सोमवार, 15 दिसंबर 2008

श्री बालकृष्ण शर्मा ‘‘नवीन’’ की संपादकीय टिप्पणियां ......

अनिल सौमित्र
कविवर और पत्रकार श्री बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के आलेखों और संपादकीय टिप्पणियों के बारे में कुछ भी कहने और लिखने की मेरी औकात नहीं है, उनके लिखे हुए पर आलोचनात्मक ही नहीं, प्रशंसात्मक दृष्टि रखने का भी साहस नहीं कर सकता। सही कहें, तो यह मेरी योग्यता और क्षमता से परे है। हां! मैं इतनी हिमाक़त ज़रूर कर सकता हूं कि श्री ‘‘नवीन’’ जी की लिखी रचनाओं, अग्रलेखों और संपादकीय टिप्पणियों से मेरी जो समझ बनी है, उसे आपके साथ बांटने की कोशिश करूं। सही मायने में तो यह कार्यक्रम भी पत्रकारिता के बारे में और विशेषकर श्री नवीन जी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व के बारे में स्वयं मुझे समृद्ध करने का एक निमित्त बना है। मेरे लिए यह सौभाग्य का विषय है, इस सौभाग्य के लिए आयोजकों के प्रति अनुग्रह भाव व्यक्त करता हूं। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उनका व्यक्तित्व कई अर्थों में अनोखा और असाधारण रहा। दरअसल उनके व्यक्तित्व का एक संश्लिष्ट प्रभाव था, जिसमें सर्जक, पत्रकार, विचारक, राजनीतिज्ञ और इतिहासकार सभी समाहित थे। इन सबके साथ, बल्कि इन सबके उपर, वे एक बेहद संवेदनशील मनुष्य थे। मैं यहां उनके पत्रकारिता कर्म के बारे में अपनी समझ का उल्लेख करूंगा। समाज, साहित्य और परहित में अतिशय तल्लीनता और अपने प्रति नितांत निस्संगता के कारण, उन्होंने रचनाओं के संकलन-प्रकाशन की चिन्ता कभी नहीं की थी। उनकी कविताओं के संग्रह तो उनके जीवन काल में प्रकाशित हुए, दो संग्रह - ‘‘प्राणार्पण’’ एवं ‘‘हम विषपायी जनम के’’ उनकी मृत्यु के बाद छपे। लेकिन उनका सबसे अधिक सार्थक और प्रभावी लेखन, उनका गद्य साहित्य, जो लेखों, निबंधों, संस्मरणों, भाषणों और संपादकीय टिप्पणियों के रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है, संपूर्ण रूप में एक जगह संकलित नहीं हो सका। जो कुछ भी उपलब्ध साहित्य है, उसके अध्ययन से कई महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक तथ्य उजागर होते हैं । ये तथ्य और विचार, भले ही तत्कालीन संदर्भों के मद्देनज़र लिखे गए हों, लेकिन उनका महत्व आज के संदर्भों में अधिक समीचीन दिखता है। श्री नवीन जी का लेखन भविष्य को परिलक्षित करने वाला वर्तमान था। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन की टिप्पणियों में अंबेडकर, राजगोपालाचारी, महात्मा गांधी, पं। जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, पुरूषोत्तमदास टंडन, सरदार पटेल, संपूर्णानंद, रफी मोहम्मद, कमला नेहरू आदि पर संस्मरणात्मक टिप्पणियां और लेख हैं। राष्ट्रीय आंदोलन, मजदूर संगठन, साम्यवादी दल और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गंभीरतापूर्वक मूल्यांकन है। दुनिया में होने वाले बदलावों और भारत पर उसके प्रभावों, युद्ध और क्रांतियों आदि के बारे में उनकी संपादकीय टिप्पणियों ने न सिर्फ पाठकों को, बल्कि आमजन को उद्वेलित किया। उनके लेखों में साहित्य की विभिन्न विधाओं, मंजिलों और धाराओं के साथ ही आंदोलनों, वादों और बहसों से परिचय होता है। उन्होंने स्थानीय और वैश्विक, सभी मुद्दों को राष्ट्रीय दृष्टि से देखने की कोशिश की। रूस के व्यापक समर्थन के साथ-साथ अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इटली, ग्रेट ब्रिटेन से सम्बद्ध समझौतों और विरोधों पर भी उन्होंने बेबाक टिप्पणियां की हैं। ‘प्रताप’ और ‘प्रभा’ के संपादकीय लेखों और स्तंभों में राष्ट्र के लिए अंग्रेजों के खिलाफ ललकार और हिन्दू-मुस्लिम एकता के बारे में दूरगामी दृष्टि दिखती है।

वस्तुतः नवीन जी के लेखन को समझने के लिए हमें तत्कालीन देश, काल और परिस्थितियों के संदर्भ में भी विचार करना होगा। हमें उस वातावरण के बारे में भी विचार करना होगा जिसमें श्री नवीन जी की पत्रकारिता को संस्कार प्राप्त हुआ। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन जी का जन्म वैसे तो मध्यप्रदेश में हुआ, लेकिन उनकी कर्मभूमि उत्तरप्रदेश और वियोग भूमि दिल्ली रही। उनकी प्रारंभिक शिक्षा यहीं शाजापुर में हुई, लेकिन पत्रकारिता की दीक्षा उन्हें अमर शहीद गणेश शंकर विद्याथी जी से मिली। श्री विद्यार्थी जी के समस्त संस्कार और क्रांति की भावना, नवीन जी में अवतीर्ण हो गई। 1916 में वे श्री विद्यार्थी जी के संपर्क में आए। 1917 में उनका संपर्क ‘‘प्रताप’’ के साथ आया। यह संबंघ निरन्तर प्रगाढ़ होता गया और मृत्युपर्यन्त बना रहा। वे अल्हड़, किन्तु संवेदनशील और आक्रामक स्वभाव के थे। श्री नवीन के सहयोगी श्री पालीवाल ने लिखा है कि ‘‘ 1920 तक जिस बालकृष्ण शर्मा नवीन की ओर से हम पत्रकारिता की दृष्टि से निराश थे, वही बालकृष्ण परम प्रसिद्ध पत्रकार हो गया। उसके लेखों की धाक थी। अंग्रेजी के अच्छे-अच्छे दैनिक पत्रों में भी बालकृष्ण के लेखों की चर्चा होती थी।’’ उनके लेखन को अगर वर्तमान देश-काल के संदर्भ में देखने की कोशिश करें तो कई खतरनाक सच उजागर होते हैं। भारत में मुस्लिम समस्या को उन्होंने सांप्रदायिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखा। इस विषय पर समाज का उद्बोधन किया। देश पर मुस्लिम आक्रमण के प्रारंभ से मुगल काल, खिलाफत आंदोलन, देश विभाजन, घुसपैठ, आतंकवाद और अल्पसंख्यकवाद की विषबेल को देखें तो वर्षों पहले उनके लिखे और कहे का मोल समझ में आता है। ‘प्रताप’ के 17 सितंबर, 1923 के अंक में ‘‘मंा तेरे बच्चे!’’ शीर्षक से उन्होनें अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा - ...... हां मां ! तेरे मुसलमान बच्चे पागल हो जाते हैं। वे अपने-पराये को भूल जाते हैं। वे नहीं जानते कि मां की छाती पर मूंग दलने से नाश हो जाता है। वे अपने-पराये को भूल जाते हैं। बात-बात में अपने संकुचित धर्मभाव को ले आते हैं, इस्लाम धर्म की पवित्रता सारे संसार की आंखों में गिरा देने में वे तनिक भी नहीं हिचकते हैं। मां, उनके जीवन के अन्य आचरण और उनके धर्माचरण में कितना अंतर है। वे धर्म को भूल गए हैं। हां, वे दिन में छह बार ‘अश्शहत बन लाइलाह इल्लिल्लाह’ की प्रेमपूर्ण ध्वनि करते हैं। दिन में कई बार - ईश्वर एक ही है, की वे शहादत देते हैं। परन्तु मां, बतला तो यह कौन-सा ईश्वर विश्वास है, जो उन्हें जरा-सी बात पर पशु बना देता है और जरा-सी बात पर वे जघन्य कांड करने में नहीं हिचकते हैं।’ अपने लेखन की तीव्रता तथा तीक्ष्णता के कारण ही, सन् 1931-32 में उन्होंने, मुस्लिम लीग के बारे में ‘‘प्रताप’’ में लिखा - ‘गंुडागिरी रोकने में यह नपुंसकता कैसी?’ इस संपादकीय अग्रलेख ने उत्तरप्रदेश सहित समूचे देश में हडकंप मचा दिया था। इस लंबे अग्रलेख के कुछ अंशों का यहां उल्लेख कर रहा हूं - ‘‘हम वह उंट हैं जिसकी पीठ पर बेतहाशा बजनी लाद दी गई है और हमने आज तक किसी प्रकार की चूं-चा नहीं की। हम बलबलाए नहीं। नकेल नहीं तुडाई, दुम नहीं हिलायी। चुपचाप रहे। लेकिन अब ता. 14 अप्रैल के लखनउ एसेम्बली भवन वाले वाकयात ने हमारे ऐसे ऐबदार की भी कमर तोड़ दी है और हम आज चीखने और चिल्लाने पर मजबूर हो गए हैं। आखिर कमजोर और ढिल्लड़पन की कोई हद भी होती है? शुरू से लेकर आज तक इस सूबे में फिरकेवाराना फसादात और पुलिस के सिर्फ एक तबके की खुल्लम-खुल्ला फिरकापरस्ती और हाल ही की हरकतों को रोकने या संभालने में हमारी कांग्रेस सरकार ने निहायत बुजदिली और बेबसी से काम लिया है। महीनों की ढील-ढाल और तूलतबील कार्यशैली ने गुंडापन को उभारा है। लोग शेर हो गए हैं। अब गुंडे खुल्लम-खुल्ला कहते हैं कि कोई हमारा क्या कर लेगा? और वे ठीक कहते हैं। किसी ने उनका क्या कर लिया? उन्होंने जो मन में आया, किया। एक मर्तबा वे पहले, शायद गुजिश्ता मार्च में एसेम्बली भवन में घुस गए, वहां उन्होंने मनमाने नारे लगाए और चलते बने। वे मूंछों पर ताव देते हैं कि किसी ने हमारा क्या कर लिया? 24 तारीख को वे फिर एसेम्बली में घुस आए। सरकारी कागजा़त फाड़े, फाइलों पर हाथ साफ़ किए, एसेम्बली सभा भवन में प्रधानमंत्री की लू-लू बोली, मेज कुर्सियां तोड़ी, और तब हटे जब नवाब इस्माइल ने उनसे चले जाने को कहा। हमारी सरकार बड़ी भली है, उदार है। बड़ी दूरन्देश है। बहुत फंूक-फूंककर क़दम उठाती है - क्या कहने हैं? लानत है इस भोलेपन और इस दूरन्देशी पर। क्या पचास-साठ या सौ-सवा सौ गुंडे गिरफ्तार नहीं किए जा सकते थे? सुना है कि जिस वक्त एसेम्बली भवन में यह उत्पात हो रहा था उस वक्त आला सरकारी अफसर ने कहा कि गुंडों पर गोली चला देनी चाहिए। लेकिन नहीं। भलमनसाहत का प्रदर्शन किया गया। नतीजा यह है कि उत्पाती लोग आज लखनउ की गलियों और बाजा़रों तक में सीना उभारे घूम रहे हैं। और अपनी दिलेरी का परवान अकड़-अकड़कर कर रहे हैं।’’ श्री नवीन की तल्ख टिप्पणियों में एक और है - खिलाफत आंदोलन से संबंधित। ‘प्रभा’ के 1 अप्रैल, 1924 के अंक में बालकृष्ण शर्मा नवीन ने लिखा कि ‘गत मास अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सबसे महत्वपूर्ण घटना खिलाफत का उन्मूलन है। खिलाफत का उन्मूलन और वह भी टर्की की ग्रांड नेशनल एसेम्बली द्वारा यह ऐसी घटना है, जिसका महत्व और जिसका गुरूत्व हम और समझने की कोशिश कर सकते हैं। ... कहने को तो कहा जा सकता है कि खलीफा अखिल मुस्लिम समाज को ऐक्य सूत्र में बांधे रख सकते हैं, पर क्या यह बात ठीक है? .... यदि खिलाफत का सारा का सारा इतिहास इस तरह की मार-काट से भरा हुआ है तो ऐतिहासिक दृष्टि से यह कैसे कहा जा सकता है कि खिलाफत की संस्था ऐक्य स्थापना की पहली सीढ़ी है। धार्मिक कारणों की छानबीन करने का अधिकार हमें प्राप्त नहीं, क्योंकि मुस्लिम धर्म भावना के औचित्य-अनौचित्य का विचार करना हमारे लिए अनाधिकार चेष्टा होगी। हम तो केवल बौद्धिक कारणों पर विचार कर सकते हैं।’ नवीन जी के सम्पादकीय अग्रलेख खासे लम्बे होते थे। निश्चित रूप से अग्रलेख पाठकों द्वारा पढ़े जाते थे। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि तब पत्रों में समाचारों की संख्या आज की तुलना में काफी कम हुआ करती थी। लोगों को पढ़ने के लिए समाचार कम, किन्तु विचारों की अधिकता होती थी। इसलिए अग्रलेख और संपादकीय टिप्पणियों को गंभीरता के साथ पढ़ा जाता था। भाव-प्रवणता और तीक्ष्णता ही, नवीन जी की संपादकीय टिप्पणियों की जान थी। तत्कालीन सामाजिक, राजनीति, आर्थिक व अन्य विषयों पर तत्काल और लगातार टिप्पणियों के कारण पाठक नवीन जी के लेखों की प्रतीक्षा करता, उनके विचारों का विश्लेषण और उसपर विमर्श किया जाता, यही एक लेखक, पत्रकार और संपादक के प्रयासों की सार्थकता थी। ‘प्रताप’ के 24 सितंबर, 1924 के अंक में श्री नवीन लिखते हैं - देश का राजनीतिक जीवन शिथिल-सा हो गया था और दलबंदियों की कृपा से हमलोगों ने एक-दूसरे के उपर आक्षेप करने में ही अपनी इति-कर्तव्यता समझ रखी थी। ..... अब यदि नेताओं के सामने किसी महान् समिति की आज्ञा न होगी तो वे देश को अपनी-अपनी दिशा में खींचते रहेंगे। उन्होंने लिखा कि ‘हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य की दृष्टि से बैठक काफी महत्वपूर्ण थी। ‘महात्मा जी और मजदूर’ शीर्षक से प्रभा के 1 अप्रैल, 1924 के अंक में श्री नवीन जी ने लिखा - ...क्योंकि भारत को तो अपने ही पांवों के बल खड़ा होना है। यदि भारतवर्ष पूरा बलवान और स्वावलंबी हो जाए तो फिर ब्रिटिश मंत्रिमंडल चाहे किसी पक्ष का क्यों न हो, वह झुके बिना नहीं रह सकता।

तत्कालीन राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां ऐसी थी कि उन्होनें, श्री नवीन जी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। श्री नवीन जी ने भी अपनी लेखनी से जनता और सरकारों का ध्यान देशी और विदेशी समस्याओं की ओर आकर्षित किया। यह वह समय था जब प्रथम विश्व युद्ध से निकल कर दुनिया के महत्वपूर्ण देश, दूसरे विश्व युद्ध की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। ब्रिटेन समेत अनेक बड़े देश दो समूहों में बंट गए थे। दुनिया में मुस्लिम आंदोलन भी जोरों पर था। एक तरफ सामाजिक आंदोलनों को गति मिल रही थी, वहीं अंग्रेजी सत्ता की मुखालफत भी तेज हो गई थी। अंग्रेज विरोधी संघर्ष पर खिलाफत आंदोलन का भी काफी असर होने लगा था। अपने देश में भी समाज को संगठित करने, विशेषरूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात जोर-शोर से उठाई जा रही थी। भारत में हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के बारे में श्री नवीन जी ने लिखा कि ‘दुश्मनों के घर में घी के दीये जलते हैं, जब हम लोग आपस में लड़ते हैं।’ प्रताप के 17 सितंबर के अंक में उन्होंने ‘हिन्दू संगठन या संगठन’ शीर्षक से लिखा - देहली में हिन्दू-मुस्लिम नेताओं की एक सभा में हिन्दू संगठन और श्ुाद्धि के प्रश्नों पर विचार किया गया। संगठन के विषय में हिन्दू नेताओं ने राष्ट्रीयता के नाम पर संगठन में हिन्दू और मुस्लिम दोनेां को एकत्रित करने का विचार किया है। हिन्दू संगठन के पक्षपातियों का सबका यह कर्तव्य है कि हम ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करें जिससे यह हिन्दू संगठन, संगठन का एक साधन हो जाए। दुनिया के अन्य देशों में जातीय, भाषायी और राष्ट्रीय एकसूत्रता का उदाहरण देकर, उन्होंने बार-बार कोशिश की कि अपने देश भारत में भी सब एक होकर नवयुग की शुरुआत करें। ‘प्रभा’ में उन्होंने ‘‘मिस्र में नवयुग’’ शीर्षक से लिखा - ....हे प्राचीन मिस्र देश, तुम्हारी प्राचीन सभ्यता से भी जिस देश की सभ्यता प्राचीनतर है, वह देश आज परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। तुम प्रसन्न रहो और एकता के आदर्शों से प्रार्थना करो कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्रों ने क्रिश्चियन, मुसलमान और यहूदी के भेद-भाव को भूलकर तुम्हारी अर्चना की है उसी प्रकार वृद्ध भारतवर्ष के पुत्र हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, पारसी, क्रिश्चियन और यहूदी के भेद-भाव को भूलकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तन-मन से तत्पर हो जायें। नवीन जी के इन आह्वानों में विश्व स्थिति की गंभीर विवेचना और भारतीय स्थिति का तथ्यपूर्ण विश्लेषण संदर्भ की तरह है। वे अपने देश के लिए भी सुधारों और क्रांति की अपेक्षा करते थे, इस निमित्त वे सतत प्रयत्नशील और क्रियाशील रहे। एक तरफ भारत में अंग्रेजी सत्ता अपने को बचाए रखने या सुरक्षित अपने वतन वापस जाने की जद्दोजहद कर रही थी, वहीं दुनिया में भी लगातार नए-नए समीकरण बन रहे थे। छोटी-बड़ी घटनाएं देशों की परराष्ट्र नीतियों और संबंधों को प्रभावित कर रहा था। इस समय भी नवीन जी ने अपने पत्रकारीय धर्म का बखूबी निर्वाह किया। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर भी खूब लिखा। तिब्बत को लेकर इंगलैंड के रवैये और उसकी नीति का अत्यन्त रोचक व मार्मिक वर्णन किया है। इटली और रूस के बारे में उन्होंने लिखा - अभी तक फ्रांस, रूस को स्वीकार करने में आनाकानी कर रहा है। इसका कारण यह है कि जारकालीन रूस ने फ्रांस से कई अरब रूपया उधार लिया था। सोवियत सरकार जार के कुकर्मों का उत्तरदायित्व अपने उपर लेने को तैयार नहीं। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन ने अपने संपादकीय टिप्पणियों में जहां एक ओर निर्भिकता और बेबाकपन का परिचय दिया है, वहीं उनमें गहरी समझ और संतुलन भी देखने को मिलता है। इनके अग्रलेखों में साम्राज्यवादी शक्तियों के गठजोड़ और आर्थिक शोषण की निंदा भी है। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की स्थितियों पर पैनी नज़र से मूल्यांकन भी दिखता है। हांलाकि वे कई बार पक्ष लेते हुए भी दिखते हैं। उनके आलेखों से रूसी क्रांति के प्रति उनकी निष्ठा व्यक्त होती है। ट्राटस्की की तुलना में स्टालिन का समर्थन करते हुए वे आध्यात्मिकता और मानवीयता का पक्ष लेते हुए दिखते हैं। उनके लेखन में महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन और डांगे पर चलाये गए बोल्शेविक मुकदमें पर तल्ख टिप्पणियां हैं, साम्राज्यवादियों और महात्मा गांधी के समझौते पर विचार हैं, मजदूर आंदोलनों और अछूत आंदोलनों पर महत्वपूर्ण सामग्री पाठकों को मिलती है। ‘प्रताप’ के संपादकीय विभाग में श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के पश्चात् नवीन जी का ही स्थान था। श्री गणेश जी के निधन के बाद वे प्रताप के मुद्रक और संपादक दोनों बन गए। नवीन जी को जिन वरिष्ठों का सानिध्य मिला, उनका प्रभाव उनके व्यक्तित्व और पत्रकारिता पर भी पड़ा। सर्वाधिक प्रभाव श्री विद्यार्थी जी का ही था। यद्यपि विद्यार्थी जी की पत्रकारिता के आदर्श तथा सिद्धान्त और संपादकीय लेखन पद्धति को नवीन जी ने अपने में उतार लिया था, लेकिन भाषा के आधार पर दोनों में अंतर स्पष्ट था। श्री विद्यार्थी जी की भाषा ‘जनभाषा’ थी, लेकिन नवीन जी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का उपयोग करते थे। भाषा को लेकर वे गांधी जी से भी मतभेद रखते थे। हां, नवीन जी की पत्रकारिता पर उनके कवित्व और साहित्यकार का भी काफी प्रभाव रहा। श्री नवीन जी का लेखन किसानों की पीड़ा व्यक्त करता था, नवजवानों की आवाज बनता और उन्हें आवाज देता था। उनका लेखन, आम जनता को उठाने और अहंकारियों को नीचा दिखाने का प्रयत्न था। उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक बार पाखंडियों की पोल खोली और त्रस्त और पीड़ितों को अभयदान दिया। वे सिर्फ घटनाओं का विवरण नहीं देते थे, बल्कि घटनाओं और तथ्यों के सटीक और व्यापक विश्लेषण, उनकी विशेषता थी। इन विशेषताओं के कारण ही वे पाठकों को झंकृत कर पाते थे। श्री नवीन जी की देशसेवा, पत्रकारिता के लिए एक गौरवपूर्ण मिशाल है। पत्रकारिता, उनका लक्ष्य नहीं, बल्कि राष्ट्रसेवा का एक माध्यम था। इस माध्यम को उन्होनें आमजन के हितार्थ जीवनपर्यन्त उपयोग किया। आमजन को साहस और पहल के लिए प्रेरित किया। सज्जन शक्ति को संगठित होने की शक्ति दी। नवीन जी के लेखन ने देश में तत्कालीन बौद्धिक, रचनात्मक और आंदोलनात्मक गतिविधियों को बल प्रदान किया। हम अगर वर्तमान संदर्भों में नवीन जी के लेखन, उनके संपादकीय टिप्पणियों और अग्रलेखों को देखें तो परिस्थतियों का जायजा भी मिलेगा और समाधान के रास्ते भी दिखेंगे। समाज और पत्रकारिता, नवीन जी के जमाने से काफी आगे निकल चुकी है। लेकिन दोनों दिशाभ्रम की स्थिति में प्रतीत हो रहे हैं। श्री नवीन का लेखन आज भी प्रासंगिक है, तब की छोटी दिखने वाली समस्या आज बडे रूप में हमारे सामने खड़ी है। हमें आज की पत्रकारिता में भी बालकृष्ण की खोज करनी है, बालकृष्ण का नवीन रूप, अखबारों और पत्रिकाओं में भी दिखे यह वक्त का तकाजा है।

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

एचआई.वी./एड्स को मुख्यधारा में लाने की जरूरत क्यों?-

डा. परशुराम तिवारी

एच.आई.वी./एड्स वर्तमान समय की सबसे चिंतनीय स्वास्थ्य एवं सामाजिक समस्याओं में से एक है। लगभग ढाई दशक पहले दुनिया को इस समस्या का पता चला था। निरंतर हस्तक्षेपों के बाद अब तक विश्व भर में लगभग 33.2 मिलियन अर्थात् 33 करोड़ 20 लाख से अधिक एच.आई.वी./एड्स संक्रमित एवं बीमार व्यक्तियों की पहचान हो चुकी है। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इनमें से लगभग 30 करोड़ व्यक्ति युवा आयु समूह (15 से 49 वर्ष) के हैं। इनमें से भी लगभग आधी आबादी महिलाओं की है। वर्तमान में अकेले भारत में ही लगभग 25 लाख एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्ति जीवन जी रहे हैं। म.प्र. में अब तक लगभग 2780 एड्स रोगियों की पहचान हो चुकी है। इनका पंजीयन जिलों में स्थित एकीकृत जांच एवं परामर्ष केन्द्रों पर है। आशंका है कि इससे कहीं अधिक एड्स रोगी और एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्ति प्रदेश में हो सकते हैं। इनका पंजीयन जिलों में स्थित एकीकृत जांच एवं परामर्ष केन्द्रों पर है। यहां यह भी गौरतलब है कि तमाम प्रयासों के बावजूद अब तक इस गंभीर बीमारी के उपचार की कोई दवा नहीं खोजी जा सकी हैे अरबो रूपये प्रति वर्ष खर्च करने के बावजूद आखिर क्यों एच.आई.वी./एड्स पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका है? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर पाने से पहले हमें इसके विभिन्न पहलुओं पर मंथन करना होगा। अव्वल तो ये कि जनमानस में (और पढ़े-लिखे वर्ग में भी) एच.आई.वी./एड्स को लेकर कुछ-कुछ उसी तरह की गलत धारणायें या भ्रांतियाॅ हैं जो प्रायः कुष्ठ अथवा तपेदिक (टी.बी.) जैसे रोगों के बारे में रही है। यही कारण है कि एच.आई.वी./एड्स के बचाव व उपचार का कार्य सफल नहीं हुआ। एच.आई.वी./एड्स का मुद्दा शर्म और भेदभाव से जुड़ा है जिसका परोक्ष असर मानव संसाधनों, उत्पादन व विकास पर पड़ता है। लोकलाज के भय से लोग भ्प्ट की जाॅच करवाने से भागते हैं, इसके बारे में बोलने से कतराते हैं। संक्रमित व्यक्ति देखभाल के लिए नहीं जाते और निवारक उपाय करने से कतराते हैं। काउंसलिंग और जांच करवाने का सुझाव देने के बाद भी लोग यह नहीं जानना चाहते कि वे भ्प्ट से संक्रमित हैं और उनका यह संक्रमण दूसरों में भी फैल सकता है। समन्वित प्रयासों के अभाव में ऐसे लोग दबे-छुपे हैं और उपलब्ध सेवाओं का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। फलस्वरूप वे असमय ही मौत के शिकार हो रहे हैं। यह हालात बदलना होंगे ताकि प्रदेश को देश के अधिक प्रभावित राज्यों - तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश अथवा महाराष्ट्र जैसे राज्यों में फैले संक्रमण की श्रेणी में जाने से रोका जा सके। जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों और योजनाओं में इस मुद्दे पर पूर्व में गंभीरता से कार्य न होना, मानव विकास सूचकांकों की बहेतरी के लिये कार्य करने वाले विभागों, संस्थाओं अथवा उपक्रमों की इस कार्यक्रम में भागीदारी न होना, उद्योग जगत और सामाजिक एवं गैर सरकारी संस्थाओं, आध्यात्मिक एवं धार्मिक समूहों की व्यापक भागीदारी न होना भी एच.आई.वी./एड्स पर नियंत्रण न होने के प्रमुख कारण रहे हैं। विगत दो-ढाई दशक के अनुभवों से सबक लेते हुये दुनिया के देशो ने एच.आई.वी./एड्स के खिलाफ लड़ने, इसे नियंत्रित करने एवं सफलता हासिल करने के लिये और अधिक सघन एवं प्रभावी रणनीति बनाई है। इस दिशा में पहला कदम है- सहस्त्राब्दि विकास के 8 लक्ष्यों में एच.आई.वी./एड्स के खिलाफ लड़ाई को भी शामिल किया जाना। दुनिया के 150 स्वतंत्र और सम्प्रभु राष्ट्रों की तरह भारत ने भी इन विकास लक्ष्यों को हासिल करने का संकल्प व्यक्त किया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन कार्यरत राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) ने 2007 से 2012 तक चलने वाले तृतीय चरण के अंतर्गत अन्य गतिविधियों के साथ एच.आई.वी./एड्स को मुख्यधारा में लाने की कार्य योजना भी बनाई गई है। इसके तहत एच.आई.वी./एड्स के मुद्दे को शासकीय विभागों, उपक्रमों संस्थानों, उद्योग जगत, गैर सरकारी संस्थानों और समूहों में ले जाने एवं उनकी सहमति से उनके कार्यस्थल में लागू करना शामिल है। इस तरह के हस्तक्षेप से बढ़े पैमाने पर अलग-थलग पड़ी संगठित व असंगठित आबादी को समस्या की गंभीरता के प्रति जागरूक कर उनकी सोच और व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकेगा। साथ ही इन विभागों और संस्थाओं के कार्यस्थलों में एच.आई.वी./एड्स के प्रति सरोकार की नीति भी बन सकेगी।क्या होगा मुख्यधारा में? - चॅूकि एच.आई.वी./एड्स व्यवसाय का भी मुद्दा है, अतः विकास के क्षेत्र में काम करने वाले विभागों/संस्थानों के नीति निर्माण, प्रबंधन, उत्पादन अथवा क्रियान्वयन कार्य में संलग्न लोगों को उनके दैनिक काम काज के साथ ही थोड़ा सा वक्त निकालकर विषय पर जानकारी दी जायेगी। इस प्रक्रिया में संस्थान के उच्च, मध्यम व निचली पंक्ति के विशेषकर प्रचार-प्रसार, शिक्षण -प्रशिक्षण, मानव संसाधन विकास, जन संपर्क, मीडिया प्रबंधन से जुड़े लोगों को विषय पर प्रशिक्षण देकर संवेदनशील बनाया जायेगा। इनमें से कुछ लोग संस्थान में निरंतर नई जानकारी देने, रिफ्रेशर करने अथवा नये कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने का काम करेंगे। कार्य के सफल संचालन हेतु कार्यस्थल नीति बनेगी और एक अधिकारी की प्रभारी के रूप में क्रियान्यवन की जवाबदेही तय होगी। मुख्यधारा की इस प्रक्रिया से संस्थान के भीतर एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्तियों की पहचान होगी, उन्हें परामर्श व सेवायें मिल सकेंगीं। साथ ही उनके मानव अधिकारों की रक्षा व परिवार की देखभाल की व्यवस्था भी सुनिश्चित हो सकेगी। मुख्यधारा की इस पहल से सकल राष्ट्रीय आय और उत्पादन के संभावित नुकसान को कम किया जा सकेगा। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) ने मुख्यधारा की दिशा में प्रयासों को गति देते हुये भारत सरकार के लगभग 30 मंत्रालयों एवं सार्वजनिक क्षेत्र की विभिन्न इकाइयों में एच.आई.वी./एड्स को उनके मूल कार्यो के साथ नियमित कार्यकलापों से जोड़ने हेतु सहमति प्राप्त कर ली है। राज्य एड्स नियंत्रण समितियों के माध्यम से राज्यों व जिला स्तर पर मैदानी गतिविधियाॅ प्रारंभ हो गई हैं। मध्यप्रदेश में ही मुख्यधारा का कार्य महिला एवं बाल विकास, उच्च शिक्षा, पुलिस विभाग एवं पंचायत राज संचालनालय के साथ तथा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के अंतर्गत कुछ उद्योग समूहों से संवाद व प्रशिक्षणों का काम शुरू हो गया है। शासन के हर विभाग व निजी क्षेत्र के उद्योग या कंपनी के नीति निर्माण से जुड़े व्यक्ति को इस संवेदनशील विषय पर काम करने के लिये स्वेच्छा से विचार करना चाहिये, ताकि एच.आई.वी. संक्रमण के शिकार किन्तु दबे छुपे लोगों को सामने लाकर उनकी समय रहते देखभाल हो सके व उपलब्ध उपचार का लाभ दिलाया जा सके। यह इसलिये भी संभव है क्योंकि इसमें संस्थान को विशेष अतिरिक्त धन या समय नहीं खर्च करना पड़ेगा। बल्कि यह कार्य करने से वे उत्पादन हेतु ‘एक्सट्रा माइलेज’ ही प्राप्त करेंगे जो राष्ट्र निर्माण, स्वयं के लाभ कर्मकार कल्याण के लिये आवश्यक है। इसी तरह से एच.आई.वी./एड्स की रोकथाम में श्रमिक संगठनों, स्वयं सेवी एवं धार्मिक संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका नाको ने महसूस की है। इन समूहों की अपने वर्ग, समुदाय या जन साधारण में व्यापक मान्यता होती है। अतः इनका विषय पर संवेदनशील होना बहुत जरूरी है। इस हेतु अन्य देशों में मिली सफलताओं के मद्देनजर एवं स्थानीय सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि में सामाजिक समूहों को संक्रमण की रोकथाम, सेवाओं के प्रचार-प्रसार एवं एच.आई.वी./एड्स के प्रति शर्म और भेदभाव को समाप्त करने हेतु जोड़ा जा रहा है। इस कार्य में संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न इकाईयाॅ, दानदाता संस्थायें व नेटवर्क सपोर्ट संस्थाओं का भी सहयोग लिया जा रहा है। लेकिन राज्यों व स्थानीय स्तर पर राजनीतिक इच्छा शक्ति बढ़ाने की अभी भी आवश्यकता है। कुल मिलाकर भारत में एच.आई.वी./एड्स से लड़ने के लिये अब सरकारी, गैर सरकारी, निजी व उद्योग जगत के स्तर से भी जंग की शुरूआत हो गयी है। यदि सभी सम्बद्ध पक्षों ने ईमानदार प्रयास किये तो हम कुछ अफ्रीकी या एशियाई देशों की तरह अपनी बहुमूल्य श्रम एवं युवा शक्ति को खोने से बचा सकेंगे। ‘मुख्यधारा’ की कार्यनीति व भावना साझी जिम्मेदारी से है। आइये चुप्पी तोडें और जिम्मेदारी निभाने का वादा करें ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

देश के सामने युद्ध या आपातकाल की स्थिति!

क्या हम तैयार हैं ?

अनिल सौमित्र

देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति सामान्य नहीं है । एक तरफ दुनिया भर में आई आर्थिक मंदी का असर भारत पर हो रहा है । देश के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक वातावरण तनावपूर्ण हो चुका है । जातीय, सांप्रदायिक और आर्थिक विषमताएं तनाव के मुख्य कारण के तौर पर उभरे हैं । देश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति भी नाजुक दौर में है । केन्द्र में बड़े दल कमजोर और संकुचित होते जा रहे हैं । कांग्रेस और भाजपा, दोनों की अन्य दलों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है । आने वाले लोकसभा चुनाव में इस स्थिति में और भी अधिक बढ़ोतरी की संभावना है । अंदेशा है कि आसन्न लोकसभा में कांग्रेस और भाजपा दोनों मिलकर 250 सीटों तक सिमट जायेंगे । जाहिर है छोटे और क्षेत्रीय दलों का दखल केन्द्रीय राजनीति में बढ़ने वाला है । यह भी जगजाहिर है कि क्षेत्रीय दल, सरकार बनाने और सरकार चलाने की अपनी-अपनी कीमत वसूलते हैं । कहना न होगा कि बड़े दल कहीं-न-कहीं, छोटे दलों के भयादोहन के शिकार हैं । इन सब का परिणाम है कि ''राज्य'' लगातार कमजोर होता जा रहा है । समाज तो पहले ही कुव्यवस्थाओं का शिकार होकर कमजोर हो चुका है । समाज और राज्य का कमजोर होना एक खतरनाक संकेत है । समाज या राज्य में से कोई भी एक मजबूत हो तो राष्ट्र, अस्तित्व की चुनौतियों का सामना बखूबी कर सकता है । लेकिन आज हालात समाज और राज्य के तंत्र से फिसलते हुए दिख रहे हैं । भारत में लोकतंत्र और राजनीतिक व्यवस्था अभी भी वयस्क होने की प्रक्रिया में है । लेकिन इस दिशा में उच्च स्तर पर किसी स्वस्थ्य प्रयास का नितान्त अभाव है । राजनैतिक दल विचार, सिद्धांत और नीतियों से दूर होकर परिवारवाद, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा और येनकेन सत्ता प्राप्ति की लालसा में लिप्त हैं । देश की सुरक्षा, शिक्षा, आर्थिक और सामरिक मामलों में सत्ता दल और विपक्ष उहापोह की स्थिति में है । आतंकवाद जैसी समस्या पर भी देश का राजनैतिक नेतृत्व आवश्यक समझ-बूझ और एकता प्रदर्शित नहीं कर सका । आतंकवाद, बंगलादेशी घुसपैठ, मतान्तरण, नक्सलवाद, रामसेतु, अमरनाथ श्राईन बोर्ड, महंगाई और लगातार हो रहे विस्फोट जैसे मुद्दों पर केन्द्र सरकार आंख-मिचैली खेल रही है । लोकसभा चुनाव निकट है । कांग्रेस के पास मुद्दों की कमी है, लेकिन विपक्ष आक्रामक तेवरों के साथ धावा बोलने को तैयार । पक्ष-विपक्ष दोनों ने तात्कालिक लाभ को ध्यान में रखते हुए दीर्घकालिक दृष्टि से अपना पल्ला झाड़ लिया । कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है तो कोई प्रधानमंत्री बने रहना । यूपीए सरकार की वास्तविक मुखिया सोनिया गांधी अपने सभी पत्ते खेल चुकी हैं । राहुल और प्रियंका का तिलिस्म भी अब काम नहीं आया । कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज धराशायी हो रहे हैं । मुम्बई पर हालिया आतंकवादी आक्रमण अब अपना असर दिखाने लगा है । देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बन चुका है । आम जनता आतंकवाद के मामले पर पाकिस्तान से हिसाब चुकता करना चाहती है । केन्द्र सरकार पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दबाव है । अमेरिका और इजरायल जैसे आतंकवाद से आहत देशों ने भारत को कड़ी कार्यवाई करने की सलाह दी है । घरेलू ही नहीं, बल्कि वैश्विक जनमत भी आतंकवाद के खिलाफ एकमत है । कठोर और जबाबी कार्यवाई होनी चाहिए । लाख टके का सवाल यही है । क्या केन्द्र की यूपीए सरकार इतना दम रखती है ? वह भारत की आम मंशा और अंतरराष्ट्रीय सलाह को लागू करने का नैतिक, राजनैतिक और निर्णायक पहल का साहस व्यक्त कर सकती है? इसका जवाब खोजना शायद इतना आसान भी नहीं है । लेकिन परिस्थितियों के मद्देजर कुछ संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है, कुछ अनुमान व्यक्त किए जा सकते हैं । बात घूम फिर कर आने वाले लोकसभा चुनाव के आस-पास जा टिकती है । यूपीए सरकार और सोनिया गांधी के रणनीतिकार आतंकवादियों के संभावित ठिकानों पर कार्यवाई के फलाफल और प्रभावों के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं । इसका राजनैतिक प्रभाव अगर सकारात्मक दिखा तो निश्चित तौर पर राजग के करगिल प्रयोग को दुहराने का साहस यूपीए भी कर सकती है, अन्यथा आतंकवाद को ठंढे बस्ते में डाल दिया जायेगा । वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने ताजा आतंकी हमले के बाद इस्तीफे की पेशकश की है । बहुत संभावना है कि इस मामले में उनकी बलि नहीं ली जायेगी । श्री नारायणन के साथ दो महत्वपूर्ण सच्चाइयां जुड़ी है, एक तो वे बहुत ही सूझ-बूझ और दम-खम वाले नौकरशाह हैं, दूसरे यह कि गांधी परिवार के प्रति उनकी निष्ठा असंदिग्ध है । वे गांधी परिवार के अलावा किसी और के हाथों में देश का भविष्य नहीं देखते । उनकी निष्ठा गांधी प्ररिवार के प्रति प्राथमिक है, देश के प्रति दोयम । गांधी परिवार के लिए वे गुमनाम तौर पर काम करें यह तो जायज है, लेकिन आतंकवाद जैसे महत्वपूर्ण मसले पर उनकी चुप्पी खतरनाक है । वे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं, वे अपनी जिम्मवारियों से मुंह नहीं चुरा सकते । सिर्फ इस्तीफे की पेशकश कर वे अपनी असफलताओं से बच नहीं सकते । आखिर उनकी जानकारी में ''हिन्दू आतंकवाद'' का सिद्धांत गढ़ा और विकसित हुआ । खुफिया विभाग के कई अधिकारी दबी जुबान यह कहने लगे हैं कि यूपीए के आने के बाद से हमारी प्राथमिकताएं बदल गई हैं । आईबी, एटीएस और सुरक्षा से जुड़े तमाम एजेंसियों पर लापरवाही और राजनैतिक दुरूपयोग का आरोप लग रहा है । इसके छींटे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पर भी पड़ेंगे । क्या यह सच नहीं है कि समूचा सुरक्षा महकमा मालेगांव के नाम पर आतंकवाद का ''हिन्दू सिद्धांत'' गढ़ने और विकसित करने में लगा रहा, और पाकिस्तान से आतंकवाद का लश्कर मुम्बई में आ बैठा । मालेगांव (दो) पर कार्यवाई का तौर-तरीका स्पष्टतः इसे उक राजनैतिक दृष्ठि से किया गया सुरक्षात्मक पहल का संकेत दे रहे थे । आम पाठक, श्रोता, दर्शक और सामान्य जन को भी यह लग रहा था-'' मालेगांव (दो) लोकसभा चुनाव का आॅपरेशन है । साध्वी, सेना और संघ को कटघरे में खड़ा कर इस्लामी आतंकवाद को फलने का मौका दिया गया । बिना विचार किए ही चहुं ओर यह घोषणा कर दी गई कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता । क्या यह सच किसी से छुपा है कि वर्तमान आतंकवाद 'इस्लाम, अल्लाह और मोहम्मद साहब' के नाम पर स्थापित किया गया है । क्या इस्लाम का दर्शन और उसका ग्रंथ आतंकवाद को तार्किक और सैद्धांतिक मान्यता नहीं देता? लेकिन झूठ-दर-झूठ, सत्य से मुंह चुराने की बार-बार और लगातार असफल कोशिश की जा रही है । मालेगांव प्रकरण में श्री नारायणन, आईबी प्रमुख श्री हलधर के साथ प्रधानमंत्री के दावेदार और पूर्व प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी को अपनी सफाई देने गए थे । यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि इस मुलाकात के बाद श्री आडवाणी और अधिक आक्रामक हो गए थे । इन्हीं परिस्थितियों में छुपी है एक और आशंका । इसकी पूरी संभावना है कि राजग को निस्तेज और स्तब्ध करने के लिए कांग्रेस सीमापार आतंकवादी ठिकानों पर हमला करे । इसका राजनैतिक लाभ उसे लोकसभा के चुनाव में मिलेगा । इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पूर्व में इस तरह का लाभ ले चुकी है । कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर भले हो, लेकिन मौका उसके हाथ लगा है । लेकिन इन्हीं आशंकाओं और परिस्थितियों के बीच एक सवाल भी मुंह बाए खड़ा है, जवाब की तलाश में । क्या देश की आंतरिक स्थिति ऐसी है कि वह सीमापार हमलों की इजाजत दे ? सीमा को तो देश के सैनिक संभाल लेंगे, लेकिन देश को कौन संभालेगा? आइएसआई, सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और इसके जैसे कई संगठन क्या चुप बैठेंगे? देश में फैली हजारों की संख्या में विदेशी संस्थाएं क्या भारत को मदद करेंगी? देश की आंतरिक असुरक्षा क्या सीमा पार आतंकी ठिकानों को तबाह करने की इजाजत देगी? युद्ध जैसे हालात सिर्फ सीमा पर ही नहीं, सीमा के भीतर भी हैं । कांग्रेस, देश में युद्ध जैसे हालात का वास्ता देकर, देश में गृहयुद्ध का अंदेशा जता कर देश को एक और इमरजेंसी (आपातकाल) दे सकती है । देश की सज्जन शक्ति असंगठित है, कमजोर है । विषम परिस्थितियों में वह देश के लिए बहुत अधिक प्रभावी होगी इसकी संभावना कम ही है । मोमबत्ती जलाकर आतंकवाद की खिलाफत करना कर्मकांड से अधिक कुछ भी नहीं । कर्मकांडों का अपना महत्व और प्रभाव होता है, लेकिन आज जरूरत इससे बढ़कर है । संघ, साध्वी और सेना फिर एक बार अपेक्षाओं के कटघरे में हैं । परिस्थितियों की मांग है कि मान, अपमान, आरोप और लांछन को भूला कर संघ और संत, समाज का नेतृत्व करे, सीमा पर डटी सेना का साथ दे । संघ, संत और सेना, सरकारों के निशाने पर भले ही रही हों, लेकिन समाज का विश्वास उन्हें हमेशा मिला है । संघ ने सरकार का साथ पहले भी दिया है, वह आज भी तैयार हो । देश के सामने युद्ध और आपातकाल की स्थिति है । लेकिन हम इन दोनों स्थितियों के लिए तैयार नहीं हैं । युद्ध और आपातकाल में क्या और कैसी आंतरिक स्थिति निर्मित होगी, हमें इसका ध्यान में रखकर तैयार होना होगा । सरकार ने आंतरिक सुरक्षा में भी सेना को लगा रखा है, समाज अपनी सुरक्षा के लिए तैयार हो और सेना को सिर्फ सीमा की सुरक्षा के लिए मुक्त करे । संघ और संत, समाज की सुरक्षा की जिम्मेदारी लें, सेना तो मोर्चा संभाल ही लेगी ।