बुधवार, 21 अप्रैल 2010

मीडिया में माओ कलमबंदी और हथियारबंदी का ताना-बाना

आउटलुक पत्रिका के ताजे अंक में अरुंधती रॉय का लंबा आलेख प्रकाशित हुआ है। कछ ही दिनों पूर्व पश्चिम बंगाल में उन्होंने एक साक्षात्कार भी दिया। लगे हाथों एक टीवी चैनल ने भी उनका साक्षात्कार प्रसारित किया। जाहिर है अरुंधती का लिखा-कहा काफी पढ़ा और सुना जाता है। वर्तमान मीडिया में क्या लिखा गया, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है किसके द्वारा लिखा गया। अरुंधती के पाठक और दर्शक-श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग भी है। जाहिर है सबका अपना नजरिया होगा। अरुंधती का लिखा - ‘भूमकालः कॉमरेडों के साथ-साथ’ पढ़ने वाले एक मित्र ने कहा - इस आलेख में जबर्दस्त माओवादी अपील है, जैसे शोभा-डे के लिखे में सेक्स अपील होती है। पाठक ने स्मरण दिलाया- हजार चैरासी की मां’ फिल्म में भी ऐसा ही माओवादी अपील था। पाठक ने बताया अरुंधती को पढ़कर माओवादी बन जाने का मन करता है। विकास, आदिवासी और जंगल की बात करने का मन करता है। माओवादियों-नक्सलियों की तरह हत्या, लूट, डाका, वसूली, बलात्कार और अत्याचार करने का जी करता है। ऐसी प्रेरणा तो पहले कभी नहीं मिली, पहले राष्ट्रवादियों से लेकर समाजवादियों तक को पढ़ा।
अरुंधती के पास कौन-सा स्वप्न है! क्या उनका स्वप्न आदिवासियों या आम लोगों का दुःस्वप्न है? विकास के नाम पर विनाश और हिंसा को जायज ठहराने वाले ये भी तो बतायें कि आखिर माओवादी किसका विकास कर रहे हैं? भले ही माओवादी-नक्सली विकास की आड़ लेकर विनाश का तांडव कर रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक सरकारी कार्यवाई की निंदा यह कह कर कर रहे हैं कि माओवाद-नक्सलवाद पिछड़ेपन, विषमता और गरीबी के पैदा हुआ है। बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ से लेकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट और आंध््राप्रदेश तक माओवादियों के मार्फत किसका विकास हुआ है, किसका विकास रुका है? ये विनाश का कॉरीडोर किसके लिए बन रहा है यह भी देखा और पूछा जाना चाहिए। दंतेवाड़ा में इंद्रावती नदी के पार माओवादियों के नियंत्रित इलाके में सन्नाटा पसरा है। जिन बच्चों को स्कूल में किताब-कॉपियों और कलम-पेंसिल के साथ होना चाहिए था, वे माओवादियों के शिविरों में गोली-बारुद और इंसास-एके 47-56 का प्रशिक्षण लेकर विनाशक दस्ते बन रहे हैंं। स्कूलों में भय के कारण पढ़ने और पढ़ाने वाले दोनों ही नदारद हैं।
निश्चित तौर पर खनिज और वन संसाधनों से भरपूर वन-प्रांतर में संघर्षरत पुलिस बल और माओवादी-नक्सली हर लिहाज से परस्पर भिन्न और असमान हैं। एक तरफ माओवादियों की पैशाचिक वृत्ति, मानवाधिकारों से बेपरवाह, देशी लूट और विदेशी अनुदान से संकलित असलहे, मीडिया का दृश्य-अद्श्य तंत्र, भय पैदा करने के हरसंभव हथकंडों से लैस तथा छल-बल से अर्जित निर्दोष-निरीह आदिवासियों का समर्थन प्राप्त, अत्यन्त सुसंगठित व दुर्दांत प्रेरणा से भरा हुआ माओवादी लडाकू छापामार बल। वहीं दूसरी ओर निर्दोंषों पर बल प्रयोग न करने की नैतिक जिम्मेदारी लिए, संसाधनों और सुविधाओं की कमी झेल रहे, राजनैतिक नेतृत्व की उहापोह से ग्रस्त, नौकरशाही के जंजाल से ग्रस्त, मानवाधिकार संगठनों के दुराग्रहों से लांछित, राज्य और केन्द्र की नीति-अनीति का शिकार, वन-प्रांतरों की भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक ढांचे से अंजान या बेहद कम जानकार सरकार के अद्र्ध-सैनिक बल। बेहतर जिंदगी की लालसा दोनों को है। एक परिवार की देश-समाज की बेहतरी चाहता है दूसरा माओवादियों का जत्था है जो किसकी बेहतरी और सुरक्षा के लिए मार-काट मचा रहा है उसे खुद नहीं मालूम। बस हत्या अभियान में मारे गए शवों और लूटे गए हथियारों की गिनती ही उन्हें करनी है। माक्र्स, लेनिन और माओ को कौन जानता है उन सुदूर वनवासी क्षेत्रों में, जानते हैं तो बस उनके नाम से चलाए जाने वाले भय को। जो वनवासी योद्धा अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर रहा था, उसकी तुलना इन माओवादियों से नहीं की जा सकती जिनका स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व में कोई विश्वास नहीं।
माओवादी लेखक और बुद्धिजीवी माओवादी-नक्सलियों को आदिवासियों और शोषितों का प्रतिनिधि बताते थकते नहीं। लेकिन कोई उनसे यह क्यों नहीं पूछता कि चारू मजूमदार और कानू सान्याल से लेकर गणपति, कोटेश्वर राव, पापाराव, रामन्ना, हिदमा, तेलगू दीपक और कोबाद गांधी जैसे कथित क्रांतिकारियों की पृष्ठभूमि पर गौर करने से उनका आदिवासी-किसान विरोधी व्यक्तित्व की झलक मिलती है। ये माओवादी भले ही शोषितों की लड़ाई की बात करते हों लेकिन इनके भीतर भी जातीय श्रेष्ठता का दुराग्रह भरा हुआ है। माओवादी नेता कोटेश्वर राव के नजदीकी गुरुचरण किस्कू ने एक साक्षात्कार में कहा था कि बंगाल में किशनजी की अगुआई में जारी आंदोलन आदिवासी समर्थक नहीं, आदिवासी विरोधी है।
हत्या पसंद उन क्रूर और निर्मम माओवादियों द्वारा चुनावों को पाखंड और संसद को सुअड़बाड़ा कह देने से काम नहीं चल जाता। अरुंधती को उसके आगे भी पूछना चाहिए। आखिर उनका बूचड़खाने कोई विकल्प तो नहीं हो सकता। रॉय यह भी तो बताएं कि वे भारतीय राजतंत्र का समर्थन करती हैं कि माओवादियों की तरह खुल्लम-खुल्ला तख्ता पलट का इरादा रखती हैं। अपने इस इरादे पर उन्हें राजतंत्र के इरादे की परवाह है भी या नहीं! पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी अब माओवादी क्यों हो गए? आखिर वहां से नक्सलवादी क्यों चले गए थे, क्या नक्सलवादियों का स्वप्न पश्चिम बंगाल में पूरा हो गया था। ये कैसा स्वप्न है जो बार-बार दःस्वप्न में बदल जाता है। बंगाल की माक्र्सवादी-कम्युनिस्ट सरकार तो नक्सलियों के स्वप्न साकार करने के लिए ही बनी थी। फिर 20-30 वर्षों के माक्र्सवादी राज में उनके स्वप्वास्वप्न क्यों हो गए? अभागे नक्सली, माओवादी बनने पर क्यों मजबूर हुए। बंगाल में असफल नक्सली छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के सफल माओवादी कैसे हो सकते हैं?
बकौल अरुंधती मान लिया जाए कि भारतीय संसद द्वारा 1950 में लागू किया गया संविधान जन-जातियों और वनवासियों के लिए दुःख भरा है। संविधान ने उपनिवेशवादी नीति का अनुमोदन किया और राज्य को जन-जातियों की आवास-भूमि का संरक्षक बना दिया। रातों-रात उसने जन-जातीय आबादी को अपनी ही भूमि का अतिक्रमण करने वालों में तब्दील कर दिया। मतदान के अधिकार के बदले में संविधान ने उनसे आजीविका और सम्मान के अधिकर छीन लिए। संसद द्वारा अपनाए गए संविधान से जन-जातीय समाज ही नहीं अन्य बहुत लोगों को दुःख हो सकता है तो क्या लाखों-करोड़ों लोग माओवादियों की तरह हथियार उठा लें और लाखों-करोड़ों अपना शत्रु बना लें? निश्चित तौर पद बड़े बांधों से विस्थापन होता है। सबसे अधिक प्रभावित वनवासी-आदिवासी ही होते हैं। लेकिन सिर्फ बांधों की उंचाई का विरोध निषेधात्मक काम है, अरुंधती या मेधा पाटकर विकल्प भी तो बतांए-कुछ करके भी दिखाएं। सरकार के कल्याणकारी बातों से सिर्फ चिंता करने से नहीं होगा। सरकार और आमलोगों को भी तब चिंता सताने लगती है जब अरुंधती वन-प्रांतर में माओवादियों से मिलने जाती हैं। आदिवासियों का विकास अगर उद्योगपति-पंजीपति समर्थक गृहमंत्री पी. चिदंबरम नहीं कर सकते जैसे माओवादी समर्थक अरुंधती नहीं कर सकती। एजेंट होने का आरोप दोनों पर लग सकता है। एक पूंजीपतियों का, दूसरा माओवादियों का। वर्षों से कब्जे की जद्दोजहद गरीब और संसाधन विपन्न क्षेत्रों में नहीं हो रही है, बल्कि गरीब और संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों में हो रही है। माओवादी वहीं हैं जहां खनिज संसाधनों की मलाई है। वे वहीं अपना पैर पसार रहे हैं जहां कंपनियां उत्खनन को बेताब हैं। क्योंकि उगाही और वसूली के लिए यही उर्वर क्षेत्र है। उड़ीसा के कालाहांडी में भी गरीबी है। वहां सरकार नहीं पहुची, तो क्यों नहीं माओवादी वहां भूखमरी समस्या खत्म कर देते। इन सर्वहारा लड़कों के वे सभी वर्ग-मित्र हैं जो इन्हें अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए असलहा, पूंजी और साधन उपलब्ध कराते हैंं। बाकी सब वर्ग शत्रु। उनके नियम में लिखा है - शत्रु को नष्ट कर ही दिया जाना चाहिए, उसके हथियार छीन लेने चाहिए और उसे अशक्त कर दिया जाना चाहिए...’’ तो इस संघर्ष में सिर्फ वहीं बचेंगे जो वर्ग मित्र बन सकेंगे, बाकी सब मिटा दिए जायेंगे।
अरुंधती को कॉमरेड कमला की बार-बार याद आती है। वे कई बार उसके बारे में सोचती हैं। वह सत्रह की है। कमर में देशी कट्टा बांधे रहती है। उस 17 वर्षीय कॉमरेड की मुस्कान पर वे फिदा हैं। होना भी चाहिए। लेकिन वह अगर पुलिस के हत्थे चढ़ गई तो वे उसे मार देंगे। हो सकता है कि वे पहले उसके साथ बलात्कार करें। अरुंधती को लगता है कि इस पर कोई सवाल नहीं पूछे जायेंगे। क्योंकि वह आंतरिक सुरक्षा को खतरा है। ऐसा तो सब प्रकार की असुरक्षा के प्रति कोई भी करेगा। क्या आंतरिक, क्या बाह्य असुरक्षा। केांई पुलिस की सिपाही सत्रह वर्षीय कमला होगी तो माओवादी क्या करेंगे? क्या वे उसे दुर्गारूपिणी मान उसकी पूजा करेंगे? बाद में वे ससम्मान उसे पुलिस मुख्यालय या उसके मां-बाप के पास पहुचा देंगे? अरुंधती उन माओवादी कॉमरेडों से पूछ लेती तो देश को पता चल जाता। अगर वो पुलिस की सिपाही कमला 17 वर्षीया आदिवासी भी होती तो हत्थे चढ़ने पर माओवादी निश्चित ही पहले बलात्कार करते और उसे उसके परिवार वालों के सामने जिंदा दफन कर देते। आदिवासी क्षेत्रों की कितनी ही कमलाएं माओवादियों के हत्थे चढ़कर बलात्कार और जिंदा दफन की शिकार हो चुकी हैं। डर के मारे आंकड़े भी संकलित नहीं होते। पुलिसिया हिंसा या आतंक के खिलाफ तो मानवाधिकार भी है और लेखक-बुद्धिजीवी भी, लेकिन माओवादी हिंसा और आतंक के खिलाफ कौन बोलेगा?
चाहे हथियारबंद माओवादी हों या कलमबंद माओवादी, देश की अनेक समस्याओं का वास्ता देकर हिंसा को जायज नहीं ठहराया जा सकता। माओवाद समर्थकों के दोगले चरित्र को समाज और सरकार को समझना ही होगा। आखिर किस बिना पर हथियारबंद माओवादी तख्ता पलट की योजना बना रहे हैंं। क्या ये कलमबंद समर्थक उनके इशारे पर चल रहे हैं? देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर सत्ता को बंदूक की नली से प्राप्त करने की रणनीति का एक हिस्सा तो नहीं, ये कलमबंद माओवादी? आज स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि बीच का कोई रास्ता नहीं दिखता। न तो सरकार के लिए और ना ही आम लोगों के लिए। फिर ये माओवादी बुद्धिजीवी विकास की कमी, मानवाधिकार, आदिवासी उत्पीड़न की बात लिख-कहकर देश आमलोगों को गुमराह क्यों कर रहे हैं? आप अगर माओवादी हिंसा का खुलेआम विरोध नहीं करेंगे, उन्हें ग्लैमराइज करेंगे, उसके पक्ष में माहौल बनायेंगे, सरकार की नीतियों का विरोध करेंगे बिना कोई वैकल्पिक नीति बताये तो आप भी माओवादियों के संरक्षक, उनके समर्थक और उनके मददगार के रूप में क्यों न चिन्हित किए जाएं? आपके साथ भी माओवादी-नक्सलियों जैसा बर्ताव क्यों न किया जाए? जिस दिन दंतेवाड़ा में पुलिस बल और माओवादियों के बीच मुठभेड़ हो रही थी उसी दिन दिल्ली के जंतर-मंतर पर कुछ बुद्धिजीवी माओवाद विरोधी अभियान का विरोध कर रहे थे। बाद में खबर आई कि देश की राजधानी नई दिल्ली में केन्द्र सरकार के नाक के नीचे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ क्रांतिकारी छात्रों ने माओवादियों द्वारा देश के पुलिस जवानों की हत्या पद जश्न मनाया। कुछ छात्रों द्वारा विरोध करने पर झड़प की नौबत आ गई। क्या लोकतंत्र और स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का यही मतलब है? क्या देश की जनता और सरकार विश्वविद्यालय को करोड़ों की सब्सिडी इस लिए देती है कि वहां से पढ़कर छात्र देश विरोधी कार्य करें। ऐसे छात्र, छात्र संगठनों और विश्वविद्यालय पर सरकार ने क्या कार्यवाई की, सरकार की क्या नीति है? देश का कानून माओवाद-नक्सलवाद समर्थकों और देश के सुरक्षा बल के विरोधियों के बारे में क्या कहता है, देश को जानने का हक है। क्या ये मीडिया के माओवादी है जो आतंक को, हिंसा को और भय को ग्लैमराइज कर रहे हैं और इसे स्वप्न में देखने लायक बना कर परोस रहे हैं। ये कलमबंद माओवादी जो हथियारबंद होने, राज्य के खिलाफ आंतंक और हिंसा का तांडव करने और समाज को क्षत-विक्षत कर देने की प्रेरणा दे रहे हैं इनके बारे में राज्य और समाज क्या सोचता है? यह कलमबंदी और हथियारबंदी माओ का कैसा ताना-बाना है।
(लेखक पत्रकार और मीडिया एक्टिवीस्ट हैं)

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

नक्सल समस्या का जवाब है संघ का विकास माडल : तरूण विजय

विचारधारा के आवरण में आतंकवाद का ही एक छलावा है नक्सलवाद

भोपाल।सर्वदलीय इच्छाशक्ति के आभाव के कारण नक्सलवादी हिंसा का देश में विस्तार हुआ है।बंदूक के दम पर गरीबी और विकास का दावा करने वाले हिंसक माओवादियों ने अब तक देश के अंदर कोई माओ का आदर्श गांव नहीं बनाया है जो समस्यां विहीन हो । वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश भर में 159000 सेवा प्रकल्प चला कर समाज को मजबूत बनाने में योगदान दे रहा है। भोपाल विश्व संवाद केंन्द्र में आज आयोजित प़़त्रकार वार्ता में संघ विचारक और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता तरूण विजय ने कही।
उन्होंने कहा कि 220 जिलों में फैले नक्सलियों को नेस्तानाबूत करने के लिए सरकारों ने अब तक 4000 करोड़ रूपये खर्च कर चुकी है।10000 से अधिक भारतीयों की हत्या कर चुके इन नक्सली समस्यां का एक मात्र हल संविधान की भावना के अनुरूप संघ के जैसे सेवा प्रकल्प है।उन्होंने कहा कि विचारधारा के आवरण में आतंकवाद का ही एक छलावा है नक्सलवाद।जिसे अरूधती राय जैसी छद्म बुद्धिजीवी इसे रोमांटीसाइज करती है।
अपने छत्तीसगढ़ दौरे के अनुभवों को बाटते हुए श्री तरूण ने कहा कि सबसे नक्सल पीड़ित दंतेवाडा,जगदलपुर सहित 164 तहसीलों में संघ के सेवा प्रकल्प चल रहे है।नक्लवाद कि बलिवेदी पर चढायें गए हजारों परिवारोें के बच्चों का लालन पालन संघ के सेवा शिविर हो रहा है।ये कार्य नक्सलवाद को रोमांटीसाइज करने वाले छद्म बुद्धिजीवियों को नहीं दिखाई देती।
उन्होंने कहा कि जनता कि तानाशाही लाने का दावा मानवता के लिए भीषण त्रासदी बन चुकी नक्लियों कि बंदूके विदेशी पैसे से गरजती है जबकि संघ जनता के पैसे से ही सेवा प्रकल्प चला कर जनता कि बुनियादी जरूरतों के हल के लिए काम कर रहा है।जिसे करीब से देखने कि जरूरत है।विशेष रूप से अरूधती राय और दिग्विजय सिंह जैसे उन लोगों को । दंतेवाडा मेेें हुई नक्सली वारदात के संबंध में उन्होंने कहा कि जब विपक्ष सरकार का साथ दे रहा है तब कांग्रेसी ही पी चितंबरम को घेर रहे है। इसका जवाव सोनिया गांधी का देना चाहिए।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

संघ की हत्या का प्रयास


संघ की हत्या का प्रयास
एक बार फिर संघ की हत्या का प्रयास किया जा रहा है। यह न तो पहली बार है और न अंतिम बार। संघ की स्थापना 1925 में हुई तब से लेकर अब तक संघ पर कई बार जानलेवा हमला किया गया है। संघ के इतिहास में सबसे पहला, ज्ञात और बड़ा हमला 1948 में हुआ था। तब देश अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त हुआ ही था, लेकिन विभाजन और हिन्दू नरसंहार की विभीषिका भी झेल रहा था। कांग्रेस के सर्वेसर्वा नेहरू को गांधी हत्या के रूप में एक बड़ा हथियार मिल गया। नेहरू ने गांधी की हत्या को अपने राजनीतिक कैरियर के लिए एक सुअवसर के रूप में देखा। एक तरफ गांधी को सिरे से नकारने और दूसरी ओर अपने विरोधियों के खात्में का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था। नेहरू ने अंग्रेजों से हाथ मिलाया और गांधी हत्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आरोपित कर दिया।
देश में गांधी के प्रति स्थापित असीम श्रद्धा और सम्मान का नेहरू ने दुरूपयोग करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ इस्तेमाल किया। आजादी के बाद गलत नीतियां अपनाए जाने और गांधी को नकारने के कारण नेहरू के खिलाफ जो माहौल बन रहा था, उसे बड़ी चतुराई से संघ की आरे मोड़ दिया गया। एक तीर से कई-कई निशाने। यह नेहरू का राजनीति कौशल था जो उन्होंने गांधी और अंग्रेजों से सीखा था। नेहरू इस राजनीतिक कौशल का सीमित इस्तेमाल अंग्रेजों के खिलाफ कर पाये, लेकिन गांधी और संघ के खिलाफ उन्होंने इसका भरपूर इस्तेमाल किया। संघ पद प्रतिबंध लगा दिया गया। संघ को समाज से तिरस्कृत और बहिष्कृत कर उसपर कानूनी शिकंजा कसने की काशिश भी की गई। सबको पता है कि गांधी हत्या मामले से संघ को बाइज्जत बरी कर देने और संघ को निर्दोष बताने के बावजूद कांग्रेस के नेता आज भी गांधी हत्या में संघ का नाम घसीटने से बाज नहीं आते। यह अलग बात है कि संघ के लोगों ने कभी कांग्रेसियों को न्यायालय की अवमानना का नोटिस नहीं दिया।
संघ पर दूसरा जानलेवा हमला इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय किया। संघ को लोभ-लालच और भय से निष्क्रिय या कांग्रेस के पक्ष में सक्रिय करने का प्रयत्न किया गया। कांग्रेस की शर्त न मानने पर संघ को नेस्तनाबूत कर देने की कोशिश हुईं। इस बार भी संघ को प्रतिबंधित किया गया। संघ इस हमले न सिर्फ बाल-बाल बच गया बल्कि देश ने कांग्रेस को करारा जवाब भी दिया। संघ पर तीसरा बड़ा हमला 1992 में किया गया जब अयोध्या में विवादित बाबरी ढांचा टूटा। तब केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार थी और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। प्रधानमंत्री राव ने नेहरू की ही तरह कुटिल राजनीतिक कौशल का परिचय दिया। उन्होंने भी एक तीर से कई-कई निशाने लगाए। एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत विवादित ढांचे को ढहने दिया गया। बाद में ढांचे के विध्वंस में संघ-भाजपा को आरोपित कर पहले तो भाजपा की चार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया गया और बाद में संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर यह तीसरा कांग्रेसी प्रतिबंध था।
संघ की स्थापना और कार्य एक पवित्र उद्देश्य से है। संघ के स्वयंसेवक संघ कार्य को ईश्वरीय कार्य मानते हैं। संघ भारत राष्ट्र के परम वैभव के लिए प्रयत्नशील है। यही कारण है कि संघ पर बार-बार घातक और जानलेवा हमले होते रहे हैं, लेकिन संघ इस हमले से बार-बार सही सलामत बच निकला। कांग्रेस ने भले ही हमले किए हों, लेकिन समाज ने हमेशा संघ को स्वीकारा और सराहा। संघ हमेशा हिन्दू समाज की रक्षा करता आया है, इसीलिए कांग्रेसी हमलों से संघ को समाज बचाया है।
संघ और हिन्दू शक्तियों पर ऐसे हमले न जाने कितनी बार हुए। उपर की गिनती तो सिर्फ बड़े हमलों की है। संघ के दुश्मनों ने कई बार रणनीति बदल कर हमले किए। पिछले लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस की हालत पतली थी। आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा के खतरे, मंहगाई, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण जैसे मुद्दों के कारण देश ने कांग्रेस को त्यागने का मन बना लिया था। भाजपा सहित अन्य राजनैतिक दल कांग्रेस को घेरने की पूरी तैयारी कर चुके थे। आर्थिक मुद्दों पर वामपंथी पार्टियों ने कांग्रेस की घेरेबंदी कर रखी थी। बढ़ती आतंकवादी घटनाओं ने कांग्रेस को कटघरे में ला खड़ा किया था। मुस्लिम तुष्टीकरण कांग्रेस की गले की हड्डी बन गया था। लेकिन इसी बीच ‘हिन्दू आतंकवाद’ का एक नया नारा गढ़ा गया। आतंकवाद और तुष्टीकरण की धार को हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों की ओर मोड़ दिया गया। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने फिर से कुटिल राजनीतिक कौशल का परिचय दिया। मालेगांव विस्फोट में हिन्दू संगठनों को लपेटने का कुत्सित प्रयास किया गया। पूरी तैयारी के साथ हिन्दू संगठनों, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आक्रमण किया गया। साध्वी प्रज्ञा समेत कुछ हिन्दू कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर ‘पुलिसिया हथकंडे’ अपना कर जुर्म और आरोप कबूलवाने की कोशिश की गई।
8 अप्रैल को महाराष्ट्र विधानसभा में सरकार के गृहमंत्री ने एक खुलासा किया। उन्होंने कहा कि मालेगांव के आरोपी संघ प्रमुख को मारना चाहते थे। 9 अप्रैल को समाचार पत्रों में महाराष्ट्र के गृहमंत्री के हवाले से इस आशय की खबर छपी कि मालेगांव विस्फोट के आरोपी हिन्दूवादी संगठनों की नजर में आरएसएस प्रमुख मोहनभागवत संगठन का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं हैं। इन संगठनों ने भागवत की हत्या की साजिश भी रची थी। फोन पर भागवत के खिलाफ की गई टिप्पणी सहित कई अपशब्दों की रिकार्डिंग वाला टेप महाराष्ट्र पुलिस के पास है। यह सब रहस्योदघाटन महाराष्ट्र के गृहमंत्री आरआर पाटिल ने विधानसभा में किया। एनसीपी विधायक जितेन्द्र आव्हाड के एक सवाल कि क्या मालेगांव विस्फोट प्रकरण में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित और अभिनव भारत संगठन से संबंधित लोगों ने भागवत की हत्या की साजिश रची थी? इसके जवाब में गृहमंत्री पाटिल ने सदन में कहा कि उनकी बातों में सच्चाई है। हालांकि बाद में विधान भवन परिसर में पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि भागवत की हत्या की साजिश रचे जाने के बारे में ठोस ढंग से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना पक्का है कि गिरफ्तार हिन्दूवादी अभियुक्तों के मन में भागवत के प्रति कटुता है। इन लोगों ने फोन पर आपसी बातचीत के दौरान भागवत के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल किया था। गौरतलब है कि 29 सितंबर, 2008 को रमजान के महीने में मालेगांव में हुए बम धमाके में 6 लोग मारे गए थे और 20 जख्मी हुए थे। महाराष्ट आतंक निरोधक दस्ते ने इस कांड के आरोपियों के संबंध दक्षिपंथी संगठन अभिनव भारत से होने की बात कही थी।
संघ पर जानलेवा हमला करने वाले हमेशा की तरह फिर सक्रिय हो गए हैं। फर्क बस इतना है कि उनकी रणनीति बदल गई है ताकि पकड़े जाने पर उनका नुकसान न होने पाए। कांग्रेस को संघ, संघ के स्वयंसेवक और संघ प्रमुख के जान की चिंता कब से होने लगी? हत्या के आरोपी और हमलावर ही अपने दुश्मन की परवाह करने लगें तो दाल में कुछ काला जरूर नजर आयेगा। क्या कांग्रेस और उनके हुक्मरानों को पता नहीं है कि अपने राजनीतिक फायदे के लिए गत लोकसभा चुनाव के पहले हिन्दू संगठनों पर सुनियोजित हमले किए गए। ये हमले कांग्रेस ने किए ओर कराए। इस हमले में कांग्रेस ने सरकारी, गैर सरकारी और राजनीतिक संगठनों का भरपूर इस्तेमाल किया। देश के खुफिया संगठन आईबी और महाराष्ट्र पोलिस को मोहरा बनाकर न सिर्फ हिन्दू संगठनों को आरेापित और कलंकित किया गया बल्कि ‘हिन्दू आंतंक’ का जुमला भी विकसित किया गया।
महाराष्ट्र कांग्रेस के गृहमंत्री सदन को गुमराह कर सकते हैं, देश को नहीं। कांग्रेस और उनकी सुप्रीमों सोनिया गांधी के बारे में करोड़ों हिन्दू कटुता का भाव रखते हैं, उन्हें देश और कांग्रेस का नेतृत्व करने के लायक नहीं मानते कई बार अपने संस्कारों को भूल आक्रोशवश अपशब्दों का भी इस्तेमाल करते हैं। अनेक भारतीय कांग्रेस और सोनिया के बारे में आमने-सामने और कई बार फोन पर भला-बुरा कहते हैं, संभव है खिन्नता और अवसाद में वे कांग्रेस और सोनिया के अंत का विचार भी करते हों। तो क्या इसे कांग्रेस और सोनिया के खिलाफ हिन्दुओं की साजिश मान ली जाए और करोड़ों हिन्दुओं को साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाए? संघ पर हमला करने वाले बहुरूपिए फिर भेष बदल कर आए हैं। वे इस हिन्दू संगठनों की आड़ ले रहे हैं। हिन्दू संगठनों को बदनाम, कलंकित और तिरस्कृत करने की साजिश जारी है। हमलावरों को बेनकाब करने और समाज को सावधान रहने की जरूरत है।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियां विषय पर व्याख्यान में पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा ने कहा सुरक्षा के मामले में देश के सामने गंभीर चुनौती

भोपाल। जिस दिन छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में माओवादी सुरक्षा बल के जवानों का कत्लेआम किया उसके ठीक दो दिन पूर्व मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा लोगों को आगाह कर रहे थे। पूर्व राज्यपाल श्री सिन्हा ने कहा कि सुरक्षा के मामले में आज भारत दोहरी चुनौती का सामना कर रहा है। पहली चुनौती बाहरी है जो देश की सीमा के बाहर से हमारे पड़ोसी देश उत्पन्न कर रहे हैं और दूसरी चुनौती देश के भीतर पनप रहे जेहादी आतंकवाद एवं माओवाद के कारण पैदा हो रही है। देश की सुरक्षा से जुडी इन चुनौतियों से तभी निपटा जा सकता है, जब राजनीति से दूर हटकर सुरक्षा से संबंधित मामलों में एकजुटता दिखाई जाए। देश की सुरक्षा के मामले में वोट की राजनीति को दूर ही रखा जाना चाहिए। युद्ध के भय से सुरक्षा को दांव पद नहीं लगाया जा सकता।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय द्वारा भोपाल में आयोजित व्याख्यान में पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल और असम तथा जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल एसके सिन्हा ने व्यक्त किये।इस अवसर पद मुख्य अतिथि के रूप में मध्यप्रदेश शासन के वित्तमंत्री राघवजी भाई और विशिष्ट अतिथि के रूप में जनसंपर्क आयुक्त मनोज श्रीवास्तव उपस्थित थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता मध्यप्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त पद्मपाणि तिवारी ने की। यह व्याख्यान माखनलाल चतुर्वेदी की जयंती पद आयोजित था।
अपने व्क्तव्य में श्री सिन्हा ने कहा कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान एवं चीन से हमें सबसे ज्यादा खतरा है। विश्व के पटल पर भारत तेजी से एक शक्ति के रूप में विकसित हो रहा है। चीन भारत की इस वृद्धि से चिंतित है। चीन इसे खतरा मानता है और दक्षिण एशिया में भारत के प्रभुत्व को समाप्त कर देना चाहता है। चीन तेजी से भारतीय सीमा के पार सड़क और हवाई अड्डे सहित अन्य अधोसंरचनाओं का विकास कर रहा है। हमें चीन से प्रतिस्पद्र्धा के लिए और अधिक तैयारी करनी होगी। उन्होंने कहा कि सीमा सुरक्षा के मामले में हमारा दूसरा खतरा पाकिस्तान है। पाकिस्तान हमेशा से यह मानता रहा है कि शांत और समृद्ध पाकिस्तान का निर्माण भारत के कारण संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए पाकिस्तान भारत में लगातार आतंकवादी गतिविधियों को प्रश्रय दे रहा हैं। पाकिस्तान परमाणु शक्ति के बूते भारत को ब्लैकमेल करने की कोशिश कर रहा है। देश की आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि असम एवं पूर्वोत्तर राज्यों में तेजी से फैले हिंसक आंदोलन हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। नागालैंड एवं मिजोरम में हिंसक वारदातों में कमी आई है। परन्तु त्रिपुरा और मणिपुर में अभी स्थिति में काफी सुधार की जरूरत है। त्रिपुरा में बंग्लादेशी घुसपैठियों के कारण हमें कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
श्री सिन्हा ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में अशांति एवं असुरक्षा का मुख्य कारण धार्मिक कट्टरवाद एवं पाकिस्तान द्वारा किया जाने वाला छद्म युद्ध है। यह दुष्प्रचार किया गया है जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी मुसलमान बहुसंख्यक है। जबकि इसकी संख्या सिर्फ 42 प्रतिशत है। पूरे देश और दुनियाभर में कश्मीरी मुसलमान को बहुसंख्यक बताकर वहां धार्मिक कट्टरवाद फैलाया जा रहा है। जम्मू और कश्मीर को समूचे रूप न देख पाने के कारण ही हम इस आंतरिक असुरक्षा से मुक्त नहीं हो पाये हैं। श्री सिन्हा ने सुरक्षा मामले पर सेक्यूलरिस्ट और मीडिया के रवैये को भी आड़े हाथों लिया।
व्याख्यान कार्यक्रम के मुख्यअतिथि मध्यप्रदेश के वित मंत्री राघवजी ने कहा कि आर्थिक सम्पन्नता तब तक किसी काम की नहंीं जबतक कि शक्तिशाली नहीं हो जाते। हमें भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाना है। यह तभी संभव होगा जब हम राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोपरि माने। विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित जनसंपर्क आयुक्त मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि भारत सुरक्षित होने के भ्रम का हमेशा शिकार रहा है। पृथ्वीराज चैहान ने बार-बार मोहम्मद गौरी को पराजित किया और छोड़ दिया। यह सुरक्षा के प्रति भ्रम की स्थिति ही थी। उन्होंने कहा कि इस प्रकार का भ्रम टूटना चाहिए और इसमें मीडिया की बड़ी भूमिका है। कार्यक्रम में भोपाल के सांसद और पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी सहित अनेक गण मान्य नागरिक उपस्थित थे।
अनिल सौमित्र भोपाल से।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

कौन बतायेगा गोविन्दाचार्य को भाजपा का रोडमैप!


कोडिपाक्कम् नीलमेघाचार्य गोविन्दाचार्य आजकल फिर से चर्चा में हैं। इस बार चर्चा जोर-शोर से है। यह चर्चा अनायास नहीं है और ना ही संकुचित अथवा नकारात्मक। इस बार की चर्चा सधी हुई और सच्चाई के इर्द-गिर्द है। गोविन्दाचार्य दिल्ली से भोपाल आते हैं तो लोग आपस में बाते करते हैं-आजकल गोविन्दजी भोपाल में अधिक समय दे रहे हैं, क्या बात है! लेकिन गोविन्दाचार्य 3 अप्रैल की सुबह दिल्ली क्या गए एक चर्चा तेजी से भोपाल से लेकर दिल्ली तक चली - गोविंदजी भाजपा में जाने वाले हैं! यह चर्चा जिन लोगों के बीच थी उनमें भाजपा-संघ से जुड़े लोग तो थे ही मीडिया और समाज के विभिन्न वर्गो के लोग भी थे। बहरहाल अपने दिल्ली प्रवास और इन चर्चाओं के बीच ही गाविन्दाचार्य ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सफाई दी। उन्होंने कहा - उनका भाजपा में दोबारा जाने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने सफाई देते हुए कहा कि उनकी गतिविधियों को किसी खास राजनीतिक दल से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। गोविन्दाचार्य ने पत्रकारों से बातचीत में यह दलील भी दी कि वर्तमान में अपने कार्य से संतुष्ट हैं। जब पत्रकारों ने उन्हें पलायनवादी कहा तो उन्होंने कहा - भाजपा में वापसी चाहने वाले लोग सामने आएं और रोडमैप बताएं।
गोविनदाचार्य भाजपा में जाएं या ना जाएं लेकिन देश में एक बड़ा वर्ग है जो चाहता है कि वे और उनके जैसे नेता भाजपा में रहें। हालांकि ऐसा चाहने वालों का भाजपा पर कोई वश नहीं है। लेकिन वे बेबस भी नहीं है। भाजपा, संघ और हिन्दुत्व से जुड़े नेताओं को लेकर घर वापसी के कयास और चर्चाएं अनायास नहीं हैं। इस बात को कौन झुठला सकता है कि भाजपा के विस्तार में गोविन्दाचार्य, कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, मदनलाल खुराना जैसे नेताओं का अमूल्य योगदान है। भाजपा ने अपने इतिहास का सर्वोत्तम प्रदर्शन इन्हीं नेताओं के साथ किया था। इन नेताओं के बिना भाजपा कमजोर हो गई। आज हालत यह है कि नेता बढ़ रहे हैं, पार्टियां बढ़ रही हैं और इनके अनुपात में देश की समस्याएं और चुनौतियां भी। सच तो यह है कि चाहे नेता और संगठन कितने ही बढ़ जाएं, लेकिन कमजोर नेता संगठन देश की किसी भी समस्या या चुनौती का सामना नहीं कर सकते।
भारत को सुरक्षित और वैभवसम्पन्न बनाने के लिए संघ चाहे जितना प्रयास करे, लेकिन देश के समक्ष आसन्न समस्याएं भी सुरसा की तरह मुंह बाए जा रही हैं। हिन्दुत्व का संरक्षण, हिन्दुत्व का बंटाधार करके नहीं किया जा सकता। यह विडंबना ही है या और कुछ कि एक तरफ माओवादी भारतीय नेशन-स्टेट को चुनौती देते हुए युद्ध के लिए ललकार रहे हैं, केन्द्र की यूपीए सरकार इटली की राजकुमारी सोनिया के नेतृत्व में अल्पसंख्यक एजेडा बहुसंख्यकों पर थोप रही हैं, बरेली, हैदराबाद से लेकर बंगाल के 24 परगना में हिन्दुओं का कत्लेआम हो रहा है, विकासपुरुष नरेन्द्र मोदी सेक्यूलरों के निशाने पर हैं और चीन-पाकिस्तान मोके की ताक में है वहींं दूसरी ओर राष्ट्रवादीं शक्तियां अपने तुच्छ स्वार्थ और अहंकार का खेल खेलने में व्यस्त हैं। विहिप के वरिष्ठ नेता अशोक सिंहल भाजपा के वरिष्ठ नेता आडवानी पर अयोध्या आंदोलन को नुकसान पहुचाने का आरोप लगा रहे हैं। भाजपा के नेता अपनी औकात भूलकर अपने ही घर के लोगों को घर आने का न्यौता देने, उनका मान-मनुहार कर घर वापस लाने की बजाए ओछी बयानबाजी कर रहे हैं। गोविन्दाचार्य भाजपा का रोडमैप मांग रहे हैं और भाजपा के बयानवीर उमाभारती से वापसी का प्रस्ताव। क्या इन बयानवीरों को देश और हिन्दुत्व के समक्ष खड़ी चुनौतियां का अंदाज है? अगर होता तो वे बजाए इधर-उधर की बात करने के, गलत और ओछी बयानबाजी करने के अपना घर मजबूत करते और चुनौती देने वालों पर टूट पड़ते। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने देश के संतों को एक मंच पद लाने के लिए किसी संत से प्रस्ताव की मांग नहीं की थी, अपना अहंकार तिरोहित कर पहली बार चारों शंकराचार्यों को एक मंच पर बैठाया था। वे हिन्दुत्व और देश में एका चाहते थे।
स्वामी रामदेव अपनी अलग पार्टी बनायेंगे, कल्याण सिंह अपना अलग दल चलायेंगे, उमा भारती अपनी पार्टी बनायेंगी, बाबूलाल मरांडी अलग चुनाव लड़ेंगे तो हिन्दुत्व का बंटाधार होगा या हिन्दू राष्ट्र का सपना साकार होगा! जब देश की व्यवस्था राजनीति केन्द्रित है तो उसे उतना महत्व तो देना ही होगा। अगर देश की राजनीति को हिन्दुत्व केन्द्रित करना है तो हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले न सिर्फ पैदा करना होंगे, बल्कि उन्हें विकसित और अलग-थलग हुए नेताओं को एक साथ लाना भी होगा।
देश की राजनीति का चाल, चरित्र और चेहरा भाजपा से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भाजपा को हिन्दुत्व और संघ से अलग करके नहीं देखा जा सकता। उमा भारती हों या कल्याण सिंह वे भाजपा को कमजोर करके और कांग्रेस या अन्य दल को मजबूत करके चैन से नहीं रह सकते। उन्हें चैन, सुकून और आनंद तभी मिलेगा जब वे भाजपा का विस्तार, हिन्दुत्व को प्रभावशाली और देश को वैभवसम्पन्न होता हुआ देखेंगे।
भाजपा को मजबूत होने के लिए किसी से प्रस्ताव मांगने की जरुरत नहीं है। उसे अपना प्रस्ताव जारी करना चाहिए। अगर अटल-आडवानी न कर सकें तो पार्टी अध्यक्ष के नाते नितिन गडकरी को बडपप्पन दिखाना चाहिए, पूरे साहस के साथ हिन्दुत्व की राजनीति के पैरोकारों को भाजपा के मंच पर लाने की पहल करनी चाहिए। आवश्यक हो तो नेताओं के पैर पकड़कर उन्हें साथ लाने की कोशिश हो। कमजोर भाजपा और कमजोर नेता आज देश के समक्ष खडी विराल चुनौतियों का सामना नहीं कर सकते। इसके लिए भाजपा को मजबूत होना पड़ेगा।
भाजपा के नेताओं और गांविन्दाचार्य को अपनी सीमाओं का पता होगा। देश की जागरुक जनता को भी है। गोविन्दाचार्य की उर्जा, क्षमता और अनुभव किसी सक्षम संगठन के माध्यम से ही परिणामकारी हो सकते है। देश ने ये अनुभव किया है कि उनका सर्वोत्तम प्रदर्शन एक राजनीतिक कार्यकर्ता व विचारक के रूप में ही हुआ है। आपातकाल में जयप्रकाश आंदोलन में उनकी भूमिका और भाजपा को संगठनात्मक और वैचारिक विस्तार देने में उनके योगदान को नकारना कृतघ्नता होगी। देश आज जिस दोराहे पर है भाजपा भी उसी पर है। राष्ट्रीय राजनीति का तकाजा है कि वो दो ध्रवीय हो। इसके लिए भाजपा को अपना काफी विस्तार करना है। उसे देश की जनता के साथ-साथ अन्य दलों के साथ भी ताले-मेल करना है। यह सब करते हुए भाजपा को वैचारिक प्रतिबद्धता और नीति-सिद्धांत का पालन भी करना है। गोविन्दाचार्य यह सब कर सकते हैं, उन्होंने यह सब किया है।
गोविन्दाचार्य चाहें, न चाहें, भाजपा नेता चाहें न चाहें, लेकिन देश की राष्ट्रवादी शक्तियां और लोग चाहते हैं कि भाजपा मजबूत हो। भाजपा ही हिन्दुत्व की राजनीतिक पताका फहराये। गाहे-बगाहे यह चर्चा भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर कीमत पर हिन्दुत्व का एकीकरण-सुदृढीकरण चाहता है। इसमें हिन्दुत्वादी राजनीति का एकीकरण भी है। संघ यह भी कोशिश करेगा कि स्वामी रामदेव जी जैसे लोग राजनीति को हिन्दुत्वनिष्ठ बनाने के लिए राजनीति न करें, बल्कि राजनीति का मार्गदर्शन करें। साध्वी उमा भारती, कल्याण सिंह, बाबूलाल मरांडी और गोविन्दाचार्य जैसे लोग भाजपा में रहें यह भाजपा और राजनीति दोनों की जरूरत है। हिन्दुत्व समर्थक, भाजपा और संघ के कार्यकर्ता यह जानते हैं। ये यह भी जानते हैं कि इन नेताओं का अलग-अलग रहना देश के लिए शुभ नहीं है। भाजपा, संघ, हिन्दुत्व और राष्ट्र का भला चाहने वाले इन लोगों के कारण ही समय-बेसमय, गाहे-बगाहे ऐसी चर्चाएं चलती है। गोविन्दाचार्य राजनीति भी जानते हैं और रणनीति भी। भाजपा और राजनीति को कितना, कब और कैसे ठीक किया जाना है उन्हें यह पता होगा। वे साहस, पहल और प्रयोग की दुहाई देते हैं। देश और राजनीति के शुभाकांक्षी इसी साहस, पहल और प्रयोग के लिए बेचैन हैं। देश की राजनीति हिन्दुत्व केन्द्रित होने की बाट जोह रही है। भाजपा के नेता अपना रोडमैप बताएं, न बताएं यह देश के शुभचिंन्तकों का रोडमैप है - सुन रहे हैं गोविन्द जी!