गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

राघोगढ़ का रावण


द्वापर के रावण और कलियुग के दिग्विजय सिंह में आश्चर्यजनक रूप से समानताएं हैं. दोनों ही राजा हैं. दोनों में पांडित्य है. लेकिन जैसे रावण आसुरी शक्ति के शीर्ष पर था वैसे ही दिग्विजय सिंह भी आसुरी मानसिकता के शीर्ष पर हैं. मध्य प्रदेश में रहते हुए उन्होंने अपनी आसुरी बुद्धि से न केवल प्रदेश को रसातल में पहुंचाया बल्कि अपनी ही पार्टी को हाशिये पर फेंककर दिल्ली चले गये. अब दिल्ली में बैठकर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक विषवमन के जरिए अपनी प्रासंगिकता खोज रहे हैं.

राजनीतिक समीक्षक कहते हैं दिग्गी दूसरे दलों में अपने समर्थक पैदा करते हैं और अपनी पार्टी के भीतर अपने विरोधियों को पैदा नहीं होने देते, अगर पैदा हो गए तो उन्हें बढ़ने नहीं देते, अगर इक्का-दुक्का विरोधी बढ़ भी गए तो उनका तत्काल खात्मा करते हैं। मध्यप्रदेश और देश की राजनीति में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। दिग्विजय सिंह सामंती स्वभाव के राजेनता माने जाते हैं। मध्यप्रदेश में अपने 10 वर्षों के राज में वे जनता को कुशासन देने के रूप में जाने जाते हैं। अपने जमाने में उन्होंने नारा दिया - चुनाव विकास से नहीं, प्रबंधन से जीते जाते हैं। उन्होंने एक पत्रकारों से चर्चा करते हुए कहा था कि जब लालू बिना बिजली और सड़क के तीसरी बार सत्ता में आ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। हालांकि 2003 में उनका चुनावी प्रबंधन बुरी तरफ फेल हो गया था। अपने राज में उन्होंने प्रदेश में सांप्रदायिकता का हौव्वा खड़ा कर दिया था। एक तरफ वे हिन्दुओं का दमन करते रहे वहीं ईसाइय-मुसलमानों को शह देते रहे। गौरतलब है कि 22 दिसंबर, 1998 को झाबुआ के नवापाड़ा में जब एक नन के साथ बलात्कार हुआ था तब भी दिग्विजय सिंह ने हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों पर ही आरोप मढ़ दिए थे। लेकिन बाद में बलात्कार के कई आरोपी मतान्तरित ईसाई ही पाए गए थे। विपक्ष सहित कई पार्टियों की मांग और राज्यपाल द्वारा सीबीआई जांच के लिए पत्र लिखने के बाद भी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पूरे मामले से मुह मोड़ लिया था। वे सिर्फ घटना का राजनैतिक लाभ उठाना चाहते थे। दिग्विजय सिंह ने झाबुआ नन बलात्कार कांड के एक आरोपी को कांग्रेस का टिकट भी दिया था।

अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में जब उन पर सोम डिस्लरी से घूस लेने का आरोप लगा और वे विपक्ष के आक्रामक तेवरों से घिर गए तो अचानक तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसा करने लगे। वे अचानक ही राजग की शिक्षा नीति के प्रशंसक बन गए। ज्योतिष को विज्ञान मान लिया। लेकिन जब-जब उनको मौका हाथ लगा हिन्दुत्व पर आक्रमण करने से कभी नहीं चूके। महाराष्ट्र एटीएस के मुखिया हेमंत करकरे की आतंकी हत्या को लेकर दिए गए बयान पर दिग्गी बुरी तरह घिर गए हैं। अपनी किरकिरी होते देख कांग्रेस ने भी उनके बयान से पल्ला झाड़ लिया है। लेकिन विपक्ष कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री चिदंबरम से दिग्विजय के बयान पर उनकी प्रतिक्रया पूछ रहा है। कांग्रेस में अलग-थलग पड़े दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद जगदंबिका पाल के बयान से एक और झटका लगेगा। दिग्गी जिस प्रदेश के प्रभारी हैं उसी प्रदेश के कांग्रेसी नेता अब उनके खिलाफ हो गए हैं। जाहिर है दिग्विजय की ओछो राजनीति से कांगेस का धर्मरिपेक्षता का राग भी कमजोर पड़ता दिख रहा है। कांग्रेसी सांसद जगदंबिका पाल ने एक कार्यक्रम में कहा कि दिग्विजय सिंह का बयान गैर जरूरी था। मुम्बई हादसे के बाद गृहमंत्री ने इस मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ जिस तरह का माहौल बनाया, उस पर ऐसे बयान से प्रतिकूल असर पड़ेगा। दरअसल अपने बड़बोलेपन से वे कई बार पूरी पार्टी को संकट में डाल चुके हैं। हो सकता है दिग्विजय सिंह का बयान रूवयं को पार्टी में स्थापित करने या अपना कद बढ़ाने के लिए हो। यह भी संभव है कि वे अपने बयानों से पार्टी का भला करना चाहते हों। लेकिन उनके बयानों से हर बार पार्टी को नुकसान ही होता रहा है। ऐसे में पार्टी के भीतर भी वे आलोचना और निन्दा के पात्र बनते हैं। अंततः उनके स्वयं का नुकसान भी होता है। लेकिन दिग्विजय सिंह है कि अपनी करनी से बाज नहीं आते।

मध्यप्रदेश की राजनीति में ‘बुआजी’ के नाम से चर्चित और वर्तमान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रही जमुना देवी ने वर्ष 1995 में कांग्रेस के वर्तमान महासचिव और तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बारे में टिप्पणी की थी, ‘‘ मैं आजकल मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के तंदूर में जल रही हूं।’’ इन्हीं बुआजी ने एक बार कहा था - मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने सलाहकार और वामपंथी विचारधारा के समर्थक संगठनों को विशेष महत्व दे रहे हैं, जिससे नक्सली गतिविधियां फल-फूल रही हैं।

जानकारों के मुताबिक राघोगढ़ ने हमेशा ही अंग्रेजों का साथ दिया। राजा अजीत सिंह के दरम्यान राघोगढ़ के ब्रिटिश राज के ही अधीन रहा। 1904 में राघोगढ़ सिंधिया राज के अधीन हो गया। राघोगढ़ के तब के राजा सिंधिया को नजराना दिया करते थे। राघोगढ़ के राजा बहादुर सिंह भारतीय राजाओं में अंग्रेजों के सबसे वफादार थे। इनकी इच्छा थी कि वे प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए मारे जायें। अंग्रेजों की इस वफादारी के लिए राघोगढ़ राजघराने को वायसराय का धन्यवाद भी मिला। इतिहास के पन्नों में इस बात का उल्लेख है कि राघोगढ़ सामंत ने अपने क्षेत्र अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की हर आवाज को दबाया। 1857 के गदर के दौरान भी यह राजघराना भारतीयों की बजाए अंग्रेजों के ही साथ था। दिग्विजय सिंह को यह अवसर मिला था कि वे राघोगढ़ पर लगने वाले आरोपों का जवाब देते, लेकिन उन्होंने न तो अपने 10 वर्षों के अपने शासन में और न ही अब ऐसा कोई प्रयास किया। बजाए इसके वे लगतार ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे आतंवादियों और उनके पोषक शक्तियों को ही मदद मिल रही है। मामला चाहे बटला हाउस का हो या आजमगढ़ जाकर आतंकियों के परिजनों से मुलाकात का, हर बार दिग्विजय सिंह पर आतंकियों की मदद करने का आरोप लगा।
मध्यप्रदेश भाजपा ने दिग्विजय सिंह और खूखंार अपराधियों के गठजोर को केन्द्र में रखकर एक पुस्तिका प्रकाशित की थी। ‘एक संदिग्ध मुख्यमंत्री’ नाम से प्रकाशित इस पुस्तिका में मालवा क्षेत्र के खूंखार अपराधी खान बन्धुओं और दिग्विजय के संबंधों को उजागर किया गया था। मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने 15 अगस्त, 1995 को स्वतंत्रता दिवस पर भेापाल में बोलते हुए कहा कि ‘‘यहां अल्पसंख्यक असुरक्षा की भावना से पीड़ित होते हैं, और इसीलिए वे हथियारों का जमाव करते हैं।’’ दरअसल दिग्गी अपने उपर लगे आरोपों को ही जायज ठहरा रहे थे। भाजपा ने उन पर संगीन आरोप लगाए थे। गौरतलब है कि 1994-95 में जब गुजरात पुलिस ने मालवा के उज्जैन जिले से पप्पू पठान की गिरफ्तारी की तब विदेशी हथियार कांड का भांडा फूटा। यह भी पता चला कि इसमें रतलाम नगर पालिका निगम का पार्षद भी शामिल है जो दिग्विजय सिंह के पैनल से चुनाव लड़ा था। इस पार्षद का नाम आर.आर खान बताया गया। महिदपुर निवासी पप्पू पठान की जानकारी के आधार पर आर.आर खान के छोटे भाई महमूद खान के पास से कार्बाइन सहित अनेक विदेशी हथियार बरामद हुआ। पकड़े गए आरोपियों का संबंध तस्कर छोटा दाउद और सोहराब पठान से भी पाया गया। पुलिस की तफतीश में यह भी पता चला कि इन सभी आरोपियों को दिग्विजय सरकार के कई मंत्रियों और स्वयं मुख्यमंत्री तथा अल्पसंख्यक आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष इब्राहीम कुरैशी का संरक्षण भी प्राप्त है। मीडिया और विपक्ष ने दिग्विजय सिंह द्वारा मेहमूद खान और उसके बड़े भाई आर.आर खान के बचाव में दिए गए बयान को खूब उछाला था। यह भी आरोप लगा कि इंदौर स्थित खंडवा रोड पर मालवा फार्म हाउस, जहां से देशी-विदेशी हथियारों का जखीरा पकड़ा गया था, तत्कालीन दिग्विजय सरकार के मंत्रीमंडल के कई सदस्यों द्वारा अय्याशी के लिए उपयोग किया जाता था। यह गठजोड़ न सिर्फ अखबारों की सुर्खियों में आया, बल्कि मध्यप्रदेश की विधानसभा में भी गूंजा।

मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने भोपाल में पत्रकारों से बात करते हुए कहा- दिग्विजय सिंह सिर्फ दया के पात्र हैं। वर्ष 2003 में वे मध्यप्रदेश से बेदखल कर दिए गए थे। इस बेदखली में संघ को दोषी मानते हैं। बकौल सुश्री भारती दिग्विजय सिंह को लगता है कि मध्यप्रदेश से कांग्रेस और उनको बेदखल करने में संघ की ही भूमिका थी। इसीलिए वे हर बात में संघ का नाम घसीटते हैं। दिग्विजय सिंह ने हमेशा ही संघ को कटघरे में खड़े करने की कोशिश की है। हिन्दू आतंकवाद का नारा उछालने और संघ को आतंकी संगठन सिद्ध करने के लिए उन्होने हर संभव कोशिश की। हालांकि दिग्विजय सिंह का दामन स्वयं ही दागदार है। कुछ दिन पहले ही माकपा-माओवादी के केन्द्रीय समिति सदस्य तुषारकांत भट्टाचार्य ने एक साप्ताहिक पत्रिका को बताया था कि दिग्विजय सिंह ने पिछले साल अगस्त में उनकी पार्टी से संपर्क साधा था। यह कोशिश हैदराबाद के एक कांगेेसी नेता के जरिए की गई थी। भट्टाचार्य के मुताबिक उस वक्त वह वारंगल जेल में था। गौरतलब है कि दिग्विजय सिंह ने गृहमंत्री चिदंबरम की नक्सल विरोधी नीति की आलोचना की थी।
मध्यप्रदेश की राजनीति में ‘बुआजी’ के नाम से चर्चित और वर्तमान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रही जमुना देवी ने वर्ष 1995 में कांग्रेस के वर्तमान महासचिव और तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के बारे में टिप्पणी की थी, ‘‘ मैं आजकल मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के तंदूर में जल रही हूं।’’ इन्हीं बुआजी ने एक बार कहा था - मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने सलाहकार और वामपंथी विचारधारा के समर्थक संगठनों को विशेष महत्व दे रहे हैं, जिससे नक्सली गतिविधियां फल-फूल रही हैं।

दिग्विजय सिंह का ताजा बयान यही बयां करता है कि उन्होंने देशभक्ति का कोई सबक नहीं सीखा है, बल्कि इसके उलट वे अंग्रेजो से लेकर आतंकियों और देश विरोधियों के समर्थक के तौर पर उभरे हैं। अब यह सच भी उजागर होन लगा है कि उन्हीं के राज में सिमी, नक्सली गतिविधियां, बांग्लादेशी घुसपैठ और आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा मिला, बल्कि अरुंधती राय जैसी देश विरोधी बुद्धिजीवियों को भी शह मिला। इतिहास के पन्नों में यह दर्ज है कि दिग्विजय सिंह के पुरखे अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। अब अखबारों में यह दर्ज हो रहा है कि दिग्विजय सिंह ने आर.आर खान से लेकर अजमल कसाब तक की रहनुमाई राजनीति कैसे की। इन सब से कांग्रेस और दिग्विजय की धर्मनिरपेक्ष छवि को कितना बल मिला या उनके वोट बैंक में कितना इजाफा हुआ यह तो नहीं मालूम, लेकिन तब प्रदेश का और अब पूरे देश का नुकसान जरूर हो रहा है।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

खजुराहो में अन्तरराष्ट्रीय विज्ञान संचार सम्मेलन की शुरुआत


भारत में 4 से 11 दिसंबर तक दुनिया के पचास से अधिक देशों विज्ञान संचार विशेषज्ञ इकट्ठा हुए। दुनिया भर के संचार विशेषज्ञों का जुटान विज्ञान एवं प्रौद्योगकिी विभाग की ईकाई राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद् ने किया है। आधुनिक समाज में विज्ञान की भूमिका पर आयोजित इस 11 वें ‘‘पब्लिक कम्युनिकेशन आॅफ साईंस एंड टेक्नोलॉजी’ के आयोजन में मध्यप्रदेश विज्ञान एंव प्रौद्योगिकी परिषद् ने भी काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गौरतलब है कि खजुराहो में 4 और 5 दिसंबर को आयोजित ‘‘प्री कांफ्रेरेंस’’ की मेजबानी मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् ने की। 6 से 10 दिसंबर तक मुख्य सम्मेलन दिल्ली में और समापन 11 दिसंबर को जयपुर में होगा। मध्यप्रदेश की ऐतिहासिक नगरी खजुराहो न सिर्फ मंदियों और मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इतिहास, धर्म और कला-संस्कृति के संचार के लिए भी जाना जाता है। संचार नगरी खजुराहो विज्ञान संचार के प्रति नई सोच और दृष्टि उत्पन्न करने के लिए आयोजित अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का साक्षी बना। यहां आयोजित प्री-कांफ्रेंस में विज्ञान भारती के संगठन सचिव जयकुमार, मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् के महानिदेशक प्रो. प्रमोद कुमार वर्मा, योजना आयोज के सलाहकार ए.के. वर्मा, एनसीएसटीसी के निदेशक डॉ. मनोज पटैरिया, समाज विज्ञानी डॉ. जितेन्द्र बजाज, संचार विशेषज्ञ शशिधर कपूर, संदीप भट्ट और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉ. पी. के. मिश्रा मुख्यरूप से उपस्थित थे। इस सम्मेलन में विदेशी संचार विशेषज्ञ भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। इन सम्मेलन में आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, फिलीपींस सहित कई देशों के अंतरराष्ट्रीय प्रतिभागियों हिस्सा लिया।

उद्घाटन सत्र में बोलते हुए विज्ञान भारती के संगठन सचिव जयकुमार ने कहा कि विज्ञान संचार पर बात करते हुए हमें यह भी विचार करना चाहिए कि वैदिक साहित्य कैसे आया यह कैसे विकसित हुआ। वर्षों तक लिखने-पढ़ने की पद्धति विकसित न होने के बावजूद हमारे देश में ज्ञान-विज्ञान का संचार होता आया है। भारतीय समाज साहित्य, विज्ञान और ज्ञान का संचार श्रुति संचार के द्वारा वर्षों तक करता रहा है। पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का हस्तांतरण भी एक विशिष्ट भारतीय पद्धति से होता रहा। जब दुनिया अज्ञान के अंधेरे में थी तब भी भारत ने सभी क्षेत्रों में ज्ञान-विज्ञान का संचार किया।
जयकुमार ने कहा कि वैज्ञानिक का मतलब सिर्फ टाई-कार्ट नहीं है। यहां के किसान और वनवासी वास्तविक वैज्ञानिक हैं। भारत का वनवासी कैंसर का उपचार कर रहा है। अशिक्षित और निरक्षर लोगों ने भी अनेक क्षेत्रों में उत्तम संचार किया है और आज भी कर रहे हैं। भारतीय समाज ने टीवी, विडियो और एलसीडी जैसे उपकरण और तकनीक न होने के बाद भी यह सब किया। यहां अनेक गांवों में आज भी बिजली नहीं है, अंधेरे में आधुनिक संचार कैसे काम करेगा। हम सिर्फ सूचना संचार तकनीक से ही समस्याओं का निदान नहीं कर सकते। मीडिया क्षेत्र में कार्यरत लोगों को भी विज्ञान संचार के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। आज भी अपने देश में एक भी विज्ञान केन्द्रित समाचार पत्र नहीं है।
उन्होंने कहा कि भारतीय समाज की समस्याओं और आवश्यकताओं को जानने-समझने की कोशिश होनी चाहिए, फिर इसी के अनुकूल विज्ञान संचार को विकसित किया जाना चाहिए। भारत में भारतीय द्ष्टि से विज्ञान संचार की रूपरेखा बनानी होगी। भारतीय ऋषियों ने ध्वनि विज्ञान, भाषा विज्ञान पर काफी काम किया है।
योजना आयोग के सलाहकार ए.के. वर्मा ने कहा कि सभी सफल प्रधानमंत्रियों ने विज्ञान के महत्व की बात स्वीकर करते हुए इसे बढावा दिया है। आज मोबाइल, कम्प्युटर और टीवी जैसे आधुनिक संचार साधन गरीब और पिछड़े लोगों को भी मदद दे रहे हैं। आज इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि विकास और संचार को कैसे जोड़ा जाए। वैज्ञानिकों और संचारकों को मिल कर काम करने की जरूरत है। विज्ञान को लोकप्रिय बनाना भी एक चुनौती है, खासकर भारत जैसे देश में जहां अनेक भाषा, समुदाय और भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का समाज है। श्री वर्मा ने कहा कि भारत सरकार का योजना आयोग 12 वीं योजना की तैयारी कर रहा है। इसमें भी विज्ञान और विज्ञान संचार को देश की जरूरतों के मुताकिब शामिल किया जा सकता है। विज्ञान के क्षेत्र में लोक जागरण और लोक जिम्मेदारी को बढ़ावा देने में मीडिया की बड़ी भूमिका हो सकती है।
मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्के महानिदेशक प्रो. प्रमोद कुमार वर्मा ने कहा कि हमें लोगों में वैज्ञानिक मनोवृत्ति का विकास करना है। हमारी संचार की विशिष्ट परंपरा रही है। इस परंपरा को संरक्षित और विकसित करने की जरूरत है। हमारी दादी ने ‘काजल’ बनाना और आंखों में लगाना हमारी मां को सिखाया। झारखंड राज्य में बनने वाले हंडिया और मध्यप्रदेश के मंडला जिले के वैद्यों द्वारा किए जाने वाले उपचार विधियों का उल्लेख करते हुए डॉ. वर्मा ने भारतीय परंपराओं में विज्ञान और विज्ञान संचार से प्रतिभातियों को रूबरू कराया। उन्होंने कहा कि भारत ने वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हुए समय, सामग्री, प्रक्रिया और उत्पाद को हमेशा महत्व दिया। भारत में ओझा-वैद्य शायद पढ़ना-लिखना नहीं जानते लेकिन उपचार की श्रेष्ठ विधियों से वे भलि-भांति परिचित थे। हमारे पास आज संचार के अनेक आधुनिक साधन उपलब्ध हो गए हैं लेकिन अभी भी संचार की कमी है। बच्चों के लिए विज्ञान शिक्षा के लिए काुी समय से प्रयास चल रहा है। अभी इस दिशा में वांछित सफलता के लिए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। विज्ञान की जटिलताओं को सहज और सर्वसुलभ बनाने की काफी आवश्यकता है। मध्यप्रदेश सरकार इस दिशा में काफी प्रयास कर रही है। सरकार के प्रयासों से विज्ञान को एक वर्ग विशेष से आम लोगों का विषय बनाने में काफी सफलता मिली है। मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौैद्योगिकी परिषद् की कोशिश है कि विज्ञान सबके लिए हो, विकास के प्रत्येक पहलू में विज्ञान को शामिल किया जाये। देश के विभिन्न हिस्सों से आए विशेषज्ञों ने विज्ञान संचार से संबंधित अनेक प्रस्तुतियां भी दी। कार्यक्रम का संचालन परिषद् के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. संदीप गोयल ने किया।
खजुराहो से अनिल सौमित्र