रविवार, 7 अक्टूबर 2012

सुदर्शन जी का होना, जाना और बार-बार आना अनिल सौमित्र
81 वर्ष की उम्र में भी बच्चों के बीच बाल-सुलभ व्यवहार। सुबह और सायं काल दोनों वक्त शाखा जाने का स्वयं का आग्रह। किसी भी बीमारी के लिये आयुर्वेद, योग और भारतीय पद्धति से इलाज का आग्रह। दवाई कम परहेज ज्यादा। देश-समाज की उन्नति के लिये देशज और परंपरागत उपायों का आग्रह। यह सब कुछ अपने अंतिम क्षणों तक करते रहे सुदर्शन जी। सुदर्शन जी का आयुर्वेद पर बहुत विश्वास था। लगभग 20 वर्ष पूर्व हृदयरोग से पीडि़त होने पर चिकित्सकों ने उन्हें बाइपास सर्जरी ही एकमात्र उपाय बताया; किंतु उन्होंने अपने उपर आयुर्वेद का ही प्रयोग किया। सुदर्शन जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवक से सरसंघचालक बने। इस दौरान उनके निर्दोष, सरल और सहज किंतु स्पष्ट और बेबाक विचारों के कारण कई बार विवाद भी हुआ। श्रीमती सोनिया माइनों पर उनकी टिप्पणी हो या गांधी हत्या के बारे में उनके विचार, अपने तथ्यपरक विचारों को उन्होंने कभी छुपाया नहीं। वे मतभेद और प्रेम कभी छुपाते नहीं थे। एनडीए सरकार की नीतियों और कार्यपद्धति पर उनकी प्रतिक्रियाओं से खासा विवाद भी हुआ था। वे राजनीति की कुटिलता और प्रपंच को बखूबी समझते थे, लेकिन अपने व्यक्तित्व की सरलता के कारण वे कुटिलताओं और प्रपंचों से हमेशा हारते रहे। कई दफे विवादित भी हुए। शायद यही कारण था कि बाद के दिनों में अपना अधिक समय ग्राम विकास, हिन्दी के विकास और विस्तार, तकनीकों के स्थानीकरण और उसे लोकोपयोगी बनाने के रचनात्मक काम में लग गये थे। अगर कोई उनसे मिलने जाता तो पहले तो वे उससे परंपरागत तकनीक और देशभर में हो रहे सैकडों प्रयोगों के बारे में घंटों बताते। फिर अपने पास संग्रहित दसियों माडल बताते। ग्राम विकास, कृषि, गौ-पालन और उर्जा आदि के देशज और परंपरागत अनुभवों और जानकारियों के बारे में बात करके कोई भी उन्हें अपना प्रशंसक बना सकता था। खालिस्तान समस्या हो या घुसपैठ विरोधी आन्दोलन, उन्होंने संगठन के माध्यम से देश को ठोस सुझाव और सही निदान दिये। संघ के कार्यकर्ताओं को उस दिशा में सक्रिय कर आन्दोलन को गलत दिशा में जाने से रोका। पंजाब के बारे में उनकी यह सोच थी कि प्रत्येक केशधारी हिन्दू हैं तथा प्रत्येक हिन्दू दसों गुरुओं व उनकी पवित्र वाणी के प्रति आस्था रखने के कारण सिख है। इस सोच के कारण खालिस्तान आंदोलन की चरम अवस्था में भी पंजाब में गृहयुद्ध से बचा रहा। खालिस्तान आन्दोलन के दिनों में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ नामक संगठन की नींव उन्हीं की प्रेरणा से रखी गयी, जो आज विश्व भर के सिखों का एक सशक्त मंच बन चुका है। इसी प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बंगलादेश से आने वाले मुसलमान षड्यन्त्रकारी घुसपैठिये हैं। आरएसएस के मुखिया के तौर पर वे हमेशा तुष्टीकरण के खिलाफ रहे, लेकिन मुसलमानों के भारतीयकरण के पक्षधर। उनकी ही प्रेरणा से राष्ट्रीय मुस्लिम मंच का गठन हुआ। प्रख्यात स्तंभकार मुज्जफ़्फर हुसैन हों या बुजुर्ग नेता आरिफ बेग, सुदर्शन जी के साथ इस्लाम के विषय पर घंटों चर्चा करते थे। वे मुसलमानों को न सिर्फ उदार बल्कि शिक्षित, सहिष्णु और राष्ट्रवादी बनाने के लिये भी फिक्रमंद थे। यही कारण है कि मुसलमानों के बीच एक बडा वर्ग तैयार हुआ है जो राममंदिर आंदोलन का समर्थन, गोरक्षा के लिए केन्द्रीय कानून बनाने का आग्रह, रामसेतु विध्वंस का विरोध, अमरनाथ यात्रा में हिन्दुओं के अधिकारों का समर्थन और आतंकवादियों को फांसी देने की मांग करता है। मुसलमानों में ऐसा नेतृत्व उभर रहा है, जो हर बात के लिए पाकिस्तान या अरब देशों की ओर नहीं देखता। इस लिहाज से मुसलमानों के मामले में सुदर्शन जी को प्रगतिशील कहा जा सकता है। स्व. श्री सुदर्शन देश की बौद्धिक दशा को लेकर भी काफी चिंतित थे। बौद्धिक क्षेत्र पर मार्क्स-मेकाले के घुसपैठ और प्रभावों का उन्होंने हमेशा विरोध किया। भारत के कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों को वे यूरंडपंथी और मार्क्स-मेकाले के मानसपुत्र कहा करते थे। देश का बुद्धिजीवी वर्ग, जो कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता के कारण वैचारिक संभ्रम में डूब रहा था, उसकी सोच एवं प्रतिभा को राष्ट्रवाद के प्रवाह की ओर मोड़ने हेतु ‘प्रज्ञा-प्रवाह’ नामक वैचारिक संगठन भी आज देश के बुद्धिजीवियों में लोकप्रिय हो रहा है। इसकी नींव में श्री सुदर्शन जी ही थे। संघ-कार्य तथा वैश्विक हिन्दू एकता के प्रयासों की दृष्टि से उन्होंने ब्रिटेन, हालैंड, केन्या, सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड, हांगकांग, अमेरिका, कनाडा, त्रिनिडाड, टुबैगो, गुयाना आदि देशों का प्रवास भी किया। संघ कार्य में सरसंघचालक की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। चौथे सरसंघचालक श्री रज्जू भैया को जब लगा कि स्वास्थ्य खराबी के कारण वे अधिक सक्रिय नहीं रह सकते, तो उन्होंने वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श कर 10 मार्च, 2000 को अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में श्री सुदर्शन जी को यह जिम्मेदारी सौंप दी। नौ वर्ष बाद सुदर्शन जी ने भी इसी परम्परा को निभाते हुए 21 मार्च, 2009 को सरकार्यवाह श्री मोहन भागवत को छठे सरसंघचालक का कार्यभार सौंप दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांचवें सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन मूलतः तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे। कन्नड़ परम्परा में सबसे पहले गांव, फिर पिता और फिर अपना नाम बोलते हैं। उनके पिता श्री सीतारामैया वन-विभाग की नौकरी के कारण अधिकांश समय मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ) में ही रहे और वहीं रायपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़) में 18 जून, 1931 को श्री सुदर्शन जी का जन्म हुआ। तीन भाई और एक बहिन वाले परिवार में सुदर्शन जी सबसे बड़े थे। रायपुर, दमोह, मंडला तथा चन्द्रपुर में प्रारम्भिक शिक्षा पाकर उन्होंने जबलपुर (सागर विश्वविद्यालय) से 1954 में दूरसंचार विषय में बी.ई की उपाधि ली तथा तब से ही संघ-प्रचारक के नाते राष्ट्रहित में जीवन समर्पित कर दिया। सर्वप्रथम उन्हें रायगढ़ भेजा गया। प्रारम्भिक जिला, विभाग प्रचारक आदि की जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाने के बाद 1964 में वे मध्यभारत के प्रान्त-प्रचारक बने। सुदर्शन जी अनुशासन के मामले में कभी समझौता नहीं करते थे। संघ कार्य में उन्होंने निष्ठा और प्रामाणिकता की ही तरह गुणवत्ता को भी महत्व दिया। वे अंतिम समय तक सक्रिय रहे। निष्क्रियता उन्हें सुहाती नहीं थी। अपने जीवन में उन्होंने प्रशिक्षण और अभ्यास को सिद्धांत के साथ गुंथ दिया था। शाखा हो या प्रशिक्षण वर्ग, वे घंटों शारीरिक और मानसिक श्रम करते देखे गये। संघ के वे इकलौते ऎसे ज़्येष्ठ कार्यकर्ता रहे हैं जिन्होंने शारीरिक और बौद्धिक दोनों कार्यों के प्रमुख का दायित्व वहन किया। वे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। उन्हें संघ-क्षेत्र में जो भी दायित्व दिया गया, उसमें नवीन सोच के आधार पर उन्होंने नये-नये प्रयोग किये। 1969 से 1971 तक उन पर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख का दायित्व था। इस दौरान ही खड्ग, शूल, छुरिका आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर नियुद्ध, आसन, तथा खेल को संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक पाठ्यक्रम में स्थान मिला। आपातकाल के अपने 19 माह के बन्दीवास में उन्होंने योगचाप (लेजम) पर नये प्रयोग किये तथा उसके स्वरूप को भी बदला। 1977 में उनका केन्द्र कोलकाता बनाया गया तथा शारीरिक प्रमुख के साथ-साथ वे पूर्वात्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक भी रहे। 1979 में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। शाखा पर बौद्धिक विभाग की ओर से होने वाले दैनिक कार्यक्रम (गीत, सुभाषित, अमृतवचन) साप्ताहिक कार्यक्रम (चर्चा, कहानी, प्रार्थना अभ्यास), मासिक कार्यक्रम (बौद्धिक वर्ग, समाचार समीक्षा, जिज्ञासा समाधान, गीत, सुभाषित, एकात्मता स्तोत्र आदि की व्याख्या) तथा शाखा के अतिरिक्त समय से होने वाली मासिक श्रेणी बैठकों को सुव्यवस्थित स्वरूप 1979 से 1990 के कालखंड में ही मिला। शाखा पर होनेवाले ‘प्रातःस्मरण’ के स्थान पर नये ‘एकात्मता स्तोत्र’ एवं ‘एकात्मता मन्त्र’ को भी उन्होंने प्रचलित कराया। 1990 में उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी। वैसे जिस विचार और संगठन परंपरा से वे जीवनपर्यंत आबद्ध रहे उसमें वयक्तित्वों की तुलना कठिन है। वहां लगभग एक जैसे गुण-स्वभाव वाले लोग होते हैं। लेकिन सुदर्शन जी इस मामले में विशेष थे कि वे पहले दक्षिण भारतीय और दूसरे गैर महाराष्ट्रीयन सरसंघचालक हुए। कन्नड और अंग्रेजी से ज्यादा वे हिन्दी पर अधिकार रखते थे। पूर्वांचल में कार्य करते हुए उन्होंने वहां की समस्याओं का गहन अध्ययन किया। अध्ययन करते हुए उन्होंने बंगला और असमिया भाषा पर भी अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया। इसके अलावा भी वे कई भाषाओं का ज्ञान रखते थे। हिन्दी के प्रति उनके विशेष आग्रह के कारण ही मध्यप्रदेश में हिन्दी विश्वविद्यालय की कोपलें फूंटी। आज वे नहीं हैं, लेकिन हिन्दी में विज्ञान और तकनीक, चिकित्सा और अभियांत्रिकी जैसे विषयों की साधना करने वालों का स्वप्न साकार होने लगा है। बढती उम्र ने उन्हें कई समस्याएं दी। वे स्मृतिलोप के शिकार होने लगे थे। उन्होंने अपनी नहीं, अपनों की परवाह की। देह और मन कमजोर होता रहा, लेकिन वे देश-समाज की समस्याओं से जूझते रहे। उनके निकटस्थ लोगों को पता है, वे ज्योतिष के भी जानकार थे। ज़्योतिष के कई विद्वानों के साथ उनकी लंबी चर्चाएं भी हुआ करती थी। शायद वे इस जीवन के अंत और अगले जीवन के प्रारब्ध से परिचित थे। यह भी एक संयोग है कि 15 सितम्बर, 2012 को अपने जन्म-स्थान रायपुर में ही उनका देहांत हुआ। श्री सुदर्शन जी ने एक हिन्दू के रूप में जन्म लिया। एक स्वयंसेवक के रूप में देश-समाज और मानवता की सेवा की। पुनर्जन्म में हिन्दुओं का अकाट्य विश्वास है। अपने धर्म के प्रति निष्ठा, हिन्दुत्व के प्रति अटूट श्रद्धा, मानवता की सेवा का व्रत और संघ की प्रतीज्ञा उन्हें बार-बार हमारे बीच लायेगा। संभव है सुदर्शन जी ने जैसे अपने पुराने शरीर का त्याग किया है, शायद वैसे ही सर्वथा नूतन शरीर में प्रवेश कर लिया हो! इस दृष्टि से उनके जाने और आने का विषाद और हर्ष दोनों ही होना स्वाभाविक है। (लेखक मीडिया एक्टीविस्ट और चरैवेति पत्रिका के संपादक हैं।)
कांग्रेस, कोयला और कालिख
कांग्रेस के नेता भले ही कुछ भी कहें, उनके प्रवक्ता मीडिया में कुछ भी बोलें, वे चाहे कितनी ही सफाई क्यों न दें- एक बात तो पक्की है- कांग्रेस बदनाम हो गई है। कांग्रेस का नाम लेते ही, उसका नाम सुनते ही कोयला, कालिख, करप्सन, कलई, कलि, कालिमा, कलंक, कंटक, कुटिल, कपट, कपटी, कलह, कठोर, कलियुग, कलुष-कलुषा, कुख्यात, ़कलंदरी, कशमकश, कसाई, कसैला, कसूरवार, कारागाह, कायर आदि और ऐसे ही कई समानार्थी शब्दों की छवि बनती है। एक ऐसी पार्टी या संगठन जिसकी स्थापना जरूर एक अंग्रेज ने की थी, लेकिन अनेक वर्षों तक वह देशभक्तों और राष्ट्रवादियों के सेवा का माध्यम बनी। अंग्रेजों के जाने के बाद गांधीजी ने कांग्रेस को भंग करने का सुझाव दिया था। कुछ स्वार्थी नेताओं ने उनकी एक न सुनी। देशभक्त नेताओं की पुण्याई और सद्कर्मों का फल नेहरू जैसे कुछ स्वार्थी नेता खाना चाहते थे। इसलिए आजादी के बाद भी कांग्रेस का लाभ उठाया जाता रहा। तब न सही, लेकिन आज जो कांगे्रस को गांधी की राय न मानने का श्राप लग चुका है। वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष अपने नाम के आगे ‘गांधी’ जरूर लगाती हैं, लेकिन उनमें गांधी के व्यक्तित्व का अंशमात्र भी नहीं है। वे रंचमात्र भी गांधी के विचारों की उत्तराधिकारी नहीं हैं। कांग्रेस जहां सरकार में वहां वह अंग्रेजों की सोच और नीति का अनुशरण कर रही है। जहां वह विपक्ष में है वह जनता और जनमानस से कोसों दूर है। गांधीजी का पूरा जीवन विदेशियों और विदेशपरस्ती से लड़ते हुए बीता। लेकिन सोनिया माइनो गांधी का संपूर्ण जीवन ही विदेशपरस्त है। कमोबेश यही कांग्रेस के नेताओं का भी है। जो नेता विदेशपरस्त या भ्रष्ट नहीं हैं वे दरकिनार कर दिए गए हैं, वे हाशिए पर हैं। कांग्रेस देश और देशवासियों की हालत से बेपरवाह है। उसे सिर्फ अपने और अपनों की परवाह है। कांग्रेस के अपने वे हैं जो या तो उनके सगे हैं, या देशी-विदेशी रिश्तेदार। कांग्रेस ने जैसे देशी लोगों को विदेशी नेतृत्व के भरोसे छोड़ दिया है, वैसे ही भारत के देशी बाजार को विदेशी कंपनियों और पूंजीपतियों के हाथों में सौंप दिया है। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश हो या पेट्रो-उत्पादों (तेल) की कीमतें बढ़ाने का मामला कांग्रेस ने विपक्ष की एक न सुनी, अपने सहयोगी दलों को छोड़ देना मुनासिब समझा, देश की जनता को भले ही गुमराह करना पड़े, लेकिन वह अमेरिकापरस्ती नहीं छोड़ सकती। कांग्रेस को देश की जनता से बस सत्ता चाहिए। कैसे भी, किसी भी कीमत पर। एक बार सत्ता मिल जाये, जनता जाये भाड़ में। देश आर्थिक संकटों से घिरा हुआ है, किन्तु केन्द्र सरकार की फिजूलर्खी का आलम यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रियों ने 678 करोड़ उड़ा दिए। यह व्यय पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 12 गुना अधिक है। कांग्रेस के नेताओं को कोयले की कालिख, करप्सन की कलई और मंहगाई देने के कलंक की कोई परवाह नहीं। उसके नेता कलंदर हैं। उन्हें न तो कुख्यात होने का भय है और न ही कसूरवार होने का मलाल। जनता को मंहगाई से मार डालने पर उन्हें कोई कसाई कहे तो कहे। समस्याओं से मुंह चुराने पर विरोधी उन्हें कायर कहें तो कहें। वे अपनी कुटिलता नहीं छोड़ सकते। कांग्रेसी बेशर्म भी हो गए हैं। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सुशील श्ंिादे ने इसका उदाहरण दे दिया। केन्द्र सरकार के तीसरे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सोच-समझकर बेतुका बयान दिया। उन्होंने कहा कि कोयले से हाथ काले हो जायें तो पानी से धोने पर फिर साफ हो जोते हैं। जनता जिस तरह बोफोर्स घोटाले को भूल गई, कोयला घोटाले को भी भूल जायेगी। जनता भूले, न भूले कांग्रेस जरूर भूल जाती है। जनता तो घोटाले नहीं, छठी का दूध भी याद दिला देती है। कांग्रेस को भी याद होना चाहिए, जनता ने 1984 में कांग्रेस को 400 से अधिक सीटें दी थी। लेकिन उसके बाद उसी जनता ने उसका ऐसा हश्र किया कि उसे आज तक पूर्ण बहुमत से मोहताज कर दिया। आवाम को यह भी याद नहीं है कि बीते कुछ वर्षों में कांग्रेस की सरकार ने लोक-लुभावन और लोक-कल्याणकारी कौन-से कदम उठाये। काफी समय से ऐसा ही हो रहा है कि जनता आह! आह! कर रही है, ये कराहने की आवाजें हैं। काश! कि कांग्रेस के लिए जनता वाह!वाह करती। कांग्रेस का यही हाल मध्यप्रदेश में भी है। दिग्विजय सिंह ने अपने कार्यकाल में प्रदेश का ऐसा बंटाधार किया कि जनता ने उनके समेत कांग्रेस को प्रदेश से बेदखल कर दिया। यहां कांग्रेस कलह की शिकार है। मुद्दाविहीन है। कांग्रेस को विपक्ष में बैठे 10 वर्ष होने का आया। वह खामोश है। उसे सत्ता तो दिख रही है, लेकिन जनता के लिए संघर्ष का इरादा नहीं। गुटों और आंतरिक कुटिलता की शिकार कांग्रेस भाजपा की सरकार और संगठन की सक्रियता के आगे भीगी बिल्ली हो गई है। उसके पास न तो अपने कार्यकर्ताओं के सवालों का जवाब है और न ही केन्द्र सरकार के निर्णयों से हो रही जनता की तकलीफों का उपाए। कांग्रेस सत्ता और विपक्ष दोनों रूपों में पिट रही है। कांग्रसी नेताओं का खलनायकों का इतिहास पीछा नहीं छोड़ रहा है। वे राजे-रजवाड़ों और सामंत प्रवृति से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। आमजन की आवाजों से कोसों दूर अपने ही कोलाहल में डूबे कांग्रेसी सत्ता के लिए मारी-मारी तो कर सकते हैं, लेकिन वे जनता का विश्वास नहीं जीत सकते। कांग्रेस जनता का विश्वास हार चुकी है। कांग्रेस के नेता आत्मविश्वास खो चुके हैं। जनता उनसे और वे जनता से दूरी बना चुकी है। यह खाई बड़ी है और बढ़ती ही जा रही है। कांग्रेस के लिए इस खाई को पाटना दूर की कौड़ी है। कांग्रेस का आलाकमान तो कोयले की कालिख से कलंकित है। उसका प्रदेश नेतृत्व अपने रसूख और जायदाद को बचाने की जुगत में फ्रिकमंद है। प्रदेश की भाजपा सरकार के साथ कांग्रेस की धींगामुश्ती इसी फ्रि़क्र के कारण है। जनता के लिए अपनी फ्रिक्र को कांग्रेस बहुत पहले दफन कर चुकी है। इसी महीने खंडवा में हुई कार्यसमिति में भाजपा अध्यक्ष ने तीसरी बार सरकार बनाने के लिए तैयारी करने का आह्वान किया है। हरियाणा के सूरजकुंड में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद् भी निर्णायक सिद्ध हुई है। भाजपा ने केन्द्र में एनडीए के विस्तार का संकल्प लिया है और प्रदेश में तीसरी बार सरकार बनाने का नारा दिया है। भाजपा का नेतृत्व, नारा और कार्यकर्ता एक है। इस मामले में कांग्रेस अनेक है। भाजपा सक्रिय है, कांग्रेस निष्क्रिय। भाजपा कार्यकर्ता आत्मविश्वास से लबरेज, लेकिन कांग्रेस के कार्यकर्ता सशंकित और नेतृत्व की गुटबाजी के कारण कशमकश में। प्रदेश की जनता देश में परिवर्तन और और मध्यप्रदेश में निरन्तर होने की बाटजोह रही है।