राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल, युगाब्द 5111
दिनांक: 9,10,11 अक्टूबर, 2009
राजगृह, नालन्दा (बिहार)
प्रस्ताव क्र॰: 1
सीमा सुरक्षा सुदृढ़ करें
अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल भारत - तिब्बत (चीन अधिकृत) सीमा पर हुए हाल के घटनाक्रम पर गहरी चिंता व्यक्त करता है। विस्तारवादी चीन द्वारा हमारे भू-भाग पर कब्जा जमाने के निरंतर प्रयासों को कई समाचार माध्यमों ने उजागर किया है और अपने सुरक्षा विभाग के जिम्मेवार अधिकारियों ने भी इसकी पुष्टि की है।
अकेले गत वर्ष में ही इन रपटों ने चीन की ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी’ द्वारा नियंत्रण रेखा के
270 उल्लंघन और ‘आक्रामक सीमा चैकसी’ की 2285 घटनाएँ होने की पुष्टि की है। यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर दुःखद टिप्पणी है कि हमारे भू-भाग के बारे में विरोधियों की कुटिल योजनाओं के प्रति देश की जनता को सचेत करने के स्थान पर कानूनी कार्यवाही द्वारा मीडिया के स्वरों को दबाने का प्रयास हुआ है और आसन्न खतरे को निर्लज्जतापूर्वक कम दिखाने का भी प्रयास हुआ है। चीन की आक्रामक गतिविधियों के विरोध में अपनी तैयारी के विषय में हमारे नेताओं द्वारा दिये जा रहे पराभूत मनोवृत्ति वाले वक्तव्य अत्यन्त निराशाजनक एवं मनोबल गिराने वाले हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे आस-पास के देशों के आक्रामक व्यवहार के प्रति हमारी प्रतिक्रिया सदैव ढीली-ढाली रहती है। परम श्रद्धेय दलाई लामा को शरण देने के ऐतिहासिक निर्णय को छोड़ दें तो, तिब्बत के प्रश्न पर हमने निरंतर गलतियाँ की हैं और अंततः सार्वभौम व स्वतंत्र तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता ही दे दी है। चीन ने 50 के दशक में लद्दाख के अक्साई चिन पर कब्जा जमा लिया। हमारे अन्य भी भू-भाग हड़पने के चीन के षड्यंत्र के परिणामस्वरूप 1987 में सुंदोरांग चू घाटी के विषय में हमें अपमानजनक समझौता करना पड़ा। हमारी कमजोरी का लाभ उठाकर अब तो चीन ने पूरे अरुणाचल प्रदेश पर ही अपना दावा करना प्रारम्भ कर दिया है।
अ.भा.का.मं. का मानना है कि इस प्रकार के आक्रमणकारी रवैये पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया सर्वथा अपर्याप्त रही है। कार्यकारी मंडल सरकार से आवाहन करता है कि भारत-तिब्बत सीमा को और साथ ही साथ समुद्री सीमा, भारत-पाक एवं भारत-बांग्लादेश सीमा को भी सुदृढ़ करने के लिए तुरन्त कदम उठाए। चीन द्वारा सीमा के उस पार भारी सैन्य बल का एकत्रीकरण और ढाँचागत व्यवस्थाओं के निर्माण को देखते हुए हमें भारत-तिब्बत सीमा पर अपने सैन्य बल की प्रत्युत्तर क्षमता को और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है।
कूटनीतिक संवाद, घेरना और हमारे शत्रुओं को प्रोत्साहन देना - इन तीन बातों का भारत को परेशान करने के लिए चीन व्यूहात्मक शस्त्र के रूप में प्रयोग करता है। दक्षिण म्यांमा के
कोको द्वीप में स्थित उनकी गश्ती चैकी को उन्होंने पूर्णरूपेण सेना चैकी के रूप में विकसित कर लिया है। श्रीलंका में चीन एक वाणिज्य बंदरगाह का निर्माण कर रहा है जबकि पाकिस्तान के सिंध प्रांत में उसके द्वारा बनाया गया ग्वादर सैनिक बंदरगाह कामकाज के लिये तैयार हो चुका है। एक ओर वह भारत-तिब्बत सीमा को सैनिकी उŸोजना के लिये उपयोग में ला रहा है तो दूसरी ओर पूर्वोŸार भारत में स्थित आतंकवादी और राष्ट्रविरोधी तत्वों की मदद करने के लिए भारत-म्यांमा सीमा का दुरुपयोग कर रहा है। वह भारत को तोड़ने की बात तक करने लगा है।
कार्यकारी मंडल को खेद के साथ कहना पड़ता है कि सरकार के इस ढुलमुल रवैये
की कीमत भारत को न केवल सीमा पर अपितु कूटनीतिक मोर्चे पर भी चुकानी पड़ रही है।
‘ एशियन डेवलपमेंट बैंक ’ में अरुणाचल प्रदेश का मुद्दा उठाकर उस राज्य के विकास के लिए ऋण प्राप्त करने के भारत के प्रयासों को बाधित करने में चीन सफल हुआ है। चीन ने परमाणु आपूर्ति समूह के देशों को भारत के विरुद्ध लगे प्रतिबंधों को हटाने से रोकने का असफल प्रयास भी किया है।
अ.भा.का.मं. सरकार को स्मरण दिलाना चाहता है कि उसे संसद द्वारा 14 नवम्बर, 1962 को पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव की भावना के प्रकाश में कदम उठाना चाहिए, जिसमें चीन द्वारा हड़पी गई सारी भूमि वापस प्राप्त करने की बात स्पष्ट रूप से कही गई थी। भारत सरकार को चीन से स्पष्ट रूप से कह देना चाहिए कि वह पश्चिमी क्षेत्र में हड़पे गये भू-भाग को वापस करे और अन्य क्षेत्रों के संदर्भ में कोई दावा पेश न करे। चीन से कहा जाए कि वह मैकमोहन रेखा को भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा के रूप में उसी तरह मान्यता दे जिस तरह उसने चीन-म्यांमा सीमा पर उसे दी है।
यह बात चिन्ताजनक है कि अरुणाचल प्रदेश व कश्मीर के नागरिकों को चीन ‘पेपर वीसा’ दे रहा है। इस उकसाने वाली कारवाई से चीन दिखाना चाहता है कि अरुणाचल प्रदेश व कश्मीर को वह भारत के अविभाज्य अंग के रूप में स्वीकार नहीं करता। कार्यकारी मंडल माँग करता है कि सरकार आव्रजन अधिकारियों को आदेश दे कि, लोगों को देश से बाहर जाने के लिये इस प्रकार के ‘पेपर वीसा’ के प्रयोग पर तत्काल प्रतिबंध लगाये। आक्रामक दौत्य नीति के साथ इस प्रकार के दृढ़ कदम ही चीन के संबंध में अनुकूल परिणाम दे सकते हैं।
भारत-पाक मोर्चे पर भी इसी तरह की चिंताओं को कार्यकारी मंडल रेखांकित करना चाहता है। विशेषकर 9 जुलाई 2009 का भारत और पाक के प्रधानमंत्रियों का शर्म-अल-शेख का
संयुक्त वक्तव्य देश को स्तब्ध कर देने वाला है। अनेक विशेषज्ञ और विभिन्न राजनीतिक दलो के नेताओं ने इस वक्तव्य की दौत्य संबंधी भारी भूलों को उजागर किया है, जैसे - बलूचिस्तान मुद्दे को उसमें लाना और पाकिस्तान द्वारा सीमा पार आतंकवाद को जारी रखने पर भी उससे वात्र्ता पुनः प्रारम्भ करने की सहमति व्यक्त करना।
अ.भा.का.मं. माँग करता है कि पाकिस्तान के संबंध में भी संसद के 22 फरवरी 1994 के सर्वसम्मत प्रस्ताव की भावना का सरकार पालन करे, जिसमें कहा गया है कि पाक अधिकृत कश्मीर को भारत में वापस लाना ही एक मात्र मुद्दा है।
कार्यकारी मंडल हमारी सीमाओं की रक्षा में लगे बहादुर जवानों एवं अधिकारियों के शौर्यपूर्ण कृत्यों का अभिनंदन करता है और देशवासियों से आवाहन करता है कि वे सदैव सतर्क रह कर सरकार को अपनी भौगोलिक अखंडता एवं स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए बाध्य करें ।
सोमवार, 12 अक्टूबर 2009
मध्यप्रदेश में एनजीओ पंचायत के मायने
अनिल सौमित्र
12 अक्टूबर को प्रदेश की राजधानी भोपाल में एनजीओ पंचायत आहूत की गई है। पहले यह पंचायत 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के दिन किया जाना था। सरकार ने गांधीजी से संबंधित दिवस पर एनजीओ पंचायत कर कुछ विशेष संदेश देने की सोची होगी। लेकिन किन्ही कारणों से यह पंचायत अब 12 अक्टूबर को की जा रही है। दिवस चाहे कोई भी हो, इस पंचायत का पूर्व नियोजित कोई उद्देश्य अवश्य होगा। प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चैहान ने ‘‘स्वर्णिम मध्यप्रदेश’’ का नारा दिया है। सरकार ने 2013 तक इसे पूरा करने का लक्ष्य रखा है। उल्लेखनीय है कि सिर्फ भाजपा सरकार ही नहीं, संपूर्ण भाजपा और कहें तो संपूर्ण राष्ट्रवादी शक्तियों की यही अभीप्सा है - परम् वैभवम् नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्’ अर्थात् अपने देश को परम वैभव के शिखर तक ले जाना है। राष्ट्र के परम वैभव का सपना तभी सकार होगा जब एक-एक प्रदेश परम् वैभव की ओर अग्रसर होगा।
स्वप्न का संबंध स्वप्नद्रष्ट्रा से भी है। स्वप्न तो कोई भी देख सकता है, लेकिन उसे साकार वहीं कर सकता है जो कुशल योजनाकार और रणनीतिकार हो। स्वप्न को नीति, योजना और रणनीति दिए बिना साकार करना संभव नहीं है। आजादी के बाद अनेक पार्टियों और सरकारों ने सुखद स्वप्न देखे। लेकिन ये स्वप्न नारों में तब्दिल होकर रह गए। क्या भाजपा सरकार के मुखिया शिवराज का स्वप्न भी नारे में तब्दील होकर रह जायेगा! अन्य पार्टियों और सरकारों की तुलना में भाजपा और भाजपा सरकारों में थोड़ा ही सही, लेकिन फर्क तो जरूर है। यही फर्क उसे स्वप्न को साकार करने का जज्बा, उर्जा और कौशल देता है। भाजपा के पास आज भी प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज है। सैकड़ों समविचारी संगठनों का सहयोग और उर्जा है। अगर शिवराज सरकार ने पार्टी के कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों की उर्जा और कौशल का उपयोग किया तो स्वर्णिम मध्यप्रदेश का स्वप्न साकार होने में देर नहीं लगेगी।
शिवराज सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में भी विभिन्न पंचायतों के माध्यम से जनमत का आगाज किया था। इस कार्यकाल में भी प्रदेश के मुखिया ने पंचों को मंच देने का सिलसिला जारी रखा है। वे जानते हैं पंच ही परमेश्वर है। भाजपा सरकार हकदारों को सुनना चाहती है, जिनका हक है उनसे दो बातें करना चाहती है। मुख्यमंत्री की चैपाल में पंचायत का आयोजन सबको सुनने का एक उपक्रम है। लेकिन सुने हुए को गुना जाए और गुने हुए को वापस सब तक पहुचाया जाए, यह जनता-जनार्दन की अपेक्षा है। महिला पंचायत, किसान पंचायत, जनजाति (आदिवासी) पंचायत, वन पंचायत, अनुसूचित जाति पंचायत, कोटवार पंचायत, खेल पंचायत, लघु उद्योग पंचायत तथा कारीगर-शिल्पी पंचायत, किसान महापंचायत, निःशक्तजन पंचायत, मछुआ पंचायत, स्व-सहायता समूह पंचायत, हम्माल-तुलावट पंचायत और रिक्शा-ठेला चालक पंचायत के बाद इस एनजीओ पंचायत के अपने मायने हैं। इसके बाद कामकाजी महिलाओं की पंचायत भी की जा रही है।
यह पंचायत पूर्व में आयोजित पंचायतों से कई मायनों में भिन्न है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मध्यप्रदेश ही नहीं, देश और दुनियाभर में सार्वजनिक और निजी (सेक्टर) क्षेत्र की तरह एनजीओ सेक्टर का भी विस्तार हुआ है। पूर्व में आयोजित विभिन्न पंचायतों के बरक्स, राजनीति और वैचारिक क्षेत्र में एनजीओ सेक्टर का उन सबसे अधिक दखल और प्रभाव है। प्रदेश ही नहीं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एनजीओ की अलग किस्म की राजनीति है। एनजीओ के अनेक समूहों का न सिर्फ सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में दखल है, बल्कि वे देश और दुनिया की राजनीति को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। आज कुकुरमुत्ते की तरह पनप रहे पनप रहे एनजीओ की चर्चा छोड़ दे ंतो मध्यप्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में स्थापित एनजीओ अपनी-अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि के साथ अपने उद्देश्यों को अंजाम देने में लगे हैं। अमेरिका जैसे पूंजीवादी देशों से लेकर सोवियत रूस तक एनजीओ के माध्यम से अपने नियोजित उद्देश्यों को पूरा करते रहे हैं। अनेक सरकारों की खुफिया एजेंसियां भी अपनी विदेश नीति को क्रियान्वित करने में एनजीओ को माध्यम की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। लगभग सभी बड़ी रानीतिक पार्टियों ने एनजीओ प्रकोष्ठ की स्थापना कर रखी है। लेकिन अभी इस क्षेत्र में वाम राजनीति का एकछत्र कब्जा है। शिक्षा, शोध, मानवाधिकार, गरीबी, सूचना और ऐसे लगभग सभी क्षेत्रों में वाम राजनीति ने एनजीओ के माध्यम से अपना दखल और रूतबा बनाए रखा है। आज तक देशभर में माक्र्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद और कुल मिलाकर वाम (कम्युनिस्ट) राजनीति को स्थापित करने, उसे विस्तार देने में एनजीओ को एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। भारत में एनजीओ सेक्टर अपेक्षाकृत नया और कच्चा है। इस लिए अभी से इस दिशा में जागरुक, सचेत और सावधानी पूर्वक पहल व प्रयोग की दरकार है।
मध्यप्रदेश में जन अभियान परिषद् के रूप में एक अभिनव प्रयोग हुआ है। स्वैच्छिक संस्थाओं को संस्कार और प्रशिक्षण के माध्यम से सशक्त करने का प्रयास भले ही दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में शुरु हुआ, लकिन तब तक यह सुप्तावस्था में ही था। भाजपा सरकार ने पहली बार इस दिशा में एक सार्थक और सकारात्मक पहल की। भारत सरकार का योजना विभाग, योजना आयोग के माध्यम से इस दिशा में सक्रिय प्रयोग कर रहा है। इस प्रयोग के परिणाम भी आने लगे हैं। मध्यप्रदेश सरकार की पहल को और अधिक सक्रियता की दरकार है। जन अभियान परिषद् को कार्य करते हुए दशक बीत गए, लेकिन अभी तक कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं दिखा। अच्छे बजट और भारी-भरकम अमले के बावजूद जन अभियान परिषद् का कार्य-निष्पादन संतोषजनक नहीं है। स्वैच्छिक संस्थाओं और सरकार के बीच नीति, योजना और क्रियान्वयन के स्तर पर अभी बहुत कुछ किया जाना है। संभव है 12 अक्टूबर को आयोजित इस एनजीओ पंचायत में किसी एनजीओ नीति के प्रारूप की घोषणा हो। मुख्यमंत्री चाहें तो जन अभियान परिषद् के बैनर तले एक नीति-निर्माण समिति का गठन भी कर सकते हैं। ग्राम पंचायत से लेकर प्रदेश स्तर तक न सिर्फ विकास योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में, बल्कि आम जनता तक सुशासन सुनिश्चित करने में भी एनजीओ की भूमिका तय की जा सकती है।
जब कभी विकास की बात होती है तो उसके साथ विभिन्न ‘‘सिद्धांतों-वादों’’ की चर्चा भी होती है। विकास का चाहे पूंजीवादी, समाजवादी या माक्र्सवादी सिद्धांत हो या हिन्दुत्ववादी सिद्धांत, सबका लक्ष्य व्यक्ति को सुखी और सम्पन्न बनाना है। हिन्दुत्ववादी चिन्तन विशेष रूप से सभी प्रकार के संघर्षों का निषेध करते हुए समाज के अंतिम व्यक्ति को प्राथमिकता देता है। यह विविधताओं और श्रेष्ठताओं को सहज स्वीकार करता है। गांधी, लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय का विकास चिन्तन इसी हिन्दुत्व से प्रेरित और पोषित है। भारतीय समाज ने इसे सहज स्वीकार किया है। लेकिन माक्र्सवादी, माओवादी और लेनिनवादी अपने विकास सिद्धांतों को जबरन थोपने की कोशिश कर रहे हैं, जो न माने उसे हथियारों का भय दिखाने और भयभीत न होने वालों को खत्म कर देने का खूनी खेल हैं। भाजपा और भाजपा सरकार के मुखिया गाहे-बगाहे हिन्दुत्व, एकात्ममानववाद, अन्त्योदय और सर्वोदय की चर्चा करते ही रहे हैं। सर्वे भवन्तु सुखिनः की कल्पना साकार करने में प्रदेश के हजारों स्वैच्छिक संगठन समाज के प्रतिनिधि के तौर पर सरकार की मदद के लिए आगे आ सकते हैं। बशर्ते वे प्रशिक्षित और संस्कारित किए जाएं। प्रदेश के स्थापित एनजीओ स्वयं के प्रशिक्षण और संस्कार का विरोध भी कर सकते हैं। उन्हें अपने प्रशिक्षण और संस्कार का गुमान भी है। सरकार का राजधर्म तो यही है कि नये-पुराने, छोटे-बड़े सभी को साथ लेकर चले। वैचारिक अंतरद्र्वन्दों के बीच आपसी समन्वय स्थापित हो। प्रदेश की स्वैच्छिक संस्थाएं अपने शासकीय मुखिया के साथ कदम मिलाने, साथ चलने की चेष्टा करें तो ही बीमारू मध्यप्रदेश, स्वस्थ होकर स्वर्णिम प्रदेश बन सकेगा। यही स्वर्णिम प्रदेश, परम वैभवशाली राष्ट्र के लिए देश का नेतृत्व कर सकेगा। स्वर्णिम मध्यप्रदेश की चाह, कांग्रेस के गरीबी हटाओ और अनुशासन लाओ के नारे की तरह न हो जाए, इसलिए प्रदेश के विकास के प्रति अटूट प्रतिबद्धता विकसित करने की जरूरत है। इस दृष्टि से निश्चित ही इस एनजीओ पंचायत के मायने हैं। यह पंचायत इस आर्षवाणी की साक्षी बनेगी -
समानो मन्त्रः समितिः समानी
समानं मनः सहिचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमिभिमन्त्रये वः
समानने दो हविषा जुहोमि।।
अर्थात् मिलकर कार्य करने वालों का मन्त्र समान होता है, ये परस्पर मंत्रणा करके एक निर्णय पर पहंुचते हैं, चित्तसहित इनका मन समान होता है। मैं तुम्हे मिलकर समान निष्कर्ष पर पहंुचने की प्रेरणा देता हूं। यह एनजीओ पंचायत स्वर्णिम मध्यप्रदेश के लिए प्रदेश के मुखिया द्वारा समन्वय और उर्जा संचय का एक आह्वान भी है।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
ई-31, 45 बंगले, भोपाल
12 अक्टूबर को प्रदेश की राजधानी भोपाल में एनजीओ पंचायत आहूत की गई है। पहले यह पंचायत 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के दिन किया जाना था। सरकार ने गांधीजी से संबंधित दिवस पर एनजीओ पंचायत कर कुछ विशेष संदेश देने की सोची होगी। लेकिन किन्ही कारणों से यह पंचायत अब 12 अक्टूबर को की जा रही है। दिवस चाहे कोई भी हो, इस पंचायत का पूर्व नियोजित कोई उद्देश्य अवश्य होगा। प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चैहान ने ‘‘स्वर्णिम मध्यप्रदेश’’ का नारा दिया है। सरकार ने 2013 तक इसे पूरा करने का लक्ष्य रखा है। उल्लेखनीय है कि सिर्फ भाजपा सरकार ही नहीं, संपूर्ण भाजपा और कहें तो संपूर्ण राष्ट्रवादी शक्तियों की यही अभीप्सा है - परम् वैभवम् नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्’ अर्थात् अपने देश को परम वैभव के शिखर तक ले जाना है। राष्ट्र के परम वैभव का सपना तभी सकार होगा जब एक-एक प्रदेश परम् वैभव की ओर अग्रसर होगा।
स्वप्न का संबंध स्वप्नद्रष्ट्रा से भी है। स्वप्न तो कोई भी देख सकता है, लेकिन उसे साकार वहीं कर सकता है जो कुशल योजनाकार और रणनीतिकार हो। स्वप्न को नीति, योजना और रणनीति दिए बिना साकार करना संभव नहीं है। आजादी के बाद अनेक पार्टियों और सरकारों ने सुखद स्वप्न देखे। लेकिन ये स्वप्न नारों में तब्दिल होकर रह गए। क्या भाजपा सरकार के मुखिया शिवराज का स्वप्न भी नारे में तब्दील होकर रह जायेगा! अन्य पार्टियों और सरकारों की तुलना में भाजपा और भाजपा सरकारों में थोड़ा ही सही, लेकिन फर्क तो जरूर है। यही फर्क उसे स्वप्न को साकार करने का जज्बा, उर्जा और कौशल देता है। भाजपा के पास आज भी प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज है। सैकड़ों समविचारी संगठनों का सहयोग और उर्जा है। अगर शिवराज सरकार ने पार्टी के कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों की उर्जा और कौशल का उपयोग किया तो स्वर्णिम मध्यप्रदेश का स्वप्न साकार होने में देर नहीं लगेगी।
शिवराज सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में भी विभिन्न पंचायतों के माध्यम से जनमत का आगाज किया था। इस कार्यकाल में भी प्रदेश के मुखिया ने पंचों को मंच देने का सिलसिला जारी रखा है। वे जानते हैं पंच ही परमेश्वर है। भाजपा सरकार हकदारों को सुनना चाहती है, जिनका हक है उनसे दो बातें करना चाहती है। मुख्यमंत्री की चैपाल में पंचायत का आयोजन सबको सुनने का एक उपक्रम है। लेकिन सुने हुए को गुना जाए और गुने हुए को वापस सब तक पहुचाया जाए, यह जनता-जनार्दन की अपेक्षा है। महिला पंचायत, किसान पंचायत, जनजाति (आदिवासी) पंचायत, वन पंचायत, अनुसूचित जाति पंचायत, कोटवार पंचायत, खेल पंचायत, लघु उद्योग पंचायत तथा कारीगर-शिल्पी पंचायत, किसान महापंचायत, निःशक्तजन पंचायत, मछुआ पंचायत, स्व-सहायता समूह पंचायत, हम्माल-तुलावट पंचायत और रिक्शा-ठेला चालक पंचायत के बाद इस एनजीओ पंचायत के अपने मायने हैं। इसके बाद कामकाजी महिलाओं की पंचायत भी की जा रही है।
यह पंचायत पूर्व में आयोजित पंचायतों से कई मायनों में भिन्न है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि मध्यप्रदेश ही नहीं, देश और दुनियाभर में सार्वजनिक और निजी (सेक्टर) क्षेत्र की तरह एनजीओ सेक्टर का भी विस्तार हुआ है। पूर्व में आयोजित विभिन्न पंचायतों के बरक्स, राजनीति और वैचारिक क्षेत्र में एनजीओ सेक्टर का उन सबसे अधिक दखल और प्रभाव है। प्रदेश ही नहीं, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एनजीओ की अलग किस्म की राजनीति है। एनजीओ के अनेक समूहों का न सिर्फ सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में दखल है, बल्कि वे देश और दुनिया की राजनीति को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। आज कुकुरमुत्ते की तरह पनप रहे पनप रहे एनजीओ की चर्चा छोड़ दे ंतो मध्यप्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में स्थापित एनजीओ अपनी-अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि के साथ अपने उद्देश्यों को अंजाम देने में लगे हैं। अमेरिका जैसे पूंजीवादी देशों से लेकर सोवियत रूस तक एनजीओ के माध्यम से अपने नियोजित उद्देश्यों को पूरा करते रहे हैं। अनेक सरकारों की खुफिया एजेंसियां भी अपनी विदेश नीति को क्रियान्वित करने में एनजीओ को माध्यम की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। लगभग सभी बड़ी रानीतिक पार्टियों ने एनजीओ प्रकोष्ठ की स्थापना कर रखी है। लेकिन अभी इस क्षेत्र में वाम राजनीति का एकछत्र कब्जा है। शिक्षा, शोध, मानवाधिकार, गरीबी, सूचना और ऐसे लगभग सभी क्षेत्रों में वाम राजनीति ने एनजीओ के माध्यम से अपना दखल और रूतबा बनाए रखा है। आज तक देशभर में माक्र्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद और कुल मिलाकर वाम (कम्युनिस्ट) राजनीति को स्थापित करने, उसे विस्तार देने में एनजीओ को एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। भारत में एनजीओ सेक्टर अपेक्षाकृत नया और कच्चा है। इस लिए अभी से इस दिशा में जागरुक, सचेत और सावधानी पूर्वक पहल व प्रयोग की दरकार है।
मध्यप्रदेश में जन अभियान परिषद् के रूप में एक अभिनव प्रयोग हुआ है। स्वैच्छिक संस्थाओं को संस्कार और प्रशिक्षण के माध्यम से सशक्त करने का प्रयास भले ही दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में शुरु हुआ, लकिन तब तक यह सुप्तावस्था में ही था। भाजपा सरकार ने पहली बार इस दिशा में एक सार्थक और सकारात्मक पहल की। भारत सरकार का योजना विभाग, योजना आयोग के माध्यम से इस दिशा में सक्रिय प्रयोग कर रहा है। इस प्रयोग के परिणाम भी आने लगे हैं। मध्यप्रदेश सरकार की पहल को और अधिक सक्रियता की दरकार है। जन अभियान परिषद् को कार्य करते हुए दशक बीत गए, लेकिन अभी तक कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं दिखा। अच्छे बजट और भारी-भरकम अमले के बावजूद जन अभियान परिषद् का कार्य-निष्पादन संतोषजनक नहीं है। स्वैच्छिक संस्थाओं और सरकार के बीच नीति, योजना और क्रियान्वयन के स्तर पर अभी बहुत कुछ किया जाना है। संभव है 12 अक्टूबर को आयोजित इस एनजीओ पंचायत में किसी एनजीओ नीति के प्रारूप की घोषणा हो। मुख्यमंत्री चाहें तो जन अभियान परिषद् के बैनर तले एक नीति-निर्माण समिति का गठन भी कर सकते हैं। ग्राम पंचायत से लेकर प्रदेश स्तर तक न सिर्फ विकास योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में, बल्कि आम जनता तक सुशासन सुनिश्चित करने में भी एनजीओ की भूमिका तय की जा सकती है।
जब कभी विकास की बात होती है तो उसके साथ विभिन्न ‘‘सिद्धांतों-वादों’’ की चर्चा भी होती है। विकास का चाहे पूंजीवादी, समाजवादी या माक्र्सवादी सिद्धांत हो या हिन्दुत्ववादी सिद्धांत, सबका लक्ष्य व्यक्ति को सुखी और सम्पन्न बनाना है। हिन्दुत्ववादी चिन्तन विशेष रूप से सभी प्रकार के संघर्षों का निषेध करते हुए समाज के अंतिम व्यक्ति को प्राथमिकता देता है। यह विविधताओं और श्रेष्ठताओं को सहज स्वीकार करता है। गांधी, लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय का विकास चिन्तन इसी हिन्दुत्व से प्रेरित और पोषित है। भारतीय समाज ने इसे सहज स्वीकार किया है। लेकिन माक्र्सवादी, माओवादी और लेनिनवादी अपने विकास सिद्धांतों को जबरन थोपने की कोशिश कर रहे हैं, जो न माने उसे हथियारों का भय दिखाने और भयभीत न होने वालों को खत्म कर देने का खूनी खेल हैं। भाजपा और भाजपा सरकार के मुखिया गाहे-बगाहे हिन्दुत्व, एकात्ममानववाद, अन्त्योदय और सर्वोदय की चर्चा करते ही रहे हैं। सर्वे भवन्तु सुखिनः की कल्पना साकार करने में प्रदेश के हजारों स्वैच्छिक संगठन समाज के प्रतिनिधि के तौर पर सरकार की मदद के लिए आगे आ सकते हैं। बशर्ते वे प्रशिक्षित और संस्कारित किए जाएं। प्रदेश के स्थापित एनजीओ स्वयं के प्रशिक्षण और संस्कार का विरोध भी कर सकते हैं। उन्हें अपने प्रशिक्षण और संस्कार का गुमान भी है। सरकार का राजधर्म तो यही है कि नये-पुराने, छोटे-बड़े सभी को साथ लेकर चले। वैचारिक अंतरद्र्वन्दों के बीच आपसी समन्वय स्थापित हो। प्रदेश की स्वैच्छिक संस्थाएं अपने शासकीय मुखिया के साथ कदम मिलाने, साथ चलने की चेष्टा करें तो ही बीमारू मध्यप्रदेश, स्वस्थ होकर स्वर्णिम प्रदेश बन सकेगा। यही स्वर्णिम प्रदेश, परम वैभवशाली राष्ट्र के लिए देश का नेतृत्व कर सकेगा। स्वर्णिम मध्यप्रदेश की चाह, कांग्रेस के गरीबी हटाओ और अनुशासन लाओ के नारे की तरह न हो जाए, इसलिए प्रदेश के विकास के प्रति अटूट प्रतिबद्धता विकसित करने की जरूरत है। इस दृष्टि से निश्चित ही इस एनजीओ पंचायत के मायने हैं। यह पंचायत इस आर्षवाणी की साक्षी बनेगी -
समानो मन्त्रः समितिः समानी
समानं मनः सहिचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमिभिमन्त्रये वः
समानने दो हविषा जुहोमि।।
अर्थात् मिलकर कार्य करने वालों का मन्त्र समान होता है, ये परस्पर मंत्रणा करके एक निर्णय पर पहंुचते हैं, चित्तसहित इनका मन समान होता है। मैं तुम्हे मिलकर समान निष्कर्ष पर पहंुचने की प्रेरणा देता हूं। यह एनजीओ पंचायत स्वर्णिम मध्यप्रदेश के लिए प्रदेश के मुखिया द्वारा समन्वय और उर्जा संचय का एक आह्वान भी है।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
ई-31, 45 बंगले, भोपाल
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