A Must Read: The Haircut
One day a florist went to a barber for a haircut. After the cut, he asked about his bill, and the barber replied, 'I cannot accept money from you. I'm doing community service this week.' The florist was pleased and left the shop. When the barber went to open his shop the next morning, there was a 'thank you' card and a dozen roses waiting for him at his door.
Later, a cop comes in for a haircut, and when he tries to pay his bill, the barber again replied, 'I cannot accept money from you. I'm doing community service this week.' The cop was happy and left the shop. The next morning when the barber went to open up, there was a 'thank you' card and a dozen donuts waiting for him at his door.
Then a Congressman came in for a haircut, and when he went to pay his bill, the barber again replied, 'I can not accept money from you. I'm doing community service this week.' The Congressman was very happy and left the shop. The next morning, when the barber went to open up, there were a dozen Congressmen lined up waiting for a free haircut.
And that, my friends, illustrates the fundamental difference between the citizens of our country and the politicians who run it.
BOTH POLITICIANS AND DIAPERS NEED TO BE CHANGED OFTEN AND FOR THE SAME REASON!
If you don't forward this you have no sense of humor. Nothing bad will happen, however, you must live with yourself knowing that laughter is not in your future. Now send it to everyone you know.
Vr not changing our politicians every 5 years.It's high time we did itn
बुधवार, 13 अक्टूबर 2010
अयोध्या में रामजन्म भूमि का मामला
हिंदू लॉ पर हाथ नहीं डालना चाहता मुस्लिम पक्ष
सुहेल वहीद
लखनउ। अयोध्या विवाद पर हाईकोर्ट के फैसले पर आस्था के हावी होने का हल्ला मचाने वालों को शायद पता ही नहीं है कि धार्मिक आस्था भारतीय कानून में एक तथ्य है। आस्था को कानूनी जामा पचास के दशक में पहनाया जा चुका है, तो फैसला आस्था की बुनियाद पर ही होना था और मुद्दा भी आस्था ही थी। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने जान बूझकर अदालत में रामलला को पार्टी नहीं बनाया। बोर्ड वकील जफरयाब जीलानी का तर्क है कि हम विवादित स्थल पर रामलला के वजूद को ही नहीं मानते। समाचार पत्र नवदुनिया से चर्चा में वह कहते हैं कि जिस दिन हम वहां रामलला को स्वीकार कर लेंगे मुकदमा हार जाएंगे। उधर हिंदू पक्ष के एक पक्षकार श्रीराम जन्मभूमि पुनरूद्धार समिति की वकील रंजना अग्निहोत्री ने अदालत में तर्क दिया था कि जब सुन्नी वक्फ बोर्ड ने रामलला को पार्टी ही नहीं बनाया तो वह एडवर्स पजेशन का दावा किससे कर रहे हैं। विवादित जगह वह मांग किससे रहे हैं। मुस्लिम पक्ष ने जान-बूझ कर रामलला को पार्टी नहीं बनाया, क्योंकि रामलला को पार्टी बनाने का मतलब हिंदू लॉ को छेड़ना था और मुस्लिम पक्ष इसे छेड़ना नहीं चाहता, क्योंकि इस पर हाथ डालने का मतलब है कि बात मुस्लिम पर्सनल लॉ तक पहुंच जाएगी।
सुहेल वहीद
लखनउ। अयोध्या विवाद पर हाईकोर्ट के फैसले पर आस्था के हावी होने का हल्ला मचाने वालों को शायद पता ही नहीं है कि धार्मिक आस्था भारतीय कानून में एक तथ्य है। आस्था को कानूनी जामा पचास के दशक में पहनाया जा चुका है, तो फैसला आस्था की बुनियाद पर ही होना था और मुद्दा भी आस्था ही थी। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने जान बूझकर अदालत में रामलला को पार्टी नहीं बनाया। बोर्ड वकील जफरयाब जीलानी का तर्क है कि हम विवादित स्थल पर रामलला के वजूद को ही नहीं मानते। समाचार पत्र नवदुनिया से चर्चा में वह कहते हैं कि जिस दिन हम वहां रामलला को स्वीकार कर लेंगे मुकदमा हार जाएंगे। उधर हिंदू पक्ष के एक पक्षकार श्रीराम जन्मभूमि पुनरूद्धार समिति की वकील रंजना अग्निहोत्री ने अदालत में तर्क दिया था कि जब सुन्नी वक्फ बोर्ड ने रामलला को पार्टी ही नहीं बनाया तो वह एडवर्स पजेशन का दावा किससे कर रहे हैं। विवादित जगह वह मांग किससे रहे हैं। मुस्लिम पक्ष ने जान-बूझ कर रामलला को पार्टी नहीं बनाया, क्योंकि रामलला को पार्टी बनाने का मतलब हिंदू लॉ को छेड़ना था और मुस्लिम पक्ष इसे छेड़ना नहीं चाहता, क्योंकि इस पर हाथ डालने का मतलब है कि बात मुस्लिम पर्सनल लॉ तक पहुंच जाएगी।
भारतीय पुरातत्व एवं तोजो इंटरनेशनल की विश्वसनीयता
अयोध्या प्रकरण पर प्रयाग उच्च न्यायालय की विशेष पीठ द्वारा 30 सितम्बर को दिये गये निर्णय पर अपने-अपने चश्मे के अनुसार विभिन्न दल, समाचार पत्र, पत्रिकाएं तथा दूरदर्शन वाहिनियां बोल व लिख रही हैं। इस निर्णय में मुख्य भूमिका भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और उसकी उत्खनन इकाई ने निभाई है।
1992 में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से यह पूछा था कि क्या तथाकथित बाबरी मस्जिद किसी खाली जगह पर बनायी गयी थी या उससे पूर्व वहां पर कोई अन्य भवन था ? इस प्रश्न पर ही यह सारा मुकदमा केन्द्रित था।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न से बचते हुए अपनी बला प्रयाग उच्च न्यायालय के सिर डाल दी। उच्च न्यायालय ने इसके लिए तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ बनाकर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का सहयोग मांगा। पुरातत्व विभाग ने कनाडा के विशेषज्ञों के नेतृत्व में तोजो इंटरनेशनल कंपनी की सहायता ली। उसने राडार सर्वे से भूमि के सौ मीटर नीचे तक के चित्र खींचे। इनसे स्पष्ट हो गया कि वहां पर अनेक फर्श, खम्भे तथा मूर्तियां आदि विद्यमान हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसके बाद वहां कुछ स्थानों पर खुदाई करायी। इससे भी वहां कई परतों में स्थित मंदिर के अवशेषों की पुष्टि हो गयी। इस रिपोर्ट के आधार पर तीनों माननीय न्यायाधीशों ने एकमत से यह कहा कि वहां पहले से कोई हिन्दू भवन अवश्य था। अर्थात राष्ट्रपति जी के प्रश्न का स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर प्राप्त हो गया।
इसके साथ मुकदमे में जो सौ से अधिक प्रश्न और उभरे, अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उन पर तीनों न्यायाधीशों ने अपनी वैचारिक, राजनीतिक तथा मजहबी पृष्ठभूमि के आधार पर निर्णय दिया है।
इसके बाद भी रूस, चीन तथा अरब देशों के हाथों बिके हुए विचारशून्य वामपंथी लेखक फिर उन्हीं गड़े मुर्दों को उखाड़ रहे हैं कि वहां पशुओं की हड्डियां मिली हैं और चूना-सुर्खी का प्रयोग हुआ है, जो इस्लामी काल के निर्माण को दर्शाता है; पर वे उन मूर्तियों तथा शिलालेखों को प्रमाण नहीं मानते, जो छह दिसम्बर, 92 की कारसेवा में प्राप्त हुए थे। उनका कहना है कि उन्हें कारसेवकों ने कहीं बाहर से लाकर वहां रखा है।
इन अक्ल के दुश्मनों से कोई पूछे कि बाबरी ढांचा इस्लामी नहीं तो क्या हिन्दू निर्माण था ? सभी विद्वान, इतिहास तथा पुरातत्व की रिपोर्ट पहले से ही इसे कह रहे थे और अब तो तीनों न्यायाधीशों ने भी इसे मान लिया है; पर जो बुद्धिमानों की बात मान ले, वह वामपंथी कैसा ? चूना-सुर्खी का प्रयोग भारत के लाखोंं भवनों में हुआ है। सीमेंट तथा सरिये से पहले निर्माण में चूना-सुर्खी का व्यापक प्रयोग होता था। इस आधार पर तो पांच-सात सौ वर्ष पुराने हर भवन को इस्लामी भवन मान लिया जाए ?
जहां तक छह दिसम्बर की बात है, तो उस दिन दुनिया भर का मीडिया वहां उपस्थित था। क्या किसी चित्रकार के पास ऐसा कोई चित्र है, जिसमें कारसेवक बाहर से लाकर मूर्तियां या शिलालेख वहां रखते दिखाई दे रहे हों ? इसके विपरीत प्रायः हर चित्रकार के पास ऐसे चलचित्र (वीडियो) हैं, जिसमें वे शिलालेख और मूर्तियां ढांचे से प्राप्त होते तथा कारसेवक उन्हें एक स्थान पर रखते दिखाई दे रहे हैं। हजारों चित्रकारों के कैमरों में उपलब्ध चित्रों से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ?
न्यायालय के मोर्चे पर पिटने के बाद अब वामपंथी इस बात को सिर उठाये घूम रहे हैं कि प्रमाणों के ऊपर आस्था को महत्व दिया गया है, जो ठीक नहीं है और इससे भविष्य में कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी, जबकि सत्य तो यह है कि न्यायालय ने पुरातत्व के प्रमाणों को ही अपने निर्णय का मुख्य आधार बनाया है।
इस निर्णय से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और तोजो इंटरनेशनल के प्रति दुनिया भर में विश्वास जगा है। भारत में हजारों ऐसी मस्जिद, मजार और दरगाह हैं, जो पहले हिन्दू मंदिर या भवन थे। भारतीय इतिहास ग्रन्थों में इनका स्पष्ट उल्लेख है। लोकगीतों में भी ये प्रसंग तथा इनकी रक्षा के लिए बलिदान हुए हिन्दू वीरों की कथाएं जीवित हैं। यद्यपि अपने स्वभाव के अनुसार वामपंथी इसे नहीं मानते।
क्या ही अच्छा हो यदि ऐसे कुछ भवनों की जांच इन दोनों संस्थाओं से करा ली जाए। काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, मथुरा की मस्जिदें तो अंधों को भी दिखाई देती हैं। फिर भी उनके नीचे के चित्र लिये जा सकते हैं। दिल्ली की कुतुब मीनार, आगरा का ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, भोजशाला (धार, म0प्र0), नुंद ऋषि की समाधि (चरारे शरीफ, कश्मीर), टीले वाली मस्जिद, (लक्ष्मण टीला, लखनऊ), ढाई दिन का झोपड़ा (जयपुर) आदि की जांच से सत्य एक बार फिर सामने आ जाएगा।
मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था, जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थात काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है।
अरब देशों में इस्लाम से पहले शैव मत ही प्रचलित था। इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिव स्तुतियां श्री लक्ष्मीनारायण (बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। क्या ही अच्छा हो कि मक्का के वर्तमान भवन के चित्र भी तोजो इंटरनेशनल द्वारा खिंचवा लिये जाएं। राडार एवं उपग्रह सर्वेक्षण से सत्य प्रकट हो जाएगा।
क्या स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिवादी मानने वाले वामपंथी तथा प्रयाग उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद छाती पीट रहे मजहबी नेता इस बात का समर्थन करेंगे ?
विजय कुमार -
संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्@6, नई दिल्ली - 22)
1992 में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से यह पूछा था कि क्या तथाकथित बाबरी मस्जिद किसी खाली जगह पर बनायी गयी थी या उससे पूर्व वहां पर कोई अन्य भवन था ? इस प्रश्न पर ही यह सारा मुकदमा केन्द्रित था।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न से बचते हुए अपनी बला प्रयाग उच्च न्यायालय के सिर डाल दी। उच्च न्यायालय ने इसके लिए तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ बनाकर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का सहयोग मांगा। पुरातत्व विभाग ने कनाडा के विशेषज्ञों के नेतृत्व में तोजो इंटरनेशनल कंपनी की सहायता ली। उसने राडार सर्वे से भूमि के सौ मीटर नीचे तक के चित्र खींचे। इनसे स्पष्ट हो गया कि वहां पर अनेक फर्श, खम्भे तथा मूर्तियां आदि विद्यमान हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसके बाद वहां कुछ स्थानों पर खुदाई करायी। इससे भी वहां कई परतों में स्थित मंदिर के अवशेषों की पुष्टि हो गयी। इस रिपोर्ट के आधार पर तीनों माननीय न्यायाधीशों ने एकमत से यह कहा कि वहां पहले से कोई हिन्दू भवन अवश्य था। अर्थात राष्ट्रपति जी के प्रश्न का स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर प्राप्त हो गया।
इसके साथ मुकदमे में जो सौ से अधिक प्रश्न और उभरे, अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उन पर तीनों न्यायाधीशों ने अपनी वैचारिक, राजनीतिक तथा मजहबी पृष्ठभूमि के आधार पर निर्णय दिया है।
इसके बाद भी रूस, चीन तथा अरब देशों के हाथों बिके हुए विचारशून्य वामपंथी लेखक फिर उन्हीं गड़े मुर्दों को उखाड़ रहे हैं कि वहां पशुओं की हड्डियां मिली हैं और चूना-सुर्खी का प्रयोग हुआ है, जो इस्लामी काल के निर्माण को दर्शाता है; पर वे उन मूर्तियों तथा शिलालेखों को प्रमाण नहीं मानते, जो छह दिसम्बर, 92 की कारसेवा में प्राप्त हुए थे। उनका कहना है कि उन्हें कारसेवकों ने कहीं बाहर से लाकर वहां रखा है।
इन अक्ल के दुश्मनों से कोई पूछे कि बाबरी ढांचा इस्लामी नहीं तो क्या हिन्दू निर्माण था ? सभी विद्वान, इतिहास तथा पुरातत्व की रिपोर्ट पहले से ही इसे कह रहे थे और अब तो तीनों न्यायाधीशों ने भी इसे मान लिया है; पर जो बुद्धिमानों की बात मान ले, वह वामपंथी कैसा ? चूना-सुर्खी का प्रयोग भारत के लाखोंं भवनों में हुआ है। सीमेंट तथा सरिये से पहले निर्माण में चूना-सुर्खी का व्यापक प्रयोग होता था। इस आधार पर तो पांच-सात सौ वर्ष पुराने हर भवन को इस्लामी भवन मान लिया जाए ?
जहां तक छह दिसम्बर की बात है, तो उस दिन दुनिया भर का मीडिया वहां उपस्थित था। क्या किसी चित्रकार के पास ऐसा कोई चित्र है, जिसमें कारसेवक बाहर से लाकर मूर्तियां या शिलालेख वहां रखते दिखाई दे रहे हों ? इसके विपरीत प्रायः हर चित्रकार के पास ऐसे चलचित्र (वीडियो) हैं, जिसमें वे शिलालेख और मूर्तियां ढांचे से प्राप्त होते तथा कारसेवक उन्हें एक स्थान पर रखते दिखाई दे रहे हैं। हजारों चित्रकारों के कैमरों में उपलब्ध चित्रों से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ?
न्यायालय के मोर्चे पर पिटने के बाद अब वामपंथी इस बात को सिर उठाये घूम रहे हैं कि प्रमाणों के ऊपर आस्था को महत्व दिया गया है, जो ठीक नहीं है और इससे भविष्य में कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी, जबकि सत्य तो यह है कि न्यायालय ने पुरातत्व के प्रमाणों को ही अपने निर्णय का मुख्य आधार बनाया है।
इस निर्णय से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और तोजो इंटरनेशनल के प्रति दुनिया भर में विश्वास जगा है। भारत में हजारों ऐसी मस्जिद, मजार और दरगाह हैं, जो पहले हिन्दू मंदिर या भवन थे। भारतीय इतिहास ग्रन्थों में इनका स्पष्ट उल्लेख है। लोकगीतों में भी ये प्रसंग तथा इनकी रक्षा के लिए बलिदान हुए हिन्दू वीरों की कथाएं जीवित हैं। यद्यपि अपने स्वभाव के अनुसार वामपंथी इसे नहीं मानते।
क्या ही अच्छा हो यदि ऐसे कुछ भवनों की जांच इन दोनों संस्थाओं से करा ली जाए। काशी विश्वनाथ और श्रीकृष्ण जन्मभूमि, मथुरा की मस्जिदें तो अंधों को भी दिखाई देती हैं। फिर भी उनके नीचे के चित्र लिये जा सकते हैं। दिल्ली की कुतुब मीनार, आगरा का ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, भोजशाला (धार, म0प्र0), नुंद ऋषि की समाधि (चरारे शरीफ, कश्मीर), टीले वाली मस्जिद, (लक्ष्मण टीला, लखनऊ), ढाई दिन का झोपड़ा (जयपुर) आदि की जांच से सत्य एक बार फिर सामने आ जाएगा।
मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहां काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था, जो खंडित अवस्था में अब भी वहां है। हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थात काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं। इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 पी.एन.ओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है।
अरब देशों में इस्लाम से पहले शैव मत ही प्रचलित था। इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिव स्तुतियां श्री लक्ष्मीनारायण (बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। क्या ही अच्छा हो कि मक्का के वर्तमान भवन के चित्र भी तोजो इंटरनेशनल द्वारा खिंचवा लिये जाएं। राडार एवं उपग्रह सर्वेक्षण से सत्य प्रकट हो जाएगा।
क्या स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिवादी मानने वाले वामपंथी तथा प्रयाग उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद छाती पीट रहे मजहबी नेता इस बात का समर्थन करेंगे ?
विजय कुमार -
संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्@6, नई दिल्ली - 22)
अयोध्या पर सेक्युलर समूह का छल
अयोध्या पर हाई कोर्ट के निर्णय के बाद विभिन्न कोनों से आई
प्रतिक्रियाएं विचारणीय हैं। जहां मुकदमे के पक्षकारों ने संयम और सद्भाव
दिखाया वहीं कुछ जाने-माने वामपंथी बुद्धिजीवियों ने निर्णय का विरोध
किया है। रोमिला थापर, डीएन झा, केएन पणिक्कर जैसे कई लोगों ने संयुक्त
हस्ताक्षर करके कहा है कि यह निर्णय देश के सेक्युलर चरित्र पर आघात है
और इससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा गिरी है। उन्होंने यह भी कहा है कि
विवादित स्थल पर पहले राममंदिर होने की बात एक धोखाधड़ी है। एक बार फिर यह
एक उचित अवसर है कि देश में साप्रदायिक विभेद और तनाव बढ़ाने वालों को
ठीक से पहचाना जाए। सच तो यह है कि मुसलमानों की तरफ से तरह-तरह की
शिकायत, मांग और विरोध आदि को मुस्लिम नेताओं ने उतना नहीं उठाया जितना
ऐसे लिबरल-सेक्युलर कहलाने वाले हिंदू बुद्धिजीवियों ने। ऐसा करते इनमें
न कोई न्याय-बोध रहता है, न साविधानिक या निष्पक्ष आधार। ऐसे लोगों ने
मुस्लिमों के स्वयंभू हितचिंतक बनकर देश के साप्रदायिक वातावरण को जितना
बिगाड़ा है उतना किसी अन्य चीज ने नहीं। इन सेक्युलर बौद्धिकों का
वास्तविक चरित्र घोर पक्षपाती रहा। उनकी हर सक्रियता ने दोनों समुदायों
की मानसिकता पर हानिकारक प्रभाव डाला है। अयोध्या प्रसंग में भी यह बात
बार-बार दिखाई पड़ी। थापर, झा, पणिक्कर आदि ये वही लोग हैं जिन्होंने 1989
में 'पॉलिटिकल एब्यूज ऑफ हिस्ट्री' नामक एक उग्र पुस्तिका लिखकर अयोध्या
विवाद को एक नया आयाम दिया था। उसमें श्रीराम के अस्तित्व को ही नकारा
गया था और हिंदू पक्ष को सीधे-सीधे राजनीति-प्रेरित कहकर हटाने, हराने की
मांग रखी गई थी। इसने विवाद को बुरी तरह बदल दिया। इसके पहले तक विवादित
स्थल पर मात्र कानूनी लड़ाई चल रही थी।
कभी भी मुस्लम पक्ष ने श्रीराम के अस्तित्व आदि पर प्रश्न नहीं उठाया था।
वे तो मात्र वर्तमान नागरिक कानून आदि के आधार पर विवादित ढांचे को अपने
हाथ में रखने की जिद कर रहे थे। इतिहास पर उन्होंने प्रश्न नहीं उठाया
था। यह तो ऐसे सेक्युलर ठग थे, जिन्होंने राम के जन्म का 'ऐतिहासिक
प्रमाण' मांगकर मामला बिगाड़ा। ऐसे बौद्धिकों के हस्तक्षेप में किसी
समाधान की चाह नहीं थी। वे तो बस अपनी हिंदू-विरोधी विचारधारा सब पर
थोपना चाहते थे। बाद में, प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा बनाई गई सरकारी
समिति ने भी इनके बारे में यही पाया। पहले तो उन्हीं इतिहासकारों ने
बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के आधिकारिक पैरोकार बनकर मुस्लिम पक्ष को आपसी
समाधान करने से रोका। उन्हें भरोसा दिलाया कि राम या रामजन्मभूमि का कोई
प्रमाण नहीं है और इसी से विवादित स्थल पर उनका एकमात्र हक है, लेकिन जब
प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा दोनों पक्षों को बिठाकर प्रमाणों की
जांच-पड़ताल होने लगी तो मुस्लिम पक्ष के यही पैरोकार बहाना बनाकर बीच
रास्ते भाग खड़े हुए। इन सेक्युलर-वामपंथी बौद्धिकों की नीयत कितनी खराब
थी, यह तब पुन: प्रमाणित हुआ जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मार्च 2003 में
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को अयोध्या में विवादित स्थल की खुदाई का आदेश
दिया ताकि वहां पहले से राममंदिर होने या न होने का प्रमाण पाया जा सके।
इस पर सबसे आक्रामक प्रतिक्रिया इन्हीं इतिहासकारों की आई जो अब तक
रामजन्मभूमि या मंदिर का प्रमाण मांगते रहे थे! खुदाई का आदेश देने के
लिए इन्होंने न्यायाधीशों पर पक्षपात का आरोप लगाने में भी देर नहीं
लगाई। पुरातत्व सर्वेक्षण पर भी लाछन जड़ा कि वे बेईमानी करेंगे।
अयोध्या मसले के समाधान में इन कथित सेक्युलर लोगों ने हमेशा अड़ंगा लगाया
है। ऐसे लोगों ने 1989-90 में यही किया, फिर वही बाद में और आज भी वे यही
कर रहे हैं। अत: आवश्यक है कि ऐसे कथित सेक्युलर लिबरल बुद्धिजीवियों की
घातक राजनीतिक भूमिका ठीक से परखी जाए। अभी जिस तरह हिंदू-मुस्लिम
समुदायों तथा उनके नेताओं ने न्यायालय के निर्णय पर संयम दिखाया, वह
प्रसन्नता और संतोष की बात होनी चाहिए थी। उनके लिए तो विशेषकर जो स्वयं
को धर्म-मजहब से ऊपर रहकर उन्नति, विकास आदि के लिए फिक्रमंद बताते हैं,
किंतु ठीक इन्हीं लोगों ने एक समुदाय विशेष को भड़काने के लिए फिर
अनावश्यक बयानबाजी आरंभ कर दी है। इस लिबरल-सेक्युलर बौद्धिक गिरोह की
कुटिलता तब और स्पष्ट दिखती है जब याद करें कि यही लोग निर्णय आने से
पहले न्यायालय का 'जो भी निर्णय हो' वह मानने की भरपूर वकालत कर रहे थे।
संविधान की सर्वोच्चता और सामुदायिक सद्भाव को सर्वोपरि रखने की सीख दे
रहे थे। ये सब तर्क उन्होंने निर्णय आते ही तिरोहित कर दिया। क्यों?
कयोंकि उनके सभी तकरें के पीछे सदैव एक घातक राजनीति छिपी होती है।
30 सितंबर से पहले के उनके सभी तर्क एक अनुमान पर आधारित थे कि निर्णय
कुछ और आएगा। अर्थात एक विशेष प्रकार का निर्णय करना, करवाना और मनवाना
ही उनका लक्ष्य था और है। इसीलिए यह निर्णय आने के बाद सामुदायिक शाति
बने रहने पर ठीक यही लोग बुरी तरह असंतुष्ट हैं। वे तरह-तरह से अपनी
अप्रसन्नता प्रकट कर रहे हैं। एक वामपंथी इतिहासकार कह रहे हैं कि
न्यायालय ने कानून का ध्यान छोड़कर मानो पंचायत का फैसला सुना दिया है।
दूसरी प्रखर सेक्युलरवादी बौद्धिका कह रही हैं कि अब मुसलमानों का भारतीय
राजसत्ता से विश्वास उठ गया है। तीसरा इसे न्यायिक नहीं, राजनीतिक निर्णय
बता रहा है।
[एस. शंकर: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
प्रतिक्रियाएं विचारणीय हैं। जहां मुकदमे के पक्षकारों ने संयम और सद्भाव
दिखाया वहीं कुछ जाने-माने वामपंथी बुद्धिजीवियों ने निर्णय का विरोध
किया है। रोमिला थापर, डीएन झा, केएन पणिक्कर जैसे कई लोगों ने संयुक्त
हस्ताक्षर करके कहा है कि यह निर्णय देश के सेक्युलर चरित्र पर आघात है
और इससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा गिरी है। उन्होंने यह भी कहा है कि
विवादित स्थल पर पहले राममंदिर होने की बात एक धोखाधड़ी है। एक बार फिर यह
एक उचित अवसर है कि देश में साप्रदायिक विभेद और तनाव बढ़ाने वालों को
ठीक से पहचाना जाए। सच तो यह है कि मुसलमानों की तरफ से तरह-तरह की
शिकायत, मांग और विरोध आदि को मुस्लिम नेताओं ने उतना नहीं उठाया जितना
ऐसे लिबरल-सेक्युलर कहलाने वाले हिंदू बुद्धिजीवियों ने। ऐसा करते इनमें
न कोई न्याय-बोध रहता है, न साविधानिक या निष्पक्ष आधार। ऐसे लोगों ने
मुस्लिमों के स्वयंभू हितचिंतक बनकर देश के साप्रदायिक वातावरण को जितना
बिगाड़ा है उतना किसी अन्य चीज ने नहीं। इन सेक्युलर बौद्धिकों का
वास्तविक चरित्र घोर पक्षपाती रहा। उनकी हर सक्रियता ने दोनों समुदायों
की मानसिकता पर हानिकारक प्रभाव डाला है। अयोध्या प्रसंग में भी यह बात
बार-बार दिखाई पड़ी। थापर, झा, पणिक्कर आदि ये वही लोग हैं जिन्होंने 1989
में 'पॉलिटिकल एब्यूज ऑफ हिस्ट्री' नामक एक उग्र पुस्तिका लिखकर अयोध्या
विवाद को एक नया आयाम दिया था। उसमें श्रीराम के अस्तित्व को ही नकारा
गया था और हिंदू पक्ष को सीधे-सीधे राजनीति-प्रेरित कहकर हटाने, हराने की
मांग रखी गई थी। इसने विवाद को बुरी तरह बदल दिया। इसके पहले तक विवादित
स्थल पर मात्र कानूनी लड़ाई चल रही थी।
कभी भी मुस्लम पक्ष ने श्रीराम के अस्तित्व आदि पर प्रश्न नहीं उठाया था।
वे तो मात्र वर्तमान नागरिक कानून आदि के आधार पर विवादित ढांचे को अपने
हाथ में रखने की जिद कर रहे थे। इतिहास पर उन्होंने प्रश्न नहीं उठाया
था। यह तो ऐसे सेक्युलर ठग थे, जिन्होंने राम के जन्म का 'ऐतिहासिक
प्रमाण' मांगकर मामला बिगाड़ा। ऐसे बौद्धिकों के हस्तक्षेप में किसी
समाधान की चाह नहीं थी। वे तो बस अपनी हिंदू-विरोधी विचारधारा सब पर
थोपना चाहते थे। बाद में, प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा बनाई गई सरकारी
समिति ने भी इनके बारे में यही पाया। पहले तो उन्हीं इतिहासकारों ने
बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के आधिकारिक पैरोकार बनकर मुस्लिम पक्ष को आपसी
समाधान करने से रोका। उन्हें भरोसा दिलाया कि राम या रामजन्मभूमि का कोई
प्रमाण नहीं है और इसी से विवादित स्थल पर उनका एकमात्र हक है, लेकिन जब
प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा दोनों पक्षों को बिठाकर प्रमाणों की
जांच-पड़ताल होने लगी तो मुस्लिम पक्ष के यही पैरोकार बहाना बनाकर बीच
रास्ते भाग खड़े हुए। इन सेक्युलर-वामपंथी बौद्धिकों की नीयत कितनी खराब
थी, यह तब पुन: प्रमाणित हुआ जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मार्च 2003 में
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को अयोध्या में विवादित स्थल की खुदाई का आदेश
दिया ताकि वहां पहले से राममंदिर होने या न होने का प्रमाण पाया जा सके।
इस पर सबसे आक्रामक प्रतिक्रिया इन्हीं इतिहासकारों की आई जो अब तक
रामजन्मभूमि या मंदिर का प्रमाण मांगते रहे थे! खुदाई का आदेश देने के
लिए इन्होंने न्यायाधीशों पर पक्षपात का आरोप लगाने में भी देर नहीं
लगाई। पुरातत्व सर्वेक्षण पर भी लाछन जड़ा कि वे बेईमानी करेंगे।
अयोध्या मसले के समाधान में इन कथित सेक्युलर लोगों ने हमेशा अड़ंगा लगाया
है। ऐसे लोगों ने 1989-90 में यही किया, फिर वही बाद में और आज भी वे यही
कर रहे हैं। अत: आवश्यक है कि ऐसे कथित सेक्युलर लिबरल बुद्धिजीवियों की
घातक राजनीतिक भूमिका ठीक से परखी जाए। अभी जिस तरह हिंदू-मुस्लिम
समुदायों तथा उनके नेताओं ने न्यायालय के निर्णय पर संयम दिखाया, वह
प्रसन्नता और संतोष की बात होनी चाहिए थी। उनके लिए तो विशेषकर जो स्वयं
को धर्म-मजहब से ऊपर रहकर उन्नति, विकास आदि के लिए फिक्रमंद बताते हैं,
किंतु ठीक इन्हीं लोगों ने एक समुदाय विशेष को भड़काने के लिए फिर
अनावश्यक बयानबाजी आरंभ कर दी है। इस लिबरल-सेक्युलर बौद्धिक गिरोह की
कुटिलता तब और स्पष्ट दिखती है जब याद करें कि यही लोग निर्णय आने से
पहले न्यायालय का 'जो भी निर्णय हो' वह मानने की भरपूर वकालत कर रहे थे।
संविधान की सर्वोच्चता और सामुदायिक सद्भाव को सर्वोपरि रखने की सीख दे
रहे थे। ये सब तर्क उन्होंने निर्णय आते ही तिरोहित कर दिया। क्यों?
कयोंकि उनके सभी तकरें के पीछे सदैव एक घातक राजनीति छिपी होती है।
30 सितंबर से पहले के उनके सभी तर्क एक अनुमान पर आधारित थे कि निर्णय
कुछ और आएगा। अर्थात एक विशेष प्रकार का निर्णय करना, करवाना और मनवाना
ही उनका लक्ष्य था और है। इसीलिए यह निर्णय आने के बाद सामुदायिक शाति
बने रहने पर ठीक यही लोग बुरी तरह असंतुष्ट हैं। वे तरह-तरह से अपनी
अप्रसन्नता प्रकट कर रहे हैं। एक वामपंथी इतिहासकार कह रहे हैं कि
न्यायालय ने कानून का ध्यान छोड़कर मानो पंचायत का फैसला सुना दिया है।
दूसरी प्रखर सेक्युलरवादी बौद्धिका कह रही हैं कि अब मुसलमानों का भारतीय
राजसत्ता से विश्वास उठ गया है। तीसरा इसे न्यायिक नहीं, राजनीतिक निर्णय
बता रहा है।
[एस. शंकर: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
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