बुधवार, 29 अक्टूबर 2008

आतंकवाद नहीं, सिर्फ मुद्दे से निजात की कोशिश

आतंकवाद नहीं, सिर्फ मुद्दे से निजात की कोशिश
साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी पर कई सवाल। क्या सचमुच हिंदुओं के सब्र का प्याला भर चुका। क्या रिटायर्ड फौजी भी आतंकवाद के तुष्टिकरण की नीति से खफा। पर इन दो सवालों से पहले एक मूल सवाल। सवाल पुलिस एफआईआर की विश्वसनीयता का। अदालत में आधे केस ठहरते ही नहीं। इमरजेंसी में इसी पुलिस ने कितने मनघढ़ंत केस बनाए। संघ के अधिकारियों पर भैंस चोरी तक के केस बने। बर्तन चोरी तक के केस बनाए गए। अपने पास ऐसे एक-आध नहीं। दर्जनों केसों के सबूत मौजूद। पुलिस आकाओं के इशारे पर काम करने में माहिर। सो पहला अंदेशा राजनीतिक दखल का। आखिर राजनीतिक दखल से ही अफजल की फांसी अब तक नहीं हुई। अगर यह केस राजनीतिक दखल से नहीं बना। तब भी एक तकनीकी सवाल बाकी। क्या मोटर साईकिल का चेसी नंबर ही प्रज्ञा को आतंकी साबित कर देगा? अगर ऐसा संभव। तो दिल्ली के जामा मस्जिद के पीछे जितनी चाहे चेसियां खरीद लो। मोटर साईकिलों की या कारों की भी। अपन को नहीं लगता। कोर्ट में इतना सबूत ही काफी होगा। दिल्ली के करोलबाग में सेकिंडहैंड मोटर साईकिलों का बाजार। हर रोज दर्जनों मोटर साईकिलों की खरीद-फरोख्त। आधे सिर्फ स्टांप पेपर पर बिक जाते हैं। रजिस्ट्री तक नहीं होती। रजिस्ट्री के मामले में कानून में ही सुराख। बेचने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं। रजिस्ट्री करवाना खरीदने वाले की जिम्मेदारी। अपन दो कारें बेच चुके। किसी की रजिस्ट्री करवाने नहीं गए। पर इससे गंभीर किस्सा स्कूटर का। अपन जब चंडीगढ़ में हुआ करते थे। तो अपन ने बजाज का चेतक स्कूटर खरीदा। दिल्ली में जब अपन ने कार ले ली। तो स्कूटर कई महीने गैराज में धूल फांकता रहा। इनकम टेक्स में अपने एक मित्र हुआ करते थे बीबी सिंह। उनने अपने दामाद को देने के लिए अपन से स्कूटर मांगा। तो अपन ने फौरन हां कर दी। खरीद-फरोख्त की बात ही नहीं थी। पर कुछ महीने बाद उनने लिफाफे में रखकर कुछ पैसे थमा दिए। पैसे स्कूटर की कीमत से ज्यादा थे। सो बातचीत की गुंजाइश नहीं बची। बीबी सिंह अब इस दुनिया में नहीं। उनके दामाद का अपन को अता-पता नहीं। कबाड़ में बिका हुआ स्कूटर किसी दिन अपन को आतंकी न बना दे। दुनियादारी में ऐसे सेकड़ों-हजारों किस्से मिलेंगे। कानूनदानों की नजर में प्रज्ञा का मोटर साईकिल सबूत नहीं। तो क्या पुलिस के पास कुछ और भी सबूत। अपन ने आईबी के एक अफसर से पूछा। तो वह बोला- ‘फिलहाल नहीं।’ अब सवाल पुलिस की एफआईआर का। कहीं आतंकवाद का मुद्दा खत्म करने की रणनीति तो नहीं? आतंकवाद की गंभीरता कम करने की साजिश तो नहीं? आखिर बीजेपी वाले कहने लगे थे- ‘हर मुसलमान आतंकी नहीं। पर पकड़ा गया हर आतंकी मुसलमान।’ इस आरोप की हवा निकालने की साजिश तो नहीं? कांग्रेस और यूपीए आतंकवाद का तुष्टिकरण करते पकड़े जा चुके। आतंकवाद के तुष्टिकरण से निजात पाने की कोशिश तो नहीं? सरकार जरा इस पर गंभीरता से सोच ले। हिंदुओं और मुसलमानों में खाई बढ़ा देगी यह साजिश। पर अगर यह सब नहीं। तो क्या सचमुच हिंदुओं के सब्र का प्याला भर चुका। क्या आतंकवादियों के हाथों जान गंवाने वाले फौजियों का शासन से भरोसा उठ चुका? अगर सचमुच प्रज्ञा ने बदला लेने की ठानी? अगर सचमुच रिटायर्ड फौजियों ने प्रज्ञा का साथ दिया? जैसा कि पुलिस की थ्योरी ने कहा। तो सचमुच देश की जनता का हुकमरानों से मोह भंग हो चुका। मोह भंग हो चुका- कि मौजूदा शासक आतंकवाद से निजात दिला सकते हैं। दीपावली पर सरकार को भी रोशनी मिले। तो मुद्दे से नहीं, आतंकवाद से निपटने की कोशिश शुरू हो।
Categories: आतंकवाद, इंडिया गेट से संजय उवाच

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

आतंकवाद से लड़ने के लिए मजबूत एवं ऐसी सरकार की जरूरत है जिसे न तो वोट बैंक की दरकार हो और न ही सत्ता में पुनर्वापसी की इच्छा .जो केवल देश एवं समाज के उथ्ह्हान के लिए काम करे. लेकिन यह एक स्वप्न है .और सपने शायद ही कभी सच होते हो .

Unknown ने कहा…

आपने कमेन्ट मोडरेशन लगाया हुआ है. मुझे याद आता है कि मैंने एक टिपण्णी लिखी थी आपकी पोस्ट पर.