मंगलवार, 18 नवंबर 2014

हिन्दू पुनर्जागरण के लिए हिन्दू कांग्रेस

अनिल सौमित्र
गत दिनों में हिन्दू और हिंदुत्व सर्वाधिक चर्चित शब्द रहा है l अधिकांशत: यह चर्चा प्रतिक्रियात्मक होती है l इसलिए हिन्दू और हिंदुत्व शब्द ज्यादातर विवादों में रहता है l नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जब से भाजपा की सरकार बनी है तब से इन शब्दों को एक नया सन्दर्भ मिल गया है l भारत में हालांकि हिन्दू के नाम पर अनेक संगठन हैं l हिन्दू महासभा से लेकर विश्व हिन्दू परिषद्, हिन्दू मुन्नानी, हिन्दू जागरण मंच, हिन्दू सेवक संघ जैसे न जाने कितने संगठन हिन्दुओं के नाम पर काम कर रहे हैं l लेकिन हिन्दुओं की स्थिति दुनिया में तो क्या स्वयं भारत में भी गर्व करने लायक नहीं है l अयोध्या आन्दोलन के दिनों में जरूर नारे लगते थे- गर्व से कहो हम हिन्दू हैं l लेकिन वक्त के साथ अयोध्या आन्दोलन भी नेपथ्य में चला गया और ये नारा भी मद्धिम पड़ गया l हिन्दू विरोधियों ने दुष्प्रचार और अपप्रचार के द्वारा हिन्दू शब्द को साम्प्रदायिकता का पर्यायवाची बना दिया l इस दृष्टि से एक बड़ा बौद्धिक धड़ा भी बैकफुट पर है l विरोधियों और प्रतिक्रियावादियों ने हिन्दू पदावली को फासीवाद, तानाशाही, कट्टर, पोंगा-पंथी, जड़, पुरातनपंथी, नाजीवादी, साम्प्रदायिक और कम्युनल जैसी धारणाओं से युक्त कर दिया है l यही कारण है कि सर्वथा आधुनिक, प्रगतिशील. देशभक्त और राष्ट्रवादी व्यक्ति भी अपने को हिन्दू कहने या कहलाने में हिचकता है l राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों की लाख कोशिशों के बावजूद यह हिचक कम तो हुई है, लेकिन अभी भी ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही l जब कभी संघ या कोई अन्य हिन्दू संगठन हिन्दू, हिंदुत्व या हिन्दूपन की बात करता है तो तत्काल नकारात्मक और निन्दात्मक चर्चा का केंद्र बन जाता है l हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के समय से ही यह दुहराता रहा है कि भारत, जिसे आर्यावर्त, भारतवर्ष, हिन्दुस्थान आदि कई नामों से पहचाना जाता है, एक हिन्दूराष्ट्र है l यहाँ के सभी नागरिक हिन्दू हैं l संघ के विचारक, चिन्तक और पदाधिकारी यह कहते रहे हैं कि अगर ब्रिटेन के नागरिकों को ब्रिटिश, अमेरिका के नागरिक को अमेरिकन और रूस के नागरिक को रसियन कहा जा सकता है तो फिर हिन्दुस्थान के नागरिकों को हिन्दू क्यों नहीं! आलोचक और विरोधी इसे संघ का संकीर्ण नजरिया आरोपित करते हैं l चाहे स्वामी विवेकानंद हों या महर्षि अरविंद, सावरकर हों या गुरू गोलवलकर, अशोक सिंहल हों या मोहनराव भागवत, हिन्दू के बारे में कही गई उनकी बातों पर हमेशा विवाद होता आया है l हालांकि संघ के भीतर ही कुछ लोग उदारता, लचीलेपन और समावेशी भाव के कारण संघ को सेक्युलर हो जाने का ताना मारते हैं l दरअसल हिन्दू के बारे में जब कभी चर्चा हुई तो उसके विरोधियों ने आक्रामक आलोचना ही की और इसे विवादित करने का हर संभव प्रयास किया l हर बार यह प्रयास तात्विक और सैद्धांतिक न होकर राजनीतिक ही रहा है l इसमें सदैव सात्विक और सार्थक बहस का अभाव रहा है l हिन्दू की बात हमेशा राजनीतिक दुराग्रहों की भेंट चढ़ता रहा है l हिन्दू की बहस को कोई शास्त्रीय या सैद्धान्तिक आधार मिल पाये इसके पहले ही मीडिया में उसकी बलि ले ली जाती है l इसमें दो राय नहीं है कि हिन्दू की परिभाषा, उसका सिद्धांत और उसकी अवधारणा आमजन के बीच ही नहीं, बल्कि बौद्धिक जगत और अकादमिक क्षेत्र में भी अस्पष्ट और दरकिनार है l ऐसी परिस्थितियों में दिल्ली में 21 से 23 नवम्बर तक विश्व हिन्दू कांग्रेस का आयोजन स्वयं में एक बड़ी घटना है l यह घटना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जब भारत में ही हिन्दू और हिंदुत्व स्वीकार्य नहीं है तो दुनिया में कैसे और किस बिना पर होगा! जब हिन्दू की जन्मस्थली भारत में ही हिन्दू पहचान गर्व का विषय नहीं बन सका है तो विश्व में कब और कैसे बनेगा? दुनिया में जब ईसाइयत और इस्लाम का परचम फहरा रहा है, तो हिन्दू ध्वजा लहराने की क्या संभावना है? क्या इसकी कोई संभावना है कि दुनियाभर में फैले हिन्दू संगठित हो सकें! भाषा, सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से अपना नेतृत्व स्थापित कर सकें! विश्व राजनीति, शिक्षा, व्यापार-वाणिज्य, संस्कृति, मीडिया और विधि-विधान के क्षेत्र में अपनी प्राचीन हिस्सेदारी प्राप्त कर सकें? यह विश्व हिन्दू कांग्रेस इन्हीं संभावनाओं, समस्याओं और चुनौतियों की तलाश करेगा l पर्दे के पीछे रहकर विश्व हिन्दू कांग्रेस की व्यूह रचना करने वाले स्वामी विज्ञानानन्द कहते हैं – विश्वभर में फैला हिन्दू आज मानवाधिकार हनन, नस्लभेद, सांस्कृतिक अपमान, उपेक्षा और भेद-भाव का शिकार है l स्वयं भारत का हिन्दू भी सांप्रदायिक आधार पर उपेक्षा, विषमता और भेद-भाव का शिकार होता रहा है l हम देश और दुनिया में हिन्दुओं का स्वर्णकाल वापस चाहते हैं l बीते दिनों में हम वैभवशाली और शक्तिसम्पन्न थे, आज हो सकते हैं और भविष्य में इसे बनाए रख सकते हैं l नवम्बर के दूसरे पखवाड़े में भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली में आयोजित होने वाले इस तीन दिवसीय ‘विश्व हिन्दू कांग्रेस’ में कुल सात आयामों पर विमर्श होगा l हिन्दू राजनीति, हिन्दू अर्थनीति, हिन्दू युवा, हिन्दू स्त्री, हिंदू शिक्षा, हिन्दू संगठन और हिन्दू मीडिया पर भिन्न-भिन्न फोरम पर चर्चा होगी l विश्व के कई देशों - इंगलैंड, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, और चीन सहित मलेशिया, श्रीलंका, बंगलादेश, भूटान, थाईलैंड आदि देशों के सैकड़ों प्रतिनिधि इस कांग्रेस में सम्मिलित हो रहे हैं l इस विश्व हिन्दू सम्मलेन में भारत सहित कई देशों की राजनीतिक, आर्थिक और मीडिया क्षेत्र की महत्वपूर्ण हस्तियाँ शामिल होंगी l जाहिर है यह सम्मलेन हिन्दू दृष्टियों पर वाद, विवाद और संवाद का साक्षी बनेगा l इस सम्मलेन के बारे में राजनयिकों और खुफिया संगठनों की स्वाभाविक जिज्ञासा होगी l कहने वाले कहने लगे हैं कि हिन्दुओं का आत्म-विश्वास मंद गति से ही सही लेकिन लौटने लगा है l वे हिंदुत्व के चिर-पुरातन और नित्य-नूतन सिद्धांत को पुन: वैश्विक धरातल देने की आशा से भर उठे हैं l दुनिया का विश्वगुरू, सिरमौर बनने की हिन्दू इच्छा जोर मारने लगी है l हिन्दू संस्कृति के वैविध्य और अनेकता में एकता के वैशिष्ट की पुनर्स्थापना की वे बाट जोह रहे हैं l हिन्दू गुण-दोष के आत्मावलोकन और हिन्दू इतिहास के पुनरावलोकन के प्रति आज का हिन्दू गंभीर होने लगा है l विश्व समस्याओं का हरण और विश्व को श्रेष्ठ बनाने की पहल करने को हिन्दू लालायित है l सदियों बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य ने हिंदूवादी करवट ली है l देश में भी और दुनिया में भी भारत के बारे सोच और नजरिया दोनों बदला-बदला दिखाई दे रहा है l संघ प्रमुख मोहनराव भागवत जब कहते हैं कि विश्व की समस्याएं अपने खात्मे के लिए भारत में आती हैं, तो वे संघ के स्वयंसेवकों को आसन्न चुनौतियों का इशारा करते हैं l फिर संघ की शाखाओं में गीत गूंजने लगता है- हिन्दू जगे तो विश्व जागेगा, मानव का विश्वास जागेगा l महर्षि अरविंद, राम कृष्ण परमहंस और विवेकानंद ने भारत के पुनर्जागरण की भविष्यवाणी की थी l भारत के पुनर्जागरण से उनका आशय हिन्दू जागरण से ही था! कमोबेश सभी ने इस जागरण की अवधि भी एक जैसी ही बताई है l तो क्या पुनरोदय की शुरुआत हो चुकी है? विश्व हिन्दू कांग्रेस इस पुनर्जागरण का उत्प्रेरक या घटक बनेगा? हिन्दू कांग्रेस के आयोजक भले ही इसे दुनियाभर के हिन्दुओं को अपनी समस्याओं और चुनौतियों को साझा करने का मंच उपलब्ध कराना कह रहे हों, लेकिन उनकी मंशा सिर्फ इतनी ही हो यह जरूरी नहीं! यह कवायद हिन्दू कांग्रेस के बहाने दुनियाभर के हिन्दुओं और हिन्दू संगठनों को लामबंद करने, दुनिया को एक नई व्यवस्था और एक नई दिशा देने का दुस्साहस भी हो सकता है l (लेखक पत्रकार और मीडिया एक्टिविस्ट हैं)

रविवार, 29 जून 2014

भगवा आतंक की तर्ज पर व्यापम जाँच

अनिल सौमित्र
व्यापम विवाद ने अनायास ही भगवा आतंक की याद ताजा कर दी है। दोनों मसलों में कुछ बातें समान दिखती हैं। दोनों प्रकरणों में जाँच से ज्यादा ‘मीडिया ट्रायल’ है। दोनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निशाने पर दिखता है। भगवा आतंक प्रकरण में श्री मोहन भागवत और श्री इन्द्रेश कुमार के बहाने संघ निशाने पर था, व्यापम में स्व. श्री सुदर्शन और श्री सुरेश सोनी के बहाने संघ टारगेट पर है। एक की जाँच एनआईए कर रहा है, जबकि दूसरे की एसटीएफ। दोनों मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं। लेकिन दोनों में कांग्रेस और मीडिया अमर्यादित रूप से सक्रिय है। कांग्रेस ने इन दोनों मामलों में जाँच व न्याय की प्रक्रिया और दिशा प्रभावित करने की बेजा कोशिश की है। संघ पर निशाना साधने वाला कोई और नहीं वही काँग्रेस है जो कभी केन्द्र की सत्ता में थी, लेकिन आज विपक्ष की हैसियत भी गवाँ चुकी है। चुनावी राजनीति में लुट-पिट गई कांग्रेस के पास राजनीतिक षड्यंत्र के सिवा कुछ भी नहीं बचा है। भगवा आतंक और व्यापम जाँच में कुछ असमानताएं भी हैं। वहाँ आतंक की घटनाएं थी, यहाँ भ्रष्टाचार है। एक की जाँच का आदेश केन्द्र की यूपीए सरकार ने दिया था, जबकि दूसरे की जाँच मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने दिया है। दोनों ही प्रकरण दुर्भावना और दुर्भाग्यवश ओछी राजनीति के शिकार हो गए हैं। आतंक और भ्रष्टाचार के दोषियों की पहचान और सजा कांग्रेस की षड्यंत्रकारी राजनीति के दुष्चक्र में उलझकर रह गईं। गौरतलब है कि भगवा आतंक की जाँच के दौरान भी भोपाल और मध्यप्रदेश, राजनीति, विवाद और मीडिया ट्रायल का केन्द्र बना था। मीडिया में और मीडिया के लिए काम करते हुए भी संघ मीडिया से परहेज करता रहा है। यही कारण है कि संघ के अनेक वरिष्ठ पदाधिकारी मीडिया के लिए अपरिचित हैं, अनजान हैं। यही कारण है कि संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी अनेक महत्वपूर्ण कार्यों से जुड़े होने के बाद भी शायद पहली बार मीडिया के समक्ष आए और अपना बयान दिया। जो उन्होंने कहा वह सिर्फ मीडिया और राजनीति के लिए ही नहीं समाज के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने छोटे से बयान में कई पहलुओं और सवालों का जिक्र किया है। सह-सरकार्यवाह के रूप में श्री सोनी आरएसएस और भाजपा के बीच लंबे समय से समन्वय व मार्गदर्शन का काम भी करते रहे हैं। इस दरमियान कांग्रेस ही नहीं, बल्कि भाजपा के भी कई नेताओं की महत्वाकांक्षाओं पर कुठाराघात हुआ होगा। यह अस्वाभाविक नहीं है कि आरएसएस और श्री सोनी, कांग्रेस और भाजपा के ही कई नेताओं की आँखों की किरकिरी बन गए। गत लोकसभा चुनाव में संघ ने जिस प्रकार जनजागरण के लिए योजना, रणनीति और क्रियान्वयन किया उसके परिणाम देश और दुनिया के सामने हैं। राजनीति के जानकार और समीक्षक भी यह मानते हैं कि भाजपानीत एनडीए की सरकार और श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में भाजपा से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका है। तब कांग्रेस का संघ से नाराज होना, क्रोधित होना, अपमान और कलंक के बीज बोना स्वाभाविक ही है। लेकिन संघ के इन प्रयासों से जिन भाजपा नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और कुटिल प्रयासों को धक्का पहुँचा, वे भी संघ का नुकसान पहुँचाने में निष्क्रिय रहें, यह भी अस्वाभाविक है। श्री सोनी का यह बयान कि व्यापम मामले में संघ के पूर्व सरसंघचालक स्व. श्री सुदर्शन और उनका नाम आना किसी बड़ी राजनीतिक साजिश का हिस्सा है। साजिश के सूत्रधारों के बारे में पूछने पर उन्होंने नाम ढूंढने का काम मीडिया के हवाले कर दिया। साजिश के सूत्रधारों का नाम बताना आवश्यक भी नहीं है, जबकि मीडिया का एक तबका स्वयं इस साजिश का हिस्सा हो। किसी प्रकरण की जाँच या न्याय से राजनीतिक साजिश का कोई संबंध नहीं होता। ऐसी साजिश से तो बस तात्कालिक परिणामों की अपेक्षा होती है। मीडिया इसमें एक उपकरण की तरह उपयोग कर लिया जाता है। मीडिया के सहारे साजिशकर्ता लक्षित व्यक्ति और संगठनों की छवि धूमिल करता है, जाँच की दिशा और निहितार्थ बदल देता है, आम जनता को भ्रमित कर देता है। चाहे संजय जोशी प्रकरण हो या तथाकथित भगवा आतंक अथवा व्यापम घोटाले की जाँच, सभी मामले राजनीतिक साजिश के तात्कालिक उद्देश्यों की भेंट चढ़ गए। संजय जोशी राजनीति के बियाबान में खो गये, भगवा आतंक के नाम पर असली आतंकी गुम हो गये, नकली पकड़े और प्रताडि़त किए गए, कहीं व्यापम घोटाले का भी यही हश्र ना हो जाए! वर्तमान संघ प्रमुख ने पूरे मामले में संघ की संलिप्तता नकारते हुए काननू को अपना काम करने देने की अपील की। संघ के प्रचारक और भाजपा के महासचिव रहे विचारक श्री गोविन्दाचार्य ने संघ और संघ पदाधिकारियों पर लग रहे आरोपों के पीछे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान का हाथ बताकर इस मामले को और तूल दे दिया है। बकौल गोविन्दाचार्य - श्री शिवराज सिंह चैहान खुद पर और परिवार पर लग रहे आरोपों से ध्यान बँटाना चाहते हैं। श्री सुरेश सोनी ने भी छह माह पुरानी एसटीएफ और अदालती कार्यवाई के बीच अचानक संघ के उपर लग रहे लांछन और आरोपों को राजनीतिक साजिश और षड्यंत्र कहा है। इस बीच पुलिस ने अधिकृत रूप से बयान जारी कर उपलब्ध दस्तावेजों और साक्ष्यों के हवाले से संघ या संघ के किसी पदाधिकारी की संलिप्तता को सिरे से खारिज कर दिया है। आरोपी मिहिर कुमार ने भी संघ पदाधिकारी के नाम उल्लेख करने संबंधी बयान को नकार दिया है। व्यापम घोटाला जाँच संबंधी पूरे मामले पर सरसरी निगाह डालते ही राजनीतिक साजिश और मीडिया ट्रायल की बू आती है। मीडिया में मिहिर कुमार को पूर्व सरसंघचालक स्व. श्री सुदर्शन की ‘सेवादार’ बताया गया है। संघ में सेवादार जैसा कोई पद नहीं होता। हां! निज सहायक जरूर होते हैं, लेकिन मिहिर कुमार निज सहायक कभी नहीं रहे। सेवादार का आशय अगर सेवा और सहयोग करने वाले से है तो ऐसे सैकड़ों स्वयंसेवक ‘सेवादार’ के रूप में श्री सुदर्शन जी के साथ रहे होंगे। यह बात किसी के भी गले नहीं उतरती कि श्री सुदर्शन जी ने किसी परीक्षार्थी को इतना विस्तार से बताया होगा कि परीक्षा में जितना सही उत्तर आता हो लिखना, बाकि छोड़ देना। श्री सुदर्शन जी से इतनी और ऐसी बात करने का साहस मिहिर जैसे कम उम्र के स्वयंसेवक तो क्या उनके परिवार के किसी सदस्य में भी नहीं होगी। श्री दिग्विजय सिंह, श्री कटारे या श्री मानक अग्रवाल जैसे नेता चाहें तो अपनी बयानबाजी से घृणा का पात्र भले ही बन जाएं, लेकिन संघ और स्व. श्री सुदर्शन के बारे में उनके बयानों पर कोई भरोसा नहीं करेगा। जहाँ तक एसटीएफ का सवाल है, आज नहीं तो कल उसे यह जवाब देना ही होगा कि जिस प्रकरण की जाँच वह उच्च न्यायालय की निगरानी में कर रहा है, उससे संबंधित दस्तावेज मीडिया को किसके इशारे पर कैसे उपलब्ध हुआ? क्या जाँच संबंधी तथ्यों और दस्तावेजों को उजागर करना, मीडिया ट्रायल करना न्यायालय की अवमानना के दायरे में नहीं आता? जब तक न्यायालय द्वारा दोष सिद्ध न हो जाए, सजा न हो जाए, जाँच एजेंसी का यह दायित्व नहीं है कि वह आरोपियों और साक्ष्यों को सुरक्षा प्रदान करे? मीडिया ट्रायल करना न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करना नहीं माना जाना चाहिए? सूत्रों के हवाले से प्रकाशित हो रही खबरों को एसटीएफ द्वारा नजरंदाज करना, जाँच से संबंधित चयनित तथ्यों को पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर मीडिया को उपलब्ध कराना राजनीतिक साजिश का हिस्सा ही माना जायेगा। ईमानदारी का अर्थ सिर्फ आर्थिक ईमानदारी नहीं होता। इसे व्यापक संदर्भों में देखा-परखा जाना चाहिए। एसटीएफ की ईमानदारी आर्थिक, नैतिक, कानून और नियमों की कसौटी पर भी परखा जायेगा। अभी तो एसटीएफ की जाँच प्रक्रिया पर भी अंगुली उठने लगी है। बहरहाल व्यापम घोटाले का मामला अब राजनैतिक रंग ले चुका है। जाँच प्रक्रिया न्याय पर सवाल उठने लगे हैं। प्रदेश में सरकार और संगठन पशोपेश में है। मामला जाँच एजेंसी और न्यायालय से परे राजनीतिक दलों और मीडिया के दायरे में जा चुका है। देशी भाषा में कहें तो रायता फैल चुका है। संघ पर आरोपों के छींटे नहीं धब्बे लगाने की कोशिश हुई है। भले ही थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन आरोपों के ये दाग-धब्बे धुल जायेंगे। लेकिन क्या संघ इन साजिश के सूत्रधारों, षड्यंत्रकारियों और कालिखबाजों को ऐसे ही भुला देगा, बिना सबक दिए? बस देखना यही है कि संघ अपने उपर लगे दाग-धब्बों को कितनी जल्दी सफाई कर पाता है, और दाग-धब्बे देने वालों की कब और कैसी धुलाई करता है। (लेखक मीडिया एक्टिविस्ट हैं)

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

मध्यप्रदेश में सेमीफायनल जैसा होगा फायनल !


दावेदारी और हकीकत की गुत्थी अनिल सौमित्र विधानसभा चुनाव वर्ष मतदान प्रतिशत लोकसभा चुनाव वर्ष मतदान प्रतिशत 2013 72.58 2009 69.8 2008 69.28 2004 48.09 2003 67.40 1999 54.88 1998 60.22 1998 61.74 1993 60.66 1996 54.06 देश में जितनी और जैसी राजनीतिक सरगर्मी है, मध्यप्रदेश में नहीं है। मध्यप्रदेश में विधानसभा का चुनाव जरूर आर-पार का था, लेकिन लोकसभा के लिए चुनावी माहौल वैसा नहीं है। भाजपा के लिए तब जैसा शिवराज लहर था, आज वैसा मोदी लहर दिखाई नहीं दे रहा। कांग्रेस कड़े मुकाबले का दावा जरूर कर रही है, लेकिन उसके नेता और कार्यकर्ता मनौवैज्ञानिक दबाव में हैं। विधानसभा की करारी हार से उनके लिए उबर पाना इतना आसान नहीं है। कांग्रेस के कई दिग्गज भाजपा के पाले में आ चुके हैं। कांग्रेसी नेताओं के पाला बदलने का जो सिलसिला विधानसभा में उपनेता प्रतिपक्ष चैधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी से शुरू हुआ था वह थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। विधानसभा चुनाव के दिनों में ही होशंगाबाद के कांग्रेसी सांसद राव उदय प्रताप ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। वे होशंगाबाद से भाजपा के उम्मीदवार हैं। कांग्रेस ने पूर्व प्रशासनिक अधिकारी डा. भागीरथ प्रसाद को भिंड से टिकट दिया। वे पिछले चुनाव में भी कांग्रेस के उम्मीदवार थे। लेकिन इस बार टिकट मिलने के एक दिन बाद ही वे भाजपा के सदस्य बन गये और आज वे भाजपा के उम्मीदवार हैं। कांग्रेस का नेतृत्व राजनीतिक सदमे से उबर पाता इसके पहले ही उसके एक और विधायक ने पार्टी छोड़ दी। कटनी से कांग्रेस के विधायक संजय पाठक अब भाजपा के नेता हो गये हैं। कांग्रेस में अविश्वास, परस्पर शंका और संदेह का माहौल है। कांग्रेस के दिग्गज हैरान हैं, परेशान हैं। कांग्रेस का कौन नेता पिछले दरवाजे से, कौन सामने के दरवाजे से और कौन खिड़की से भाजपा के दर पर चला जाएगा अनुमान लगाना कठिन है। अन्दर-बाहर चर्चा है- जैसे मछली पानी के बिना जीवित नहीं रह सकती वैसे ही कांग्रेसी सत्ता के बिना नहीं रह सकते। पिछली लोकसभा में मध्यप्रदेश से भाजपा के 16 कांग्रेस के 12 और बसपा का एक सांसद था । प्रदेश में सियासत का रंग हर दिन बदल रहा है। मध्यप्रदेश में सांसदों की दलगत सूची गडमड हो गई है। 16 वीं लोकसभा की सूची बहुत बदली हुई होगी। देश की 543 लोकसभा सीटों में 29 मध्यप्रदेश में हैं। नौ सीट आरक्षित है, जबकि 20 सामान्य। आरक्षित सीटों में अनुसूचित जाति के लिए 4 और अनुसूचित जनजाति के लिए 5 है। गत विधानसभा चुनाव में प्रदेश के कुल 4,64,47,767 मतदाताओं में से 72.58 प्रतिशत ने मतदान किया। ताजा आंकड़ों के अनुसार लोकसभा के लिए 4,75,56,564 मतदाता मतदान करेंगे। 15 वीं लोकसभा चुनाव के लिए मध्यप्रदेश में 3,83,90,101 मतदाता थे। पिछले चुनावों में मतदान का इतिहास यह बताता है कि लोकसभा चुनाव में विधानसभा की अपेक्षा मतदान प्रतिशत कम ही होता है। इस चुनाव में भले ही देशभर में कांग्रेस विरोधी हवा है। कांग्रेस समेत अन्य सभी दलों से भाजपा काफी आगे दिख रही है। वैसे ही जैसे भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी समेत अन्य घोषित-अघोषित उम्मीदवारों से काफी आगे दिख रहे हैं। लेकिन इतना तो तय है कि भाजपा का कांग्रेसमुक्त देश का नारा सफल नहीं होगा। मनमोहन के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की जगह भले ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार बन जाये, लेकिन कांग्रेस के गर्त में जाने का अंदेशा कम ही है। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में 29 सीटों के लिए तीन चरणों में मतदान होगा। बालाघाट, छिंदवाड़ा, होशंगाबाद, जबलपुर, मंडला, रीवा, सतना, शहडोल और सीधी में 10 अप्रैल को मतदान हो चुका है। 17 अप्रैल को होने वाला दूसरे चरण का मतदान दस लोकसभा क्षेत्र - भिंड, भोपाल, दमोह, गुना, ग्वालियर, खजुराहो, मुरैना, राजगढ़, सागर और टीकमगढ़ में होगा। इसी प्रकार तीसरे चरण में 24 अप्रैल को शेष बचे दस लोकसभा क्षेत्रों - बैतूल, देवास, धार, इंदौर, खंडवा, खरगोन और मंदसौर, रतलाम, उज्जैन, और विदिशामें होगा। अगर राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सीटों की बात की जाय तो प्रथम चरण में होने वाले मतदान में जहां छिंदवाड़ा में कांग्रेस के दिग्गज केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ के भविष्य का फैसला होना है, वहीं दूसरे चरण में दमोह से भाजपा के उम्मीदवार और पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल, ग्वालियर में मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर और गुना से केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर है। तीसरे चरण के लिए 24 अप्रैल को मतदान होगा। इस दिन इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन, खंडवा से मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरूण यादव, रतलाम से मध्यप्रदेश के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया और विदिशा से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज का राजनीतिक भविष्य एवीएम में कैद हो जायेगा। बहरहाल, चाहे चुनावी सर्वेक्षणों के आधार पर आंकलन करें या बीते चुनावी परिणामों के आधार पर निष्कर्ष निकालें, एक बात साफ है कि 16 मई को भाजपा लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। कांग्रेस दूसरे नंबर पर रहेगी। यही स्थिति मध्यप्रदेश में भी रहने वाला है। हालांकि भाजपा पर कमजोर उम्मीदवार देने का आरोप लग रहा है, लेकिन मतदान के वक्त मोदी लहर पर सवारी कर भाजपा 16 से अधिक सीटें जीतने कामयाब हो जायेगी यह भाजपा को भरोसा है। विधानसभा चुनाव में बसपा, सपा जैसे अन्य दलों को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल पाई। राजनीतिक विश्लेषक आम आदमी पार्टी को कोई खास तवज्जो नहीं दे रहे। आम आदमी पार्टी के उम्मदवारों में अधिकतर एनजीओ पृष्ठभूमि के ही हैं। मध्यप्रदेश में आम आदमी पार्टी जितना भी वोट प्राप्त करेगी उससे कांग्रेस का ही नुकसान होने की संभावना है। टिकट तय करने में देरी. कुछके सांसदों को टिकट काटना और कुछ सांसदों का क्षेत्र बदलना भाजपा के लिए नुकसानदेह हो सकता है। हालांकि इस बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खुलकर मैदान में होने का लाभ भाजपा को जरूर मिलेगा। संघ भले ही खुलकर किसी के पक्ष में प्रचार नहीं कर रहा है। लेकिन अधिकतम मतदान के लिए चलाये जा रहे अभियान का लाभ भी भाजपा उम्मीदवारों को ही मिलना है। स्थानीय भाजपा नेता मोदी फैक्टर के साथ ही शिवराज फैक्टर का भी हवाला दे रहे हैं। विधानसभा चुनाव में भाजपा के अव्वल प्रदर्शन से भाजपा कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हैं। विधानसभा चुनाव में प्राप्त मत और सीटों के आधार पर भाजपा 29 में से 20 से अधिक सीटें जीतने का दावा कर रही है। कांग्रेस कोई बड़ी दावेदारी तो नहीं कर रही है, लेकिन उसके नेता यह मानकर चल रहे हैं कि लोकसभा में उनका प्रदर्शन विधानसभा से बेहतर होगा। लेकिन बड़ा सवाल भाजपा के लिए है। क्या भाजपा सेमीफायनल की तरह फायनल में भी प्रदर्शन कर पायेगी, क्योंकि भाजपा को केन्द्र में सरकार बनाने के लिए एक-एक सांसद के लिए मशक्कत करनी पड़ेगी। मध्यप्रदेश से भाजपा नेतृत्व को काफी उम्मीदें हैं। हमारे देश की सरकारें इतने ही मतदान से बनती रही हैं चुनाव वर्ष मत प्रतिशत सरकार 1952 45.7 कांग्रेस 1957 55.42 कांग्रेस 1962 55.42 कांग्रेस 1967 61.33 कांग्रेस 1971 55.29 कांग्रेस 1977 60.49 जनता पार्टी 1980 56.92 कांग्रेस 1984 63.56 कांग्रेस 1989 61.95 राष्ट्रीय मोर्चा 1991 56.93 कांग्रेस 1996 57.94 एनडीए 1998 61.97 एनडीए 1999 59.99 एनडीए 2004 57.65 यूपीए 2009 56.97 यूपीए 2014 ? ?