श्री विष्णु कुमार जी के बारे
बहुत दुःख हुआ . वे एक live-wire थे . उनसे मिलकर आपको लगता था की बस उठें और लग जाएँ वंचितों के कल्याण में . यद्यपि उनकी ऊर्जा का परिमाण इतना विशाल था कि उनके साथ चलना दुष्कर. उनका पदार्पण जब भी मेरे घर में हुआ, आशीर्वाद के साथ उनकी जिज्ञासा और हिदायतों ने हमेशा प्रेरित किया. बच्चों जैसा कौतुक और बुजुर्गों जैसी समझ.
उन जैसे साधू को क्या श्रद्धांजलि दी जाये? उन्मुक्त, अपने दरिद्र-नारायण की अनन्य भक्ति में लीन, उन्हें किसी प्रशंसा से जब जीवन में मतलब न रहा तो ऐसे निरहंकार प्राणी को देहांत के बाद क्या व्यापेगा?
एक रिक्तता हो गयी। अपूरणीय.
अनुराधा शंकर्
सोमवार, 25 मई 2009
संघ के वरिष्ठ प्रचारक विष्णु कुमार का निधन
भोपाल। संघ के वरिष्ठ प्रचारक और सेवा भारती के संरक्षक श्री विष्णु कुमार का कल सुबह निधन हो गया। वे लंबे समय से बीमार थे और दिल्ली में उनका इलाज चल रहा था। 66 वर्षीय श्री विष्णु कुमार का जन्म सन् 1933 में कर्नाटक के कोलार जिले के गौरीबिदनूरू ग्राम में हुआ था। घर में छह भाई और एक बहन हैं। श्री विष्णु कुमार हाई स्कूल में संघ के स्वयंसेवक बन गए थे। उन्होंने मेकैनिकल विषय में इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त की। उनके एक भाई रामकृष्ण आश्रम के संन्यासी हैं और एक अन्य भाई संघ के प्रचारक रहे। श्री विष्णु कुमार 1958 में संघ के प्रचारक निकल गए। उनका प्रचारक जीवन उत्तरप्रदेश से शुरू हुआ।
संघ के सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस की प्रेरणा से श्री विष्णु कुमार ने दिल्ली की सेवा बस्तियों में सेवा काम शुरु किया। शुरुआती दिनों में 600 बस्तियों में यह काम शुरु हुआ। बाद के दिनों में देश के विभिन्न हिस्सों में सेवा भारती के नाम से काम का विस्तार हुआ। इन्ही के प्रयासों से दिल्ली में सेवाधाम के नाम से एक छात्रावास की शुरुआत हुई। इस छात्रावास और विद्यालय में पिछड़े समाज के बच्चों को सब प्रकार की सुविधा दी जाती है। भोपाल में विष्णु जी के ही प्रयासों से आनंदधाम परिसर का निर्माण हुआ। इस परिसर में वृद्धजनों को सब प्रकार की सुविधाएं मुहैया करायी जाती है।
सन् 1994 में श्री विष्णु कुमार मध्यक्षेत्र में सेवा कार्यों के विस्तार के लिए आए। अत्यन्त अल्प काल में ही मध्यक्षेत्र के विभिन्न प्रांतों में सेवा कार्यों का जाल फैल गया। वनवासी क्षेत्रों में एकल विद्यालय के साथ ही भोपाल में अनाथ बच्चों के लिए मात्छाया, वनवासी बच्चों के लिए वनवासी विद्यालय आदि का निर्माण और विस्तार किया। मध्यक्षेत्र में आज हजारों की संख्या में वनवासी विद्यालयों का संचालन किया जा रहा है।
श्री विष्णु कुमार के सरल और सह्दय व्यक्तित्व को सभी ने पसंद किया और सराहा। आज सायं 5ः30 बजे दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ। मध्यक्षेत्र के संघचालक श्री श्रीकृष्ण माहेश्वरी, मध्यभारत प्रांत के संघचालक श्री शशीभाई सेठ और विभाग संघचालक श्री कांतिलाल चतर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेवा प्रमुख श्री प्रदीप खांडेकर, सेवा भारती के प्रांत संगठनमंत्री श्री संजय शर्मा ने श्री विष्णु कुमार के निधन पर अपनी शोक संवेदना व्यक्त की है। सेवा भारती भोपाल ईकाई के सचिव श्री सोमकांत उमालकर ने बताया कि श्री विष्णु कुमार की अन्त्येष्टि में विश्व हिन्दू परिषद् के अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल, महामंत्री श्री ओंकार भावे, पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री सत्यनारायण जटिया, राज्यसभा सांसद श्री गोपाल व्यास, दिल्ली भाजपा के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. हर्षवर्धन, मध्यप्रदेश भाजपा के संगठन महामंत्री माखन सिंह चैहान, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दिल्ली प्रांत के कार्यवाह श्री विजय कुमार, प्रांत प्रचारक श्री प्रेम कुमार और राष्ट्रीय सेवा भारती के कार्यालय मंत्री श्री सुरेश अग्रवाल उपस्थित थे।
शनिवार, 23 मई 2009
15 वीं लोकसभा का एक संदेश यह भी -
राजनीति के दलाल, भगोड़े और ब्लैकमेलर सबक सीखें
राजनीति के दलाल, भगोड़े और ब्लैकमेलर सबक सीखें
अनिल सौमित्र
15 वीं लोकसभा का गठन हो चुका। लेकिन विश्लेषणों का दौर थमा नहीं है। राजनीति के जानकार और मीडिया के लोग अपने-अपने हिसाब से विश्लेषण कर रहे हैं, अपने-अपने तर्काें और विचारों की जमावट और सजावट कर लोगों तक परोस रहे हैं। इन्हीं विश्लेषणों में एक विश्लेषण यह भी है कि 15 वीं लोकसभा के लिए मतदाताओं ने खास किस्म के नेताओं के लिए कुछ संदेश और कुछ सबक दिए हैं। इन संदेशों और सबक पर भी गौर किया जाना चाहिए। हालांकि अभी यूपीए की सफलता के जयकारे में कोई भी दूसरी आवाज सुनाई दे यह मुश्किल है। लेकिन सुनाई न देने के डर से आवाज देना तो नहीं छोड़ा जा सकता। यूपीए, राहुल, सोनिया, मनमोहन की जय हो! लेकिन मतदाताओं ने ममता, नवीन, नीतीश और रमन की भी जय की है। छत्तीसगढ़ की 11 में से भाजपा को 10 सीटें देकर मतदाताओं ने राहुल, सेनिया और मनमोहन फैक्टर को नकारा और रमन फैक्टर को स्वीकारा है। यही हाल बिहार में, बंगाल में और उडी़सा में भी हुआ है। यद्यपि 15 वीं लोकसभा के लिए अखिल भारतीय स्तर पर किसी एक राजनैतिक दिशा का संकेत नहीं मिल रहा है, लेकिन मोटै तौर पर इस चुनाव ने कुछ इशारा तो दिया ही है, मसलन - युवा मतदाताओं का उत्साह और युवा नेतृत्व का उभार, सादगी और ताजगी को जनता का स्वीकार, सुशासन की ललक और स्वच्छ छवि वाले नेताओं के प्रति झुकाव आदि नए संकेत हैं।लालू यादव, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान, मायावती और अजीत सिंह जैसे नेताओं ने चुनाव के पूर्व और चुनाव के बाद जिस तरह की राजनीतिक हरकतें की है उससे आम जनता के बीच जो संदेश गया है वह बहुत ही निराशाजनक है। इनकी हरकतों से राजनीति में अब नए जुमलों का चलन हो जायेगा। ऐसा लगने लगा है कि राजनीति के दलालों, भगोड़ों और ब्लैकमेलरों को जनता ने सबक सिखाने की कोशिश तो की है, लेकिन शायद ये नेता अब भी सीखने को तैयार नहीं हैं। बिना किसी तर्क और आधार के जिस तरह से बिन बुलाए मेहमान की तरह बसपा, सपा, राजद और राष्ट्रीय लोकदल ने पाला बदलते हुए बिना मांगे ही समर्थन की घोषणा कर दी है। यह तो सरासर जनमत का अनादर और अपमान है। लालू और पासवान में तो इतना भी राजनैतिक शर्म नहीं बचा की वे जनादेश को स्वीकार कर विपक्ष में बैठकर रचनात्मक राजनीति करें। शायद उन्हें सत्ता की राजनीति की आदत हो गई है। वे सोनिया गांधी की तरफ मुंहबाए खड़े हैं कि किसी भी तरह उन्हें यूपीए में शामिल कर लिया जाए। सत्ता सुख न सही, कोई उनसे सम्मानजनक बात ही कर ले। कांग्रेस के बार-बार मना करने के बावजूद राजद, सपा और बसपा ने यूपीए को एकतरफा समर्थन की घोषणा कर दी है। ये दल और इनके नेताओं को अपने पापों का अनुमान है। वे भीतर-ही-भीतर डरे हुए हैं। नाजायज तरीके से जमा धनबल और बाहुबल का खतरा अब सताने लगा है। चुनाव प्रचार के दरम्यान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने बसपा प्रमुख मायावती को सीबीआई का डंडा दिखाया ही था। कांग्रेस के पास अब तो सत्ता का डंडा है। इस डंडे का डर अब राजनीतिक दलालों, भगोड़ों और ब्लैकमेलरों को भयभीत करने लगा है। इसलिए भारतीय राजनीति में शायद पहली बार ऐसा हो रहा कि बिना मांगे ही समर्थन की बाढ़ आ गई है। वाम दलों ने तो जनता का संदेश समझते हुए विपक्ष में बैठने की घोषणा कर दी है, लेकिन तथाकथित तीसरे और चैथे मोर्चे के घटक दल तो जनता को फिर से धोखा देने पर आमादा हैं।
इसबार जनता ने भाजपा को भी कुछ सबक और संदेश देने की कोशिश की है। समझना-न समझना, मानना-न मानना पार्टी के नेताओं के उपर है। जनता का यह संदेश भाजपा के चाल, चरित्र और चेहरे के बारे में ही है। नरेन्द्र मोदी भले ही भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा जवान बताते रहे, लेकिन भाजपा के थके-मांदे, बूढ़े और जर्जर चेहरे, पार्टी की चाल और चरित्र बयान कर रहे थे। जनता और मतदाता भाजपा के इन चेहरों को नानाजी देशमुख का संकल्प और आदर्श याद दिला रही है। क्या भाजपा के ये दीर्घजीवी नेता तब तक राजनीति का रास्ता और पार्टी का दामन नहीं छोडेंगे जब तक उनके वारिश इसे थाम न लें! भाजपा के ऐसे अनेक नेताओं को अपना प्रतिनिधित्व देने से जनता ने साफ मना कर दिया। अनेक क्षेत्रों में अपराधी और धनपशुओं को भी जनता ने करारा झटका दिया है। वरूण व मेनका गांधी, मुरलीमनोहर जोशी और योगी आदित्यनाथ की विजय सांप्रदायिक और जातीय राजनीति पर हिन्दुत्व की विजय पताका है। भाजपा को अपने स्थायी मुद्दे पर लौटने और दृढ़ता प्रदर्शन का संकेत है। भाजपा के कमराबंद चुनाव प्रबंधकों के लिए भी एक सबक - बंद कमरे में राजनीतिक प्रबंधन से बाज आएं, जनता की नब्ज टटोलें और जमीनी प्रबंधन करें। आयातित और भगोड़े नेता-कार्यकर्ता को जुटाने की बजाए नेता और कार्यकर्ता का निर्माण करें। जनता का मत है- भाजपा दूसरों की डालियों पर बैठने की बजाए अपनी जड़े मजबूत करे। भाजपा को फिर अपने कैडर, विचारधारा, मुद्दों और संगठन की ओर लौटना होगा।
15 वीं लोकसभा में जनता और मतदाता ने जाने-अंजाने एक साफ और स्पष्ट संकेत स्थायी सरकार का दिया है। जातीय, क्षेत्रीय, पारिवारिक और व्यक्तिवादी आधार पर चलने वाले दलों का किनारे लगाने की कोशिश मतदाताओं की है, हालांकि यह काम पूरा-पूरा नहीं पाया। देश की राजनीति दो दलीय और दो ध्रुवीय हो ये जनता की चाहत और राष्ट्रीय राजनीति की जरूरत है। लेकिन इसके लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों को मशक्कत करनी होगी। कांग्रेस को सरकार और यूपीए गठबंधन की मर्यादा हो सकती है, लेकिन इस दिशा में शिद्दत से आगे बढ़ना भाजपा की जरूरत भी है और उसके लिए पांच साल का अवसर भी। संभव है बिहार का अगला चुनाव नीतीश कुमार बिना भाजपा के लड़े, जैसे उड़ीसा में नवीन पटनायक ने किया। नीतिश कुमार के सहयोग से बिहार में भाजपा आगे नहीं बढ़ रही, बल्कि पिछड़ रही है या यथास्थिति में है।
यूपीए, कांग्रेस, सोनिया, राहुल और मनमोहन सिंह के बारे में अभी कोई भी विश्लेषण निरर्थक होगा। क्योंकि अभी कांग्रेस को सबसे अधिक सांसद मिले हैं। अभी सरकार बनाने की खुशी है। सभी तर्क, विश्लेषण और विचार कांग्रेस के पक्ष में ही किए जायेंगे। ये सब वातानुकूलित हैं। लेकिन उन सवालों को झुठलाया नहीं जा सकता जो राष्ट्रीय क्षितिज पर मंडरा रहे हैं। आंतरिक और बाह्य सुरक्षा, आतंकवाद, आर्थिक मंदी, बढ़ती बेराजगारी, मंहगाई, दीर्घकालीन तुष्टीकरण से पैदा हुई समस्याओं को न तो यूपीए सरकार और न ही विपक्ष नकार सकता है। यह तो देश का काॅमन मिनिमम प्रोग्राम है। देश की जनता चाहती है समस्याओं का निदान, विकास के अवसर और सुरक्षित माहौल। उसने वादाखिलाफी, परिवारवाद, अहंकार, बेरूखी और दागदार छवि को नकार दिया है। नेताओं, पार्टियों और दलों के रहनुमाओं सावधान! भारतीय लोकतंत्र अब वयस्क हो रहा है। मतदाता सतर्क और सावधान है, इनके संकेत और सबक को पहचानों, उसपर अमल करो।
शुक्रवार, 22 मई 2009
मध्यप्रदेश जन अभियान परिषद्
विकास में जनभागीदारी का ताना-बाना
विकास में जनभागीदारी का ताना-बाना
अनिल सौमित्र
सभी के विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम सभी साथ चलें, साथ बोलें और साथ-साथ सोचें। विकास के हितग्राही बनने से पहले हमें विकास में सहभागी बनना होगा। अर्थात् - संगच्छध्वम् संवद्ध्वम्। मध्यप्रदेश जन अभियान परिषद् का यही सूत्र वाक्य है। विकास को सर्वस्पर्शी और सर्वग्राही बनाना समाज और सरकारों की कल्पना रही है। खासकर भारत में ‘‘राज्य को, संवैधानिक बाध्यताओं के द्वारा लोक कल्याणकारी बनाया गया है। अन्त्योदय और सर्वोदय से लेकर एकात्ममानववाद तक की परिकल्पना इन्ही आग्रहों के इर्द-गिर्द की गई है।
लंबे अरसे से भारत में विकास, एक सामाजिक पहलु रहा है। यह बहुत कुछ आध्यात्म केन्द्रित था। किन्तु जैसे-जैसे दुनिया की अन्य संस्कृतियों का भारत पर प्रभाव बढ़ा, विकास अर्थ केन्द्रित होता चला गया। समाज पर राजनीति और सरकार का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया। जाहिर है विकास की अवधारणा में अध्यात्म का लोप और सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक का दखल बढ़ गया। तब भारत में विकास को चार पुरूषार्थों के अंतर्गत देखा गया - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये चारों पुरूषार्थ विकास के माध्यम भी हैं और परिणति भी। किन्तु वर्तमान संदर्भों में विकास में अर्थ और काम हावी है, धर्म और मोक्ष का लोप हो रहा है।
मध्यप्रदेश में विकास की चर्चा चहुंओर है। यहां तक कि वर्ष 2003 और गत विधानसभा का चुनाव भी विकास के मुद्दे पर लड़ा गया। विकास चुनाव का मुद्दा बने और जनता इसे स्वीकार करे यह शुभ संकेत है। प्रदेश में यह शुभ संकेत घटित हुआ है। भाजपा ने विकास के नारे के साथ जनता का समर्थन प्राप्त किया और लगातार दूसरी सरकार बनाई। मध्य्रपेदश में विकास की चुनौती है। भाजपा सरकार ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के नेतृत्व में इस चुनौती को स्वीकार किया है। अब सरकार विकास की भाषा बोलेगी, लेकिन समाज के साथ बोलेगी, समाज को साथ लेकर चलेगी। फिर वही सूत्र वाक्य - संगच्छध्वम् संवद्ध्वम्। लेकिन यह सूत्र अधूरा है। ऋग्वेद के दसवें मंडल, 191 वें सूत्र के दूसरे मंत्र में इसके आगे कहा गया है - संवोमनांसि जानताम्। देवाभागम् यथापूर्वें सं जानाना उपासते। आशय स्पष्ट है - जिस प्रकार पहले के देवता एकमत होकर अर्थात् मिल-जुलकर अपने-अपने यज्ञभाग (दायित्व) को स्वीकार करते आए हैं, उसी प्रकार उसी प्रकार तुम सब लोग साथ-साथ चलो, साथ-साथ बोलो और तुम सबके मन एकमत (ज्ञान प्राप्त करते हुए) हो जाएं। सीखने में साहचर्य के बिना साथ चलने और साथ बोलने की सार्थकता नहीं है। कठोपनिषद् में भी इस प्रकार का संदेश है। इसमें कहा गया - हम साथ-साथ भोजन करें, हम साथ-साथ पराक्रम करें, एक-दूसरे की रक्षा करें, किसी से द्वेष न करें। जनभागीदारी का अद्भुद संदेश।
मध्यप्रदेश जन अभियान परिषद् की स्थापना के पीछे सोच यही थी कि विकास को सिर्फ सरकार का विकास न बनाया जाए, बल्कि इसे जन विकास में तब्दील किया जाए। विकास में जनभागीदारी, जनसहयोग, सामुदायिक सहभागिता और साझेदारी सुनिश्चित हो। जन अभियान परिषद् का गठन कांग्रेस शासन में हुआ। तब प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह थे। तब भी जनभागीदारी की चर्चा खूब हुई। जिला सरकार और ग्राम स्वराज जैसी अवधारणाओं को भी काफी जगह मिला। लेकिन साफ नीयत और ईमानदार प्रयास के अभाव में सरकारी प्रयासों को अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाया।
चूंकि विधायिका और न्यायपालिका दोनों की मंशा यही है कि विकास में आम लोगों को भागीदार बनाया जाए, उन्हें योजना, रणनीति और क्रियान्वयन का हिस्सा माना जाए। इसलिए कार्यपालिका के स्तर पर भी इस प्रकार का प्रयास हुआ। लेकिन राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण कार्यपालिका ने भी इसे आधे-अधूरे मन से इसका क्रियान्वयन किया। वर्ष 2003 के चुनावी दृष्टि-पत्र और घोषणा-पत्र में स्वैच्छिक संगठनों के लिए ढांचागत और संरचनागत प्रयास के वायदे के साथ भाजपा ने इस दिशा में स्पष्ट संकेत दिया। गत वर्षों में मध्यप्रदेश की कार्यपालिका भी इस दिशा में सजग और सक्रिय हुई है।
अन्य प्रदेशों की भांति मध्य्रपेदश में भी हजारों स्वैच्छिक संस्थाएं कार्यरत हैं। सभी के अपने-अपने गुण-दोष होंगे। लेकिन एक नीति और स्पष्ट पद्धति और ढांचागत व्यवस्था न होने से जन, स्वैच्छिक संस्थाएं और सरकार के बीच सुनियोजित समन्वय नहीं हो पा रहा था। किन्तु भाजपा सरकार के प्रयासों से मध्यप्रदेश जन अभियान परिषद् का पुनर्गठन हुआ है। ग्रामीण विकास विभाग की बजाय वित्त एवं योजना विभाग के साथ इसे संबद्ध किया गया है। अब स्वैच्छिक संस्थाओं और सरकार के बीच के संबंधों को जानने-समझने, उसकी व्याख्या करने, आवश्यकतानुसार संशोधित करने और एक-दूसरे के लिए उपयोग करने की व्यूहरचना विकसित करने की कवायद की जा रही है। कोशिश की जा रही है कि इस क्षेत्र में विश्वास को बढ़ावा दिया जाए और विवाद को कम किया जाए। स्वैच्छिक संस्थाओं का संग्रह और संकलन किया जा रहा है। उनके गूण-दोष और विशेषताओं की पहचान की जायेगी। तदनुसार उनके लिए प्रशिक्षण, सशक्तिकरण और नियमन की पद्धति और रूपरेखा तैयार की जायेगी।
प्रदेश के मुख्यमंत्री, जन अभियान परिषद् के पदेन अध्यक्ष होते हैं। मुख्यमंत्री के मार्गदर्शन में ही परिषद् का समूचा तंत्र कार्यरत है। विधान के मुताबिक एक अशासकीय व्यक्ति और वित्त, योजना, आर्थिक व सांख्यिकी मंत्री सहित इसके दो उपाध्यक्ष होते हैं। इसकी कार्यकारिणी सभा के सभापति मध्यप्रदेश शासन के मुख्यसचिव होते हैं। इसके साथ ही विभिन्न विभिगों के प्रमुख सचिव और पांच अशासकीय प्रतिनिधि इसके सदस्य होते है। अशासकीय प्रतिनिधि के तौर पर नामचीन स्वैच्छिक संस्थाओं के प्रतिनिधि मनोनीत किए जाते हैं। परिषद् का राज्य कार्यालय अपने अमले के साथ कार्यपालन निदेशक के नेतृत्व में निर्दिष्ट कार्यों को अंजाम देता है। वर्तमान में विभागीय मंत्री के अलावा अनिल माधव दवे भी इसके उपाध्यक्ष हैं। श्री दवे भाजपा के भी उपाध्यक्ष हैं। प्रदेश भाजपा के मुखपत्र ‘चरैवेती’ के संपादक होने के साथ-साथ वे ‘नर्मदा समग्र न्यास’ के अध्यक्ष भी हैं। लंबे अरसे से वे सामाजिक कार्यों और गतिविधियों में भागीदार रहे हैं। शिक्षा, महिला उत्थान और पर्यावरण के क्षेत्र में कार्यरत संस्था ‘भारती समाज’ के भी वे अध्यक्ष हैं। ‘‘जाणता राजा’’ नाम से संचालित सांस्कृतिक गतिविधि में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इनके मार्गदर्शन में जन अभियान परिषद् ने ‘‘रोटी और कमल यात्रा’’ तथा अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव को अंजाम दिया। जन अभियान परिषद् के कार्यपालन निदेशक की जिम्मेदारी का निर्वहन पुलिस विभाग के अधिकारी राजेश गुप्ता कर चुके हैं। श्री गुप्ता का संबंध पुलिस विभाग से जरूर है लेकिन वे विकास कार्यो के भी सिद्धस्त हैं। खंडवा जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी के तौर पर उन्होंने जल संरक्षण और संवर्द्धन से संबंधित कार्यों को एक नया आयाम दिया। वे पर्यावरण, पारंपरिक खेती और जल संवर्द्धन के विशेषज्ञ के तौर पर जाने जाते हैं। अब जन अभियान परिषद् ढांचा विकासखंड स्त्र तक विकसित हो चुका है। संभाग, जिला और विकासखंड समन्वयक, मैदानी कार्यों को बेहतर तरीके से संपादित करने के लिए तैयार हैं।
प्रदेश की स्वयंसेवी संस्थाओं को सरकार से बहुत अपेक्षाएं हैं। सरकार भी इन संस्थाओं से अनेक अपेक्षाएं रखती है। अभी तो आरोप-प्रत्यारोप ही अधिक दिख रहा है। सरकार पर अनुदान में पारदर्शिता और ईमानदारी न बरतने का आरोप लगता रहा है। एक नई धारणा भी विकसित हुई है कि एनजीओ को अब ठेकेदार एजेंसी की तरह समझा जाने लगा है। वहीं सरकार को भी एनजीओ से कई शिकायतें रही है। अनुदान राशि का दुरूपयोग, विदेशी अनुदान का समाज और राष्ट्रविरोधी कार्यों में व्यय तथा कई एनजीओ की सरकार और समाज विरोधी कार्यों में संलिप्तता का आरोप भी गलता रहा है। विभिन्न कार्यों के लिए संस्थाओं के चयन में भेद-भावपूर्ण तौर-तरीके के बारे में भी आपत्ति दर्ज करायी जाती रही है। सरकार भी चाहती है कि एनजीओ पूर्वाग्रह रहित होकर विकास कार्यों में सहभागी बनें। निश्चित तौर पर देश में एनजीओ क्षेत्र का तेजी से विकास हो रहा है। मध्यप्रदेश ऐसा राज्य है जहां विकास में जनांदोलन में स्वैच्छिक संस्थाओं की काफी महत्वपूर्ण भूमिका है। निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की ही तरह एनजीओ क्ष्ेात्र का भी व्यापक विस्तार हुआ है। इस क्षेत्र के साथ ताल-मेल, समन्वय, सहयेाग और नियमन कठिन और चुनौतिपूर्ण तो है, लेकिन असंभव नहीं। हां इसके लिए स्पष्ट सोच और व्यापक दृष्टि जरूर चाहिए। जन अभियान परिषद् को स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए आकर्षण का केन्द्र बनना है। उसे स्वयं सशक्त और सक्षम होना है। तदर्थ और संविदा ढांचागत विकास से आगे बढ़कर स्थायी संरचना और ढांचा विकसित करना है।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने ‘स्वर्णिम मध्यप्रदेश’ का नारा दिया है। सच में यह प्रदेश को स्वर्णिम बनाने के लिए समाज और सरकार से आह्वान है। मध्यप्रदेश जन अभियान परिषद् भी इस आह्वान को सफल बनाने के लिए सक्रिय हुआ है। यह समाज और सरकार के बीच एक सेतु की तरह काम करेगा। विकास की यात्रा को जरूरतमंदों तक ले जाने का प्रयास। सहस्रो जन संगठनों को साथ लेकर विकास की उड़ान भरने का काम। मुख्यमंत्री चाहते हैं- प्रदेश में कोई भूखा और भयभीत न रहे, निरक्षर और अशिक्षित न रहे। जन-जन समृद्धि और सम्पन्नता के साझीदार बनें। मानव और प्राकृतिक संसाधनों का कुशल प्रबंधन हो। हर हाथ को काम मिले। अर्थात् भय, भूख और भ्रष्टाचार रहित प्रदेश। ऐसा प्रदेश ही देश और दुनिया में सिरमौर बनेगा।
जाहिर है यह सब तभी होगा जब जन अभियान में व्यक्ति तो हो लेकिन यह व्यक्गित न हो, जन अभियान की राजनीति न हो, लेकिन इसमें राजनीति न हो। जन अभियान परिषद् जन संगठनों और स्वैच्छिक संस्थाओं का संगठन करे, इनके बीच में एक संगठन बनकर न रह जाए। व्यक्तिगत आशा-आकांक्षा, अपेक्षा और महत्वाकांक्षा विलीन होकर व्यापक रूप धारण करे। जन भागीदारी का दर्शन तभी फलीभूत होगा जब साफ नीयत से ईमानदार प्रयास होगा। कथनी और करनी में एकरूपता से ही ऋग्वेद के सूत्र को लागू कर पायेंगे, प्रदेश के हित में कुछ परिणाम दे पायेंगे। अभी तो जन अभियान की पक्रिया चल रही है, जल्दी ही कुछ परिणाम मिले यह सबकी अपेक्षा है। मध्यप्रदेश जन अभियान परिषद् विकास में जन भागीदारी का ताना-बाना बुन रहा है। यह ताना-बाना निश्चित ही ‘स्वर्णिम मध्यप्रदेश’ के स्वप्न को साकार करेगा।
मंगलवार, 19 मई 2009
देवर्षि नारद: मीडिया के पथप्रदर्शक
अनिल सौमित्र
आज नारद जयंती है। ईस्वी सन् के अनुसार वर्ष 2009 और 11 मई है। किन्तु यह संयोग है। सामान्यतः नारद को भारतीय संदर्भों में जानना समझना ही उपयुक्त और समीचीन होगा। इसलिए नारद की जयन्ती भारतीय कालगणना के अनुसार ज्येष्ठ मास की कृष्णपक्ष द्वितीया को है। आंग्ल कालगणना के अनुसार तारीख और मास भले ही बदल जाये लेकिन भारतीय अथवा हिन्दू गणना के अनुसार प्रत्येक वर्ष की ज्येष्ठ मास की कृष्णपक्ष द्वितीया को ही उनकी जयंती होती है।
आज यह सवाल सर्वथा समीचीन है कि नारद को हम क्यों स्मरण कर रहे हैं। क्या इस लिए लिए वे भारत की ऋषि, महर्षि और देवर्षि की परंपरा के वाहक थे। या इसलिए कि उन्होंने अपने कर्तृत्व के द्वारा लोक कल्याण को धारण किया। महर्षि नारद के बारे में आम धारणा यह है कि वे देवलोक और भू-लोक के बीच संवादवाहक के रूप में काम करते थे। देवलोक में भी वे देवताओं के बीच संदेशों का प्रसारण करते रहे। लेकिन नारद मुनि के बारे में भू-लोक वासियों के मन में अच्छी छवि नहीं दिखती है। यही कारण है कि जो लोग अपनी संतान को एक अच्छा पत्रकार बनाना चाहते हैं भी उसका नाम नारद रखने से बचते हैं। कई लोग नारद मुनि के व्यक्तित्व की व्याख्या समाज में आज के चुगली करने वाले की तरह करते हैं। जिस पत्रकार के बारे में नकारात्मक टिप्पणी करनी होती है तो उसे आमतौर पर ‘नारद’ के नाम से ही संबोधित कर देते हैं।
लेकिन अब धीरे-धीरे नारद मुनि के बारे में सकारात्मक दृष्टि से चर्चा शुरू हो गई है। नारद के बहाने भारत में ऋषि-मुनि, महर्षि और देवर्षि जैसे विशेषणों के बारे में खोज-खबर शुरु हो गई है। नारद मुनि के बारे जितनी जानकारी उपलब्ध है उसके मुताबिक उनके व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण पहलू एक कुशल संचारक, संप्रेषक और संवादवाहक का है। आज के मीडिया प्रतीकों के संदर्भ में विचार करें तो स्पष्टतः नारद और महाभारत काल के संजय की भूमिका मीडिया मैन की दिखती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक प्रातःस्मरण में जिन महापुरूषों को बार-बार स्मरण करते हैं उनमें देवर्षि नारद का नाम प्रमुख है। संघ, नारद को भारतीय ज्ञान और संचार परंपरा का वाहक मानता है। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को सही अर्थों में समझने और समझाने का गुरुतर दायित्व भी संघ ने अपने उपर लिया है। संघ अपने स्थापना काल से ही प्रचार से दूर रहा। लेकिन समय की आवश्यकताओं के मदद्ेनज़र संघ ने भी प्रचार को अंगीकार किया और इस दिशा में पहल की। प्रचार विभाग, संघ के संरचनागत ढांचे में शामिल है। प्रचार विभाग की ईकाइयां जिला स्तर पर कार्यरत हैं। संघ ने प्रचार को स्वीकार तो किया है, लेकिन इस क्षेत्र में कार्य करते हुए वह पूरी तरह सतर्क और सावधान है। जाहिर है, संघ के लिए प्रचार का एक सीमित उद्देश्य है। संघ को पता है कि अनियंत्रित और असंयमित प्रचार से संघ कार्य पर प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है। शायद इसी सावधानी और सतर्कता के कारण संघ सीधे तौर पर मीडिया की दैनंदिनी गतिविधि में शामिल नहीं है। आवश्यकतानुसार निर्धारित व्यक्तियों के द्वारा मीडिया से चर्चा की जाती है। मीडिया क्षेत्र में दीर्घकालिक और योजनाबद्ध कार्य करने के लिए संघ की प्रेरणा से सभी प्रांतों में विश्व संवाद केन्द्र कार्यरत है। संवाद केन्द्रों की कार्य योजना में शोध, सूचना-प्रसार और प्रकाशन महत्वपूर्ण अंग है।
नारद मुनि की चर्चा जितना संघ के लिए प्रसंागिक है उतना ही मीडिया क्षेत्र और समाज के लिए भी। प्रचार या मीडिया का महत्व संघ के लिए आंशिक है। क्योंकि संघ समाज तक सीधे और प्रत्यक्ष पहंुचना चाहता है। लेकिन मीडिया का तो कार्य ही सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का है। इसलिए नारद मीडिया के प्रतिमान भी हैं और पथप्रदर्शक भी। दिन-ब-दिन मीडिया का महत्व समाज जीवन में बढ़ता ही जा रहा है। व्यक्ति के निजी और सार्वजनिक जीवन में मीडिया का दखल और प्रभाव दोनों बढ़ता जा रहा है। मीडिया का हस्तक्षेप भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर बढ़ रहा है। लोकतंत्र में मीडिया विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिक के साथ चैथे स्तंभ के रूप में कार्यरत है। मीडिया के अलावा अन्य तीनों स्तंभों पर किसी न किसी का नियंत्रण और नियमन है, लेकिन मीडिया रूपी यह चैथा स्तंभ किसी तंत्र के नियंत्रण या नियमन से परे है। अपेक्षा यह की जाती है कि मीडिया स्वयं ही अपना नियमन और नियंत्रण करे। यहीं पर देवषि नारद का व्यक्तित्व और कर्तृत्व मीडिया के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। नारद का संपूर्ण जीवन और व्यक्तित्व एक व्यापक अध्ययन की मांग करता है। उनके कर्तृत्व का अनेक पहलू ऐसा है जो अनछुआ और अनसुलझा है। भारतीय ग्रंथों और साहित्यों में उन्हें तलाशने की आवश्यकता है।
आज जिन बातों की अपेक्षा सभ्य समाज मीडिया से करता है नारद का चरित्र और कर्तृत्व पूर्णतः उसके माकूल है। देवर्षि नारद ने सूचनाओं का आदान-प्रदान लोकहित का ध्यान में रखकर किया। कई बार उनकी सूचनाओं या संप्रेषण शैली से देवताओं को तनाव या व्यवधान उत्पन्न होता प्रतीत होता था, लेकिन लोक या जन की दृष्टि से विचार करने पर उनके अन्तर्निहित भाव का बोध सहज ही हो जाता है। आज मीडिया जब पूंजी, राज्य और बाजार के नियंत्रण में दिखता है, मीडिया का लोकोन्मुखी चरित्र विलुप्त-सा है। पाठक, श्रोता और दर्शक मीडिया अधिष्ठान के द्वारा ग्राहक बनाए जा रहे हैं। मीडिया अब उत्पाद बन गया है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का घाल-मेल हो गया है। वर्तमान मीडिया, पश्चिमी और यूरोपीय प्रभाव से वशीभूत है। भारतीय मीडिया के प्राचीन नायक नारद को खलनायक की तरह देखने-समझने की बजाए सही अर्थों में जानने-समझने की चेष्टा होनी चाहिए। इसके पहले कि मीडिया से लोक का भरोसा उठ जाए, मीडिया के भारतीय प्रतिमानों, प्रतिरूपों और नायकों को ढूंढने की कोशिश होनी चाहिए। सही मायने में नारद, मीडिया के लिए पथप्रदर्शक हो सकते हैं।
हर वर्ष नारत की जयंती आती और चलर जाती है। भारत में महापुरूषों से सीखने, उनका अनुगमन करने और मार्गदर्शन प्राप्त करने की विधायक परंपरा पही है। ग्राम विकास और अन्त्योदय की बात हो तो गांधी, सर्वोदय की बात हो तो विनोबा, एकात्ममानववाद की बात हो दीनदयाल उपाध्याय हमें सहज ही याद आते हैं, ऐसे ही मीडिया की चर्चा हो तो नारद स्मरण स्वाभाविक ही है। नारद को अब प्रथम पत्रकार या संवाददाता के रूप में याद किया जाने लगा है। अगर चालू भाषा में कहें तो नारद फस्ट मीडिया मैन थे। लेकिन वे तत्व ज्ञान के जानकार, अध्येता और ऋषि परंपरा के वाहक भी थे। उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलु अनजाने हैं, लेकिन एक संचारक, संवादवाहक और संप्रेरक के रूप में आमजन उन्हें जानता है, उनके इस रूप को और अधिक जानने की आवश्यकता है। भारतीय मीडिया जगत के लोग भी उन्हें इन्हीं अर्थों में जाने-समझे और स्वीकारे यह समय की मांग है।
(लेखक संघ के मीडिया केन्द्र से संबद्ध हैं।)
अनिल सौमित्र
आज नारद जयंती है। ईस्वी सन् के अनुसार वर्ष 2009 और 11 मई है। किन्तु यह संयोग है। सामान्यतः नारद को भारतीय संदर्भों में जानना समझना ही उपयुक्त और समीचीन होगा। इसलिए नारद की जयन्ती भारतीय कालगणना के अनुसार ज्येष्ठ मास की कृष्णपक्ष द्वितीया को है। आंग्ल कालगणना के अनुसार तारीख और मास भले ही बदल जाये लेकिन भारतीय अथवा हिन्दू गणना के अनुसार प्रत्येक वर्ष की ज्येष्ठ मास की कृष्णपक्ष द्वितीया को ही उनकी जयंती होती है।
आज यह सवाल सर्वथा समीचीन है कि नारद को हम क्यों स्मरण कर रहे हैं। क्या इस लिए लिए वे भारत की ऋषि, महर्षि और देवर्षि की परंपरा के वाहक थे। या इसलिए कि उन्होंने अपने कर्तृत्व के द्वारा लोक कल्याण को धारण किया। महर्षि नारद के बारे में आम धारणा यह है कि वे देवलोक और भू-लोक के बीच संवादवाहक के रूप में काम करते थे। देवलोक में भी वे देवताओं के बीच संदेशों का प्रसारण करते रहे। लेकिन नारद मुनि के बारे में भू-लोक वासियों के मन में अच्छी छवि नहीं दिखती है। यही कारण है कि जो लोग अपनी संतान को एक अच्छा पत्रकार बनाना चाहते हैं भी उसका नाम नारद रखने से बचते हैं। कई लोग नारद मुनि के व्यक्तित्व की व्याख्या समाज में आज के चुगली करने वाले की तरह करते हैं। जिस पत्रकार के बारे में नकारात्मक टिप्पणी करनी होती है तो उसे आमतौर पर ‘नारद’ के नाम से ही संबोधित कर देते हैं।
लेकिन अब धीरे-धीरे नारद मुनि के बारे में सकारात्मक दृष्टि से चर्चा शुरू हो गई है। नारद के बहाने भारत में ऋषि-मुनि, महर्षि और देवर्षि जैसे विशेषणों के बारे में खोज-खबर शुरु हो गई है। नारद मुनि के बारे जितनी जानकारी उपलब्ध है उसके मुताबिक उनके व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण पहलू एक कुशल संचारक, संप्रेषक और संवादवाहक का है। आज के मीडिया प्रतीकों के संदर्भ में विचार करें तो स्पष्टतः नारद और महाभारत काल के संजय की भूमिका मीडिया मैन की दिखती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक प्रातःस्मरण में जिन महापुरूषों को बार-बार स्मरण करते हैं उनमें देवर्षि नारद का नाम प्रमुख है। संघ, नारद को भारतीय ज्ञान और संचार परंपरा का वाहक मानता है। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को सही अर्थों में समझने और समझाने का गुरुतर दायित्व भी संघ ने अपने उपर लिया है। संघ अपने स्थापना काल से ही प्रचार से दूर रहा। लेकिन समय की आवश्यकताओं के मदद्ेनज़र संघ ने भी प्रचार को अंगीकार किया और इस दिशा में पहल की। प्रचार विभाग, संघ के संरचनागत ढांचे में शामिल है। प्रचार विभाग की ईकाइयां जिला स्तर पर कार्यरत हैं। संघ ने प्रचार को स्वीकार तो किया है, लेकिन इस क्षेत्र में कार्य करते हुए वह पूरी तरह सतर्क और सावधान है। जाहिर है, संघ के लिए प्रचार का एक सीमित उद्देश्य है। संघ को पता है कि अनियंत्रित और असंयमित प्रचार से संघ कार्य पर प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है। शायद इसी सावधानी और सतर्कता के कारण संघ सीधे तौर पर मीडिया की दैनंदिनी गतिविधि में शामिल नहीं है। आवश्यकतानुसार निर्धारित व्यक्तियों के द्वारा मीडिया से चर्चा की जाती है। मीडिया क्षेत्र में दीर्घकालिक और योजनाबद्ध कार्य करने के लिए संघ की प्रेरणा से सभी प्रांतों में विश्व संवाद केन्द्र कार्यरत है। संवाद केन्द्रों की कार्य योजना में शोध, सूचना-प्रसार और प्रकाशन महत्वपूर्ण अंग है।
नारद मुनि की चर्चा जितना संघ के लिए प्रसंागिक है उतना ही मीडिया क्षेत्र और समाज के लिए भी। प्रचार या मीडिया का महत्व संघ के लिए आंशिक है। क्योंकि संघ समाज तक सीधे और प्रत्यक्ष पहंुचना चाहता है। लेकिन मीडिया का तो कार्य ही सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का है। इसलिए नारद मीडिया के प्रतिमान भी हैं और पथप्रदर्शक भी। दिन-ब-दिन मीडिया का महत्व समाज जीवन में बढ़ता ही जा रहा है। व्यक्ति के निजी और सार्वजनिक जीवन में मीडिया का दखल और प्रभाव दोनों बढ़ता जा रहा है। मीडिया का हस्तक्षेप भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर बढ़ रहा है। लोकतंत्र में मीडिया विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिक के साथ चैथे स्तंभ के रूप में कार्यरत है। मीडिया के अलावा अन्य तीनों स्तंभों पर किसी न किसी का नियंत्रण और नियमन है, लेकिन मीडिया रूपी यह चैथा स्तंभ किसी तंत्र के नियंत्रण या नियमन से परे है। अपेक्षा यह की जाती है कि मीडिया स्वयं ही अपना नियमन और नियंत्रण करे। यहीं पर देवषि नारद का व्यक्तित्व और कर्तृत्व मीडिया के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। नारद का संपूर्ण जीवन और व्यक्तित्व एक व्यापक अध्ययन की मांग करता है। उनके कर्तृत्व का अनेक पहलू ऐसा है जो अनछुआ और अनसुलझा है। भारतीय ग्रंथों और साहित्यों में उन्हें तलाशने की आवश्यकता है।
आज जिन बातों की अपेक्षा सभ्य समाज मीडिया से करता है नारद का चरित्र और कर्तृत्व पूर्णतः उसके माकूल है। देवर्षि नारद ने सूचनाओं का आदान-प्रदान लोकहित का ध्यान में रखकर किया। कई बार उनकी सूचनाओं या संप्रेषण शैली से देवताओं को तनाव या व्यवधान उत्पन्न होता प्रतीत होता था, लेकिन लोक या जन की दृष्टि से विचार करने पर उनके अन्तर्निहित भाव का बोध सहज ही हो जाता है। आज मीडिया जब पूंजी, राज्य और बाजार के नियंत्रण में दिखता है, मीडिया का लोकोन्मुखी चरित्र विलुप्त-सा है। पाठक, श्रोता और दर्शक मीडिया अधिष्ठान के द्वारा ग्राहक बनाए जा रहे हैं। मीडिया अब उत्पाद बन गया है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का घाल-मेल हो गया है। वर्तमान मीडिया, पश्चिमी और यूरोपीय प्रभाव से वशीभूत है। भारतीय मीडिया के प्राचीन नायक नारद को खलनायक की तरह देखने-समझने की बजाए सही अर्थों में जानने-समझने की चेष्टा होनी चाहिए। इसके पहले कि मीडिया से लोक का भरोसा उठ जाए, मीडिया के भारतीय प्रतिमानों, प्रतिरूपों और नायकों को ढूंढने की कोशिश होनी चाहिए। सही मायने में नारद, मीडिया के लिए पथप्रदर्शक हो सकते हैं।
हर वर्ष नारत की जयंती आती और चलर जाती है। भारत में महापुरूषों से सीखने, उनका अनुगमन करने और मार्गदर्शन प्राप्त करने की विधायक परंपरा पही है। ग्राम विकास और अन्त्योदय की बात हो तो गांधी, सर्वोदय की बात हो तो विनोबा, एकात्ममानववाद की बात हो दीनदयाल उपाध्याय हमें सहज ही याद आते हैं, ऐसे ही मीडिया की चर्चा हो तो नारद स्मरण स्वाभाविक ही है। नारद को अब प्रथम पत्रकार या संवाददाता के रूप में याद किया जाने लगा है। अगर चालू भाषा में कहें तो नारद फस्ट मीडिया मैन थे। लेकिन वे तत्व ज्ञान के जानकार, अध्येता और ऋषि परंपरा के वाहक भी थे। उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलु अनजाने हैं, लेकिन एक संचारक, संवादवाहक और संप्रेरक के रूप में आमजन उन्हें जानता है, उनके इस रूप को और अधिक जानने की आवश्यकता है। भारतीय मीडिया जगत के लोग भी उन्हें इन्हीं अर्थों में जाने-समझे और स्वीकारे यह समय की मांग है।
(लेखक संघ के मीडिया केन्द्र से संबद्ध हैं।)
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