गुरुवार, 31 जुलाई 2008

मानवाधिकार बचाने की कमाई
उमाशंकर मिश्र
दंतेवाडा़ के सलवा जुडूम कैंप को देखने के बाद मैंने रायपुर की ओर कूच कर दिया। मैं जानना चाहता था कि भारी-भरकम बजट और विदेशी सहयोगियों के सहारे चलनेवाले
मानवाधिकार आंदोलनों का जमीनी जुड़ाव क्या है और ऐसा करने के पीछे उनके अपने तर्क क्या हैं? मन में यह सवाल था कि सुरक्षाकर्मी यदि लोगों के मानवाधिकार का हनन कर रहे हैं तो नक्सली क्या कर रहे हैं? रायपुर में रहकर कई तरह की बातें मानवाधिकारवादियों के बारे में सुनने को मिल रही थी। जिनमें से एक था कि मानवाधिकारवादी सलवा जुडूम का विरोध करके नक्सलवाद को जस्टीफाई कर रहे हैं। दूसरी ओर महेंद्र कर्मा तथा डीजीपी विश्वरंजन से जब मुलाकात हुई तो उन्होंने इस तरह की कवायदों को सलवा जुडूम के खिलाफ एक दुष्प्रचार करार दिया। डीजीपी ने तो यहां तक कहा कि दुष्प्रचार करने वालों को यह तय करना होगा कि आप किसके साथ हैं, प्रजातांत्रिक व्यवस्था के साथ या फिर नक्सलवाद के साथ, यदि आप नक्सलवाद के साथ हैं तो आपको इस देश के संविधान के मुताबिक यहां की सुरक्षा एजेंसियों से कोई नहीं बचा पाएगा। इस तरह उहापोह को लेकर मैंने किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता से मिलकर जिज्ञासा शांत करने का निर्णय लिया। रायपुर पहुंचकर मैंने मानवाधिकार कार्यकर्ता सुभाष महापात्र को फोन लगाया तो किसी महिला ने फोन उठाया और कहा कि आप आ जाइये, सुभाष जी अभी घर पर ही मिलेंगे। सवेरे ही मैं ऑटो पकड़ कर सुभाष महापात्र के महावीर नगर स्थित घर की तरफ निकल पड़ा। रास्ते में मैं डीजीपी विश्वरंजन की वह बात बार बार मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि `नक्सली इस देश का संविधान ही नहीं चाहते हैं।´ फिर नक्सलवादियों के आदर्श माने जाने वाले `माओ´ की बात भी याद आती है कि `सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है।´ मन में सवाल उठ रहा था कि क्या नक्सलवाद वास्तव में इस देश के संविधान, प्रजातंत्र के लिए ख़तरा है?
यही सब सोचते सोचते मैं महावीर नगर के नाके पर पहुंच गया, मुझे वहां से एमआईजी-22 सहयोग अपार्टमेंट जाना था। पूछने पर पता चला कि सहयोग अपार्टमेंट अभी करीब डेढ़ दो किलोमीटर की दूरी पर है। रिक्शे में बैठकर मैं सहयोग अपार्टमेंट की तरफ चल पड़ा। सहयोग अपार्टमेंट पहुंचकर रिक्शा छोड़कर पैदल ही एमआईजी-22 को खोजना शुरु कर दिया। कई गलियों में ढूंढा, लेकिन जब नहीं मिला तो मैने एक लड़के से पूछा। उस लड़के ने कहा कि `भाई साहब यहां कई लोग आते हैं जो एमआईजी-22 के बारे में पूछते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि यह पता ही गलत है।´ उसकी बात सुनकर एक बार तो मैं चकरा गया और संदिग्धता तनिक और बढ़ गई। लेकिन मैं उस गली से बाहर निकल कर आया और नुक्कड़ के एक जनरल स्टोर के मालिक से पता पूछा तो उसने इशारा करते हुए बताया कि उस गली के कोने पर एमआईजी-21 है और एमआईजी-22 भी वहीं होना चाहिए। इतना बताकर उस व्यक्ति के मुंह से सहज ही निकल पड़ा कि वहां तो विदेशी (अंग्रेज) रहते हैं। उसकी बात सुनकर मुझे विश्वास सा हो गया कि हो न हो, वही मेरा गंतव्य स्थान है, क्योंकि अपने देशवासियों के मानवाधिकार की वकालत हम खुद तो कर ही नहीं सकते न, इसके लिए हमें विदेशियों की शरण में जाना ही पड़ता है। वहां जाकर देखा तो एक बड़े से मकान के बाहर बड़ा सा लोहे का गेट लगा हुआ था। गेट पर एक आदिवासी पुरुष लुंगी लपेटे खड़ा था और लुंगी के दूसरे सिरे को घुमाकर उसने कंधे पर रखकर अपने एक हाथ को ढका हुआ था। ध्यान से देखने पर पता चला कि उसका वह हाथ जिसको ढका गया था, इंजर्ड होने के कारण सूजा हुआ था। उस घायल आदिवासी को देखकर यह तो निश्चित हो गया था कि यही मानवाधिकार कार्यकर्ता का घर होना चाहिए।
मैंने उस आदमी को बुलाकर दरवाजा खोलने के लिए इशारा किया। पहले तो आदिवासियों की सहज प्रवृत्तिवश वह सकुचाता हुआ सिर झुकाकर दूसरी तरफ चला गया, लेकिन मैंने जब दुबारा बुलाया तो उसने आकर दरवाजा खोल दिया। अंदर घुसते ही दाहिने हाथ पर दरवाजे के बाहर छोटी सी तख्ती लगी हुई थी, जिस पर लिखा था `एफएफएफडीए´ (फोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डाक्युमेंटेशन एण्ड एडवोकेसी)। यह सुभाष महापात्र द्वारा चलाए जा रहे मानवाधिकार संगठन का नाम है। दरवाजा खोलते ही सामने एक रॉकस्टार की तरह बाल बढ़ाए हुए गोरा विदेशी कम्प्यूटर स्क्रीन पर नजर गड़ाए हुए बैठा हुआ था। मैने उससे सुभाष महापात्र के बारे में पूछा तो इशारा करते हुए उसने अंदर जाने को कहा। उसके भावविहीन चेहरे को देखकर लग रहा था मानो वह भारत में हो रहे इस तथाकथित मानवाधिकार को लेकर बेहद चिंतित हो। अंदर जाने के लिए जैसे ही मैं बढ़ा तो वहीं पर संभवत: दो अन्य विदेशी मानवाधिकारवादी कम्पयूटर पर नजरे गड़ाए ऐसे तल्लीन बैठे थे, मानो वे निरंतर कुछ ट्रैक करने में जुटे हुए थे। उनमें एक महिला थी, जिसने कानों में हैडफोन भी लगाया था। थोड़ा और आगे बढ़ने पर सामने ही कुछ और लोग खड़े दिखाई दिये, जिनमें कई लोग विशुद्ध जनजातीय वेशभूषा में थे, जिन्हें देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वे आदिवासी हैं।
जनअदालत लगाकर नक्सली आदिवासियों को प्रताड़ित करते हैं, बाप को भरी सभा में बेटे से मरवाया जाता है, भरी सभा में लोगों को मार दिया जाता है, आखिर यह भी तो मानवाधिकार हनन के दायरे में आना चाहिए, फिर इस पर कभी चर्चा क्यों नहीं होती? इस बात पर सुभाष सहमती जताते हुए कहते हैं कि नक्सली भी गलत कर रहे हैं। दूसरे ही क्षण वे कहते हैं कि सरकार और नक्सली दोनों ही पक्ष गलत कर रहे हैं। एसपीओ को लेकर विरोध क्यों है, जबकि उसकी भर्ती तो पुलिस एक्ट के तहत की जाती है और वह सरकार के पे-रोल पर काम कर रहा है? जवाब मिलता है कि नाबालिग बच्चों को हथियार थमाया जा रहा है,जबकि संयुक्त राष्ट कन्वेंशन के मुताबिक 14 साल के उम्र वाले को बच्चा माना गया है। मैने पूछा कि हमारे यहां तो 18 साल वाले को ही बालिग माना जाता है, हमें अपने देश का कानून मानना चाहिए या कहीं और का? जवाब में वे कहते हैं कि अपने देश का ही कानून मानना चाहिए, लेकिन जो व्यवस्था गलत है, उसे बदल देना चाहिए।अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब तक आप किसी चीज से अनभिज्ञ हैं तब तक आप समान्य व्यक्ति की तरह बेपरवाह होकर जीवन जी रहे होते हैं, लेकिन जब आप चीजों को समझने लगते हैं तो आप संतोष का अनुभव होता है अथवा निराशा में डूब कर व्यक्ति मानसिक तौर पर अशांत होने लगता है। कुछ ऐसा ही मुझे उन देशी विदेशी मानवाधिकारवादियों और उनके बीच मुंह लटकाये खड़े करीब दर्जन भर आदिवासियों को देखकर महसूस हो रहा था। लेकिन मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए पूछा, क्या बात है? सुभाष जी, आप काफी टेन्श दिखाई पड़ रहे हैं। वे बोले हां, अब देखिये न इन लोगों को कोई रात को तीन बजे यहां छोड़कर चला गया और बताया भी नहीं कि ये लोग कौन हैं। सुभाष ने बताया कि उन आदिवासियों में से दो को पुलिस की गोली भी लगी है। यह सुनते ही मेरे मन में सवाल उठा कि क्या ये आम आदिवासी ही हैं, जिन्हें गोली लगी है? संभवत: नक्सली भी हो सकते हैं, क्योंकि दंतेवाड़ा में जिन सुरक्षा बलों पर बाजार में नक्सलियों ने हमला किया था, वे भी तो आम आदिवासियों की ही वेशभूषा में थे. हालांकि यह मेरी तत्कालीन मन:स्थिति की उपज हो सकती है, इसे निर्णायक नहीं माना जाना चाहिए।
उनके पूछने पर मैने बताया कि सलवा जुडूम को लेकर मुझे बात करनी है। इतना सुनकर सुभाष महापात्र थोड़ा अचकचाए फिर उन्होंने कहा कि `सलवा जुडूम तो 2005 से पहले ही शुरु हो गया था। पुलिस इसके लिए काफी पहले से ही रिहर्सल कर रही थी और 2003 में बीजेपी सरकार के आने पर ही इसकी शुरुआत हो गई थी। बकौल सुभाष सलवा जुडूम को नेता लोग चला रहे हैं। मैंने पूछा कि आखिर नेता इस आंदोलन को क्यों चला रहे है? जबकि सरकार और यहां तक कि विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा भी यह कहते हैं कि यह लोगों का स्व-स्फूर्त आंदोलन है। जवाब में वे कहते हैं कि ऐसा सरकार जंगल में कंपनियों के सम्राज्य को खड़ा करने के लिए कर रही है। लोगों को गांवों से निकालकर लाया जा रहा है, जिससे कंपनियों का रास्ता साफ हो सके। लेकिन साथ ही इस ओर भी ध्यान देना होगा कि आदिवासियों के वनक्षेत्र में बसे गांव छोड़ देने से नक्सलियों की ढाल खत्म हो जाएगी। यह भी नक्सलियों के लिए चिंता का एक विषय है। मैनें अगला सवाल पूछते हुए कहा कि महेन्द्र कर्मा, जो इस आंदोलन के नेता है वे तो बाद में इस अभियान से जुड़े थे, जबकि आप कह रहे हैं कि यह नेताओं द्वारा शुरु किया गया है? इस पर वे कहते हैं कि अगर कर्मा बाद में सलवा जुडूम से जुड़े थे तो वे नेता कैसे बन गए। मैनें पूछ लिया कि नक्सलियों का संघर्ष किससे है और किस वर्ग के हित की लड़ाई वे लड़ रहे हैं? सुभाष थोड़ा तिलमिला जाते हैं और कहते हैं कि इसका जवाब देना मेरा काम नहीं है, मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूं, यह सवाल आप नक्सलियों से जाकर पूछिये।
सुभाष कहते हैं कि जनता ने वोट के रूप में अपनी शक्तियां सरकार को दे दी हैं और सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता की रक्षा करे। मैनें कहा कि सरकार ने सुरक्षा के लिए ही तो सलवा जुडूम कैंपों में सुरक्षा बल तैनात किये हैं। जवाब में वे कहते हैं कि आखिर कैम्प में क्यों आदिवासियों को रखा जा रहा है? क्यों नहीं उन्हें उनके गांव में रहने दिया जाता? मैंने कहा कि यदि सलवा जुडूम शिविरों से सुरक्षा हटा ली जाए तो क्या नक्सली गांव वापस जाने पर उन आदिवासियों को जिन्दा छोड़ेंगे? तब क्या आदिवासियों का मानवाधिकार हनन नहीं होगा? वे कहते हैं कि इस बात की क्या गारंटी है कि शिविरों में रहने पर पुलिसवाले इन लोगों को नहीं मारेंगे, उनका मानवाधिकार हनन नहीं करेंगे? वे कहते हैं कि सरकार और प्रशासन ने इस तरह की परिस्थितियों को पैदा किया हैं। आप आदिवासियों को सुरक्षा नहीं दे पाए, विकास नहीं किया जिसका आक्रोश नक्सलवाद के रूप में उभर कर आता है। वे कहते हैं कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार है, इसलिए नक्सली टावर गिरा देते हैं। आप इसकी भी सुरक्षा नहीं कर पाते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या बिजली का टावर गिराने से बस्तर के करीब 20 लाख लोगों का मानवाधिकार हनन नहीं हुआ? इसका जवाब वे गोलमोल कर जाते हैं और कहते हैं कि इसकी परिस्थितियां सरकार ने ही पैदा की हैं।
जब उनसे सवाल किया कि सर्वहारा की वकालत करने वाले नक्सली आखिर उनकी आजीविका के एकमात्र साधन हाट बाजार को क्यों जला देते हैं, उनके गांवों को क्यों जला देते हैं, आंगनबाड़ियों और बाल आश्रमों को क्यों धवस्त कर देते हैं, क्या यह मानवाधिकार हनन नहीं है? सुभाष सीधे तौर पर इसके लिए सलवा जुडूम के नेता महेन्द्र कर्मा पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि `गांवों को तो ये नेता लोग जलवा रहे हैं, जिससे आदिवासियों को वहां से बाहर लाया जा सके।´ मैंने पूछा कि दूर दराज के गांवों में बसे करीब 60 हजार आदिवासी किसी नेता के कहने पर क्या इकट्ठा किये जा सकते हैं, जबकि उन्हें यह मालूम हो कि ऐसा करने पर वे नक्सलियों की बंदूक के निशाने पर आ जाएंगे? इस प्रश्न का वे संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते हैं और कहते हैं कि लोगों को जर्बदस्ती कैंपों में लाया जा रहा है। लेकिन जब यह पूछा जाता है कि पुलिसकर्मी भी तो इस लड़ाई में मर रहा है, क्या उसका और उसके परिवार का कोई मानवाधिकार नहीं है? जवाब मिलता है `नहीं, पुलिस का कोई मानवाधिकार नहीं होता, वह तो ड्यूटी पर होता है, मानवाधिकार तो आम नागरिकों का होता है।" क्या हमें सुभाष महापात्र की बात मान लेनी चाहिए?
सुभाष सवाल उठाते हैं कि आपने सलवा जुडूम क्यों शुरु किया? कंधार का उदाहरण देते हुए वे "सेफ पैसेज" की भी बात करते हैं। पुलिस व्यवस्था पर आरोप लगाते हुए वे कहते हैं कि पुलिस भ्रष्ट है, यही कारण था कि नक्सलियों से लड़ने के लिए आए केपीएस गिल भी वापस लौट गए? लेकिन जब उनसे पूछा गया कि केपीएस गिल ने जिस तरह की कार्यवाही पंजाब में की थी, क्या वैसा ही बस्तर में भी हो सकता है? जवाब में सुभाष कहते हैं कि पुलिस को चाहिए की नक्सलियों को गिरफतार करे और कोर्ट में ट्रायल करवाए। अंत में सुभाष कहते हैं कि हो सकता है आप मेरी बातों का संदर्भ बदलकर प्रस्तुत कर दें, क्योंकि अक्सर ऐसा किया जाता है और हम भी ऐसा ही करते हैं। वे कहते हैं कि अगर आप ऐसा करते हैं तो मुझे खण्डन करना पड़ेगा। उस पल मुझे अपने पास टेपरिकार्डर न होने की कमी बेहद खली थी, क्योंकि उनकी इस बात से ऐसा लगा कि संभवत: वे मेरे लिखे को भी गलत ठहरा दें। ख़ैर जो भी हो, इस उठापटक का दुष्परिणाम आखिरकार आम आदिवासियों को ही भुगतना पड़ रहा है।

रविवार, 27 जुलाई 2008

वंचितों की वाणी और निःशक्तों का सहारा है दिग्दर्शिका

विकलांगता अथवा निःशक्ता अपने-आप में एक विषम परिस्थिति हैं। यह विषमता, गरीबी के कारण और भी दुरूह हो जाती है। गरीब स्त्री और बच्चों के मामले में विकलांगता तो मानों एक श्राप के समान है। वे तमाम अवसरों से अलहदा हैं। सामान्यतः इनकी मदद के लिए कोई नहीं आता। ऐसे हजारों बच्चे जो दुनिया के विविध रंगो को देख नहीं पा रहे, सैकड़ों बच्चों के लिए बहु-विकलांगता के कारण यह वसुंधरा एक यातनागृह के समान है। ऐसे सभी बच्चों के लिए इस दुनिया को अनुकूल और दुनिया के अनुकूल बच्चों को बनाने के लिए बहुविध प्रयास किए जा रहे हैं विकलांगता से जूझ रहे ऐसे तमाम बच्चों को एक बेहतर दुनिया देने की दिशा में शासकीय प्रयास नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं। गैर-सरकारी प्रयास अपनी हदों में बंधे हैं। देश और दुनिया में निःशक्तों की बढ़ती तादाद एक बड़ी चुनौती के रूप में मुह बाए खड़ी है। वंचितों और निःशक्तों को अवसर और शक्ति प्रदान करना एक चुनौतिपूर्ण कार्य है। विशेषकर शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर बच्चों और वृद्धों के लिए कोई भी प्रयास जोखिम भरा है। लेकिन, इस चुनौती और जोखिम को भोपाल में शुरू हुई एक संस्था दिग्दर्शिका ने स्वीकार किया है । दिग्दर्शिका पुनर्वास और अनुसंधान संस्थान की स्थापना भोपाल में वर्ष 1989 में हुई। यह संस्थान एक गैर-सरकारी संगठन के रूप में कार्यरत है। यह संगठन विकलांगता और मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशेषज्ञ सेवाएं देता है। यह संस्थान भारतीय पुनर्वास परिषद् और राष्ट्रीय न्यास के साथ संबद्ध होकर कार्य कर रहा है। यह संस्थान आॅर्टिज्म व्यक्तियों के साथ ही, सेरेब्रल पैल्सी, मानसिक मंदता और बहु-विकलांगता से ग्रस्त बच्चों के लिए मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत है। दिग्दर्शिका ने रीच इंडिया नामक एजेंसी के सहयोग से कई संगठनों और संस्थाओं को अपने साथ जोड़ा है। ये संस्थाएं निःशक्त बच्चों के लिए शिक्षा और पुनर्वास का अवसर मुहैया करा रही हैं। रीच इंडिया की मदद से इन संस्थाओं को सशक्त और क्षमतावान बनाया जा रहा है ताकि ये संस्थाएं निःशक्त बच्चों को अवसरों का लाभ उठाने के लिए मदद कर सकें।दिग्दर्शिका, वंचितों की मदद के लिए देशी-विदेशी अनेक एजेंसियों से मदद ले रहा है। सेंस इंटरनेशनल (इंडिया) एक ऐसी ही संस्था है। यह संस्था अंधत्व से ग्रस्त बच्चों के लिए तकनीकी सहायता उपलब्ध करा रही है। दिग्दर्शिका निःशक्तता के क्षेत्र में कार्यरत दुनिया के महत्वपूर्ण एजेंसियों के लिए लिंक एजेंसी के रूप में काम कर रही है। निश्चित ही यह निःशक्तजनों के लिए देश की चुनिंदा संस्थाओं में से एक है। हालांकि दिग्दर्शिका का पुराना केन्द्र भोपाल के शिवाजी नगर में स्थित था, लेकिन इसका नया दतर अरेरा काॅलोनी में अपेक्षाकृत बेहतर युविधाओं और संसाधनों लैस है। जरूरतमंद लोग दिगदर्शिका के इस कार्यालय (ई 7/81, अरेरा काॅलोनी, भोपाल) में मदद देने और मदद करने के लिए संपर्क कर सकते हैं। व्यक्तिगत और संस्थागत तौर पर मदद देने वाले और मदद की अपेक्षा रखने वाले लोग दिगदर्शिका को संपर्क कर सकते हैं। दिग्दशर््िका, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई एजेंसियों के साथ संबद्ध है। इसका लाभ भी प्रदेश की संस्थाएं उठा सकती हैं। संस्था ने कर्मठ और लगनशील कार्यकर्ता सुमित राय और काकोली राय के नेतृत्व में काफी प्रगति की है। इन्होंने न सिर्फ एक चुनौती को स्वीकार किया है, बल्कि अपने प्रयासों से नए एनजीओ को भी विकलांगता के क्षेत्र में कार्य करने के लिए आकर्षित किया है। दिगदर्शिका के प्रयासों के कारण मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विकलांग बच्चों की शिक्षा, प्रशिक्षण, परामर्श, जागरुकता और पुनर्वास के क्षेत्र में कार्यरत नई और पुरानी संस्थाओं का एक नेटवर्क खड़ा हुआ है। भारत में निःशक्तता, भले ही एक बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने हो, लेकिन इस चुनौती से जूझने और भिड़ने के लिए संस्थाएं और कार्यकर्ता भी बड़ी संख्या में आगे आ रहे हैं। दिग्दर्शिका, इन संस्थाओं की सूची में अग्रणी स्थान रखने वाला है। दिग्दर्शिका का प्रयास है कि न र्सिफ बच्चों, बल्कि सभी निःशक्तजन शासकीय सुविधाओं और अवसरों का समुचित लाभ उठा पाएं। निःशक्तजन, दुर्भाग्यवश अवसरों से वंचित तो हैं, लेकिन उन्हें समाज और विकास की मुख्यधारा में लाना भी हमारा ही दायित्व है। इस दिशा में सामुदायिक पहल का भी काफी महत्व है। समुदाय की भागीदारी के बिना निःशक्तों का पुनर्वास संभव नहीं है। इसीलिए समुदाय आधारित पुनर्वास की अवधारणा को साकार करने की कोशिश की जा रही है। विकलांगों के पुनर्वास के लिए ’समाज आगे, सरकार पीछे’ के सिद्धांत पर काम करने की आवश्यकता है। दिग्दर्शिका इस दिशा में भी प्रयासरत है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि दिग्दर्शिका, वंचितों की वाणी और निःशक्तों का सहारा है। स्पंदन फीचर्स। ई-31, 45 बंगले,

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

पढ़ने लायक किताबें

पढ़ने लायक किताबें

  • दलित मुद्दों पर डा। रामगोपाल सिंह की पुस्तक - विकल्प की तलाश
  • चर्चित और विवादास्पद लेखों का संकलन श्री प्रभात झा की पुस्तक -जन गण मन
  • हिन्दू संस्कारों का सरल उल्लेख करती श्री अनिल माधव दवे की पुस्तक - सृजन से विसर्जन तक
मध्यप्रदेश में
कुलपति बने कुलाधिपति के गले की हड्डी
भोपाल। मध्यप्रदेश के रसूखदार और दबंग कुलपति डाॅ. कमलाकर सिंह के खिलाफ जांच शुरू हो गई है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कुछ दिन पहले ही जिस भोज मुक्त विश्वविद्यालय के भवन का लोकार्पण किया था, यह जांच उसी भवन से संबंधित है। भवन निर्माण में आर्थिक अनियमितताओं को लेकर कई शिकायतें हैं। जांच के घेरे में स्वयं विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. कमलाकर सिंह हैं। राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) ने कुलपति के अलावा विवि के इंजीनियर, दो फर्म व एक ठेकेदार के खिलाफ प्रारंभिक जांच के लिए शिकायत दर्ज की है। गौरतलब है कि भोज विश्वविद्यालय के भवन निर्माण में लगभग 25 करोड़ खर्च हुआ है। शासन के विभिन्न विभागों से भवन निर्माण की अनुमति न लेने और निर्माण कार्य में भारी अनियमितता बरतने के आरोप विश्वविद्यालय के मुखिया डाॅ. कमलाकर सिंह पर लग रहे हैं। जबलपुर के अधिवक्ता कमलेश द्विवेदी ने अपनी शिकायत में आरोप लगाया है कि ठेका देने सहित अनेक कार्य गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया गया है। भवन निर्माण के लिए जिस एजेंसी का चयन किया गया उसे अपात्र कहा जा रहा है। यह भी आरोप लगा है कि इस एजेंसी के चयन में गलत ढ़ंग से प्रक्रिया अपनाई गई। अपनी शिकायत में अधिवक्ता कमलेश द्विवेदी ने विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. कमलाकर सिंह सहित, इंजीनियर पंकज राय, केन्द्र सरकार के उद्यम नेशनल विल्डिंग कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन लिमिटेड दिल्ली (एनबीसीसी), ठेकेदार प्रकाश वाधवानी भोपाल, कार्नर प्वांट बड़ौदा तथा विश्वविद्यालय के संबंधित अधिकारियों के विरूद्ध मामला दजे करने की मांग की थी। हालांकि विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) को दस्तावेज उपलब्ध कराने में आना-कानी की जा रही है, लेकिन छात्र संगठनों ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की अगुवाई में अनियमिततओं के खिलाफ लामबंदी कर रखी है। भोज मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅ. कमलाकर सिंह, कुलाधिपति डाॅ. बलराम जाखड़ की गले की हड्डी बन गए हैं। कमलाकर सिंह जब से कुलपति बने हैं, कोई न कोई विवाद उनके पीछे लगा ही है। इसके पूर्व वे बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में कुलसचिव और यूजीसी के क्षेत्रीय कार्यालय में सदस्य सचिव रह चुके हैं। तब भी विवादों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। डाॅ. कमलाकर सिंह के विरोधी, उनका नाम प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और केन्द्र की यूपीए सरकार में मानव संसाधन मंत्री तथा कांग्रेस के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह के कृपापात्र के रूप में लेते हैं। कमलाकर सिंह इसे गर्व के साथ लोगों को बताते हैं। लेकिन, यही मंुहबोलपन राज्यपाल बलराम जाखड़ और अर्जुन सिंह के गले की हड्डी बना हुआ। मध्यप्रदेश शासन के मुखिया शिवराज सिंह चैहान भी इस मुद्दे पर पशोपेश में हैं। हालांकि, कुलपति मामले में राज्य शासन से अधिक राज्यपाल की भूमिका है। लेकिन प्रदेश शासन के मुखिया के नाते लंबी चुप्पी उनके लिए भी घातक हो सकती है। गौरतलब है कि कुलपति के भ्रष्टाचार के खिलाफ एबीवीपी ने मुहिम चलाई हुई है। एबीवीपी के क्षेत्रीय संगठन मंत्री विष्णुदत्त शर्मा लंबे समय से डाॅ. कमलाकर सिंह की कारगुजारियों के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। राष्ट्रपति के भोपाल आगमन के दौरान उन्होंने एक दिवसीय महाउपवास और धरने का आयोजन किया। विद्यार्थी परिषद् के एक प्रतिनिधि मंडल ने राष्ट्रपति को ज्ञापन भी सौंपा। इस छात्र संगठन ने एक तरफ तो महामहिम का भोपाल में स्वागत किया, वहीं दूसरी ओर शिक्षा क्षेत्र मे भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को लेकर मैदान और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन भी। परिषद् के वरिष्ठ नेता विष्णुदत्त शर्मा ने यह कहते हुए डाॅ. कमलाकर सिंह के राष्ट्रपति के साथ मंचासीन होने का विरोध किया कि क्या ऐसा व्यक्ति देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के साथ मंचासीन होगा जिसने फजी तरीके से पीएचडी की डिग्री प्राप्त की है। श्री शर्मा ने कहा, कमलाकर सिंह ने एक नहीं कई डिग्रियां गलत तरीके से अर्जित की हैं। वे उन्हीं गलत उपधियों के आधार पर कुलपति जैसे पद पर बैठे हैं। वे आज भी अनियमितताओं से बाज नहीं आ रहे हैं। भोज विश्वविद्यालय के नवनिर्मित भवन का करोड़ों का निर्माण बिना निविदा के किया गया है। भवन-निर्माण का नक्शा भी स्वीकृत नहीं कराया गया है। विद्यार्थी परिषद् ने कुलाधिपति और प्रदेश के मुख्यमंत्री को भी कटघरे में खड़ा किया। राष्ट्रपति के भोपाल प्रवास के दौरान आम जनता के लिए जारी एक पर्चे में परिषद् ने राज्यपाल और मुख्यमंत्री से कई तीखे सवाल किए। उनसे पूछा गया कि राष्ट्रपति को कमलाकर सिंह पर लगे आरेापों की जानकारी पूर्व में ही क्यों नहीं दी गई ? मध्यप्रदेश में शिक्षा से जुड़े कई लोगों पर छोटे आरोप लगने के बावजूद उन पर कार्यवाई कर दी गई, लेकिन दोषी पाए जाने के बावजूद कमलाकर सिंह पर अभी तक कार्यवाई क्यों नहंीं की गई ? मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के सदस्य और पदाधिकारी रह चुके हैं। लेकिन, संगठन ने उन्हें भी बख्शा। मुख्यमंत्री से एबीवीपी ने पूछा है कि उनकी कथनी और करनी में अंतर क्यों है ? जिस व्यक्ति (डाॅ. कमलाकर सिंह) का विरोध संसद सदस्य रहते हुए किया, आज अधिकार मिलने पर वे उसके खिलाफ कार्यवाई क्यों नहीं कर रहे हैं ? कुलाधिपति और मुख्यमंत्री दोनों से परिषद् ने भ्रष्ट, उपाधि प्राप्त करने में नकल के आरोपी और अनैतिक व्यक्ति को संरक्षण न देने की मांग की है। वैसे तो परिषद् ने राष्ट्रपति को दिए ज्ञापन में मध्यप्रदेश की पूरी उच्च शिक्षा में ही भ्रष्टाचार और अनियमितता का कच्चा चिट्ठा रखा है, लेकिन कमलाकर सिंह और भोज विश्वविद्यालय का मामला अधिक संगीन है। वैसे तो कमलाकर सिंह भाजपा सरकार और संगठन में भी अपनी पहुंच का दावा करते हैं। संभव है उनके कुछ शुभचिंतक हों भी। लेकिन चुनाव के ऐन मौके पर कांग्रेस या भाजपा से कोई नेता उनकी तरफदारी करेगा यह तो मुश्किल ही है। उल्टे भजपा इसे भी एक मुद्दा बनाने की कोशिश करेगी। अब जबकि ईओडब्ल्यू की जांच शुरू हो गई है तो यह मामला और भी तूल पकड़ेगा। चर्चा सिर्फ कुलपति ही नहीं, मुख्यमंत्री, राज्यपाल और राष्ट्रपति तक की होगी।

‘मेरा देश, मेरा जीवन’

एक स्वयंसेवक की आत्मकथा ‘मेरा देश, मेरा जीवन’ का भोपाल में लोकार्पण
भोपाल । आज आडवाणी पूर्व उप-प्रधानमंत्री कम, एक स्वयंसेवक अधिक दिख रहे थे। पूरे कार्यक्रम के दौरान वे भावुक भी हुए और भाव-विह्वल भी। संघ और संतों के सानिध्य में वे उत्साह और उर्जा से भरपूर दिख रहे थे। इस अवसर पर उन्होंने अपने कठिन दौर का उल्लेख तो किया ही, अपने अनुभवों के आधार पर भविष्य का ताना-बाना भी प्रस्तुत कर दिया। मौका था उनकी किताब ‘माई कंट्री, माई लाईफ’’ के हिन्दी संस्करण ‘‘मेरा देश, मेरा जीवन’’ के लोकार्पण का। पूर्व उप प्रधानमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथा का लोकार्पण श्री श्री रविशंकर और स्वामी रामदेव की उपस्थिति में हुआ। मूलतः अंग्रेजी में लिखी पुस्तक ‘‘ माई कंट्री माई लाईफ’’ का हिन्दी संस्करण ‘‘मेरा देश, मेरा जीवन’’ के इस लोकार्पण कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी सहित पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुषमा स्वराज, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान और वरिष्ठ पत्रकार तथा माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र उपस्थित थे। देश और दुनियाभर में विख्यात श्री श्री रविशंकर ने, आडवाणी जी आत्मकथा ‘मेरा देश, मेरा जीवन’ का लोकार्पण किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि यह मेरापन अगर देश के साथ जुड़ जाए तो सबका ही कल्याण हो। हमने न तो जीवन का अध्ययन किया है और नही देश के प्रति कोई अपनापन बचा है। आज आदर्श को अपराध माना जाने लगा है। उन्होंने कहा कि स्वार्थी की कोई आत्मकथा नहीं हो सकती। जो समाज और देश से जुड़ा है, उसी की आत्मकथा हो सकती है। जीवन और देश के लिए शांति और क्रांति दोनों को आवश्यक बताते हुए श्री श्री ने कहा कि अमरनाथ यात्रा के संदर्भ में जम्मू-कश्मीर में जो हो रहा है, वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। धार्मिक मामलों में किसी भी बात का निर्धारण करने का हक धार्मिक गुरूओं को है, कोई अन्य इसमें हस्तक्षेप न करें। जीवन में चारित्रिक श्रेष्ठता और आर्थिक शुचिता केउदाहरण हैं आडवाणीजी: सुरेश सोनीकार्यक्रम में अपना वक्तव्य देते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी ने कहा कि इस लगभग हजार प्ृाष्ठों की पुस्तक का शीर्षक ही, इसका सूत्र है। लेखक पंक्तियों और वाक्यों के माध्यम से लिखता है, लेकिन वाक्यों और पंक्तियों के बीच भी बहुत कुछ छुपा होता है। इस पुस्तक के शीर्षक ‘मेरा देश, मेरा जीवन’ के बीच में ‘‘ही’’ शब्द छुपा हुआ है। वस्तुतः लेखन अपनी आत्मकथा के माध्यम से कहना चाहता है कि ‘मेरा देश ही मेरा जीवन है’। आडवाणी जी कोई इतिहासकार नहीं हैं, लेकिन लेखक जरूर हैं। ऐसा लेखक जो तटस्थ भाव से इतिहास के घटना प्रवाह को देख रहा है। ऐसा लेखक है जो प्रवाह का निर्माता भी है। यह इस पुस्तक का वैशिष्ट है। इस पुस्तक में भारत के अतीत वर्तमान और भविष्य का वर्णन है। जो बीता हुआ कल है वह सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता है और आने वाले कल को प्रभावित करता है। इसी में उसकी सार्थकता है। इसलिए इस पुस्तक में बीता हुआ कल, आज और आने वाला कल भी है। यह पुस्तक आडवाणी जी के जन्म से आज तक का वृतांत है। अपने जीवन में संघ की भूमिका का भी उन्होंने बखूबी उल्लेख किया है। देश के प्रति एक असीम आत्मीयता, निःस्वार्थता, जीवन में शुचिता और जीवन मूल्यों के प्रति आग्रह जो तब संघ से मिला वो सब कुछ आज तक जीवन का अक्षुण्ण भाग बना हुआ है। आडवाणी जी ने अपनी पुस्तक में सच्ची और छद्म पंथनिपेक्षता का उल्लेख किया है। आज सच्ची और छद्म पंथनिरपेक्षता के बीच संघर्ष जारी है। पुस्तक में आडवाणी जी ने सामाजिक, राजनीतिक एवं अन्य क्षेत्रों में के शुचिता की आवश्यकता पर बल दिया है। उन्होंने अपने स्वयं के जीवन में भी सार्वजनिक और निजी जीवन में अन्तर नहीं रखा है। चारित्रिक श्रेष्ठता और आर्थिक शुचिता का उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है। वे संकुचित मन और अशिष्ट व्यवहार, आडवाणी जी के लिए दुःखदायी है। श्री सोनी ने कहा कि अगर ‘जीवन एक किताब है तो कृपया उसे पढ़िए।100 प्रतिशत मतदान अनिवार्य हो: बाबा रामदेवप्रख्यात योगगुरू स्वामी रामदेव जी ने अपने उद्बोधन में छुआछूत की अवधारणा पर प्रहार करते हुए कहा कि मैं छुआछूत को नहीं मानता। हम सभी संतों ने आध्यात्मिक क्षेत्र से जातिवाद को खत्म कर दिया है। फिर आडवाणी जी राजनीतिक क्षेत्र में काम करते हैं, इसलिए उन्हें अछूत क्या माना जाए। स्वामी रामदेव बाबा ने कहा कि मैं 80 वर्षीय आडवाणी जी में 18 वर्षीय युवा का जोश देखता हूं। उम्र से नहीं, विचारों में बुढ़ापा आ जाने से आदमी बूढ़ा होता है। राजनीति में रूचि लेने के आरोपों को निराधार बताते हुए रामदेव बाबा ने कहा कि सत्ता के सिंहासन से बड़ा दिल का सिंहासन है, देश के लोगों ने वह आसन मुझे पहले ही दे दिया है। अपने सपनों के भारत के बारे में बताते हुए बाबा रामदेव जी ने कहा कि मैंने स्वस्थ्य, समृद्ध और संस्कारवान भारत का सपना देखा है। इसी से गौरवशाली, समृद्धशाली और वैभवशाली भारत बनेगा। देश के राजनीतिज्ञों में पारदर्शिता, दूरदर्शिता, विनयशीलता और पराक्रमशीलता होनी चाहिए। आडवाणी जी इन सब गुणों से सम्पन्न हैं। आज सभी बातों को आडवाणी जी से जोड़कर देखा जा रहा है, इसी से यह लगता है कि उनमें कुछ खास बात तो है। आडवाणी जी जैसे व्यक्तित्व को तैयार करने के लिए देश को बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। इस इस परिपक्व व्यक्तित्व से देश को कुछ लाभ तो उठाना ही चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा कि देश में देशभक्त, राष्ट्रवादी अच्छे और सच्चे लोगों का सम्मान और देशद्रोही लोगों का चाराहों पर अपमान होना चाहिए। आज दुनिया, भारत की ओर देख रही है। लेकिन भारत में आज वैचारिक विभ्रम की स्थिति है। धार्मिक यात्राओं को सांप्रदायिक रंग देना उचित नहीं है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। चीन जैसा कम्युनिस्ट देश भी तीर्थ यात्रियों के लिए आश्रम बनाने की सुविधा दे रहा है, लेकिन अपने ही देश में कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। पीडीपी को राष्ट्रद्रोही पार्टी करार देते हुए उन्होंने कहा कि किसी भी देशभक्त के बुलावे का वे सहर्ष स्वीकार करेंगे, लेकिन पीडीपी जैसे राष्ट्रद्रोही के बुलावे को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। राजनीति, अर्थ, शिक्षा और अन्य सभी क्षेत्रों में स्वदेशी को अपनाने का आग्रह करते हुए बाबा रामदेव ने कहा कि हमें स्वदेशी का स्वाभिमान होना चाहिए। उन्होंने 100 प्रतिशत अनिवार्य मतदान का विशेष आग्रह किया। उन्होंने कहा कि अगर देश में राजनीतिक शुचिता लाना है तो इसे लागू करना ही होगा। वर्तमान और आने वाली सरकारों को इस दिशा में प्रयास करना चाहिए। ‘‘मेरा देश, मेरा जीवन’’ समसामयिक इतिहास का प्रमाणिक दस्तावेज है: शिवराज सिंह चैहानमध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने कहा कि आडवाणी जी के लिए भारत एक ऐश नहीं, उनका जीवन है। सरलता और सहजता, उन्हें महामानव बनाती है। यह पुस्तक समसामयिक इतिहास है, प्रमाणिक दस्तावेज है। यह सिर्फ स्मृति ग्रंथ नहीं, प्रकाश स्तंभ है। इसमें विकास और सुशासन की दृष्टि भी है। मुख्यमंत्री ने कहा कि भारत का उदय यानी सबका उदय है। आने वाला भारत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का भारत होगा। सच्ची और छद्म पंथ-निरपेक्षता में संघर्ष चल रहा है - सुषमा स्वराजराज्यसभा सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुषमा स्वराज ने पुस्तक और आडवाणी जी के व्यक्तित्व दोनों पर टिप्पणी की। पुस्तक के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी अनुवाद में भी मूलभाव और भाषा का सौंदर्य बरकरार है। यह आत्मकथा नहीं आजादी के बाद भारत के उतार-चढ़ाव का आंखों देखा हाल है। इसमें भारत के सरोकार हैं और समस्याओं का समाधान भी। उन्होंने कहा कि आडवाणी जी ने भारतीय राजनीतिक शब्दकोष को अनेक शब्द दिए हैं। उन्हें भारतीय सामाजिक और राजनीतिक जीवन के अविराम पथिक की संज्ञा दी जा सकती है। विनम्रता उनका आभूषण है। आडवाणीजी राजनीतिक भविष्यवेत्ता भी हैं। श्रीमती स्वराज ने कहा कि हज सब्सिडी के रूप में प्रतिवर्ष करोड़ों रू. देने वाला देश 40 बीघे जमीन की दरकार क्यों नहीं कर सकता। आज सच्ची और छद्म पंथनिरपेक्षता में संघर्ष हो रहा है। इस संघर्ष के परिणाम पर ही भारत का भविष्य निर्भर करेगा। आडवाणीजी ने जोखिम भरा काम किया है - अच्युतानंद मिश्र पुस्तक लोकार्पण के अवसर पर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह पुस्तक आडवाणीजी का देखा हुआ, सुना हुआ और भोगा हुआ यथार्थ है। आत्मकथा का लेखन जोखिम भरा होता है, लेकिन उन्होंने यह जोखिम उठाया। बेबाकी और सफाई से तथ्यों का उल्लेख किया है। अनुभूतियों और अनुभवों को पाठकों के साथ साझा किया है। अटलबिहारी वाजपेयी ने पार्टी के कानपुर अधिवेशन में आडवाणीजी को जनसंघ का दूसरा दीनदयाल उपाध्याय कहा था। उन्होंने अपने कर्तृत्व से इसे सिद्ध किया है। कहा कि ‘मेरा देश, मेरा जीवन’, आडवाणीजी की आत्मकथा जरूर है, लेकिन इसमें आडवाणीजी कहीं नहीं हैं। अमरनाथ श्राइन बोर्ड का मामला पूरे कार्यक्रम में छाया रहासभी वक्ताओं ने सरकार के कदम की आलोचना कीलोकार्पण कार्यक्रम में उपस्थित सभी वक्ताओं ने अपने-अपने अंदाज में अमरनाथ श्राइन बोर्ड का मामला उठाया। जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा श्राइन बोर्ड को दी गई 40 हेक्टेयर वन भूमि को वापस लेने का विरोध सभी ने किया। बाबा रामदेव, इस मुद्दे पर सबसे अधिक आक्रामक थे। उन्होंने सरकार के कदम को दुर्भाग्यपूर्ण ठहराया और पीडीपी को देशद्रोही की संज्ञा दी। आर्ट आॅफ लिविग के प्रणेता श्री श्री रविशंकर ने कहा कि अमरनाथ यात्रा पर हंगामा होना दयनीय है। यह रवैया गलत है। किसी को अधिकार नहीं है कि वह यात्रा की अवधि निर्धारित करे। यह साधु-संतों और धार्मिक नेताओं का काम है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह सुरेश सोनी ने कहा कि अमरनाथ की घटना पर प्रधानमंत्री सहित कोई भी कुछ बोलने को तैयार नहीं है। यह भविष्य पर प्रश्नचिन्ह है।
मेरा जीवन जो कुछ भी है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वजह से है: आडवाणीपुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लालकृष्ण आडवाणी ने अपने व्यक्तिव और जीवन की श्रेष्ठता का श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दिया। उन्होंने कहा कि मेरा जीवन जो कुछ भी है वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारण है। उन्होंने कहा कि मेरी पुस्तक जो भी पढ़ेगा, वेा जानेगा कि मेरा जीवन जो कुछ भी है वह संघ की वजह से है। इसीलिए अंग्रेजी की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर दिल्ली में संघ के सरकार्यवाह मोहनराव भागवत उपस्थित थे, और आज यहां सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी उपस्थित हैं। उन्होंने प्रख्यात पुस्तक ‘ए टेल आॅफ टू सिटीज’ का उल्लेख करते हुए ‘ए टेल आॅफ टू टेम्पल्स’, (सोमनाथ और अयोध्या का मंदिर) ‘ए टेल आॅफ टू इमरजेंसी’, ‘ए टेल आॅफ टू फैमिली’’ (संघ के रूप में वैचारिक परिवार और निजी परिवार) तथा ‘ए टेल आॅफ टू संत’’ (श्री श्री रविशंकर और बाबा स्वामी रामदेव ) की चर्चा भी की। भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री आडवाणी ने कहा कि जब उनकी प्रशंसा होती है तो वे भावुक हो उठते हैं, आंखे नम हो जाती हैं। कार्यक्रम के अंत में जब उनकी बेटी प्रतिभा आडवाणी आभार प्रकट कर रही थीं, उस दौरान उन्होंने अंग्रेजी की एक कविता ‘‘फुट प्रिंट’’ की पंक्तियों का उल्लेख किया। तभी श्री आडवाणी की आंखों में आंसू आ गए। सुश्री प्रतिभा आडवाणी ने बताया कि जब हवाला प्रकरण का भूचाल आया तब उन्होनें यह कविता अपने को पिता को भेंट की थी। कार्यक्रम के प्रारंभ में प्रभात प्रकाशन के प्रभात कुमार ने सभी अतिथियों का स्वागत किया। अंत में सुश्री प्रतिभा आडवाणी ने सभी के प्रति आभार व्यक्त किया। इस कार्यक्रम में संत-महात्माओें के अलावा भाजपा के अनेक वरिष्ठ नेता पूर्व मुख्यमंत्री संुदरलाल पटवा, कैलाश जोशी, सांसद प्यारेलाल खंडेलवाल, रघुनंदन शर्मा, प्रभात झा, सुमित्रा महाजन, सिद्धू आदि उपस्थित थे। मध्यप्रदेश शासन के अधिकांश मंत्री और विधायकों के अलावा विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, रमन सिंह, वीएस यदुरप्पा आदि उपस्थित थे।