सोमवार, 13 मई 2013

सबक सीखे भाजपा

कर्नाटक विधानसभा का परिणाम आ चुका है। दलीलें चाहे जो भी हों, सच्चाई सबके सामने है। भाजपा और जनता दल सेकुलर बराबरी पर आ खड़े हुए हैं। राज्य में कांग्रेस को 121, जनता दल (एस) और भाजपा को 40-40 तथा अन्य को 21 सीट मिली है। प्रदेश में भाजपा को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा है। भले ही भाजपा के प्रवक्ता सार्वजनिक तौर पर इस बात को स्वीकार न करें, लेकिन वे भी इस बात को मानते हैं कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा की स्थिति का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना तय है। यह प्रभाव भाजपा के खिलाफ और कांग्रेस के पक्ष में है। भाजपा को सबसे अधिक नुकसान पार्टी से अलग हुए पूर्व मुख्यमंत्री येदियुररप्पा के कारण हुआ है। हालांकि इस तरह की स्थिति का सामना भाजपा पूर्व में भी कर चुकी है। लेकिन हमेशा सबक न लेने और अपने नेताओं को कमतर आंकने के कारण भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा है। झारखंड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और गुजरात का उदाहरण सबके सामने है। झारखंड में बाबूलाल मरांडी, उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह और मध्यप्रदेश में उमा भारती के कारण भाजपा को काफी हानि हुई। यह बात दीगर है कि मध्यप्रदेश और गुजरात में नुकसान इतना नहीं था कि भाजपा कांग्रेस से पीछे रह जाती। फिर भी सीटों और वोटों के मामले में 2003 की तुलना में काफी बड़ा फर्क देखने को मिला था। झारखंड और उत्तरप्रदेश में अपेक्षाकृत अधिक नुकसान हुआ। सवाल यह है कि क्या बदली हुई परिस्थितियों भाजपा कोई सबक लेगी? क्या राष्ट्रहित के मददेनजर वह अपने मतभेदों को भुलाकर एकजुटता प्रदर्शित करते हुए कांग्रेस को परास्त करने की रणनीति पर काम करेगी? क्योंकि आने वाले कुछ ही महीनों में चार बड़े महत्व के राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। राष्ट्रीय राजनीति में मनोवैज्ञानिक रूप से हार चुकी कांग्रेस को कर्नाटक चुनाव से संजीवनी मिली गई है। इस संजीवनी के सहारे वह भाजपा और अन्य विपक्षी दलों को कुछ समय तक जवाब देती रहेगी। कुछ समय के लिए भाजपा निश्चित तौर पर एक कदम पीछे आ गई है। भ्रष्टाचार, महंगाई और चीन के मुददे पर मुहं छुपाती कांग्रेस को कर्नाटक में जीत का मास्क मिल गया है। अब कांग्रेस यही मुखौटा लगाकर अपने विरोधियों का सामना करेगी। भाजपा ने दक्षिणी मुहाने पर सरकार बनाकर एक बड़ी सफलता अर्जित की थी। लेकिन नेताओं की आपसी प्रतिस्पद्र्धा और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की ओछी मानसिकता के कारण कर्नाटक में लंबे समय तक उठा-पटक चलती रही। कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए भाजपा को सिर-आंखों पर बैठाया था, उसी ने भाजपा को अपनी नजरों से गिरा दिया। राजनीति में, खासकर चुनावी राजनीति में नेता क्या सोचते हैं इससे अधिक यह महत्वपूर्ण है कि जनता क्या सोचती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या भाजपा नेताओं को दक्षिण में अपने एकमात्र किले के हाथ से जाने का दर्द है? क्या भाजपा के बड़े कद वाले नेता अपना मन बड़ा करने के लिए तैयार हैं? उमा भारती और कल्याण सिंह की ही तरह बाबूलाल मरांडी, येदियुररप्पा और गुजरात के नेता पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल जैसे कई नेता हैं जिन्हें भाजपा से अलग होकर लाभ तो नहीं मिला, लेकिन पार्टी को काफी नुकसान हुआ। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह कि भाजपा के बड़े नेताओं ने हंसते-हंसते इस नुकसान को लंबे समय तक देखा। उन्हें कोई मलाल नहीं हुआ। आपसी अहं और प्रतिस्पद्र्धा के कारण उन्होंने जनता की नजरों में एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे कई अवसर आए जब भाजपा ने अपनों को छोड़ परायों को गले लगाया। भाजपा के वरिष्ठ नेता और विचारक के एन गोविन्दाचार्य भी एक ऐसा ही नाम है। जिन्हें दूसरे दल के नेता तो तवज्जो देते हैं, लेकिन भाजपा नेता ही उन्हें अपना नहीं मानते। आम धारणा तो यही है कि गोविन्दाचार्य जैसे नेता अगर भाजपा जैसे स्थापित और बड़े संगठन के माध्यम से अपना योगदान दें तो परिणाम दूरगामी और असरकारक होगा। खैर ! कर्नाटक चुनाव से एक बात तो स्पष्ट है कि कांग्रेस चाहे कुछ भी करती रहे, देशभर में उसकी पैठ है। कांग्रेस का राष्ट्रव्यापी जनाधार है। भ्रष्टाचार, महंगाई या किन्हीं और कारणों से थोड़ा-बहुत अन्तर जरूर पड़ता है, लेकिन इतना नहीं कि कांग्रेस का आधार खत्म हो जाये। देश और प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज भले न रहा हो, लेकिन वह सरकार बनाने का एक सशक्त विकल्प तो है ही। यही कारण है कि मनमोहन सिंह और राहुल-सोनिया गांधी जैसे जनाधारविहीन नेताओं के रहते भी कांग्रेस का आधार बरकरार है। ऐसे एक नहीं अनेक अवसर आए जब देश में कांग्रेस के खिलाफ जबर्दस्त माहौल देखा गया। लेकिन संगठित और सक्रिय प्रतिपक्ष न होने के कारण कांग्रेस को जनता ने बक्श दिया। कई चुनावों में भाजपा के नकारात्मक वोट कांग्रेस को मिले हैं। कर्नाटक चुनाव में भी यही हुआ। वहां जातीय प्रभाव और भाजपा के नकारात्मक मतों का धु्रवीकरण कांग्रेस के पक्ष में हो गया। भाजपा के राजनीतिक प्रबंधक असफल सिद्ध हुए। जीती हुई बाजी कांग्रेस के हाथ में दे दी। अब जबकि कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बनना तय हो चुका है, भाजपा को सबक लेने और चेत जाने का वक्त आ गया है। अगर बड़े नेताओं ने बड़प्पन नहीं दिखाई, बिछुडे़ नेताओं को नहीं अपनाया, अपना अहं नहीं त्यागे और कार्यकर्ताओं के महत्व को नहीं समझा तो आने वाले विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में भी ऐसा ही हश्र हो तो कोई आश्चर्य नहीं। भाजपा के लिए एक सबक यह भी है कि किसी एक नेता पर आश्रित होने की बजाए सामूहिक नेतृत्व को स्थापित करे। नरेन्द्र मोदी हों या कि शिवराज सिंह चैहान - इनके नाम पर हवाई किले बनाने की बजाए मध्यम दर्जे के नेताओं को भी अग्रिम पंक्ति में लाने की कवायद जरूरी है। संगठन को किसी भी कीमत पर सत्ता का अनुचर बनने से अगर भाजपा रोक पाई तभी वह जनता और कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं पर खरी हो सकती है। भाजपा की सफलता के लिए यह जरूरी है कि वह समन्वय और संवाद को भाषणों और किताबों से परे जमीन पर उतारने की दिशा में प्रयास करे। राजनीति में मीडिया और प्रचार की भूमिका तो है, लेकिन सीमित है। सिर्फ इसी के भरोसे न तो नरेन्द्र मोदी और न ही शिवराज देश के नेता बन सकते हैं। भाजपा में देश का नेता बनने वाले तो बहुत हैं, लेकिन बनाने वालों की कमी हो गई है। भाजपा में ऐसे नेताओं को भी आगे आने की जरूरत है जो पर्दे के पीछे रहकर अपने नेताओं को देश का नेता बनाएं। इस काम में निजी एजेंसियों से अधिक संगठन की भूमिका है। देश का नेता बनाने में निजी एजेंसियों और सत्ता की भूमिका जितनी बढ़ती जायेगी भाजपा पीछे और कांग्रेस आगे बढ़ती जायेगी। भाजपा के लिए कर्नाटक चुनाव का यह भी एक सबक है। कर्नाटक चुनाव ने आने वाले चुनावों के लिए कांग्रेस को नहीं,भाजपा को कई सबक दिए हैं। सिर्फ पार्टी हित में ही नहीं बल्कि देश हित में भी यह जरूरी है कि भाजपा सबक सीखे और चेते।

गुरुवार, 9 मई 2013

चरैवेति प्रकरण : सौमित्र का पत्र सुमित्रा के नाम

प्रति, माननीया सुमित्रा महाजन अध्यक्ष, पं. दीनदयाल विचार प्रकाशन भोपाल आदरणीया ताईजी, सादर प्रणाम ! चरैवेति संपादक दायित्व से मुक्ति की घोषणा के दो दिन बाद पत्र लिखने का मन बना पाया हूँ| इन दो दिनों में मन:स्थिति ऐसी नहीं थी कि कुछ लिखा जा सके| लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं और संगठनों में दायित्व मिलने और मुक्त या च्युत होने की एक प्रक्रिया होती है| दायित्व मिलना और मुक्त होना सामान्य और स्वाभाविक बात है| मुझे आज नहीं अपनी नियुक्ति के दिन से ही अंदाजा था कि जिस प्रकार मेरी मौखिक नियुक्ति हुई थी, मुक्ति भी मौखिक ही होगी| लेकिन आपने जिस अंदाज में मुझे मुक्त किया उसका अंदाजा कत्तई न था, क्योंकि संपादक की कुर्सी पर बैठने के पहले मैंने भगवान और माँ सरस्वती-लक्ष्मी के चित्र पर फूल-माला चढाई और धूप-अगरबत्ती दिखाई थी| दायित्व मिलने से पहले कम से कम दो महीने तक, कई बार अलग-अलग स्तरों पर चर्चा में भागीदार हुआ था मैं| अपेक्षा तो यही थी कि विदाई भी कुछ इसी तरह होती| ईमानदारी, मेहनत और लगन से काम करने का पुरस्कार-सम्मान न सही, थोड़ी शाबासी का हकदार तो था ही मैं| खैर हकदार को हमेशा और सब जगह हक मिले ये जरूरी नहीं होता| लेकिन आपसे एक सामान्य प्रेमपूर्ण और निश्छल व्यवहार की स्वाभाविक अपेक्षा थी| आप सुमित्रा ताई हैं, और मैं अनिल सौमित्र| मेरी माँ का नाम भी सुमित्रा ही है| इससे पहले आपसे कभी भी राजनीतिक सम्बन्ध नहीं रहा| हमेशा ही आपके चहरे पर मातृत्व देखता रहा हूँ| जब आपके बुलावे पर मैं इंदौर गया था, तब भी यही सोचा था कि चरैवेति प्रकरण में भी आप एक माँ के समान ही न्याय करेंगी| लेकिन रविवार (बैठक) के दिन आपके प्रति मेरा विश्वास और मेरी धारणाएं सब खंडित हुई| मैं समझ नहीं पाया कि आपने जो घोषणा की वह सच था या संगठन महामंत्री श्री अरविंद मेनन जी ने मुझे जो बताया वह झूठ था! या दोनों अपनी-अपनी जगह सही थे! आपने मुझे मुक्त करने और आगे का काम श्री जयकृष्ण गौड़ जी द्वारा किये जाने की घोषणा की, जबकि श्री मेनन जी फोन पर मुझसे खुलकर, अच्छे से काम करने की बात कर रहे थे| उनके शब्द थे- गौड़ जी अपना काम करेंगे और आप अपना काम करो| खैर तब तक मैं चरैवेति से स्वयं को समेट चुका था| बाद में पत्रकार मित्रों ने बैठक के भीतर का आँखों देखा हाल बताया और यह सूचना भी दी की आपके अतिरिक्त समिति में सभी पदाधिकारियों का बदलाव हो गया है| गौड़ जी का आना सुखद है, लेकिन वे जिस तरह से आये वो जरूर दुख:द है| आपके बारे में मेरी एक और धारणा खंडित हुई कि आप सच कहती हैं और हमेशा सच का पक्ष लेती हैं| मुझे वो वाकया याद आया जब प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के चयन की प्रक्रिया को आपने गलत बताते हुए बैठक का बहिष्कार कर दिया था| तब अप्रिय सत्य कहने के लिए आपके प्रति मेरी श्रद्धा और सम्मान में बढोत्तरी हुई थी| लेकिन तब मैं दुखी और निराश हुआ जब चरैवेति की नवगठित कार्यकारिणी की चुनाव प्रक्रिया के बारे में जानकारी मिली, जिसमें आप स्वयं अध्यक्ष के रूप में निर्वाचित हुई| दूसरे दिन के अखबारों में इसका थोड़ा जिक्र हुआ था, सही और विस्तृत प्रक्रिया की जानकारी तो आपको होगी ही! प्रक्रिया गलत हो या सही, लेकिन एक सामान्य परंपरा तो है ही कि नव-निर्वाचित को पुराने पदाधिकारी और सदस्य बधाई देते, गले मिलते और आगे के काम में सहयोग का आश्वासन देते| पता नहीं यह सब कुछ हुआ कि नहीं, लेकिन मुझे तो ऐसा ही लगा कि सब कुछ चोरी-चोरी चुपके-चुपके हो गया| आपके बारे में नहीं, लेकिन नए सचिव के बारे में कह सकता हूँ कि उनके चहरे के हाव-भाव से लग रहा था कि कोई चोरी का माल उनको मिल गया है जिसे वे अपराधभाव से ग्रहण कर रहे हैं| पुराने सचिव भी चोरी का माल अपने दुश्मन को टिका देने की चाल में सफल होने की खुशी में थे| साथ ही उन्हें अपने विरोधी संपादक को निपटा देने की खुशी भी थी| वे इस बात से भी खुश थे कि लाखों की हेरा-फेरी करने, तीन साल में एक भी बैठक न बुलाने, ऑडिट और आयकर रिटर्न जमा न करने, फर्म्स एंड सोसायटीज को जानकारी न देने तथा इसके अलावा अपने ही सहयोगी को लांछित करने, मीडिया के द्वार संगठन को नुकसान पहुंचाने के बावजूद उसका कोई बाल-बांका नहीं कर सका| आप भी पिछले तीन सालों से चरैवेति प्रकाशित करने वाली संस्था की अध्यक्ष हैं, फिर से तीन सालों के लिए बन गईं| पिछले तीन सालों में समिति की कितनी बैठकें हुई? समिति की अनियमितताओं और निष्क्रियता के बारे में आपने सचिव या अन्य पदाधिकारी से कितनी बार पूछा? संगठन के पदाधिकारियों से आपने कितनी बार बात की? मुझे पता नहीं इसलिए जिज्ञासा है| आप फिर भी दुबारा अध्यक्ष बन गईं| क्या भाजपा संगठन में अनियमितता को नजरअंदाज करने, दायित्व का निर्वहन न करने और गलत करने वालों को प्रश्रय देने से ही पुरस्कार और सम्मान मिलता है? क्या यह नई परम्परा है? यहाँ एक बात उल्लेख करना जरूरी है कि दिसंबर अंक में चर्च से सम्बंधित दो आलेख थे| इसके बारे में किसी ने कोई चर्चा नहीं की, लेकिन अप्रैल माह में यही विषय विवादित हो गया| शायद आपको भी याद नहीं होगा कि इसके पहले आपने चरैवेति के अंक को कब देखा था! वैसे भी पत्रिका देखने-पढने की किसी को कहाँ फुर्सत है| लेकिन मुझे खुशी और संतुष्टि है कि मैंने पत्रिका को पाठकों के लिए पढने लायक बनाया| पाठकों और आलोचकों से मुझे प्रशंसा मिली| हाँ ! आपसे और समिति के अन्य पदाधिकारियों से की गयी अपेक्षा व्यर्थ ही गई | सबसे पहले चर्च वाले आलेख में मुझे आरोपित करने की कोशिश की गई| उसमें कोई मामला नहीं बना तो फर्जी वेबसाईट बनाकर विज्ञापन लेने का आरोप लगाया गया| वह भी झूठा सिद्ध हुआ तो मुझे श्री प्रभात झा का आदमी सिद्ध करने की कोशिश की गयी| आज भले ही चरैवेति में व्यवस्थाओं को बढाने की बात हो रही है| लेकिन पिछले डेढ़ साल में कोई व्यक्ति चरैवेति कार्यालय में झांकने तक नहीं गया| एक कमरे में, जर्जर संसाधनों और बिना सम्पादकीय सहयोगी के पत्रिका का प्रकाशन हुआ| अगर विश्लेषण करना हो तो चरैवेति के पुराने अंको और पिछले डेढ़ साल के अंकों की तुलना की जा सकती है| जहां तक मेरी बात है तो मैं अपने को ठगा-सा महसूस कर रहा हूँ | लोग सवाल पूछ रहे हैं, मेरे पास जवाब नहीं है| चरैवेति संपादक दायित्व से मैं क्यों मुक्त हुआ? क्या कोई गलती हुई? मैंने कोई भ्रष्टाचार किया? मेरा काम संतोषजनक नहीं था? मैंने भाजपा की विचारधारा के खिलाफ काम किया ? या कोई और वजह थी? जहाँ तक मुझे पता है मैंने जानबूझकर किसी के काम में कोई हस्तक्षेप भी नहीं किया| अपनी किताबों, अपने कम्पयुटर और अपने संसाधनों से मैं चरैवेति पत्रिका का काम करता रहा | क्या मेरे कारण चरैवेति, भाजपा या विचार परिवार को किसी प्रकार की कोई हानि हुई ? या फिर मैंने चरैवेति का उपयोग कर किसी प्रकार का राजनैतिक-आर्थिक लाभ ले लिया ? तो फिर ऐसी क्या वजह थी जो मुझसे एक दोषी और अपराधी की तरह व्यवहार किया गया? मेरे साथ धोखा क्यों हुआ ? हो सकता है आपके लिए ये सामान्य बात हो, लेकिन मैं तो इस क्षेत्र में नया हूँ, इसलिए मेरे लिए तो यह हादसे के सामान हो गया| चरैवेति संपादक के रूप में मेरी नियुक्ति भाजपाई होने के कारण नहीं, बल्कि संघ पृष्ठभूमि, पत्रकारीय योग्यता, वैचारिक निष्ठा और सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण हुई थी| आपके निर्णय से मेरा पूरा व्यक्तित्व सवालों के घेरे में आ गया| अब लोग सिर्फ मुझसे ही नहीं, बल्कि मेरे परिवार से भी सच्चाई जानना चाहते हैं| घर में, पड़ोस में और समाज में शुभचिंतक ताना दे रहे हैं - क्या मिला संपादक जी? आर्थिक नुकसान की भरपाई तो हो जायेगी, लेकिन मैं अपनी धूमिल हुई प्रतिष्ठा और सामाजिक छवि को कैसे पुनर्स्थापित करूं? आपने अपने निर्णय से संघ के एक स्वयंसेवक, एक पत्रकार और एक कार्यकर्ता को कटघरे में खड़ा कर दिया | चर्च आलेख विवाद के बाद कांग्रेस और ईसाई संगठनों ने जरूर संपादक के खिलाफ कार्यवाई की मांग की थी| क्या आपने कांग्रेस और ईसाई संगठनों की मांग के आधार पर यह कार्यवाई की? अपने बारे में विश्लेषण करने पर एक बात समझ में आई कि मैं किसी का आदमी नहीं बन पाया| यहाँ भी एक स्वयंसेवक की तरह काम करता रहा| राजनीतिक क्षेत्र में अराजनैतिक काम करने के लिए भी यह जरूरी है कि आप किसी के खास हों| मुझे बात देर से समझ आई, मैं पत्रकारिता कर रहा था और मैं जिनके बीच काम कर रहा था वे मेरे साथ राजनीति कर रहे थे| जो भी हो इस पूरे प्रकरण से झूठ जीतता हुआ दिखाई दे रहा है| क्योंकि लोगों को सच पता भी चल गया हो तो आपके माध्यम से उसे उजागर नहीं किया गया| सच और झूठ एक बराबर हो गया| जिसने गलती की उसे भी फांसी और जिसने गलती नहीं की उसे भी फांसी| कोई नया कार्यकर्ता कैसे किसी पर भरोसा करेगा? अगर भरोसा और सम्मान ही नहीं रहेगा तो कार्यकर्ता काम कैसे करेगा? बस ! मुझे एक ही बात कचोट रही है कि डा. हितेष वाजपेयी से किसी ने यह क्यों नहीं पूछा कि चार-पांच दिनों तक वे किसके इशारे पर अखबारों में बयानबाजी करते रहे? मेरे ऊपर कानूनी कार्यवाई करने की धौंस अखबारों में देते रहे! क्या एक संपादक को बदलने के लिए इतनी मशक्कत करनी पडती है? बस ! एक ही सवाल आपसे और श्री मेनन जी से है - जब पैसे डा. हितेष वाजपेयी ने खाए, अखबारों में बयान उसने दिए तो फिर मेरे साथ अन्याय क्यों हुआ? आपके निर्णय से तो डा. हितेष वाजपेयी सच्चे और मैं झूठा सिद्ध हुआ, क्या वाकई ऐसा ही है? कुछ पत्रकार यह कह रहे हैं कि आपने अपने राजनीतिक भविष्य के लिए श्री मेनन जी के एजेंडे को पूरा किया, क्या यह भी सच है? अंत में एक बात और - मैं चापलूसी, चाटुकारिता और प्रपंच करने में फेल हो गया| किसी का आदमी नहीं बन सका| अगर इसके कारण मेरी ऐसी विदाई हुई है तो मुझे बहुत खुशी है| भाजपा ही नहीं पूरे विचार परिवार से जुडने और बिछुडने वालों के लिए चरैवेति का यह प्रसंग एक मिसाल की तरह काम करेगा| मेरे बहाने एक अच्छा उदाहरण स्थापित हो गया | कोई भी नया व्यक्ति जब विचार परिवार से जुडने की सोचेगा तो उसे अपने साथ होने वाले छल, प्रपंच, धोखे और अपमान का अंदाजा जरूर होगा| मैं राजनैतिक व्यक्ति नहीं हूँ, एक स्वयंसेवक, कार्यकर्ता और पत्रकार के रूप में यह सब कुछ लिखा है| अगर कुछ अन्यथा हो तो उसे आप नजरंदाज कर देंगी, यही अपेक्षा है| मेरे पास अपनी बात रखने का यही एकमात्र उपाय बचा था, क्योंकि अन्य असफल कोशिशें मैं पहले ही कर चुका हूँ| भवदीय अनिल सौमित्र प्रतिलिपि, १. माननीय डा. मोहनराव भागवत, परमपूज्य सरसंघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ २. माननीय सुरेश भैया जी जोशी, सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ३. माननीय सुरेश सोनी, सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ४. समस्त केन्द्रीय, क्षेत्रीय और प्रांतीय पदाधिकारी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ५. माननीय श्री राजनाथ सिंह, अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी ६. माननीय श्री लालकृष्ण आडवाणी, वरिष्ठ नेता, भारतीय जनता पार्टी ७. माननीय श्री रामलाल, संगठन महामंत्री, भारतीय जनता पार्टी ८. समस्त केन्द्रीय पदाधिकारी, भारतीय जनता पार्टी ९. माननीय श्री शिवराज सिंह चौहान, मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश १०. माननीय श्री नरेन्द्र सिंह तोमर, अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी, मध्यप्रदेश ११. माननीय श्री अरविंद मेनन, संगठन महामंत्री, भारतीय जनता पार्टी, मध्यप्रदेश