रहा. शायद था कभी, या कभी पहरुआ बना ही नहीं! क्या किया जाए कि संसद और लोकतंत्र एक-दूसरे के पोषक बनें. आज तो नेता और व्यापारी एक-दूसरे के पोषक बन रहे हैं. राजनैतिक दल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एजेंट जैसे हो गए है. संसदीय व्यवस्था ऐसी है जो अल्पसंख्यक मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करती है. ऐसे कई सवाल हैं, कई उधेडबुन हैं जो राजनैतिक रूप से जागरूक और सक्रिय लोगों के मन में असमंजस पैदा करते है. राजनीति की पटरी बदलेने वाले उलझन में है. इन्हें सुलझन कौन दे?
राजनीति की इसी उलझन को सुलझन देने की कवायद हुई २० जुलाई को. दिल्ली के मावलंकर सभागार में देशभर के राजनीतिक नेताओं का जुटान हुआ. हर बार की तरह अगुआ बने के.एन. गोविन्दाचार्य. मंच बना लोकतंत्र बचाओ मोर्चा. मनचा पर थे- लोकसत्ता के डा. जयप्रकाश नारायण, एकता परिषद के पी.वी. राजगोपाल, पूर्व केन्द्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, गुजरात परिवर्तन पार्टी के गोवर्धन झड़फिया, बिहार के पूर्व मंत्री रामदेव सिंह यादव, नवल किशोर शाही, पूर्व सांसद सरखन मुर्मू, मध्यप्रदेश भारतीय किसान संघ से निष्कासित और भारतीय किसान प्रजा पार्टी के अध्यक्ष शिवकुमार शर्मा, लोकसत्ता दिल्ली के अनुराग केजरीवाल. इसमें कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगडे और एनडीए सरकार में प्रधानमंत्री के सलाहकार जगदीश शेट्टार भी शामिल हुए. सभा का संचालन आरएसएस के पूर्व प्रचारक रमेश भाई ने किया. आयोजन की रूपरेखा राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संयोजक सुरेन्द्र बिष्ट ने किया. जब से गोविदाचार्य भाजपा से बाहर हुए तभी से साहस, पहल और प्रयास की बात कर रहे है. वो देश के मिजाज को समझाने का दावा तो कर रहे है, लेकिन देश शायद उनके फार्मूले को समझ नहीं पा रहा है. वे भाजपा से छुट्टी लेकर अध्ययन अवकाश पर गए. उदारीकरण का भारत पर पडने वाले प्रभावों का अध्ययन किया. समस्या और समाधान की पहचान की. कुछ औजारों की पहचान भी की. लेकिन अपने समर्थकों और संगठनों में जरूरी लायक न भरोसा पैदा कर पाए और न ही उत्साह और जूनून ही. विकल्पों की तलाश में खुद विकल्प बन गए. कभी रामदेव, तो कभी अन्ना-केजरीवाल! किरण बेदी, हेगडे, केजरीवाल, वेदप्रताप वैदिक, रामबहादुर राय और बाबा रामदेव जैसे लोगों को एकसूत्र में बांधने कोशिश करते रहे लेकिन सबके सब धागा (सूत्र) ही लेकर भाग निकले. सब अपनी महत्वाकांक्षाओं के आगे बेबस है. सबकी अपने-अपनी डफली है. वे गोविदाचार्य के राग से अलग है. इसा मामले में कांग्रेस और भाजपा एक है. वे किसी विकल्प को पैदा नहीं होने देंगे. आरएसएस मौन है. वह इस मामले किसी प्रकार का रिस्क लेना नहीं चाहता. संघ के लिए राजनीति को ठीक करने या राजनीति का उपयोग करने का सबसे उपयुक्त रास्ता है - भाजपा. फिलहाल वह किसी भी वैकल्पिक राजनीति के बारे में वक्त जाया करने के मूड में नहीं है. इसालिए वह न तो खुलकर गोविन्दाचार्य के साथ है न ही उनके इतर. इसीलिये गोविन्दाचार्य लालकृष्ण आडवानी और संघ के सरकार्यवाह भैयाजी से लेकर गुरूमूर्ति, सुब्रमण्यम स्वामी, जयप्रकाश नारायण, राजगोपाल, बाबूलाल मरांडी, गोवर्धन झड़फिया और शिवकुमार शर्मा तक को साधने में लगे है. वे एक संघ को भले ही न साध सके, शायद इसीलिये अनेक को साधने की कवायद कर रहे है. यह कोई संयोग नहीं है कि वैकल्पिक राजनीति के तमाम प्रयोग करने के बावजूद कोई निर्णायक परिणाम नहीं दिखा रहा. गोविदाचार्य बिखरावों को बार-बार जोडने की कोशिश करते है. कई बार वे खुद ही टूट जाते है. वो तो उनकी जिद्द है जिसके कारण वे फिर उठा खड़े होते हैं और फिर अनेक को एक करने की कोशिश करते है. वे वैकल्पिक राजनीति की बाधाओं, चुनौतियों और खतरों से बखूबी वाकिफ है. लेकिन वे खतरों के खिलाड़ी बनना चाहते है. इसलिए राजनीति के मैदान को छोडना नहीं चाहते. वे राजनीति के मैदान राजनीति के खेल को ही बदलने की फिराक में है. इस खेल में वे मित्र-शत्रु भाव भी भूल बैठे है. वे भाजपा के बीच से भी मित्र ढूंढ रहे है, और भाजपा के शत्रुओं के बीच से भी इस खेल के खिलाड़ी. इसीलिये उनके आह्वान पर गुजरात से पुराने संघी-भाजपाई गोवर्धन झड़फिया आये तो मध्यप्रदेश किसान संघ से निष्कासित नेता शिवकुमार शर्मा भी. कहने वाले कह सकते हैं कि गोविदाचार्य के लोकतंत्र बचाओ मोर्चा या वैकल्पिक राजनीतिक मोर्चा में पिटे-पिटाए नेता ही है. उनके साथ वे ही हैं जो किसी काम के नहीं. अपने-अपने इलाके में ये नेता या तो बेअसर हो गए हैं याँ उपेक्षा के शिकार है. लेकिन यह भी सच है की भारत की वर्तमान राजनीति जुगाड़ की राजनीति है. कौन जाने गोविन्दाचार्य कबाड से जुगाड़ की राजनीति कर रहे हों. भाजपा के महासचिव रहते हुए गोविन्दाचार्य अपना सर्वोत्तम राजनीतिक जीवन जी चुके हैं. वे भाजपा की रग-रग से वाकिफ हैं. वे भाजपा में जोड़-तोड़ और गठजोड के नीतिकार रहे हैं. वे अपना बचा हुआ जीवन राजनीतिक प्रयोगों में लगा रहे हैं. प्रयोग सफल हुआ तो इतिहास बनेगा. नहीं हुआ तो भी गोविन्दाचार्य के पास खोने को कुछ भी नहीं है. आज की जो राजनीति है उसमें पद और प्रतिष्ठा के लिए लोग किसी भी हद तक जा रहे है. गोविन्दाचार्य के पास भी भाजपा में वापसी के अवसर थे. जोड़-तोड़ के सहारे वे भी राज्यसभा में पहुँच सकते थे. लेकिन यह सब न करके वे संसद के बाहर से लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रहे है. राजनीति के केकड़े और मेढकों को एक तराजू पर लाने का प्रयोग कर रहे हैं. इसे तो आग से खेलना ही कहा जाएगा. एक तरफ भाजपा-कांग्रेस जैसी स्थापित पार्टियां, दूसरी तरफ सपा-बसपा और लोजपा जैसी अवसरवादी पार्टियां और तीसरी तरफ विदेशी शक्तियाँ. इनके पास दल-बल और छल है. गोविन्दाचार्य के प्रयासों में संघ हो सकता था, अपनी ताकत और व्याप्ति के साथ, लेकिन संघ साथ नहीं है. अगर कोई साथ है तो देश में व्याप्त जनाक्रोश और बिखरे हुए छिट-पुट लोग. अगर इन बिखरी हुई ताकतों को संगठित कर देश के जनाक्रोश को वैकल्पिक राजनीति की और मोड़ पाए तो गोविन्दाचार्य सफल हो पायेंगे. तभी उनका राजनैतिक वनवास पूरा होगा. तभी विकल्प की राजनीति सार्थक होगी. तभी देश की राजनीति को एक नयी पटरी मिल पायेगी.

हिंदुत्व की राजनीतिक चिनगारी को हवा देती दीदी

सुषमा स्वराज तो पहले से ट्वीट कर रही थीं, अब भाजपा नेत्री उमाश्री भारती भी अब ट्विटर पर हैं. कभी-कभी ट्विट करती हैं, इसलिए चर्चित भी होता है. वे दिग्विजय सिंह की तरह कुछ उलूल-जुलूल नहीं लिखती. जो भी लिखती हैं सोच-समझकर शिद्दत के साथ. आज भी उन्होंने ट्विट किया तो बवाल हो गया. साध्वी उमाश्री भारती ने ट्वीट किया कि 'बापू निर्दोष हैं। उन्हें सोनिया और राहुल गांधी का विरोध करने की सजा भुगतनी पड़ रही है.
कांग्रेस शासित राज्यों में उन पर झूठा मुकदमा दर्ज किया गया। संत समाज उनके साथ है।' चूंकि ट्विट पर शब्दों की सीमा की होती है. कई बार लोग अर्थ का अनर्थ लगा लेते हैं. इसलिए ट्विट पर कही अपनी बातों को विस्तार से बताने के लिए उमा भारती ने आज प्रेस कांफ्रेंस की. आज के प्रेस कांफ्रेंस में वे अपने पूरे रौ में थीं. उन्होंने अपनी ओर से दो बातें बताई. पहली कि अयोध्या का मुद्दा आज भी विवादित है और न्यायालय में मामला चल रहा है. इसका विवाद का एकमात्र समाधान यही है कि वहाँ भगवान राम का मंदिर बने. मामला कोर्ट के बाहर भी सुलझाया जा सकता है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मुलायम सिंह यादव और लालकृष्ण आडवाणी चाहें तो अयोध्या का विवाद कोर्ट के बाहर सुलझ सकता है. अयोध्या में चौरासी कोसी परिक्रमा को रोकना धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है. विहिप के निर्णय का उन्होंने समर्थन किया और यह भी कहा कि इस मामले में भाजपा का निर्णय और विचार चाहे जो हो लेकिन वे विहिप के साथ हैं. विहिप जो भी कहेगी वे उसका साथ देंगी. प्रेस को उन्होंने एक और बात कही. यह बात और भी ज्यादा महत्वपूर्ण थी. उन्होंने कहा कि संत आशाराम बापू पचहत्तर वर्ष के है. बहुत कम लोगों को पता है कि वे गृहस्थ संत है है. उनका एक बेटा और एक बेटी भी है. बापू की बेटी उनकी मित्र हैं. उसकी उम्र भी उमा भारती के बराबर ही है. इसलिए वे भी बापू की बेटी जैसी ही हैं. सुश्री भारती ने आशाराम बापू से टेलीफोन पर हुई बातचीत का हवाला देते हुए कहा कि उनके ऊपर लगे आरोप राजनीति से प्रेरित है. चूंकि वे राहुल-सोनिया की खुलेआम मजाक उड़ाते हैं, उनकी आलोचना करते है, इसलिए उन्हें फंसाने की कोशिश हो रही है. दरअसल उमाश्री भारती ने आशाराम बापू के बहाने हिंदुत्व के मुद्दे को फिर से हवा दे दी है. चाहे अयोध्या का मुद्दा हो या संत आशाराम बापू का समर्थन, दोनों ही हिंदुत्व के सवाल हैं. एक तरफ तो उन्होंने आशाराम बापू को निर्दोष बताया, वहीं पीडित लडकी के प्रति भी पूरी सहानुभूति व्यक्त की. उन्होंने कहा कि वे किसी लडकी या महिला की रक्षा के लिए अपनी जान भी दे सकती हैं. वे महिलाओं की सुरक्षा और संवेदना से कोई समझौता नहीं कर सकतीं. यदि बापू दोषी पाए गए तो सबसे पहले एक बेटी के रूप में वे उनको प्रताडित करेंगी और सजा देंगी. लेकिन इसके साथ ही उन्होंने हिन्दू संतो के साथ होने वाले प्रताडना के मामलों को भी उठाया. वर्षों पहले तमिलनाडु में कांची के शकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती के साथ हुए ऐसे ही मामले को याद करते हुए उन्होंने कहा कि उस घटना को कभी नहीं भुलाया जा सकता. हालांकि बाद में स्वामी जयेन्द्र सरस्वती निर्दोष सिद्ध हुए और आरोप लगाने वाले परिवार ने भी स्वीकार किया था कि उसका आरोप झूठा था. लेकिन भारत के सबसे बड़े संत को महीनों जेल में रहना पड़ा था. उनकी मान-मर्यादा और सम्मान को कलंकित किया गया. उन्होंने जोर देकर कहा कि डर है कि इस मामले में भी कहीं ऐसा ही न हो. उन्होंने राजस्थान पुलिस की इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि कार्यवाई से पहले पुलिस छानबीन कर रही है. सुश्री भारती को इस बात का भी डर है कि कहीं एससी, एसटी और महिलाओं के लिए बने क़ानून का दुरुपयोग न हो. लोगों का इन कानूनों से भरोसा न उठ जाए. उमाश्री भारती भले ही भोपाल में हों, भाजपा में दरकिनार हों. लेकिन चरखारी से विधायक साध्वी उमा भारती ने भोपाल से माइक्रो ब्लोगिंग के जरिये राष्ट्रीय राजनीति में हलचल पैदा कर दी है. उनको पता है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री सेक्युलरिज्म की राजनीति कर रहे हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री छुपे दावेदार नरेन्द्र दामोदर मोदी विकास और सुशासन की राजनीति कर रहे हैं. ऐसे में हिदू राजनीति का स्पेस हैं. आरएसएस और उसके संगठन सेक्युलर और विकासवादी राजनीति से बहुत ज्यादा खुश नहीं हैं. वे हिंदुत्व के मुद्दे को ठंढे बस्ते में भी रख सकते. उमाश्री भारती ने हिन्दू राजनीति के स्पेस को समझा है. वे गाय-गंगा और नारी के अस्तित्व के लिए बोलती रही हैं. हिन्दू संटन की प्रताडना और अयोध्या का मुद्दा उठाकर हिन्दू राजनीति के केंद्र में आ गयी हैं. मसला महज आशाराम बापू का या चौरासी कोसी परिक्रमा का नहीं है. असली मसला हिन्दू राजनीति के खाली पड़े स्पेस को भरने का है. उमा भारती ने हिन्दू राजनीति की कटी डोर को थामने की पहल की है. भाजपा की फायर ब्रांड नेता उमा भारती फिर से हिंदुत्व की राजनीतिक चिनगारी को हवा दे रही हैं.

कौन जीतेगा बाजी, किसके हाथ लगेगी सत्ता की चाबी?

अन्य सभी चुनावी राज्यों की अपेक्षा मध्यप्रदेश में ज्यादा गहमागहमी है। राजनीतिक सरगर्मी पर पार्टियों की नजर है। राजनीतिक विश्लेषक इस बात का अंदाजा लगाने में हैं कि उंट किस करवट बैठेगा। प्रदेश में 25 नवम्बर को मतदान होगा। 8 नवम्बर को नामांकन की अंतिम तारीख है। 8 दिसंबर को मतों का पिटारा जनता के सामने होगा। इसी दिन यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि बाजी किसके हाथ लगी।
गौरतलब है कि अधिकांश चुनावों में यहां कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर रही है। यह सच है कि बसपा, सपा और गोगपा जैसी पार्टियां मतों में सेंधमारी कर भाजपा-कांग्रेस का खेल बिगाड़ती रही हैं। मध्यप्रदेश में पिछले चुनावों के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच 6 प्रतिशत से अधिक मतों का अंतर नहीं रहा। वर्ष 1980, 1985 और 2003 के आंकड़े जरूर भिन्न रहे। 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस को 47.51 प्रतिशत, जबकि भाजपा को 30.34 प्रतिषत मत मिले थे। तब कांग्रेस ने दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाई थी। इस चुनाव में अन्य दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को 22.15 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। इसी प्रकार 1985 में हुए चुनाव में कांग्रेस को श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिला और उसकी झोली में 48.57 आये। 1980 और 1985 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच क्रमश: 17.17 प्रतिशत और 19.10 प्रतिशत मतों का अंतर रहा। 1990 के चुनाव में कांग्रेस को भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी और कांग्रेस 33.49 प्रतिशत मतों पर खिसक गई। 39.12 प्रतिशत मत लेकर भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। निर्दलीय सहित अन्य दलों को इस चुनाव में 26.39 मत मिले थे। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाये जाने के बाद तीनों राज्यों सहित मध्यप्रदेष की भाजपा सरकारें बर्खास्त कर दी गई थीं। 1993 में हुए चुनाव में भाजपा सहानुभूति नहीं ले पाई। भाजपा को कांग्रेस से 2 प्रतिषत कम मत मिले। इसी प्रकार 1998 में हुए चुनाव में भाजपा मात्र 1.25 प्रतिशत मत से सत्ता से दूर रह गई। इस चुनाव में कांग्रेस को 40.79 प्रतिषत जबकि भाजपा को 38.82 प्रतिशत मत मिले। इस साल भी निर्दलीय एवं अन्य को 20.39 प्रतिशत मत मिले। वर्ष 2003 में भाजपा साध्वी उमाश्री भारती के नेतृत्व में कांग्रेस और दिग्विजय सिंह के कुशासन और बिजली, पानी और सड़क को मुददा बना चुनाव लड़ी। जनता ने भाजपा के वायदे पर भरोसा कर 42.50 प्रतिशत मत देकर दो तिहाई बहुमत दिया। कांग्रेस इस बार 31.61 प्रतिशत वोट मिला। हालांकि 2008 में भाजपा के मतों में कमी हुई, लेकिन कांग्रेस से 5 प्रतिशत मत अधिक लेकर वह फिर सरकार बनाने में सफल रही। यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए आर-पार की लडाई है। कांग्रेस की स्थिति अभी नही तो कभी नहीं की है। कांग्रेस के लिए अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती है तो भाजपा के लिए दिल्ली का किला फतह करने की पूर्व-पीठिका। मध्यप्रदेश सहित अन्य चार राज्यों में प्राप्त सफलता ही भाजपा के लिए दिल्ली का रास्ता साफ करेगा। अगर भजपा विधानसभा में असफल रही तो दिल्ली उसके लिए दूर हो सकती है। बहरहाल मध्यप्रदेश में भाजपा जहां शिवराज सिंह के चेहरे और 10 वर्षों के सुशासन के नाम पर फिर से जनता का समर्थन मांग रही है, वहीं कांग्रेस ने प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार को खास मुद्दा बनाया है। कांग्रेस अपनी गुटबाजी और दिग्विजय सिंह के कुशासन को ज्योतिरादित्य सिंधिया के चेहरे से छुपाने की कोशिश कर रही है। भाजपा ने कांग्रेस के कुशासन, भ्रष्टाचार और महंगाई के बहाने कांग्रेस का चेहरा जनता के सामने ले जायगी। भाजपा ने कांग्रेस के खिलाफ आक्रामक नारा दिया है - ‘‘यह युद्ध आर-पार है, अंतिम यह प्रहार है।’’ एक कदम और आगे बढ़कर भाजपा ने कांग्रेस को खत्म करने के गांधीजी के सपने को पूरा करने का इरादा जता दिया है। भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेसमुक्त देश-प्रदेश का नारा देकर अपने आक्रमण का अहसास कांग्रेस के नेताओं को करा दिया है। चुनावी तैयारी में भाजपा आगे-आगे और कांग्रेस पीछे-पीछे दिख रही है। कांग्रेस को डर है कि इसबार की असफलता से कहीं उसकी स्थिति बिहार और उत्तरप्रदेश की तरह न हो जाये। हालांकि कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में एकजुटता का पूरा प्रयास कर रही है। लेकिन कांग्रेसी क्षत्रपों की गुटबाजी कम होने का नाम नहीं ले रही है। एक तरफ जहां पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का राजनीतिक कैरियर दांव पर है, वहीं कमलनाथ, भूरिया, पचौरी, अजय सिंह ‘राहुल’ और सत्यव्रत चतुर्वेदी अपना-अपना दांव खेलने से बाज नहीं आ रहे हैं। सिंधिया के चेहरे के पीछे दिग्गजों का दांव-पेंच जारी है। मुख्यमंत्री की ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के जवाब में कांग्रेस ने पूरे प्रदेश में ‘सत्ता परिवर्तन रैली’ के जरिये अपना चुनावी अभियान चलाया है। मुख्यमंत्री की अधूरी घोषणाओं और विभिन्न योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को कांग्रेस ने मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया है। यह चुनाव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए भी अग्नि परीक्षा जैसा ही है। भाजपा में गुटबाजी भले ही हो, लेकिन मध्यप्रदेश में उनके नेतृत्व को कोई चुनौती नहीं है। वे मध्यप्रदेश में भाजपा के सबसे लम्बे समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री का इतिहास रच गए हैं। स्वर्णिम मध्यप्रदेश और अपना मध्यप्रदेश बनाओ का नारा देकर शिवराज सिंह चौहान ने लोगों को प्रदेश की भावनात्मक अस्मिता और पहचान से जोड़ने की कोशिश की है। लाडली-लक्ष्मी, अन्त्योदय और दीनदयाल उपचार सरीखी योजनाएं भाजपा सरकार के लिए वरदान सिद्ध हो सकती हैं। यह सच है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां गुटबाजी और आंतरिक कलह से जुझ रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि जहां कांग्रेस की कलह अंत समय तक पार्टी को नुकसान पहंचाती है, वहीं भाजपा की कलह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हस्तक्षेप से नियंत्रित हो जाती है। भाजपा को विचार परिवार के संगठनों का समर्थन अंत समय में मिलना सुनिश्चित है। यही कारण है कि सत्ता विरोधी भावना होने के बावजूद भाजपा की तीसरी बार सरकार बनना लगभग तय है। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद न तो भाजपा और न ही समविचारी संगठनों के कार्यकर्ता यह चाहेंगे कि कांग्रेस के हाथ में सत्ता चली जाए। एक जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जो मध्यप्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ और भाजपा के पक्ष में है, वह है विधानसभा की जीत से भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र भाई मोदी को ताकत मिलना। भाजपा नेता इस बात से आश्वस्त हैं कि मतदान के अंतिम दिनों में मोदी की रैलियों और सभाओं का भाजपा को बड़े पैमाने पर लाभ मिलेगा। मध्यप्रदेश में लगभग 35 प्रतिशत नये और युवा मतदाता हैं। इनपर मोदी का जादू चलना तय है। यही युवा और नये मतदाता सत्ता की चाबी हैं। राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि चुनाव के अंतिम दिनों में मोदी की सभाओं से लगभग 3 से 5 प्रतिशत मतदाता जो भाजपा के परंपरागत समर्थक नहीं हैं वे भाजपा के पक्ष में आ जायेंगे। यही वोट भाजपा की सरकार बनायेगी।

मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव

आगे-आगे शिवराज, पीछे-पीछे महाराज भोपाल। मुख्यमंत्री की जन आशीर्वाद यात्रा चल रही है। यात्रा में भीड़ उमड़ रही है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर कहते हैं- जन आशीर्वाद यात्रा में उमड़ रहे लोग हमारी उम्मीदों से ज्यादा हैं। शिवराज सिंह चौहान आधे से अधिक विधानसभा क्षेत्रों की जनता से आशीर्वाद मांग चुके हैं। अक्टूबर तक वे प्रदेश की अधिकांश विधानसभा क्षेत्रों की यात्राएं कर चुके होंगे। 25 सितंबर को पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर भाजपा का कार्यकर्ता महाकुंभ है। इसमें पांच लाख से अधिक लोगों के जमावडे की उम्मीद है। इसके पहले भाजपा ने युवा मोर्चा और महिला मार्चा समेत लगभग अधिकांश मोर्चा-प्रकोष्ठों की बैठकें और अधिवेशन कर उन्हें चुनाव के लिहाज से तैयार कर दिया है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने भी अपनी तैयारियां देर से ही सही, लेकिन शुरू कर दी है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के पुत्र और वर्तमान केन्द्र सरकार में मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस ने चुनावी बिगुल बजा दिया है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, सत्ता विरोधी भावनाओं पर शिवराज का चेहरा हावी है। भाजपा संगठन और सरकार दोनों ने शिवराज का लोकप्रिय चेहरा जनता के सामने प्रस्तुत किया है। इसका जवाब कांग्रेस ढ़ूंढ रही है, लेकिन अभी तक मिला नहीं है।
मध्यप्रदेश में चुनाव की तिथि घोषित नहीं हुई है, लेकिन नवम्बर में निर्वाचन और दिसंबर में सरकार का गठन तय है। सभी पार्टियां इसी हिसाब से अपनी तैयारियां कर रही हैं। भाजपा ने शिवराज सिंह चौहान को पहले ही अपना नेता घोषित कर रखा है। लेकिन विपक्षी दल कांग्रेस इस मामले में काफी पीछे है। गुटीय वर्चस्व की लड़ाई के कारण कांग्रेस अभी तक अपना नेता तय नहीं कर पाई है। कांग्रेस के नेता भले ही मुख्यमंत्री के लिए एक-दूसरे का नाम ले रहे हैं, लेकिन मन-ही-मन वे स्वयं को ही इस कुर्सी का दावेदार सिद्ध करने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। भाजपा के नेता भले ही इसे कांग्रेस के नेताओं का नाटक कहें, लेकिन वे एकजुट होने का भरसक प्रयास भी कर रहे हैं। हालांकि इस प्रयास में कांग्रेस आलाकमान ने कांग्रेस के महासचिव और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ नाइंसाफी कर दी है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की किसी भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से दिग्विजय सिंह को दूर रखा गया है। कांग्रेस की ओर से ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, अजय सिंह, सुरेश पचौरी और कांतिलाल भूरिया ने चुनावी कमान संभाल रखी है। राजनीति के जानकारों के मुताबिक कांग्रेस आलाकमान ने जानबूझकर दिग्विजय सिंह को पर्दे के पीछे रखा है। जानकार बताते हैं कि चूंकि वर्ष 2003 का चुनाव भाजपा ने दिग्विजय सिंह से ही जीता था। तब भाजपा के विरोध और प्रचार का नारा था ‘‘मिस्टर बंटाधार’’, यह संबोधन दिग्विजय सिंह के लिए ही था। कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकारों ने यह अनुमान लगाया है कि इस बार भाजपा के प्रचार का केन्द्र ‘दिग्विजय का कुशासन बनाम शिवराज का सुशासन’ होगा। कांग्रेस को लगता है कि दिग्विजय सिंह की नाकामियां, उनका कुशासन और सड़क, पानी और बिजली की उपेक्षा लोगों को अभी याद होंगी। अगर दिग्विजय सिंह को आगे रखा तो संभव है प्रदेश की दुर्दशा की यादें ताजा हो जायें। भाजपा के नेताओं को पता है, दिग्विजय सिंह पर्दे के पीछे रहें या सामने वे अपना खेल खेलेंगे ही। इसलिए भाजपा चुनावी तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। चुनावी तैयारियों को देखकर साफ लगता है कि शिवराज आगे-आगे चल रहे हैं और महाराज पीछे-पीछे। कमोशबेश यही स्थिति भाजपा और कांग्रेस की है। सत्ता में रहते हुए भी भाजपा आक्रामक है, लेकिन कांग्रेस विपक्ष में है, फिर भी सुरक्षात्मक। भाजपा ने अपने प्रचार की रणनीति इस प्रकार बनाई है ताकि वह केन्द्र सरकार के भ्रष्टाचार, महंगाई और घोटालों को उजागर करे, साथ ही शिवराज सरकार की उपलब्धियों को भी जनता के सामने रख सके। देखा जाए तो पिछले दिनों कई ऐसी घटनाएं हुई जो भाजपा को परेशान करने वाली सिद्ध हुई। लेकिन शिवराज की लोकप्रियता और छवि ने सबको पछाड़ दिया। शिवराज सिंह चौहान ने अपने लगभग 8 वर्षों के कार्यकाल में विभिन्न वर्गों के लिए कई योजनाएं लागू की है। विभिन्न वर्गों के लिए आयोजित पंचायतों ने जहां एक ओर मुख्यमंत्री को सीधे संवाद का मौका दिया वहीं उपेक्षित समूहों को अपनी बात रखने का प्लेटफॉर्म और अवसर मिला। कांग्रेस मुख्यमंत्री को भले ही घोषणावीर कहकर आलोचना करती हो, लेकिन शिवराज सरकार ने अधिकांश घोषणाओं को लागू कर आम जनता में भरोसा और विश्वास पैदा किया है। शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश के सभी तबकों को खुश करने की कवायद की है। गौरतलब है कि प्रदेश में प्रभात झा के रहते जहां भाजपा ने सभी उप चुनावों में जीत दर्ज की थी, वहीं नये अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर के अध्यक्षीय कार्यकाल में अधिकांश उप चुनावों में कांग्रेस को सफलता मिली है। इस जीत-हार की व्याख्या मध्यप्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री अरविंद मेनन इस तरह करते हैं- हम उप चुनाव में हारे नहीं, बल्कि कांग्रेस से उसकी सीट नहीं ले सके। अर्थात् कांग्रेस जिन उप चुनावों में जीती है वहां वह पहले से ही काबिज थी। भाजपा ने अपनी कोई सीट नहीं गवांई। बहरहाल, मध्यप्रदेश में अगर चुनावी आंकड़ों का विश्लेषण करें तो स्पष्ट है कि वर्ष 2003 में जिस तरह की जीत भाजपा को और जिस प्रकार की हार कांग्रेस को मिली थी, 2008 में उसमें काफी परिवर्तन आ गया। 2003 में जहां 67.41 प्रतिशत मतदान हुआ था और भाजपा को 173, कांग्रेस को 38 तथा अन्य को 19 सीटें मिली थी। इस चुनाव में जहां भाजपा को 42.5 प्रतिशत मत मिला, वहीं कांग्रेस को 31.7 प्रतिशत। शेष मत अन्य दलों को मिले। कांग्रेस और भाजपा के बीच मतों का यह अन्तर असामान्य था। शेष मत निर्दलीय, बसपा, सपा, गोगपा अन्य दलों में विभाजित हो गए थे। किन्तु 2008 के चुनाव में आंकड़ों में भारी फर्क हो गया। तब तक भाजपा शासन को पांच वर्ष पूरे हो चुके थे। इस चुनाव में कुल 69.52 मतदान हुआ। भाजपा को 143 और कांग्रेस को 71 सीटें मिली। भाजपा को 37.64 प्रतिशत और कांग्रेस को 32.39 प्रतिशत मत मिले। इस साल बसपा, भारतीय जनशक्ति, सपा और निर्दलीयों की बीच शेष वोटों का बंटवारा हुआ। इस साल होने वाले चुनाव में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं युवा और नये मतदाता। चुनाव आयोग से लेकर स्वयंसेवी संगठनों और राजनीतिक दलों ने भी मतदाता जागरूकता के लिए बढ़-चढ़कर प्रयास किया है। इसका असर विधानसभा और बाद में लोकसभा चुनाव पर होना लाजिमी है। उल्लेखनीय है कि इस विधानसभा चुनाव के लिए कुल 4.65 करोड़ मतदाता हैं। इनमें 87.94 लाख मतदाता 18 से 23 साल आयु वाले हैं। लगभग 35 प्रतिशत मतदाता युवा हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार जिस दल को इन युवा मतदाताओं का समर्थन मिलेगा उसे ही सफलता मिलेगी। वही सरकार बनायेगा। राजनीति की भविष्यवाणियां करने वाले कयास लगा रहे हैं। उनके अनुसार राष्ट्रीय पर स्तर भले ही युवा नरेन्द्र मोदी के प्रति आकर्षित हो, लेकिन मध्यप्रदेश में स्थिति अलग है। प्रदेश में शिवराज और सिंधिया दोनों ही युवा मतदाताओं पर अपनी दावेदारी कर रहे हैं। देखना यह है कि 54 वर्षीय शिवराज युवाओं को अपने पक्ष में रख पाते हैं या 42 वर्षीय ज्योतिरादित्य युवाओं से जुड़ पाते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए खुद को साबित करने का मौका है। प्रदेश में पिछले दस वर्षों से कांग्रेस सत्ता से दूर है। कांग्रेस पार्टी आलाकमान ने बहुत सोच-समझकर सिंधिया पर दांव खेला है। सिंधिया के लिये यह अहम लेकिन कठिन और चुनौती भरी जिम्मेदारी है। हालांकि सिंधिया के पास अपने सिद्ध करने के लिए बहुत कम समय है, लेकिन दिग्विजय सिंह, भूरिया और अजय सिंह को छोड़कर अधिकांश नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का पक्ष ले रहे हैं। केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ और सांसद सत्यव्रत चतुवेर्दी ने कई अवसरों पर सिधिंया के पक्ष में बयान दिया है। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इन सिंधिया समर्थक नेताओं से इत्तेफाक नहीं रखते। उन्होंने सार्वनिक तौर पर यह कहा है कि कांग्रेस पार्टी की जीत की स्थिति में विधायक दल द्वारा ही अपना नेता चुना जायेगा। दिग्विजय सिंह ने सिंधिया को अस्वीकार नहीं किया तो स्वीकार भी नहीं किया है। अपनी पार्टी में आंतरिक विरोध और सर्वानुमति न बनने के कारण सिंधिया ने यह कहा है कि प्रदेश में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री कोई भी बने, उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए विधानसभा का यह चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है। कांग्रेस इस चुनाव में पिछड़ गई तो वह संगठनात्मक रूप से बहुत कमजोर हो जायेगी। लेकिन अगर भाजपा इस चुनाव में असफल होती है तो न सिर्फ उसके हाथ सबसे मजबूत संगठन वाला प्रदेश निकल जायेगा, बल्कि लोकसभा चुनाव में भी अपेक्षित लाभ नहीं मिल पायेगा। इसीलिए भाजपा बहुत ही सधे हुए अंदाज में अपनी तैयारियों को अमलीजामा पहना रही है। कांग्रेस भी भाजपा की हर तैयारी का जवाब देने की भरसक कोशिश कर रही है। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा कहते हैं- शिवराज सिंह चौहान का व्यक्तित्व और उनकी छवि सब पर भरी है। वे जननेता हैं। प्रदेश की जनता में लोकप्रिय और विश्वसनीय। श्री झा सारी शंकाओं को शिवराज की लोकप्रियता के झोंके में उड़ा देते हैं। शंकाएं भाजपा के कुछ विधायकों और मंत्रियों के बारे में व्यक्त की जा रही हैं। पार्टी द्वारा कराये गए सर्वे और कुछ और स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार कई विधायकों और मंत्रियों के क्षेत्रों में नाराजगी है। ये नाराजगी और विरोध पार्टी के लिए नुकसानदायक हो सकती है। लेकिन भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और जन आशीर्वाद यात्रा में शिव के सहयात्री प्रभात झा कहते हैं- ‘शिवराज सिंह चौहान जहां-जहां जन आशीर्वाद के लिए पहुच रहे हैं, उनको देखने, मिलने और सुनने के लिए जन-सैलाब उमड़ रहा है। जनता की आंखों में अपने लाडले मुख्यमंत्री के लिए प्यार है। यह सब पर भारी है।’ भाजपा नेताओं के दावे अपनी जगह सही हो सकते हैं, लेकिन सत्ता-विरोधी भावनाएं, विधायकों के प्रति स्थानीय असंतोष और ज्योतिरादित्य सिंधिया के रूप में कांग्रेस का नया और युवा चेहरा सबसे बड़ी चुनौती है, जबकि कांग्रेस के लिए शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता और पार्टी की गुटबाजी सबसे बड़ी चुनौती। अनिल सौमित्र भोपाल से 09425008648

हारेंगे या हरायेंगे !

अनिल सौमित्र बात अजीब-सी है, लेकिन सच है. मामला मध्यप्रदेश भाजपा से सम्बन्धित है. विधानसभा चुनाव के महज तीन हफ्ते ही बचे हैं. लेकिन पार्टी में असंतोष, बगावत और विरोध अपने चरम पर है. भाजपा के नेता अपनी-अपनी दावेदारी के लिये नेताओं, खासकर प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर, संगठन महामंत्री अरविंद मेनन और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दरवाजों पर लगातार, अहर्निश दस्तक दे रहे हैं. वर्तमान विधायकों के विरोधी भी दल-बल के साथ अपना असंतोष व्यक्त कर रहे हैं. इस विरोध और असंतोष में अनुशासन और मर्यादा नदारद है. विधायकी का टिकट पाने के लिये दावेदार किसी भी हद तक जाने को तैयार है. भले ही दल में दलदल हो जाए, दल में दरार पड़ जाए. वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर उतारू हैं.
इस बीच भाजपा ने अपने सारे नीति-नियमों को ताक पर रख एक ही कसौटी रखा है- टिकट उसे ही मिलेगा जो जीत सकेगा. अर्थात पार्टी की एकमात्र कसौटी है जिताउपन. हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता जरूर संतानमोह से ग्रस्त होकर धृतराष्ट की तरह व्यवहार कर रहे हैं. संगठन और विचारधारा पर उनका संतानमोह हावी हो गया है. इस मामले में कई नेता मानसिक संकीर्णताओं से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं. यह सच है कि पार्टी में सबकुछ तिकड़ी कहे जाने वाले चौहान, तोमर और मेनन के के ईर्द-गिर्द सिमट गया है. बाकि नेता या तो उपेक्षित हैं या असंतुष्ट. पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान राष्ट्रीय उपाध्यक्ष साध्वी उमाश्री भारती की उपेक्षा और उनका संतोष भाजपा के लिये महँगा सिद्ध हो सकता है. ऐसे ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और वर्तमान राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा की उपेक्षा संगठन के नुकसान की कीमत पर की जा रही है. पार्टी में प्रदेशव्यापी असंतोष और बगावत को शांत करने के लिये पूर्व संगठन महामंत्री माखन सिंह चौहान और सहसंगठन मंत्री रहे भागवत शरण माथुर को मोर्चे पर लगाया गया है. लेकिन वे मोर्चे पर तब आये हैं जब समस्याएँ फ़ैल चुकी हैं. सच बात तो यह है कि उनके पास असंतोष और बगावत से निपटने के लिये न तो अधिकार है और ना ही कोई साजो-सामान! दोनों के मन में संगठन से बेदखली की टीस जरूर है. इस टीस को लेकर वे बगावत प्रबंधन में कितने सफल हो पायेंगे यह तो समय ही बताएगा. ऐसे ही उमाश्री भारती और प्रभात झा भी बहुत कुछ कर सकते हैं, बहुत कुछ करना चाहते हैं, लेकिन फिलहाल प्रदेश भाजपा उनको इसकी इजाजत नहीं देता. संभव है आने वाले दिनों में दोनों अपनी-अपनी शर्तों पर सक्रिय हों भी, लेकिन तब तक समय और परिस्थितियाँ उनकी जद से बाहर जा चुकी होंगी! तब वे चाहकर भी कुछ नहीं पायेंगे. इन सबके बीच जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वो है भाजपा प्रत्याशियों की दावेदारी. दावेदारों का हुजूम अपने-अपने क्षेत्रों को छोड़ भोपाल में भाजपा कार्यालय, प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के बंगले पर नजरें गराए, डेरा डाले बैठा है. दावेदारों के समर्थक और विरोधी एक-दूसरे के आमने-सामने हैं. हर दावेदार स्वयं को श्रेष्ठ और अन्य को निकृष्ट सिद्ध करने में लगा है. हर दावेदार अपने को लायक और अन्य को नालायक बता रहा है. वर्तमान विधायकों और मंत्रियों में से अनेक के खिलाफ उनके क्षेत्र में हारने लायक माहौल तैयार है. मध्यप्रदेश भाजपा के लिये सबसे बड़ा खतरा विधायकों और मंत्रियों के प्रति पैदा हुई सत्ता-विरोधी भावना है. ऐसे तकरीबन ६०-७० विधायक हैं जिनका हारना तय है. पार्टी के तमाम सर्वे, संघ का फीडबैक, खुफिया और मीडिया रिपोर्ट इन विधायकों के खिलाफ है. यही कारण है की भाजपा के रणनीतिकारों ने इन विधायकों को टिकट न देने और किसी कारण से टिकट काटना संभव न होने पर क्षेत्र बदलने का नीतिगत फैसला किया है. लेकिन इस फैसले को लागू करने में पार्टी के प्रदेश और केन्द्रीय नेतृत्व को पसीना छूट रहा है. ऐसे ५० से अधिक विधायकों को लेकर पार्टी की हालत यह हो गई है कि या तो हारेंगे या हराएंगे. मतलब साफ़ है पार्टी ने इन्हें टिकट दिया तो ये हार जायेंगे, अगर नहीं दिया तो ये हरा देंगे. पार्टी की स्थिति सांप-छछून्दर की हो गई है. ये हारने-हराने वाले पार्टी के गले में अटक गए हैं. भाजपा ने इसे ही "डैमेज-कंट्रोल" का नाम दिया है. भाजपा इसी डैमेज कंट्रोल में चोट खाये नेताओं को लगाने वाली है. भाजपा दोहरे संकट में है. जिस विधानसभा में जीत पक्की है वहाँ दावेदारों की संख्या परेशानी का सबब है. जहां वर्तमान विधायक की हालत पतली है, लेकिन नए चहरे को सफलता मिल सकती है, वहाँ विधायक अपनी दावेदारी छोडने को तैयार नहीं है. दावेदार धमकी, भयादोहन और विद्रोह की चाल चल रहे हैं. तवज्जो न दिए जाने से तिलमिलाए नेताओं ने अपने समर्थकों को त्रिदेव (शिव-मेनन-तोमर) की ओर हकाल दिया है. भाजपा का संगठन सबसे मजबूत है, लेकिन टिकट वितरण की गलत पद्धति के कारण जिले और संभाग का तंत्र फेल हो गया है. सारा दारोमदार त्रिदेव पर ही आ टिका है. केन्द्रीय नेतृत्व भी सांसत में है. विधानसभा का परिणाम, लोकसभा के परिणाम का निर्धारक होगा. अब मोदी का भविष्य शिवराज के भविष्य से जुड़ा है. गौरतलब है कि मध्यप्रदेश विधानसभा में सदस्यों की कुल संख्या २३० है. इसमें जनशक्ति पार्टी को मिलाकर भाजपा की संख्या १४३ है जो २००३ की विधानसभा के मुकाबले ३० कम है. इसी प्रकार मतों के प्रतिशत के मामले में २००३ और २००८ में ४.८६ प्रतिशत का अंतर हो गया. कांग्रेस की निष्क्रियता और अयोग्यता के बावजूद उसके मतों और सीटों में वृद्धि हुई. कांग्रेस की संख्या विधानसभा में ३८ से बढ़कर ७१ हो गई और मतों में .७९ प्रतिशत की बढोतरी हुई. मतलब साफ़ है कि भाजपा जनता का मन जीतने में असफल रही. २००३ में कांग्रेस को भाजपा की तुलना में १०.८९ प्रतिशत कम मत मिले थे. जबकि २००८ में यह अंतर कम होकर ५.२४ प्रतिशत हो गया. मध्यप्रदेश भाजपा के सन्दर्भ में दो महत्वपूर्ण आंकड़े उल्लेखनीय हैं - २००३ के चुनाव में बसपा को ७.२६ प्रतिशत, जबकि २००८ में ८.९७ प्रतिशत मत मिले. बसपा की सीटें २ से बढ़कर ७ हो गईं. जबकि सपा के साथ उलटा हुआ. सपा को २००३ में ३.७१ प्रतिशत मत और ७ सीटें मिली थी जो घटकर २००८ में १.९९ प्रतिशत मत और १ सीट पर सिमट गई. भाजपा भले ही महत्त्व दे या न दे लेकिन उमाश्री भारती के नेतृत्व में बनी भाजश को २००८ के चुनाव में मिले ४.७१ प्रतिशत मत और ५ सीटों को नकारा नहीं जा सकता. गौरतलब है कि भाजश के ये विजयी प्रत्याशी तब भाजपा और कांग्रेस दोनों को हरा कर विधानसभा की दहलीज तक पहुंचे थे. इसके अलावा पिछोर, टीकमगढ़, जतारा, चांदला, पवई, बोहरीबंद और मनासा ऐसे क्षेत्र थे जहां मामूली अंतर से भाजश की हार हुई थी. राजनीति का सामान्य तकाजा तो यही है कि भाजश के सभी विजयी और हारे, किन्तु दूसरे नंबर पर रहे प्रत्याशियों को पुन: उम्मीदवार बनाया जाए. लेकिन प्रदेश भाजपा नेतृत्व इस तकाजे को नजरअंदाज करता दिख रहा है. लब्बोलुआब यह है कि भाजपा ने अपनी मनमर्जी की राजनीति के कारण एक तरफ जहाँ अपना वोटबैंक खोया है वहीं अनीति और अनियोजन के कारण बसपा और कांग्रेस को बढ़त बनाने का मौक़ा दिया है. बुंदेलखंड, विंध्यप्रदेश और ग्वालियर-चम्बल में उमा भारती का सुनियोजित उपयोग बसपा के बढते प्रभाव को रोक सकता था. लेकिन नेतृत्व की जिद्द, संगठन की उदासीनता और राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण भाजश के नेताओं का विलय तो भाजपा में होने के बावजूद भाजश के मतदाताओं और समर्थकों का विलय नहीं हो पाया. वे अब भी अनिर्णय की स्थिति में हैं. प्रदेश भाजपा में मुख्यमंत्री का व्यक्तित्व इतना बड़ा हो गया कि सभी नेता बौने हो गए. संगठन, विचारधारा और देश भी पीछे छूट गया. राजनीति में व्यक्ति का विकास आनुपातिक न हो तो ईर्ष्या, द्वेष, छल-प्रपंच और कटुता बढ़ती ही है. नेता और नेता में, नेता और कार्यकर्ता में तथा कार्यकर्ता और कार्यकर्ता में एक निश्चित दूरी तो जायज है, लेकिन दूरी अगर नाजायज हो जाए तो उसके दुष्परिणाम होते ही हैं. भाजपा के नेता अपनी श्रेष्ठता का बखान करते हुए कहते है- भाजपा कार्यकर्ता आधारित पार्टी है, जबकि कांग्रेस नेता आधारित. भाजपा संगठन आधारित है, जबकि कांग्रेस सत्ता आधारित. भाजपा विचारधारा आधारित है, जबकि कांग्रेस विचारविहीन. भाजपा का कैडरबेस है, जबकि कांग्रेस कैडरलेस. कांग्रेस के लिए सत्ता साध्य है, जबकि भाजपा के लिये साधन. कांग्रेस में एकानुवर्ती संगठन संचालन है, भाजपा अनेकानुवर्ती, अर्थात लोकतांत्रिक है. भाजपा में व्यक्ति से बड़ा दल है और दल से बड़ा देश, जबकि कांग्रेस में इसका उलटा है. ऐसे अनेक विशेषण हैं जिनका उल्लेख कर भाजपा स्वयं को अन्य दलों, खासकर कांग्रेस से भिन्न बताती रही है. लेकिन जब इन कसौटियों पर राजनीतिक दलों की तुलना की जाती है तो अंतर शून्य मिलता है. यह एक बड़ा कारण है जो भाजपा के मतों और सीटों में वृद्धि को स्थायित्व नहीं देता. अब जबकि पांच राज्यों में विधानसभा का चुनाव सर पर है, और इसके परिणामों के आधार पर लोकसभा का चुनाव लड़ा जाना है. देश की जनता सचमुच कांग्रेस से ऊब गई है, उसके विरोध में है. लेकिन कांग्रेस से ऊब और उसके विरोध का मतलब भाजपा का समर्थन नहीं हो सकता. भाजपा को परेशान, त्रस्त, असंतुष्ट, दुखी और आक्रोशित जनता का समर्थन पाने के लिये सुपात्र बनना होगा. इसके लिये एक समग्र नीति-रणनीति और योजना की जरूरत होगी. इन योजनाओं को लागू करने के लिये सुयोग्य, सक्षम, सरल, सहज, सुलभ, शांत, संयमित, सहिष्णु, सजग और सक्रिय नेताओं-कार्यकर्ताओं का होना जरूरी है. वांछित सफलता के लिये यह जरूरी है की नेताओं-कार्यकर्ताओं के द्वारा ईमानदार प्रयास किया जाए. लेकिन फिलहाल मध्यप्रदेश भाजपा में यह सब होता हुआ नहीं दिख रहा. विरोध, विवाद और असंतोष को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा कहकर नजरअंदाज किया जा रहा है. सरेआम लोकतांत्रिक प्रक्रिया को महज औपचारिकता कह कर मजाक बनाया जा रहा है. यह सब अशुभ लक्षण हैं. अशुभ लक्षण, शुभ परिणाम नहीं दे सकते. भाजपा नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस का जनाधार हो न हो, देशभर में उसका आधार पुराना है. बुरी-से बुरी स्थिति में वह भाजपा से उत्तराखंड, कर्नाटक और हिमाचल की सत्ता ले चुकी है. जर्जर स्थिति में भी पिछले १० सालों से देश पर शासन कर रही है. मध्यप्रदेश सहित, छात्तीसगढ़, राजस्थान दिल्ली और मिजोरम में वह सत्ता से बहुत दूर नहीं है. राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम में तो वे पहले से ही सत्ता में है. वक्त भले ही कम हो, लेकिन भाजपा के पास कार्यकर्ताओं, शुभचिंतक संगठनों और समर्थकों की संख्या आज भी ज्यादा है. बेहतर समन्वय और सद्भाव का लाभ भाजपा को मिल सकता है. लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ होता हुआ नहीं दिख रहा. कांग्रेस के लिये यह फायदे की स्थिति है. अगर मध्यप्रदेश की बात है तो कांग्रेस गत चुनाव से इस बार बेहतर तैयारी में है. वहाँ नेताओं में फूट भले हो, लेकिन उनके कार्यकर्ता अपेक्षाकृत अधिक अनुशासित और उत्साहित हैं. भाजपा में उठे असंतोष के उबाल का लाभ भी कांग्रेस को ही मिलेगा. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की निष्क्रियता और नकारात्मक सक्रियता कांग्रेस के लिये वरदान साबित होगी. कांग्रेस और बसपा का प्रत्यक्ष-परोक्ष समझौता भाजपा की सत्ता संभावनाओं पर पानी फेर सकता है. मध्यप्रदेश में नई सरकार के गठन की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. नामांकन की अंतिम तिथि ८ नवंबर है. मतदान २५ नवंबर को होगा. ८ दिसंबर को मतगणना और १२ के पहले सरकार का गठन होना तय है. इस कम समय में भाजपा के लिये नया राजनीतिक इतिहास रचने की चुनौती है. कांग्रेस अपनी खोई सत्ता पाने की जद्दोजहद कर रही है. सफल वही होगा जो जन-मन को जीत पायेगा. जन-मन पल-पल बदला रहा है. कुशल रणनीति और सफल क्रियान्वयन से ही सफलता सुनिश्चित होगी. इतिहास ने पछताने का मौक़ा खूब दिया है. इतिहास वही बदल पाता है जो इन पछताने के अवसरों से सीख लेता है. (लेखक मीडिया एक्टिविस्ट और स्टेट न्यूज टीवी के सलाहकार संपादक है.)

बुधवार, 21 अगस्त 2013

मीडिया चौपाल - 2013


जन-जन के लिए विज्ञान, जन-जन के लिए संचार 14-15, सितम्बर, 2013 प्रिय साथी, संचार क्रांति के इस वर्तमान समय में सूचनाओं की विविधता और बाहुल्यता है. जनसंचार माध्यमों (मीडिया) का क्षेत्र निरंतर परिवर्तित हो रहा है. सूचना और माध्यम, एक तरफ व्यक्ति को क्षमतावान और सशक्त बना रहे हैं, समाधान दे रहे हैं, वहीं अनेक चुनौतियां और समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं. इंटरनेट आधारित संचार के तरीकों ने लगभग एक नए समाज का निर्माण किया है जिसे आजकल "नेटीजन" कहा जा रहा है. लेकिन मीडिया के इस नए रूप के लिए उपयोग किये जाने वाली पदावली - नया मीडिया, सोशल मीडिया आदि को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. लेकिन एक बात पर अधिकाँश लोग सहमत हैं कि "मीडिया का यह नया रूप लोकतांत्रिक है. यह लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा दे रहा है. मीडिया पर से कुछेक लोगों या घरानों का एकाधिकार टूट रहा है. आपको स्मरण होगा कि पिछले वर्ष 12 अगस्त, 2012 को "विकास की बात विज्ञान के साथ- नए मीडिया की भूमिका" विषय को आधार बनाकर एक दिवसीय "मीडिया चौपाल-2012" का आयोजन किया गया था. इस वर्ष भी यह आयोजन किया जा रहा है. कोशिश है कि "मीडिया चौपाल" को सालाना आयोजन का रूप दिया जाए. गत आयोजन की निरंतरता में इस वर्ष भी यह आयोजन 14-15 सितम्बर, 2013 (शनिवार-रविवार) को किया जा रहा है. यह आयोजन मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद तथा स्पंदन (शोध, जागरूकता और कार्यक्रम क्रियान्वयन संस्थान) द्वारा संयुक्त रूप से हो रहा है. इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य विकास में मीडिया की सकारात्मक भूमिका को बढ़ावा देना है. इस वर्ष का थीम होगा- "जन-जन के लिए विज्ञान, जन-जन के लिए मीडिया". इसी सन्दर्भ में विभिन्न चर्चा-सत्रों के लिए विषयों का निर्धारण इस प्रकार किया गया है- 1. मानव सभ्यता का भारतीय और यूरोपीय परिपेक्ष्य और मीडिया तकनीक, 2. नया मीडिया, नई चुनौतियां (तथ्य, कथ्य और भाषा के विशेष सन्दर्भ में) 3. जन-माध्यमों का अंतर्संबंध और नया मीडिया, 4. ग्रामीण भारत का सूचना सशक्तिकरण और नया मीडिया, 5. नये (सोशल) मीडिया पर सरकारी नियमन की कोशिशें : कितना जरूरी, कितना जायज. कृपया विशेष वक्तव्य और प्रस्तुति देने के इच्छुक प्रतिभागी इस सम्बन्ध में एक सप्ताह पूर्व (5 सितम्बर,2013 तक) सूचित करेंगे तो सत्रों की विस्तृत रूपरेखा तैयार करने में सुविधा होगी. इस सम्बन्ध में अन्य जानकारी के लिए संपर्क कर सकते हैं- अनिल सौमित्र - 09425008648, 0755-2765472. mediachaupal2013@gmail.com, anilsaumitra0@gmail.com "मीडिया चौपाल-2013" में सहभागिता हेतु अभी तक 1. श्री आर. एल. फ्रांसिस (नई दिल्ली) 2. श्री हर्षवर्धन त्रिपाठी (नई दिल्ली), 3. श्री अनिल पाण्डेय ( न संडे इंडियन, नई दिल्ली), 4. श्री यशवंत सिंह (भड़ास डाटकॉम, नई दिल्ली), 5. श्री संजीव सिन्हा (प्रवक्ता डाटकॉम, नई दिल्ली), 6. श्री रविशंकर (नई दिल्ली), 7. श्री संजय तिवारी (विस्फोट डाटकॉम, नई दिल्ली), 8. श्री आशीष कुमार अंशू, 9. श्री आवेश तिवारी, 10. श्री अनुराग अन्वेषी 11.श्री सिद्धार्थ झा, 12. श्री भावेश झा, 13. श्री दिब्यान्शु कुमार (दैनिक भास्कर, रांची), 14. श्री पंकज साव (रांची), 15. श्री उमाशंकर मिश्र (अमर उजाला, नई दिल्ली), 16. श्री उमेश चतुर्वेदी (नई दिल्ली), 17. श्री भुवन भास्कर (सहारा टीवी, नई दिल्ली), 18. श्री प्रभाष झा (नवभारत टाईम्स डाटकॉम, नई दिल्ली), 19. श्री स्वदेश सिंह (नई दिल्ली), 20. श्री पंकज झा (दीपकमल,रायपुर), 21. श्री निमिष कुमार (मुम्बई), 22. श्री चंद्रकांत जोशी (हिन्दी इन डाटकॉम, मुम्बई), 23. श्री प्रदीप गुप्ता (मुम्बई), 24. श्री संजय बेंगानी (अहमदाबाद), 25. श्री स्वतंत्र मिश्र (दैनिक भास्कर, नई दिल्ली) 26. श्री ललित शर्मा (बिलासपुर), 27. श्री बी एस पाबला (रायपुर), 28. श्री लोकेन्द्र सिंह (ग्वालियर), 29. श्री सुरेश चिपलूनकर (उज्जैन), 30. श्री अरुण सिंह (लखनऊ), 31. सुश्री संध्या शर्मा (नागपुर), 32. श्री जीतेन्द्र दवे (मुम्बई), 33. श्री विकास दावे ( कार्यकारी संपादक, देवपुत्र, इंदौर), 34. श्री राजीव गुप्ता 35. सुश्री वर्तिका तोमर, 36. ठाकुर गौतम कात्यायन पटना, 37. अभिषेक रंजन 38. श्री केशव कुमार 39. श्री अंकुर विजयवर्गीय (नई दिल्ली) 40. जयराम विप्लव (जनोक्ति.कॉम, नई दिल्ली) ने अपनी सभागिता की सूचना दी है. भोपाल से 1. श्री रमेश शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार), 2. श्री गिरीश उपाध्याय (वरिष्ठ पत्रकार), 3. श्री दीपक तिवारी (ब्यूरो चीफ, न वीक), 4. सुश्री मुक्ता पाठक (साधना न्यूज), 5. श्री रवि रतलामी (वरिष्ठ ब्लॉगर), 6. श्रीमती जया केतकी (स्वतंत्र लेखिका), 7. श्रीमती स्वाति तिवारी (साहित्यकार), 8. श्री महेश परिमल (स्वतंत्र लेखक), 9. श्री अमरजीत कुमार (स्टेट न्यूज चैनल), 10. श्री रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति (पीपुल्स समाचार), 11. श्री राजूकुमार (ब्यूरो चीफ, न संडे इंडियन), 12. श्री शिरीष खरे (ब्यूरोचीफ, तहलका), 13. श्री पंकज चतुर्वेदी (स्तंभ लेखक), 14. श्री संजय द्विवेदी (संचार विशेषज्ञ), 15. श्रीमती शशि तिवारी (सूचना मंत्र डाटकॉम), 16. श्री शशिधर कपूर (संचारक), 17. श्री हरिहर शर्मा, 18. श्री गोपाल कृष्ण छिबबर, 19. श्री विनोद उपाध्याय, 20. श्री विकास बोंदिया, 21. श्री रामभुवन सिंह कुशवाह, 22. श्री हर्ष सुहालका, 23. सुश्री सरिता अरगरे (वरिष्ठ ब्लॉगर), 24. श्री राकेश दूबे (एक्टिविस्ट), आदि रहेंगे ही. इस चौपाल में प्रो. प्रमोद के. वर्मा (महानिदेशक, म.प्र. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद), श्री मनोज श्रीवास्तव (प्रमुख सचिव, मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शासन), प्रो. बृज किशोर कुठियाला (कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल), श्री राममाधव जी (अखिल भारतीय सह-संपर्क प्रमुख, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), 2. श्रीमती स्मृति ईरानी (वरिष्ठ भाजपा नेत्री) के उपस्थित रहने की भी संभावना है. कुछ और भी नाम हैं जिन्होंने आमंत्रण स्वीकार कर सहभागिता के लिए प्रयास करने का आश्वासन दिया है- श्री चंडीदत्त शुक्ल (मुम्बई), श्री प्रेम शुक्ल (सामना, मुम्बई), श्री सुशांत झा(नई दिल्ली), श्री लालबहादुर ओझा (नई दिल्ली), प्रो. शंकर शरण (स्तंभकार, नई दिल्ली) श्री नलिन चौहान (नई दिल्ली), श्री शिराज केसर, सुश्री मीनाक्षी अरोड़ा (इंडिया वाटर पोर्टल, नई दिल्ली), श्री हितेश शंकर (संपादक, पांचजन्य, नई दिल्ली). अब न्यौता भेजने का समय खत्म हो चुका है. इस पत्र के बाद अब आगे की सूचनाएं भेजी जायेंगी. कोशिश हो कि आप सभी की भागीदारी से मीडिया के बारे में एक सार्थक चिंतन व विमर्श हो सके. इसमें आपका सहयोग अपेक्षित है. सादर, (अनिल सौमित्र) संयोजक स्पंदन (शोध, जागरूकता एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन संस्थान)