मुंबई 9/11,दिल्ली बटाला हाउस मुठभेड़ जैसी आतंकी घटनाओं में मीडिया की भूमिका को लेकर लोगों के मन में अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। जहंा अन्य मसलों पर मीडिया का प्रभाव सीमित रहा लेकिन आतंकवादी घटनाओं की व्यापकता और घातकता ने समाज को गहरे तक प्रभावित किया है। चूंकि 21वीं सदी में आतंकवाद की भयावह स्थिति को देखते हुए मीडिया के समक्ष एक बड़ी चुनौती है। कभी -कभी ऐसा लगता है कि मीडिया आतंकवाद की राजनीति का एक पुर्जा बनता जा रहा है।
इसी माह संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका ने हजरत - उल - जिहाद इस्लामिया को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन घोषित किया है जिसमें इसे हैदराबाद के मक्का/मस्जिद में हुए विस्फोट के लिए जिम्मेदार मानते हुए विशेष उल्लेख किया है। ज्ञात है कि इस विस्फोट के लिए भारतीय सुरक्षा संगठन हिन्दुओं को दोषी बता रहे है और सारे मीडिया जगत में हिन्दू आतंकवाद का नया शब्द गढ लिया है। लेकिन किसी भी मीडिया इले., प्रिंट में संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अमेरिका की रिपोर्ट को नहीं बताया जा रहा है एक प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्र ने इस खबर को छापा लेकिन संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका के दावे को झुठलाने वाली रिपोर्ट को साबित किया। ऐसे में जनमानस पर मीडिया की भूमिका को लेकर प्रश्नचिन्ह् लगना स्वभाविक है साथ ही स्वयं मीडिया भी इस चुनौती को लेकर गंभीर हैं।
इसी संदर्भ में मीडिया के समक्ष मौजूद इस चुनौती को स्वीकार कर, एक सार्थक एवं ठोस पहल के लिए, शोध, जागरूकता एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन संस्थान, स्पंदन एवं राष्टीय एकता समिति प्रदेश स्तरीय के साथ आतंकवाद की राजनीति एवं मीडिया विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। इस संगोष्ठी में मीडिया वर्ग, जनप्रतिनिधि एवं जनसामान्य को आमंत्रित किया गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रवक्ता ंव केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति के सदस्य राम माधव एवं सामना मुंबई के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ल, उपनेता प्रतिपक्ष चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी वक्तव्य देंगे। कार्यकम की अध्यक्षता वरिष्ठ राजनेता श्री महेश जोशी करेंगे।
मीडिया प्रभारी
;मदन मोहन मालवीयद्ध
शनिवार, 28 अगस्त 2010
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
विधान की मर्यादा पर प्रहार
Aug 23, 11:33 pm
हिंदुओं खासकर कश्मीरी पंडितों के बाद कश्मीर घाटी के अलागाववादियों के
निशाने पर अब सिख समुदाय है। यह बात धीरे-धीरे अब इतिहास का तथ्य बन चुकी
है कि घाटी में कभी बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों के बसेरे थे। उनके घर
थे, खेत-खलिहान थे और तमाम अन्य संपत्तिया थीं। फिर उन्हें धमकिया मिलने
लगीं, उन पर हमले होने लगे। स्थितिया यहा तक पहुंचीं कि उनका धन-मान कुछ
भी सुरक्षित नहीं रह गया। उन्हें अपनी सारी संपदा छोड़ अपने घरों से बेदखल
होना पड़ा और फिर अपने ही देश में इधर-उधर शरणार्थी बनना पड़ा। वे अभी भी
शरणार्थी बन जी रहे हैं और उनके दुखों का कोई अंत नहीं है। यह अलग बात है
राजनेताओं की ओर से उनके पुनर्वास के आश्वासन सैकड़ों बार दिए जा चुके
हैं, लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ वास्तव में हुआ हो, ऐसा कहीं दिखाई नहीं
देता है। वे अब भी दर-बदर हैं और इतने दिनों में
आई-गई हमारी सभी केंद्र और राज्य सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई हैं।
राजनीतिक आश्वासनों और सरकार पर भरोसे का इससे बुरा हश्र और क्या होगा कि
अब तो कश्मीरी पंडितों ने अपने पुनर्वास की उम्मीद भी छोड़ दी है। उनके
नाम पर राजनीतिक लाभ चाहे कितने भी उठाए जा चुके हों, पर इसका कोई लाभ
उन्हें मिला हो, ऐसा मालूम नहीं हुआ।
क्या यही अब सिखों के साथ होने जा रहा है? सिख समुदाय की देशभक्ति की
इतनी मिसालें हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। मामला चाहे मध्यकालीन
बर्बरता के खिलाफ संघर्ष का रहा हो, या अंग्रेजी शासन से देश को आजाद
कराने या फिर बाद में देश पर हुए बाहरी आक्त्रमणों का, हर स्थिति में
सिखों ने कुर्बानिया दी हैं। अब उन्हें धमकिया दी जा रही हैं। कहा जा रहा
है कि या तो वे अपना धर्म छोड़ दें या घाटी। उन्हें जबरन इस्लाम कबूल
करवाने की साजिश रची जा रही है और उनके घरों पर पत्थर तक फेंके जाने की
खबरें भी आ रही हैं। सिख समुदाय ऐसे किसी दबाव में आएगा, यह सोचना बिलकुल
गलत होगा। लेकिन इतना जरूर है कि अपनी आस्था पर दृढ़ रहने के कारण उसे
मुश्किलें उठानी पड़ सकती हैं। मुश्किलें वह उठा भी रहा है। इसे लेकर
हंगामा भी हो चुका। घाटी से लेकर दिल्ली में संसद तक हर तरफ यह सवाल
उठाया जा चुका है। केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से आश्वासनों की झड़ी भी
लग चुकी है। लेकिन ऐसे आश्वासनों का क्या भरोसा? कौन नहीं जानता कि एक
समय में ऐसे ही आश्वासन बहुत बड़ी मात्रा में कश्मीरी पंडितों को भी दिए
गए थे। आखिर उनका क्या हुआ?
हमला चाहे हिंदुओं पर हो या सिखों पर, या फिर किसी और समुदाय पर. वह हर
हाल में समुदाय पर तो बाद में, सबसे पहले राष्ट्र की मर्यादा पर है। सच
तो यह है कि समुदायों के बहाने ये हमले हमारे संविधान की मर्यादा पर किए
जा रहे हैं। भारतीय संविधान के लिए धर्मनिरपेक्षता सर्वोपरि मूल्य है।
यहा ऐसे किसी भी समूह को किसी भी कीमत पर माफ नहीं किया जाना चाहिए जो
धर्मनिरपेक्षता की हमारी मूल भावना पर हमला कर रहा हो। घाटी में यह कोई
पहली बार नहीं हो रहा है।
पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है। कुछ चुटकी भर देशद्रोही तत्व हैं, जो
आईएसआई के टुकड़ों पर पल रहे हैं और इसीलिए वे बार-बार भारतीय संविधान की
मर्यादाओं को चुनौती दे रहे हैं। यह चुनौती कभी कश्मीरी पंडितों पर हमले
के रूप में होती है तो कभी यहा पाकिस्तानी मुद्रा को मान्यता देने की माग
के रूप में, कभी भारतविरोधी नारेबाजी के रूप में तो कभी पत्थरबाजी और कभी
सिखों को धमकी के रूप में। बात हर तरह से एक ही की जा रही है, सिर्फ रूप
बदल-बदल कर।
अपने हर रूप में यह चुनौती भारतीय संविधान को दी जा रही है। यह कहने की
जरूरत नहीं है कि हमारी व्यवस्था में संविधान सर्वोपरि है। इन हरकतों के
पीछे जो तत्व हैं, वे भी किसी से छिपे नहीं हैं। सभी जानते हैं वे चुटकी
भर अलगाववादी तत्व हैं, जो आईएसआई के टुकड़ों पर पल रहे हैं। वे ही कभी
आतंकवादियों की घुसपैठ कराते हैं तो कभी कुछ भाड़े के लोगों से पत्थरबाजी
करवाते हैं, कभी हिंसक प्रदर्शन करवाते हैं और कभी बेसिर-पैर की मागें
उठाते हैं। आईएसआई के एजेंटों की भारत में घुसपैठ कराने और यहा की खुफिया
सूचनाएं लीक करवाने के पीछे भी उनके ही हाथ हैं। हैरत की बात यह है कि
उनकी इन बेजा हरकतों पर हमारी सरकारें सब कुछ जानते-समझते हुए भी आम जनता
को कोरे आश्वासन और अराजक तत्वों को घुड़की देने के अलावा कुछ भी नहीं
करती हैं। अभी भी यही हो रहा है। बहरहाल यह संतोषजनक बात है कि पहली बार
पत्थरबाजों पर नकेल कसने की कोशिश भी की गई है। लेकिन सवाल यह है कि यह
नीति कब तक चल सकेगी?
हम यह देख चुके हैं कि शाति के सभी प्रयास विफल रहे हैं। शाति के नाम पर
तो हालत यह है कि मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की। भारत सरकार ने
कश्मीर घाटी में शाति की बहाली के लिए जितने शातिपूर्ण प्रयास किए हैं,
विश्व में कहीं भी ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल है। दुनिया के किसी भी देश
ने इतने धैर्य का परिचय नहीं दिया होगा, जितना भारत सरकार ने दिया। इसके
बावजूद इसका हमें कोई लाभ नहीं मिला। शायद हमारी सदाशयता और उदारता को ही
अराजक तत्वों ने हमारी कमजोरी मान लिया है। यही वजह है जो अब वे इस हद तक
आ गए। इस स्थिति को तुरंत रोका जाना चाहिए। इसके पहले कि सिखों या किसी
भी समुदाय को दुबारा ऐसी धमकिया मिलें या उन पर ऐसी किसी बात के लिए किसी
भी तरह से दबाव बनाया जाए, धमकिया देने वालों की अक्ल ठिकाने लगा दी जानी
चाहिए।
सच तो यह है कि अराजक तत्व कभी भी शातिपूर्ण समाधान का कोई प्रयास सफल
होने ही नहीं देते। क्योंकि उनके लिए शाति का अर्थ भय होता है। वे सिर्फ
तभी शात होते हैं, जब उन्हें भय दिखाया जाता है। जब अराजक तत्वों को सजा
नहीं दी जाती तो इससे उनका और उनके जैसे दूसरे लोगों का मनोबल बढ़ता है।
वे शात होने के बजाय और अधिक उद्दंड होते चले जाते हैं।
संप्रग अध्यक्ष सोनिया गाधी ने भी कश्मीर के हालात पर चिंता जताई है,
लेकिन इससे स्थितिया सुधरने वाली नहीं हैं। स्थितिया सुधरें, इसके लिए
भारत सरकार को कड़े कदम उठाने होंगे। सिर्फ कहने से काम नहीं चलेगा, साफ
तौर पर खुलकर सामने आना होगा। उन सभी तत्वों को बिना किसी संकोच के
नेस्तनाबूद करना होगा जो घाटी में आतंकवाद फैलाने, आतंकवादियों की मदद या
किसी भी तरह से अलगाववाद को हवा देने में लगे हुए हैं। उन सब को चुन-चुन
कर कड़ी सजा देनी होगी, ताकि दूसरे ऐसा कुछ करने की हिम्मत न जुटा सकें।
सिर्फ बातें करने से कुछ होने वाला नहीं है।
[निशिकान्त ठाकुर: लेखक दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक हैं]
हिंदुओं खासकर कश्मीरी पंडितों के बाद कश्मीर घाटी के अलागाववादियों के
निशाने पर अब सिख समुदाय है। यह बात धीरे-धीरे अब इतिहास का तथ्य बन चुकी
है कि घाटी में कभी बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों के बसेरे थे। उनके घर
थे, खेत-खलिहान थे और तमाम अन्य संपत्तिया थीं। फिर उन्हें धमकिया मिलने
लगीं, उन पर हमले होने लगे। स्थितिया यहा तक पहुंचीं कि उनका धन-मान कुछ
भी सुरक्षित नहीं रह गया। उन्हें अपनी सारी संपदा छोड़ अपने घरों से बेदखल
होना पड़ा और फिर अपने ही देश में इधर-उधर शरणार्थी बनना पड़ा। वे अभी भी
शरणार्थी बन जी रहे हैं और उनके दुखों का कोई अंत नहीं है। यह अलग बात है
राजनेताओं की ओर से उनके पुनर्वास के आश्वासन सैकड़ों बार दिए जा चुके
हैं, लेकिन इस दिशा में ऐसा कुछ वास्तव में हुआ हो, ऐसा कहीं दिखाई नहीं
देता है। वे अब भी दर-बदर हैं और इतने दिनों में
आई-गई हमारी सभी केंद्र और राज्य सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई हैं।
राजनीतिक आश्वासनों और सरकार पर भरोसे का इससे बुरा हश्र और क्या होगा कि
अब तो कश्मीरी पंडितों ने अपने पुनर्वास की उम्मीद भी छोड़ दी है। उनके
नाम पर राजनीतिक लाभ चाहे कितने भी उठाए जा चुके हों, पर इसका कोई लाभ
उन्हें मिला हो, ऐसा मालूम नहीं हुआ।
क्या यही अब सिखों के साथ होने जा रहा है? सिख समुदाय की देशभक्ति की
इतनी मिसालें हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। मामला चाहे मध्यकालीन
बर्बरता के खिलाफ संघर्ष का रहा हो, या अंग्रेजी शासन से देश को आजाद
कराने या फिर बाद में देश पर हुए बाहरी आक्त्रमणों का, हर स्थिति में
सिखों ने कुर्बानिया दी हैं। अब उन्हें धमकिया दी जा रही हैं। कहा जा रहा
है कि या तो वे अपना धर्म छोड़ दें या घाटी। उन्हें जबरन इस्लाम कबूल
करवाने की साजिश रची जा रही है और उनके घरों पर पत्थर तक फेंके जाने की
खबरें भी आ रही हैं। सिख समुदाय ऐसे किसी दबाव में आएगा, यह सोचना बिलकुल
गलत होगा। लेकिन इतना जरूर है कि अपनी आस्था पर दृढ़ रहने के कारण उसे
मुश्किलें उठानी पड़ सकती हैं। मुश्किलें वह उठा भी रहा है। इसे लेकर
हंगामा भी हो चुका। घाटी से लेकर दिल्ली में संसद तक हर तरफ यह सवाल
उठाया जा चुका है। केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से आश्वासनों की झड़ी भी
लग चुकी है। लेकिन ऐसे आश्वासनों का क्या भरोसा? कौन नहीं जानता कि एक
समय में ऐसे ही आश्वासन बहुत बड़ी मात्रा में कश्मीरी पंडितों को भी दिए
गए थे। आखिर उनका क्या हुआ?
हमला चाहे हिंदुओं पर हो या सिखों पर, या फिर किसी और समुदाय पर. वह हर
हाल में समुदाय पर तो बाद में, सबसे पहले राष्ट्र की मर्यादा पर है। सच
तो यह है कि समुदायों के बहाने ये हमले हमारे संविधान की मर्यादा पर किए
जा रहे हैं। भारतीय संविधान के लिए धर्मनिरपेक्षता सर्वोपरि मूल्य है।
यहा ऐसे किसी भी समूह को किसी भी कीमत पर माफ नहीं किया जाना चाहिए जो
धर्मनिरपेक्षता की हमारी मूल भावना पर हमला कर रहा हो। घाटी में यह कोई
पहली बार नहीं हो रहा है।
पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है। कुछ चुटकी भर देशद्रोही तत्व हैं, जो
आईएसआई के टुकड़ों पर पल रहे हैं और इसीलिए वे बार-बार भारतीय संविधान की
मर्यादाओं को चुनौती दे रहे हैं। यह चुनौती कभी कश्मीरी पंडितों पर हमले
के रूप में होती है तो कभी यहा पाकिस्तानी मुद्रा को मान्यता देने की माग
के रूप में, कभी भारतविरोधी नारेबाजी के रूप में तो कभी पत्थरबाजी और कभी
सिखों को धमकी के रूप में। बात हर तरह से एक ही की जा रही है, सिर्फ रूप
बदल-बदल कर।
अपने हर रूप में यह चुनौती भारतीय संविधान को दी जा रही है। यह कहने की
जरूरत नहीं है कि हमारी व्यवस्था में संविधान सर्वोपरि है। इन हरकतों के
पीछे जो तत्व हैं, वे भी किसी से छिपे नहीं हैं। सभी जानते हैं वे चुटकी
भर अलगाववादी तत्व हैं, जो आईएसआई के टुकड़ों पर पल रहे हैं। वे ही कभी
आतंकवादियों की घुसपैठ कराते हैं तो कभी कुछ भाड़े के लोगों से पत्थरबाजी
करवाते हैं, कभी हिंसक प्रदर्शन करवाते हैं और कभी बेसिर-पैर की मागें
उठाते हैं। आईएसआई के एजेंटों की भारत में घुसपैठ कराने और यहा की खुफिया
सूचनाएं लीक करवाने के पीछे भी उनके ही हाथ हैं। हैरत की बात यह है कि
उनकी इन बेजा हरकतों पर हमारी सरकारें सब कुछ जानते-समझते हुए भी आम जनता
को कोरे आश्वासन और अराजक तत्वों को घुड़की देने के अलावा कुछ भी नहीं
करती हैं। अभी भी यही हो रहा है। बहरहाल यह संतोषजनक बात है कि पहली बार
पत्थरबाजों पर नकेल कसने की कोशिश भी की गई है। लेकिन सवाल यह है कि यह
नीति कब तक चल सकेगी?
हम यह देख चुके हैं कि शाति के सभी प्रयास विफल रहे हैं। शाति के नाम पर
तो हालत यह है कि मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की। भारत सरकार ने
कश्मीर घाटी में शाति की बहाली के लिए जितने शातिपूर्ण प्रयास किए हैं,
विश्व में कहीं भी ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल है। दुनिया के किसी भी देश
ने इतने धैर्य का परिचय नहीं दिया होगा, जितना भारत सरकार ने दिया। इसके
बावजूद इसका हमें कोई लाभ नहीं मिला। शायद हमारी सदाशयता और उदारता को ही
अराजक तत्वों ने हमारी कमजोरी मान लिया है। यही वजह है जो अब वे इस हद तक
आ गए। इस स्थिति को तुरंत रोका जाना चाहिए। इसके पहले कि सिखों या किसी
भी समुदाय को दुबारा ऐसी धमकिया मिलें या उन पर ऐसी किसी बात के लिए किसी
भी तरह से दबाव बनाया जाए, धमकिया देने वालों की अक्ल ठिकाने लगा दी जानी
चाहिए।
सच तो यह है कि अराजक तत्व कभी भी शातिपूर्ण समाधान का कोई प्रयास सफल
होने ही नहीं देते। क्योंकि उनके लिए शाति का अर्थ भय होता है। वे सिर्फ
तभी शात होते हैं, जब उन्हें भय दिखाया जाता है। जब अराजक तत्वों को सजा
नहीं दी जाती तो इससे उनका और उनके जैसे दूसरे लोगों का मनोबल बढ़ता है।
वे शात होने के बजाय और अधिक उद्दंड होते चले जाते हैं।
संप्रग अध्यक्ष सोनिया गाधी ने भी कश्मीर के हालात पर चिंता जताई है,
लेकिन इससे स्थितिया सुधरने वाली नहीं हैं। स्थितिया सुधरें, इसके लिए
भारत सरकार को कड़े कदम उठाने होंगे। सिर्फ कहने से काम नहीं चलेगा, साफ
तौर पर खुलकर सामने आना होगा। उन सभी तत्वों को बिना किसी संकोच के
नेस्तनाबूद करना होगा जो घाटी में आतंकवाद फैलाने, आतंकवादियों की मदद या
किसी भी तरह से अलगाववाद को हवा देने में लगे हुए हैं। उन सब को चुन-चुन
कर कड़ी सजा देनी होगी, ताकि दूसरे ऐसा कुछ करने की हिम्मत न जुटा सकें।
सिर्फ बातें करने से कुछ होने वाला नहीं है।
[निशिकान्त ठाकुर: लेखक दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक हैं]
महिदपुर:मुस्लिम शिक्षक द्वारा छात्रों पर धर्म परिवर्तन के लिए दबाव
उज्जैन जिले की महिदपुर तहसील के ग्राम लसुडिया मन्सूर में 22 जुलाई , बुधवार की शाम कक्षा सातवीं के छात्र श्रीपाल राजपूत (आयु 15 वर्ष) ने ग्राम के एक मन्दिर मे जाकर गणेशजी की मूर्ति को नीचे गिरा दिया । ग्राम के कुछ लोगों ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया और पकड्कर उसकी पिटाई की । जब ग्रामवालो ने उससे पूछ्ताछ की तो उसने बताया कि उसके स्कूल के शिक्षक शकील अहमद नागोरी छात्रो को बन्द कमरे मे इस्लाम धर्म की सीडी दिखाते हैं । उन्हे इस्लाम की विशेषता समझाते हैं और हिन्दू धर्म की बुराइयाँ बताते हैं । आरोपी शिक्षक एक वर्ष से शासकीय स्कूल में छात्रों को अपने लेपटाप पर इस्लाम धर्म की सीडी दिखाकर न केवल उन्हे धर्म-परिवर्तन के लिये प्रेरित कर रहा था बल्कि उनपर धर्म-परिवर्तन के लिये सतत दबाव भी बना रहा था । आरोपी शिक्षक के पास प्रधानाध्यापक का प्रभार भी होने के कारण वह छात्रों कों धमकाता था कि यदि कोई भी बात घरवालों को बताई तो वह उन्हे फेल कर देगा ।
इस धर्मान्ध और मतान्ध शिक्षक ने बच्चों के दिमाग मे इतना जहर घोल दिया और बच्चों पर इतना दबाव बना दिया कि श्रीपाल ने मन्दिर मे जाकर गणेशजी की प्रतिमा को खन्डित करने के लिये उसे ओट्ले से नीचे गिरा दिया।इस खुलासे के होते ही ग्रामवाले आक्रोशित हो गये और स्थिती को भाँपकर शकील रात को ही गाँव से फरार हो गया।सुबह गाँववाले रिपोर्ट लिखवाने के लिये थाने पहुँचे और श्रीपाल की रिपोर्ट पर पुलिस थाना प्रभारी एसएल तोमर ने आरोपी शिक्षक शकील अहमद नागोरी निवासी शफी कालोनी महिदपुर के खिलाफ भादवि की धारा 295(किसी वर्ग की धार्मिक भावनाएं आहत करने के लिये धर्मस्थल को नुक़सान पहुँचाना ),धारा 153(दन्गा भडकाने की कोशिश करना)और धारा 342(अवैध रुप से निरुद्ध करना) का प्रकरण दर्ज कर लिया।
आरोपी शिक्षक को तुरन्त प्रभाव से निलम्बित कर दिया गया और गिरफ्तारी के पश्चात लोअर कोर्ट और सेशन कोर्ट ने उसकी जमानत याचिका को खारिज कर दिया।22 दिन जेल मे रहने के पश्चात हाईकोर्ट से आरोपी को जमानत मिल पाई है ।
समीर चौधरी (महानगर प्रचार प्रमुख,उज्जैन)
सम्पर्क-9425091013
इस धर्मान्ध और मतान्ध शिक्षक ने बच्चों के दिमाग मे इतना जहर घोल दिया और बच्चों पर इतना दबाव बना दिया कि श्रीपाल ने मन्दिर मे जाकर गणेशजी की प्रतिमा को खन्डित करने के लिये उसे ओट्ले से नीचे गिरा दिया।इस खुलासे के होते ही ग्रामवाले आक्रोशित हो गये और स्थिती को भाँपकर शकील रात को ही गाँव से फरार हो गया।सुबह गाँववाले रिपोर्ट लिखवाने के लिये थाने पहुँचे और श्रीपाल की रिपोर्ट पर पुलिस थाना प्रभारी एसएल तोमर ने आरोपी शिक्षक शकील अहमद नागोरी निवासी शफी कालोनी महिदपुर के खिलाफ भादवि की धारा 295(किसी वर्ग की धार्मिक भावनाएं आहत करने के लिये धर्मस्थल को नुक़सान पहुँचाना ),धारा 153(दन्गा भडकाने की कोशिश करना)और धारा 342(अवैध रुप से निरुद्ध करना) का प्रकरण दर्ज कर लिया।
आरोपी शिक्षक को तुरन्त प्रभाव से निलम्बित कर दिया गया और गिरफ्तारी के पश्चात लोअर कोर्ट और सेशन कोर्ट ने उसकी जमानत याचिका को खारिज कर दिया।22 दिन जेल मे रहने के पश्चात हाईकोर्ट से आरोपी को जमानत मिल पाई है ।
समीर चौधरी (महानगर प्रचार प्रमुख,उज्जैन)
सम्पर्क-9425091013
सोमवार, 23 अगस्त 2010
कोटि हिन्दु जन का ज्वार, मंदिर के लिए सब तैयार ......
0 डॉ0 नवीन जोशी
क्या सूरज को सूरज होने का प्रमाण देना पड़ता है या चाँद को अपनी चांदनी साबित करना पड़ती है, मगर ये भारतीय जन के विश्वास पर चोट है कि इस देश में ‘राम जन्मभूमि’ को प्रामाणिकता की जंग लड़ना पड़ रही है । कोटि-कोटि हिन्दु जन के मन में आस्था का प्रतीक बने रामलला के मन्दिर निर्माण में बरसों से दांव पेंच चले जा रहे हैं । राजनीतिज्ञों ने मंदिर को मुद्दे की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है ।
यदि राष्ट्र की धरती छिन जाए तो शौर्य उसे वापस ला सकता है, यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, यदि राज्य सत्ता छिन जाए तो पराक्रम उसे वापस ला सकता है परन्तु यदि राष्ट्र की चेतना सो जाए, राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य, श्रम या पराक्रम उसे वापस नहीं जा सकता । इसी कारण भारत के वीर सपूतों ने, भीषण विषम परिस्थितियों में, लाखों अवरोधों के बाद भी राष्ट्र की इस चेतना को जगाए रखा । इसी राष्ट्रीय चेतना और पहचान को बचाए रखने का प्रतीक है श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण का संकल्प ।
अयोध्या की गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है । अयोध्या का इतिहास भारत की संस्कृति का इतिहास है । अयोध्या सूर्यवंशी प्रतापी राजाओं की राजधानी रही, इसी वंश में महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी हरिशचन्द्र जैसे महापुरूष उत्पन्न हुए, इसी महान परम्परा में प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ । पाँच जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है । गौतम बुद्ध की तपस्थली दंत धावन कुण्ड भी अयोध्या की ही धरोहर है । गुरूनानक देव जी महाराज ने भी अयोध्या आकर भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण किया था, दर्शन किए थे । श्रीराम जन्मभूमि पर कभी एक भव्य विशाल मन्दिर खड़ा था । मध्ययुग में धार्मिक असहिष्णु, आतताई, इस्लामिक आक्रमणकारी बाबर के क्रूर प्रहार से जन्मभूमि पर खड़े सदियों पुराने मन्दिर को ध्वस्त कर दिया । आक्रमणकारी बाबर के कहने पर उसके सेनापति मीरबाकी ने मन्दिर को तोड़कर ठीक उसी स्थान पर एक मस्जिद जैसा ढांचा खड़ा कराया । 1528 ई. के इस कुकृत्य से सदा-सदा के लिए हिन्दू समाज के मस्तक पर अपमान का कलंक लग गया । श्रीराम जन्मस्थान पर मन्दिर का पुनःनिर्माण इस अपमान के कलंक को धोने के लिए तथा हमारी आस्था की रक्षा के साथ-साथ भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिए आवश्यक है ।
हिन्दुओं के आराध्य भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर बने मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का वर्णन अनेक विदेशी लेखकों और भ्रमणकारी यात्रियों ने किया है । फादर टाइफैन्थेलर का यात्रा वृत्तन्त इसका जीता-जागता उदाहरण है । आस्ट्रिया के इस पादरी ने 45 वर्षो तक (1740 से 1785) भारतवर्ष में भ्रमण किया, अपनी डायरी लिखी । लगभग पचास पृष्ठों में उन्होंने अवध का वर्णन किया, उन्होंने लिखा कि रामकोटि में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है उसमें 14 काले कसौटी पत्थर के खम्भे लगे हैं, इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों के साथ जन्म लिया । भावी मन्दिर का प्रारूप बनाया गया । अहमदाबाद के प्रसिद्ध मन्दिर निर्माण कला विशेषज्ञ श्री सी.बी. सोमपुरा ने प्रारूप बनाया । इन्हीं के दादा ने सोमनाथ मन्दिर का प्रारूप बनाया था । मन्दिर निर्माण के लिए जनवरी, 1989 में प्रयागराज में कुम्भ मेला के अवसर पर पूज्य देवराहा बाबा की उपस्थिति में गांव-गांव में शिलापूजन कराने का निर्णय हुआ । पौने तीन लाख शिलाएं पूजित होकर अयोध्या पहुँची । विदेश में निवास करने वाले हिन्दुओं ने भी मन्दिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके भारत भेजीं । पूर्व निर्धारित दिनांक 09 नवम्बर, 1989 को सब अवरोधों को पार करते हुए सबकी सहमति से मन्दिर का शिलान्यास बिहार निवासी श्री कामेश्वर चौपाल के हाथों सम्पन्न हुआ । तब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री नारायण दत्त तिवारी और भारत सरकार के गृहमंत्री श्री बूटा सिंह तथा प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी थे ।
24 मई, 1990 को हरिद्वार में विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ । सन्तों ने घोषणा की कि देवोत्थान एकादशी (30 अक्टूबर, 1990) को मन्दिर निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करेंगे । यह सन्देश गांव-गांव तक पहुँचाने के लिए 01 सितम्बर, 1990 को अयोध्या में अरणी मंथन के द्वारा अग्नि प्रज्जवलित की गई, इसे ‘रामज्योति’ कहा गया । दीपावली 18 अक्टूबर, 1990 के पूर्व तक देश के लाखों गांवों में यह ज्योति पहुँचा दी गई । उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने अहंकारपूर्ण घोषणा की कि ‘अयोध्या में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता, उन्होंने अयोध्या की ओर जाने वाली सभी सड़कें बन्द कर दीं, अयोध्या को जाने वाली सभी रेलगाड़ियाँ रद्द कर दी गईं, 22 अक्टूबर से अयोध्या छावनी में बदल गई । फैजाबाद जिले की सीमा से श्रीराम जन्मभूमि तक पहुँचने के लिए पुलिस सुरक्षा के सात बैरियर पार करने पड़ते थे । फिर भी रामभक्तों ने 30 अक्टूबर को वानरों की भांति गुम्बदों पर चढ़कर झण्डा गाड़ दिया । सरकार ने 02 नवम्बर, 1990 को भयंकर नरसंहार किया । 3 दिसम्बर, 1992 को जब ढांचा गिर रहा था तब उसकी दीवारों से शिलालेख प्राप्त हुआ । विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख 1154 ई. का संस्कृत में लिखा है, इसमें 20 पंक्तियाँ हैं । ऊँ नमः शिवाय से यह शिलालेख प्रारंभ होता है । विष्णुहरि के स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर का इसमें वर्णन है । अयोध्या के सौन्दर्य का वर्णन है । दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन है । ये समस्त पुरातात्त्विक साक्ष्य उस स्थान पर कभी खड़े रहे भव्य एवं विशाल मन्दिर के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं । सरकारें और न्यायालय भी इस सच को झुठला नहीं सके ।
6 दिसम्बर, 1992 का ढांचा ढह जाने के बाद तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर ही भगवान का सिंहासन और ढांचे के नीचे परम्परा से रखा चला आ रहा विग्रह सिंहासन पर स्थापित कर पूजा प्रारंभ कर दी । हजारों भक्तों ने रात और दिन लगभग 36 घण्टे मेहनत करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस स्थान के चार कोनों पर चार बल्लियाँ खड़ी करके कपड़े लगा दिए 5-5 फीट ऊँची, 25 फीट लम्बर, 25 फीट चौड़ी ईंटों की दीवार खड़ी कर दी और बन गया मन्दिर । आज भी इसी स्थान पर पूजा हो रही है, जिसे अब भव्य रूप देना है, जो विशाल हिन्दू जन किसी भी वक्त कर देगा ।
07 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने ढांचे वाले स्थान को चारों ओर से घेरकर लगभग 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया । इस भूमि के चारों ओर लोहे के पाईपों की ऊँची-ऊँची दोहरी दीवारें खड़ी कर दी गईं । भगवान तक पहुँचने के लिए बहुत संकरा गलियारा बनाया, दर्शन करने जाने वालों की सघन तलाशी की जाने लगी । जूते पहनकर ही दर्शन करने पड़ते हैं । आधा मिनट भी ठहर नहीं सकते । वर्षा, शीत, धूप से बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं है । इन कठिनाइयों के कारण अतिवृद्ध भक्त दर्शन करने जा ही नहीं सकते । अपनी इच्छा के अनुसार प्रसाद नहीं ले जा सकते । जो प्रसाद शासन ने स्वीकार किया है वही लेकर अन्दर जाना पड़ता है । दर्शन का समय ऐसा है मानो सरकारी दफ्तर हो । दर्शन की यह अवस्था अत्यन्त पीड़ादायी है । इस अवस्था में परिवर्तन लाना है जो इस वर्ष संभव होता प्रतीत है ।
अब नए स्वरूप में मंदिर बनेगा:- श्रीराम जन्मभूमि पर बनने वाला मन्दिर तो केवल पत्थरों से बनेगा । सीमेन्ट, कांक्रीट से नहीं । मन्दिर में लोहा नहीं लगेगा । नींव में भी नहीं । मन्दिर दो मंजिला होगा । भूतल पर रामलला और प्रथम तल पर राम दरबार होगा । सिंहद्वार, नृत्य मण्डप, रंग मण्डप, गर्भगृह और परिक्रमा मन्दिर के अंग हैं । 270 फीट लम्बा, 135 फीट चौड़ा तथा 125 फीट ऊँचा शिखर है । 10 फीट चौड़ा परिक्रमा मार्ग है । 106 खम्भे हैं । 6 फीट मोटी पत्थरों की दीवारें लगेंगी । दरवाजों की चोखटें सफेद संगमरमर पत्थर की होंगी । 1993 में मन्दिर निर्माण की तैयारी तेज कर दी गई । मन्दिर में लगने वाले पत्थरों की नक्काशी के लिए अयोध्या, राजस्थान के पिण्डवाड़ा व मकराना में कार्यशालाएं प्रारम्भ हुई । अब तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर तैयार किया जा चुका है । भूतल पर लगने वाले 16.6 फीट के 108 खम्भे तैयार हो चुके हैं । रंग मण्डप एवं गर्भगृह की दीवारों तथा भूतल पर लगने वाली संगमरमर की चौखटों का निर्माण पूरा किया जा चुका है । खम्भों के ऊपर रखे जाने वाले पत्थर के 185 बीमों में 150 बीम तैयार हैं । मन्दिर में लगने वाले सम्पूर्ण पत्थरों का 60 प्रतिशत से अधिक कार्य पूर्ण हो चुका है । हम समझ लें कि श्रीराम जन्मभूमि सम्पत्ति नहीं है बल्कि हिन्दुओं के लिए श्रीराम जन्मभूमि आस्था है । भगवान की जन्मभूमि स्वयं में देवता है, तीर्थ है व धाम है ।
क्या है कोर्ट के हालात
श्रीराम जन्मभूमि के लिए पहला मुकदमा हिन्दु की ओर से जिला अदालत में जनवरी, 1950 में दायर हुआ । दूसरा मुकदमा रामानन्द सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ा की ओर से 1959 में दायर हुआ । सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से तो दिसम्बर, 1961 में मुकदमा दायर हुआ । 40 साल तक फैजाबाद की जिला अदालत में ये मुकदमे ऐसे ही पड़े रहे । वर्ष 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवकीनन्दन अग्रवाल (अब स्वर्गीय) ने स्वयं रामलला और राम जन्मस्थान को वादी बनाते हुए अदालत में वाद दायर कर दिया, मुकदमा स्वीकार हो गया । सभी मुकदमें एक ही स्थान के लिए हैं अतः सबको एक साथ जोड़ने और एक साथ सुनवाई का आदेश भी हो गया । सितम्बर 2010 में फैसला आना है, निर्णय जो भी हो, अब जनमेदिनी की अटूट आस्था पर ‘ मुहर ’ लगना ही है । मंदिर निर्माण को लेकर सभी हिन्दू एक स्वर में उद्घोष कर रहे हैं - ‘‘ कोटि हिन्दु जन का ज्वार बन कर रहेगा मंदिर इस बार ।’’
क्या सूरज को सूरज होने का प्रमाण देना पड़ता है या चाँद को अपनी चांदनी साबित करना पड़ती है, मगर ये भारतीय जन के विश्वास पर चोट है कि इस देश में ‘राम जन्मभूमि’ को प्रामाणिकता की जंग लड़ना पड़ रही है । कोटि-कोटि हिन्दु जन के मन में आस्था का प्रतीक बने रामलला के मन्दिर निर्माण में बरसों से दांव पेंच चले जा रहे हैं । राजनीतिज्ञों ने मंदिर को मुद्दे की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है ।
यदि राष्ट्र की धरती छिन जाए तो शौर्य उसे वापस ला सकता है, यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, यदि राज्य सत्ता छिन जाए तो पराक्रम उसे वापस ला सकता है परन्तु यदि राष्ट्र की चेतना सो जाए, राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य, श्रम या पराक्रम उसे वापस नहीं जा सकता । इसी कारण भारत के वीर सपूतों ने, भीषण विषम परिस्थितियों में, लाखों अवरोधों के बाद भी राष्ट्र की इस चेतना को जगाए रखा । इसी राष्ट्रीय चेतना और पहचान को बचाए रखने का प्रतीक है श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण का संकल्प ।
अयोध्या की गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है । अयोध्या का इतिहास भारत की संस्कृति का इतिहास है । अयोध्या सूर्यवंशी प्रतापी राजाओं की राजधानी रही, इसी वंश में महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी हरिशचन्द्र जैसे महापुरूष उत्पन्न हुए, इसी महान परम्परा में प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ । पाँच जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है । गौतम बुद्ध की तपस्थली दंत धावन कुण्ड भी अयोध्या की ही धरोहर है । गुरूनानक देव जी महाराज ने भी अयोध्या आकर भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण किया था, दर्शन किए थे । श्रीराम जन्मभूमि पर कभी एक भव्य विशाल मन्दिर खड़ा था । मध्ययुग में धार्मिक असहिष्णु, आतताई, इस्लामिक आक्रमणकारी बाबर के क्रूर प्रहार से जन्मभूमि पर खड़े सदियों पुराने मन्दिर को ध्वस्त कर दिया । आक्रमणकारी बाबर के कहने पर उसके सेनापति मीरबाकी ने मन्दिर को तोड़कर ठीक उसी स्थान पर एक मस्जिद जैसा ढांचा खड़ा कराया । 1528 ई. के इस कुकृत्य से सदा-सदा के लिए हिन्दू समाज के मस्तक पर अपमान का कलंक लग गया । श्रीराम जन्मस्थान पर मन्दिर का पुनःनिर्माण इस अपमान के कलंक को धोने के लिए तथा हमारी आस्था की रक्षा के साथ-साथ भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिए आवश्यक है ।
हिन्दुओं के आराध्य भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर बने मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का वर्णन अनेक विदेशी लेखकों और भ्रमणकारी यात्रियों ने किया है । फादर टाइफैन्थेलर का यात्रा वृत्तन्त इसका जीता-जागता उदाहरण है । आस्ट्रिया के इस पादरी ने 45 वर्षो तक (1740 से 1785) भारतवर्ष में भ्रमण किया, अपनी डायरी लिखी । लगभग पचास पृष्ठों में उन्होंने अवध का वर्णन किया, उन्होंने लिखा कि रामकोटि में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है उसमें 14 काले कसौटी पत्थर के खम्भे लगे हैं, इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों के साथ जन्म लिया । भावी मन्दिर का प्रारूप बनाया गया । अहमदाबाद के प्रसिद्ध मन्दिर निर्माण कला विशेषज्ञ श्री सी.बी. सोमपुरा ने प्रारूप बनाया । इन्हीं के दादा ने सोमनाथ मन्दिर का प्रारूप बनाया था । मन्दिर निर्माण के लिए जनवरी, 1989 में प्रयागराज में कुम्भ मेला के अवसर पर पूज्य देवराहा बाबा की उपस्थिति में गांव-गांव में शिलापूजन कराने का निर्णय हुआ । पौने तीन लाख शिलाएं पूजित होकर अयोध्या पहुँची । विदेश में निवास करने वाले हिन्दुओं ने भी मन्दिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके भारत भेजीं । पूर्व निर्धारित दिनांक 09 नवम्बर, 1989 को सब अवरोधों को पार करते हुए सबकी सहमति से मन्दिर का शिलान्यास बिहार निवासी श्री कामेश्वर चौपाल के हाथों सम्पन्न हुआ । तब उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री नारायण दत्त तिवारी और भारत सरकार के गृहमंत्री श्री बूटा सिंह तथा प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी थे ।
24 मई, 1990 को हरिद्वार में विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ । सन्तों ने घोषणा की कि देवोत्थान एकादशी (30 अक्टूबर, 1990) को मन्दिर निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करेंगे । यह सन्देश गांव-गांव तक पहुँचाने के लिए 01 सितम्बर, 1990 को अयोध्या में अरणी मंथन के द्वारा अग्नि प्रज्जवलित की गई, इसे ‘रामज्योति’ कहा गया । दीपावली 18 अक्टूबर, 1990 के पूर्व तक देश के लाखों गांवों में यह ज्योति पहुँचा दी गई । उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने अहंकारपूर्ण घोषणा की कि ‘अयोध्या में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता, उन्होंने अयोध्या की ओर जाने वाली सभी सड़कें बन्द कर दीं, अयोध्या को जाने वाली सभी रेलगाड़ियाँ रद्द कर दी गईं, 22 अक्टूबर से अयोध्या छावनी में बदल गई । फैजाबाद जिले की सीमा से श्रीराम जन्मभूमि तक पहुँचने के लिए पुलिस सुरक्षा के सात बैरियर पार करने पड़ते थे । फिर भी रामभक्तों ने 30 अक्टूबर को वानरों की भांति गुम्बदों पर चढ़कर झण्डा गाड़ दिया । सरकार ने 02 नवम्बर, 1990 को भयंकर नरसंहार किया । 3 दिसम्बर, 1992 को जब ढांचा गिर रहा था तब उसकी दीवारों से शिलालेख प्राप्त हुआ । विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख 1154 ई. का संस्कृत में लिखा है, इसमें 20 पंक्तियाँ हैं । ऊँ नमः शिवाय से यह शिलालेख प्रारंभ होता है । विष्णुहरि के स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर का इसमें वर्णन है । अयोध्या के सौन्दर्य का वर्णन है । दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन है । ये समस्त पुरातात्त्विक साक्ष्य उस स्थान पर कभी खड़े रहे भव्य एवं विशाल मन्दिर के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं । सरकारें और न्यायालय भी इस सच को झुठला नहीं सके ।
6 दिसम्बर, 1992 का ढांचा ढह जाने के बाद तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर ही भगवान का सिंहासन और ढांचे के नीचे परम्परा से रखा चला आ रहा विग्रह सिंहासन पर स्थापित कर पूजा प्रारंभ कर दी । हजारों भक्तों ने रात और दिन लगभग 36 घण्टे मेहनत करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस स्थान के चार कोनों पर चार बल्लियाँ खड़ी करके कपड़े लगा दिए 5-5 फीट ऊँची, 25 फीट लम्बर, 25 फीट चौड़ी ईंटों की दीवार खड़ी कर दी और बन गया मन्दिर । आज भी इसी स्थान पर पूजा हो रही है, जिसे अब भव्य रूप देना है, जो विशाल हिन्दू जन किसी भी वक्त कर देगा ।
07 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने ढांचे वाले स्थान को चारों ओर से घेरकर लगभग 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया । इस भूमि के चारों ओर लोहे के पाईपों की ऊँची-ऊँची दोहरी दीवारें खड़ी कर दी गईं । भगवान तक पहुँचने के लिए बहुत संकरा गलियारा बनाया, दर्शन करने जाने वालों की सघन तलाशी की जाने लगी । जूते पहनकर ही दर्शन करने पड़ते हैं । आधा मिनट भी ठहर नहीं सकते । वर्षा, शीत, धूप से बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं है । इन कठिनाइयों के कारण अतिवृद्ध भक्त दर्शन करने जा ही नहीं सकते । अपनी इच्छा के अनुसार प्रसाद नहीं ले जा सकते । जो प्रसाद शासन ने स्वीकार किया है वही लेकर अन्दर जाना पड़ता है । दर्शन का समय ऐसा है मानो सरकारी दफ्तर हो । दर्शन की यह अवस्था अत्यन्त पीड़ादायी है । इस अवस्था में परिवर्तन लाना है जो इस वर्ष संभव होता प्रतीत है ।
अब नए स्वरूप में मंदिर बनेगा:- श्रीराम जन्मभूमि पर बनने वाला मन्दिर तो केवल पत्थरों से बनेगा । सीमेन्ट, कांक्रीट से नहीं । मन्दिर में लोहा नहीं लगेगा । नींव में भी नहीं । मन्दिर दो मंजिला होगा । भूतल पर रामलला और प्रथम तल पर राम दरबार होगा । सिंहद्वार, नृत्य मण्डप, रंग मण्डप, गर्भगृह और परिक्रमा मन्दिर के अंग हैं । 270 फीट लम्बा, 135 फीट चौड़ा तथा 125 फीट ऊँचा शिखर है । 10 फीट चौड़ा परिक्रमा मार्ग है । 106 खम्भे हैं । 6 फीट मोटी पत्थरों की दीवारें लगेंगी । दरवाजों की चोखटें सफेद संगमरमर पत्थर की होंगी । 1993 में मन्दिर निर्माण की तैयारी तेज कर दी गई । मन्दिर में लगने वाले पत्थरों की नक्काशी के लिए अयोध्या, राजस्थान के पिण्डवाड़ा व मकराना में कार्यशालाएं प्रारम्भ हुई । अब तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर तैयार किया जा चुका है । भूतल पर लगने वाले 16.6 फीट के 108 खम्भे तैयार हो चुके हैं । रंग मण्डप एवं गर्भगृह की दीवारों तथा भूतल पर लगने वाली संगमरमर की चौखटों का निर्माण पूरा किया जा चुका है । खम्भों के ऊपर रखे जाने वाले पत्थर के 185 बीमों में 150 बीम तैयार हैं । मन्दिर में लगने वाले सम्पूर्ण पत्थरों का 60 प्रतिशत से अधिक कार्य पूर्ण हो चुका है । हम समझ लें कि श्रीराम जन्मभूमि सम्पत्ति नहीं है बल्कि हिन्दुओं के लिए श्रीराम जन्मभूमि आस्था है । भगवान की जन्मभूमि स्वयं में देवता है, तीर्थ है व धाम है ।
क्या है कोर्ट के हालात
श्रीराम जन्मभूमि के लिए पहला मुकदमा हिन्दु की ओर से जिला अदालत में जनवरी, 1950 में दायर हुआ । दूसरा मुकदमा रामानन्द सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ा की ओर से 1959 में दायर हुआ । सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से तो दिसम्बर, 1961 में मुकदमा दायर हुआ । 40 साल तक फैजाबाद की जिला अदालत में ये मुकदमे ऐसे ही पड़े रहे । वर्ष 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवकीनन्दन अग्रवाल (अब स्वर्गीय) ने स्वयं रामलला और राम जन्मस्थान को वादी बनाते हुए अदालत में वाद दायर कर दिया, मुकदमा स्वीकार हो गया । सभी मुकदमें एक ही स्थान के लिए हैं अतः सबको एक साथ जोड़ने और एक साथ सुनवाई का आदेश भी हो गया । सितम्बर 2010 में फैसला आना है, निर्णय जो भी हो, अब जनमेदिनी की अटूट आस्था पर ‘ मुहर ’ लगना ही है । मंदिर निर्माण को लेकर सभी हिन्दू एक स्वर में उद्घोष कर रहे हैं - ‘‘ कोटि हिन्दु जन का ज्वार बन कर रहेगा मंदिर इस बार ।’’
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
राम मंदिर पर मुसलमानों की रहस्यमयी चुप्पी

अनिल सौमित्र
रामजन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद पर फैसला आने ही वाला है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बहुप्रतीक्षित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मुकदमे में सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित कर लिया है। उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.यू. खान, न्यायमूर्ति डी.वी. शर्मा एवं न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल हैं। चूंकि न्यायमूर्ति डी.वी. शर्मा सितंबर के अंत में सेवानिवृत्त होने वाले हैं। इसलिए माना जा रहा है कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के बारे में फैसला सितंबर महीने के पूर्व कभी भी आ सकता है। लेकिन इस मसले पर आम मुसलमान और मुस्लिम संगठनों की चुप्पी रहस्यमय दिखती है। क्या यह तूफान के पहले की शांति है! उर्दू मीडिया ने पहले से ही कहना शुरु कर दिया है कि न्यायालय का निर्णय हिन्दुओं के पक्ष में आ सकता है। इस मामले में मुस्लिम संगठनों के दोनों हाथों में लड्डू दिखता है। अगर निर्णय उनके पक्ष में आया तो वे नष्ट हो चुके जर्जर बाबरी मस्जिद ढांचे के स्थान पर भव्य मस्जिद की मांग सरकार के सामने रखेंगे। अगर हाईकोर्ट का निर्णय सुन्नी वक्फ बोर्ड के खिलाफ और हिन्दू पक्षकारों के पक्ष में हुआ तो क्या होगा? न्यायालय के निर्णय के संदर्भ में सबसे अहम बात तो यह है कि जिन संगठनों या व्यक्तियों की ओर से न्यायालय में पक्ष रखा जा रहा है क्या उन्हें अपने कौम का समर्थन और सहमति प्राप्त है? संभव है न्यायालय के निर्णय के बाद हिन्दुओं या मुसलमानों का कोई संगठन यह कह दे कि हमें निर्णय मंजूर नहीं, क्योंकि यह हमारे श्रद्धा-आस्था या अक़ीदत का मामला है। ये अलग बात है कि मुस्लिम संगठनों ने इसे अपनी इज्जत का मामला बना रखा है।
उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के तीन न्यायाधीशों की पूर्ण पीठ वर्ष 1996 से इस विवाद की सुनवाई कर रही थी। मुकदमे में चार पक्षकार हैं। हिंदुओं की ओर से तीन पक्षकार हैं जिसमें एक प्रमुख पक्षकार विवादित परिसर में विराजमान रामलला स्वयं हैं। दूसरे श्री गोपाल सिंह विशारद और तीसरा निर्मोही अखाड़ा हैं, जबकि मुस्लिम पक्ष की ओर से सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड पक्षकार है। गोपाल सिंह विशारद ने रामलला के एक भक्त के रूप में निर्बाध दर्शन-पूजन की अनुमति के लिए जनवरी,1950 ईस्वी में अपना मुकदमा फैजाबाद जिला अदालत में दायर किया था। वर्ष 1959 में निर्मोही अखाड़े ने अपना मुकदमा जिला अदालत में दायर कर अदालत से मांग की थी कि सरकारी रिसीवर हटाकर जन्मभूमि मंदिर की संपूर्ण व्यवस्था का अधिकार अखाड़े को सौंपा जाय। दिसंबर, 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड अदालत में गया। बोर्ड ने अदालत से मांग की कि विवादित ढांचे को मस्जिद घोषित किया जाए, वहां से रामलला की मूर्ति और अन्य पूजा सामग्री हटाई जाएं तथा परिसर का कब्जा सुन्नी वक्फ बोर्ड को सौंपा जाए। जुलाई, 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनंदन अग्रवाल ने एक भक्त के रूप में खुद को रामलला का अभिन्न मित्र घोषित करते हुए न्यायालय के समक्ष रामलला की ओर से वाद दाखिल किया। 40 साल तक मुकदमा फैजाबाद जिला अदालत में लंबित पड़ा रहा। शीघ्र सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय के आदेश से सभी मुकदमे सामुहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को सौंपे गए। गौरतलब है कि राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से वर्ष 1993 में एक प्रश्न पूछा गया था कि क्या विवादित स्थल पर 1528 ईस्वी के पहले कभी कोई हिंदू मंदिर था अथवा नहीं? इसी प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने विवादित परिसर की राडार तरंगों से फोटोग्राफी और पुरातात्विक खुदाई भी करवाई। जजों के सेवानिवृत्त होते रहने के कारण उच्च न्यायालय की विशेष पीठ का लगभग 13 बार पुनर्गठन हो चुका है। अंतिम पुनर्गठन 11 जनवरी, 2010 को हुआ।
इसी बीच 6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा हिन्दुओं ने जमींदोज कर दिया। अक्तूबर, 1994 में सर्वोच्च न्यायालय ने विवाद के मामले में अंतिम निर्णय की सारी जिम्मेदारी उच्च न्यायालय के हवाले कर दी। तब से उच्च न्यायालय इस मामले की निरंतर सुनवाई कर रहा है। उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई के लिए विशेष अदालत का गठन कर संपूर्ण मामला दो हिंदू और एक मुस्लिम जज की पूर्ण पीठ के हवाले कर दिया। शायद इसके पीछे यह सोच रही हो कि मुसलमानों के साथ कोई अन्याय न हो जाये। इसीलिए एक मुसलमान जज भी पीठ में रखा गया।
हालांकि न्यायालय में सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाडा आमने-सामने है, लेकिन अदालत के बाहर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और विश्व हिन्दू परिषद् है। इनके अलावा भी हिन्दुओं और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन हैं। आम हिन्दुओं को डर सता रहा है कि अदालत का फैसला खिलाफ आने पर आम मुसलमान किसकी सुनेगा, किसकी नहीं सुनेगा? मुस्लिम जनता हमेशा अपने कट्टर नेतृत्व का कहा ही मानती आई है। देश विभाजन के समय से लेकर शाहबानों, तस्लीमा, घुसपैठ, आतंकवाद समेत ऐसे अनेक मामले हैं जिन पर उदार मुस्लिम नेतृत्व को मुंह की खानी पड़ी है। आम मुसलमान कट्टर और रूढ़िवादी नेतृत्व की ही सुनता आया है। बंगलादेशी घुसपैठियों का मामला हो या आतंकी और आतंकी संगठनों को पनाह देने का मामला, आम मुसलमानों का सहयोग हमेशा इन्हें ही मिलता आया है। आज भले ही बाबरी एक्शन कमेटी के संयोजक और अदालत में मुसलमानों की तरफ से पैरवी कर रहे जफरयाब जिलानी और बाबरी एक्शन कमेटी के संस्थापक रह चुके जावेद हबीब न्यायालय का फैसला मानने और किसी आंदोलन के इरादे को नकार रहे हों, लेकिन क्या पता कल ‘हिन्दुओ के खिलाफ डायरेक्ट एक्शन’’ का फतवा या आह्वान आ जाये। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की हालत भले ही खराब हो चुकी हो, लेकिन इतनी भी खराब नहीं कि देश का मुसलमान उनकी बातों की अनदेखी कर दे। मुसलमानों के लिए देश के भीतर और बाहर संघर्ष करने वालों की कमी नहीं है। कांग्रेस समेत देश की सभी राजनैतिक पार्टियां, सरकारें, न्यायालय, मीडिया और अ-हिन्दू भारतीय सब मुसलमानों के प्रति जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हैं। मुसलमान अपनी मर्जी से न्यायालय का और न्यायाधीश का चयन कर सकता है। उसके लिए गुजरात का मामला दिल्ली में और मध्यप्रदेश का मामला मुम्बई में ले जाया जा सकता है। जो काम हिन्दुओं के लिए पूरा संघ परिवार नहीं कर सकता वह अकेले जफरयाब जिलानी कर सकते हैं, बखूबी कर रहे हैं। अगर मामला मुसलमानों से जुड़ा हो तो न्यायालय की सुनता कौन है? शाहबानों और अफजल का उदाहरण सबके सामने है। एक में कांग्रेस ने कानून बना कर सर्वोच्च न्यायालय को आइना दिखाया तो दूसरे में सजा का क्रियान्वयन ही रोक दिया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर-फारुख अब्दुल्ला ने खुलेआम कहा कि अफजल को फांसी देने से कश्मीर के हालात बिगड़ सकते हैं।
पुराने अनुभव तो यही बताते हैं कि आम मुसलमान अपने कट्टरपंथी नेतृत्व के साथ पहले न्यायालय पर दबाव बनायेंगे, फैसला अनुकूल आया तो ठीक वर्ना कह देंगे- फैसला कूड़ेदान के लायक है। केन्द्र सरकार समेत अनेक आयोग उस कचरे को सुरक्षित करने के लिए कूड़ेदान की तलाश में लग जायेंगे। न्यायालय का फैसला न मानने के लिए ‘वोट की राजनीति’ का दबाव तो मुसलमानों के लिए हमेशा से उपलब्ध है ही। देश के प्रधानमंत्री भी ‘देश के संसाधनों’ पर मुसलमानों का पहला हक देकर उनके वोट पर अपना पहला और आखिरी हक अख्तियार करना चाहते हैं। उन्हें अपराध या आतंक के लिए आरोपी मत बनाइये, क्योंकि वे मुसलमान हैं। उन्हें न्यायालय में अपराधी या आतंकी सिद्ध करने का प्रयास मत कीजिये क्योंकि वे ‘‘बेचारे मुसलमान’‘ हैं। सजा सुनाये जाने के बाद भी उसे लागू मत कीजिये क्योंकि उससे अल्पसंख्यकों में तनाव पैदा होने, मानवाधिकार को चोट पहुंचने का खतरा है। अब हिन्दू बेचारा क्या करे। कब तक वह तथाकथित सेक्यूलर संविधान और न्याय व्यवस्था पर भरोसा करे। शायद इसीलिए विहिप ‘जनता के न्यायालय’ में जाने को विवश हुई हो। विहिप या संघ परिवार का प्रयास देश की जनता-जर्नादन को जागृत करने का है। ताकि इससे देश की राजनैतिक व्यवस्था पर कोई प्रभाव पड़े। संभव है ‘‘बहुसंख्यक दबाव की राजनीति’’ का कुछ असर हो जाये और राम मंदिर विवाद का समाधान जनता के सदन ‘संसद’ में हो जाये।
सच बात तो यह है कि न तो हिन्दुओं को चिढ़ाने या अनावश्यक जिद्द करने से मामला सुलझने वाला है और न ही मुसलमानों के तुष्टीकरण से। विभिन्न राजनैतिक दल अगर ईमानदार प्रयास करें तो अयोध्या विवाद का राजनैतिक हल निकल सकता है। इस मामले में मुसलमानों के उदार नेतृत्व को आगे आना ही होगा। पहल उन्हें ही करनी है। समस्या निराकरण नुख्सा उन्ही के पास है। अमन पसंद और विकास की चाहत रखने वाले राजनैतिक दल आगे आएं तो समस्या का निराकरण और भ्री आसान हो जायेगा। सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कर कांग्रेस और उनके नेताओं न एक नजीर पेश की है। अयोध्या समझदारी का दूसरा उदाहरण हो सकता है। कांग्रेस पहल करे, भाजपा और अन्य दल मदद करें- राम मंदिर की भव्यता का प्रश्न संसद से हल करें। यह शांति और भाइचारे का तकाजा भी है।
(लेखक पत्रकार और मीडिया एक्टिवीस्ट हैं)
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