सोमवार, 15 दिसंबर 2008

श्री बालकृष्ण शर्मा ‘‘नवीन’’ की संपादकीय टिप्पणियां ......

अनिल सौमित्र
कविवर और पत्रकार श्री बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के आलेखों और संपादकीय टिप्पणियों के बारे में कुछ भी कहने और लिखने की मेरी औकात नहीं है, उनके लिखे हुए पर आलोचनात्मक ही नहीं, प्रशंसात्मक दृष्टि रखने का भी साहस नहीं कर सकता। सही कहें, तो यह मेरी योग्यता और क्षमता से परे है। हां! मैं इतनी हिमाक़त ज़रूर कर सकता हूं कि श्री ‘‘नवीन’’ जी की लिखी रचनाओं, अग्रलेखों और संपादकीय टिप्पणियों से मेरी जो समझ बनी है, उसे आपके साथ बांटने की कोशिश करूं। सही मायने में तो यह कार्यक्रम भी पत्रकारिता के बारे में और विशेषकर श्री नवीन जी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व के बारे में स्वयं मुझे समृद्ध करने का एक निमित्त बना है। मेरे लिए यह सौभाग्य का विषय है, इस सौभाग्य के लिए आयोजकों के प्रति अनुग्रह भाव व्यक्त करता हूं। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उनका व्यक्तित्व कई अर्थों में अनोखा और असाधारण रहा। दरअसल उनके व्यक्तित्व का एक संश्लिष्ट प्रभाव था, जिसमें सर्जक, पत्रकार, विचारक, राजनीतिज्ञ और इतिहासकार सभी समाहित थे। इन सबके साथ, बल्कि इन सबके उपर, वे एक बेहद संवेदनशील मनुष्य थे। मैं यहां उनके पत्रकारिता कर्म के बारे में अपनी समझ का उल्लेख करूंगा। समाज, साहित्य और परहित में अतिशय तल्लीनता और अपने प्रति नितांत निस्संगता के कारण, उन्होंने रचनाओं के संकलन-प्रकाशन की चिन्ता कभी नहीं की थी। उनकी कविताओं के संग्रह तो उनके जीवन काल में प्रकाशित हुए, दो संग्रह - ‘‘प्राणार्पण’’ एवं ‘‘हम विषपायी जनम के’’ उनकी मृत्यु के बाद छपे। लेकिन उनका सबसे अधिक सार्थक और प्रभावी लेखन, उनका गद्य साहित्य, जो लेखों, निबंधों, संस्मरणों, भाषणों और संपादकीय टिप्पणियों के रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है, संपूर्ण रूप में एक जगह संकलित नहीं हो सका। जो कुछ भी उपलब्ध साहित्य है, उसके अध्ययन से कई महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक तथ्य उजागर होते हैं । ये तथ्य और विचार, भले ही तत्कालीन संदर्भों के मद्देनज़र लिखे गए हों, लेकिन उनका महत्व आज के संदर्भों में अधिक समीचीन दिखता है। श्री नवीन जी का लेखन भविष्य को परिलक्षित करने वाला वर्तमान था। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन की टिप्पणियों में अंबेडकर, राजगोपालाचारी, महात्मा गांधी, पं। जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, पुरूषोत्तमदास टंडन, सरदार पटेल, संपूर्णानंद, रफी मोहम्मद, कमला नेहरू आदि पर संस्मरणात्मक टिप्पणियां और लेख हैं। राष्ट्रीय आंदोलन, मजदूर संगठन, साम्यवादी दल और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गंभीरतापूर्वक मूल्यांकन है। दुनिया में होने वाले बदलावों और भारत पर उसके प्रभावों, युद्ध और क्रांतियों आदि के बारे में उनकी संपादकीय टिप्पणियों ने न सिर्फ पाठकों को, बल्कि आमजन को उद्वेलित किया। उनके लेखों में साहित्य की विभिन्न विधाओं, मंजिलों और धाराओं के साथ ही आंदोलनों, वादों और बहसों से परिचय होता है। उन्होंने स्थानीय और वैश्विक, सभी मुद्दों को राष्ट्रीय दृष्टि से देखने की कोशिश की। रूस के व्यापक समर्थन के साथ-साथ अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इटली, ग्रेट ब्रिटेन से सम्बद्ध समझौतों और विरोधों पर भी उन्होंने बेबाक टिप्पणियां की हैं। ‘प्रताप’ और ‘प्रभा’ के संपादकीय लेखों और स्तंभों में राष्ट्र के लिए अंग्रेजों के खिलाफ ललकार और हिन्दू-मुस्लिम एकता के बारे में दूरगामी दृष्टि दिखती है।

वस्तुतः नवीन जी के लेखन को समझने के लिए हमें तत्कालीन देश, काल और परिस्थितियों के संदर्भ में भी विचार करना होगा। हमें उस वातावरण के बारे में भी विचार करना होगा जिसमें श्री नवीन जी की पत्रकारिता को संस्कार प्राप्त हुआ। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन जी का जन्म वैसे तो मध्यप्रदेश में हुआ, लेकिन उनकी कर्मभूमि उत्तरप्रदेश और वियोग भूमि दिल्ली रही। उनकी प्रारंभिक शिक्षा यहीं शाजापुर में हुई, लेकिन पत्रकारिता की दीक्षा उन्हें अमर शहीद गणेश शंकर विद्याथी जी से मिली। श्री विद्यार्थी जी के समस्त संस्कार और क्रांति की भावना, नवीन जी में अवतीर्ण हो गई। 1916 में वे श्री विद्यार्थी जी के संपर्क में आए। 1917 में उनका संपर्क ‘‘प्रताप’’ के साथ आया। यह संबंघ निरन्तर प्रगाढ़ होता गया और मृत्युपर्यन्त बना रहा। वे अल्हड़, किन्तु संवेदनशील और आक्रामक स्वभाव के थे। श्री नवीन के सहयोगी श्री पालीवाल ने लिखा है कि ‘‘ 1920 तक जिस बालकृष्ण शर्मा नवीन की ओर से हम पत्रकारिता की दृष्टि से निराश थे, वही बालकृष्ण परम प्रसिद्ध पत्रकार हो गया। उसके लेखों की धाक थी। अंग्रेजी के अच्छे-अच्छे दैनिक पत्रों में भी बालकृष्ण के लेखों की चर्चा होती थी।’’ उनके लेखन को अगर वर्तमान देश-काल के संदर्भ में देखने की कोशिश करें तो कई खतरनाक सच उजागर होते हैं। भारत में मुस्लिम समस्या को उन्होंने सांप्रदायिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखा। इस विषय पर समाज का उद्बोधन किया। देश पर मुस्लिम आक्रमण के प्रारंभ से मुगल काल, खिलाफत आंदोलन, देश विभाजन, घुसपैठ, आतंकवाद और अल्पसंख्यकवाद की विषबेल को देखें तो वर्षों पहले उनके लिखे और कहे का मोल समझ में आता है। ‘प्रताप’ के 17 सितंबर, 1923 के अंक में ‘‘मंा तेरे बच्चे!’’ शीर्षक से उन्होनें अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा - ...... हां मां ! तेरे मुसलमान बच्चे पागल हो जाते हैं। वे अपने-पराये को भूल जाते हैं। वे नहीं जानते कि मां की छाती पर मूंग दलने से नाश हो जाता है। वे अपने-पराये को भूल जाते हैं। बात-बात में अपने संकुचित धर्मभाव को ले आते हैं, इस्लाम धर्म की पवित्रता सारे संसार की आंखों में गिरा देने में वे तनिक भी नहीं हिचकते हैं। मां, उनके जीवन के अन्य आचरण और उनके धर्माचरण में कितना अंतर है। वे धर्म को भूल गए हैं। हां, वे दिन में छह बार ‘अश्शहत बन लाइलाह इल्लिल्लाह’ की प्रेमपूर्ण ध्वनि करते हैं। दिन में कई बार - ईश्वर एक ही है, की वे शहादत देते हैं। परन्तु मां, बतला तो यह कौन-सा ईश्वर विश्वास है, जो उन्हें जरा-सी बात पर पशु बना देता है और जरा-सी बात पर वे जघन्य कांड करने में नहीं हिचकते हैं।’ अपने लेखन की तीव्रता तथा तीक्ष्णता के कारण ही, सन् 1931-32 में उन्होंने, मुस्लिम लीग के बारे में ‘‘प्रताप’’ में लिखा - ‘गंुडागिरी रोकने में यह नपुंसकता कैसी?’ इस संपादकीय अग्रलेख ने उत्तरप्रदेश सहित समूचे देश में हडकंप मचा दिया था। इस लंबे अग्रलेख के कुछ अंशों का यहां उल्लेख कर रहा हूं - ‘‘हम वह उंट हैं जिसकी पीठ पर बेतहाशा बजनी लाद दी गई है और हमने आज तक किसी प्रकार की चूं-चा नहीं की। हम बलबलाए नहीं। नकेल नहीं तुडाई, दुम नहीं हिलायी। चुपचाप रहे। लेकिन अब ता. 14 अप्रैल के लखनउ एसेम्बली भवन वाले वाकयात ने हमारे ऐसे ऐबदार की भी कमर तोड़ दी है और हम आज चीखने और चिल्लाने पर मजबूर हो गए हैं। आखिर कमजोर और ढिल्लड़पन की कोई हद भी होती है? शुरू से लेकर आज तक इस सूबे में फिरकेवाराना फसादात और पुलिस के सिर्फ एक तबके की खुल्लम-खुल्ला फिरकापरस्ती और हाल ही की हरकतों को रोकने या संभालने में हमारी कांग्रेस सरकार ने निहायत बुजदिली और बेबसी से काम लिया है। महीनों की ढील-ढाल और तूलतबील कार्यशैली ने गुंडापन को उभारा है। लोग शेर हो गए हैं। अब गुंडे खुल्लम-खुल्ला कहते हैं कि कोई हमारा क्या कर लेगा? और वे ठीक कहते हैं। किसी ने उनका क्या कर लिया? उन्होंने जो मन में आया, किया। एक मर्तबा वे पहले, शायद गुजिश्ता मार्च में एसेम्बली भवन में घुस गए, वहां उन्होंने मनमाने नारे लगाए और चलते बने। वे मूंछों पर ताव देते हैं कि किसी ने हमारा क्या कर लिया? 24 तारीख को वे फिर एसेम्बली में घुस आए। सरकारी कागजा़त फाड़े, फाइलों पर हाथ साफ़ किए, एसेम्बली सभा भवन में प्रधानमंत्री की लू-लू बोली, मेज कुर्सियां तोड़ी, और तब हटे जब नवाब इस्माइल ने उनसे चले जाने को कहा। हमारी सरकार बड़ी भली है, उदार है। बड़ी दूरन्देश है। बहुत फंूक-फूंककर क़दम उठाती है - क्या कहने हैं? लानत है इस भोलेपन और इस दूरन्देशी पर। क्या पचास-साठ या सौ-सवा सौ गुंडे गिरफ्तार नहीं किए जा सकते थे? सुना है कि जिस वक्त एसेम्बली भवन में यह उत्पात हो रहा था उस वक्त आला सरकारी अफसर ने कहा कि गुंडों पर गोली चला देनी चाहिए। लेकिन नहीं। भलमनसाहत का प्रदर्शन किया गया। नतीजा यह है कि उत्पाती लोग आज लखनउ की गलियों और बाजा़रों तक में सीना उभारे घूम रहे हैं। और अपनी दिलेरी का परवान अकड़-अकड़कर कर रहे हैं।’’ श्री नवीन की तल्ख टिप्पणियों में एक और है - खिलाफत आंदोलन से संबंधित। ‘प्रभा’ के 1 अप्रैल, 1924 के अंक में बालकृष्ण शर्मा नवीन ने लिखा कि ‘गत मास अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सबसे महत्वपूर्ण घटना खिलाफत का उन्मूलन है। खिलाफत का उन्मूलन और वह भी टर्की की ग्रांड नेशनल एसेम्बली द्वारा यह ऐसी घटना है, जिसका महत्व और जिसका गुरूत्व हम और समझने की कोशिश कर सकते हैं। ... कहने को तो कहा जा सकता है कि खलीफा अखिल मुस्लिम समाज को ऐक्य सूत्र में बांधे रख सकते हैं, पर क्या यह बात ठीक है? .... यदि खिलाफत का सारा का सारा इतिहास इस तरह की मार-काट से भरा हुआ है तो ऐतिहासिक दृष्टि से यह कैसे कहा जा सकता है कि खिलाफत की संस्था ऐक्य स्थापना की पहली सीढ़ी है। धार्मिक कारणों की छानबीन करने का अधिकार हमें प्राप्त नहीं, क्योंकि मुस्लिम धर्म भावना के औचित्य-अनौचित्य का विचार करना हमारे लिए अनाधिकार चेष्टा होगी। हम तो केवल बौद्धिक कारणों पर विचार कर सकते हैं।’ नवीन जी के सम्पादकीय अग्रलेख खासे लम्बे होते थे। निश्चित रूप से अग्रलेख पाठकों द्वारा पढ़े जाते थे। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि तब पत्रों में समाचारों की संख्या आज की तुलना में काफी कम हुआ करती थी। लोगों को पढ़ने के लिए समाचार कम, किन्तु विचारों की अधिकता होती थी। इसलिए अग्रलेख और संपादकीय टिप्पणियों को गंभीरता के साथ पढ़ा जाता था। भाव-प्रवणता और तीक्ष्णता ही, नवीन जी की संपादकीय टिप्पणियों की जान थी। तत्कालीन सामाजिक, राजनीति, आर्थिक व अन्य विषयों पर तत्काल और लगातार टिप्पणियों के कारण पाठक नवीन जी के लेखों की प्रतीक्षा करता, उनके विचारों का विश्लेषण और उसपर विमर्श किया जाता, यही एक लेखक, पत्रकार और संपादक के प्रयासों की सार्थकता थी। ‘प्रताप’ के 24 सितंबर, 1924 के अंक में श्री नवीन लिखते हैं - देश का राजनीतिक जीवन शिथिल-सा हो गया था और दलबंदियों की कृपा से हमलोगों ने एक-दूसरे के उपर आक्षेप करने में ही अपनी इति-कर्तव्यता समझ रखी थी। ..... अब यदि नेताओं के सामने किसी महान् समिति की आज्ञा न होगी तो वे देश को अपनी-अपनी दिशा में खींचते रहेंगे। उन्होंने लिखा कि ‘हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य की दृष्टि से बैठक काफी महत्वपूर्ण थी। ‘महात्मा जी और मजदूर’ शीर्षक से प्रभा के 1 अप्रैल, 1924 के अंक में श्री नवीन जी ने लिखा - ...क्योंकि भारत को तो अपने ही पांवों के बल खड़ा होना है। यदि भारतवर्ष पूरा बलवान और स्वावलंबी हो जाए तो फिर ब्रिटिश मंत्रिमंडल चाहे किसी पक्ष का क्यों न हो, वह झुके बिना नहीं रह सकता।

तत्कालीन राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां ऐसी थी कि उन्होनें, श्री नवीन जी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। श्री नवीन जी ने भी अपनी लेखनी से जनता और सरकारों का ध्यान देशी और विदेशी समस्याओं की ओर आकर्षित किया। यह वह समय था जब प्रथम विश्व युद्ध से निकल कर दुनिया के महत्वपूर्ण देश, दूसरे विश्व युद्ध की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। ब्रिटेन समेत अनेक बड़े देश दो समूहों में बंट गए थे। दुनिया में मुस्लिम आंदोलन भी जोरों पर था। एक तरफ सामाजिक आंदोलनों को गति मिल रही थी, वहीं अंग्रेजी सत्ता की मुखालफत भी तेज हो गई थी। अंग्रेज विरोधी संघर्ष पर खिलाफत आंदोलन का भी काफी असर होने लगा था। अपने देश में भी समाज को संगठित करने, विशेषरूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात जोर-शोर से उठाई जा रही थी। भारत में हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के बारे में श्री नवीन जी ने लिखा कि ‘दुश्मनों के घर में घी के दीये जलते हैं, जब हम लोग आपस में लड़ते हैं।’ प्रताप के 17 सितंबर के अंक में उन्होंने ‘हिन्दू संगठन या संगठन’ शीर्षक से लिखा - देहली में हिन्दू-मुस्लिम नेताओं की एक सभा में हिन्दू संगठन और श्ुाद्धि के प्रश्नों पर विचार किया गया। संगठन के विषय में हिन्दू नेताओं ने राष्ट्रीयता के नाम पर संगठन में हिन्दू और मुस्लिम दोनेां को एकत्रित करने का विचार किया है। हिन्दू संगठन के पक्षपातियों का सबका यह कर्तव्य है कि हम ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करें जिससे यह हिन्दू संगठन, संगठन का एक साधन हो जाए। दुनिया के अन्य देशों में जातीय, भाषायी और राष्ट्रीय एकसूत्रता का उदाहरण देकर, उन्होंने बार-बार कोशिश की कि अपने देश भारत में भी सब एक होकर नवयुग की शुरुआत करें। ‘प्रभा’ में उन्होंने ‘‘मिस्र में नवयुग’’ शीर्षक से लिखा - ....हे प्राचीन मिस्र देश, तुम्हारी प्राचीन सभ्यता से भी जिस देश की सभ्यता प्राचीनतर है, वह देश आज परतंत्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। तुम प्रसन्न रहो और एकता के आदर्शों से प्रार्थना करो कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्रों ने क्रिश्चियन, मुसलमान और यहूदी के भेद-भाव को भूलकर तुम्हारी अर्चना की है उसी प्रकार वृद्ध भारतवर्ष के पुत्र हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, पारसी, क्रिश्चियन और यहूदी के भेद-भाव को भूलकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तन-मन से तत्पर हो जायें। नवीन जी के इन आह्वानों में विश्व स्थिति की गंभीर विवेचना और भारतीय स्थिति का तथ्यपूर्ण विश्लेषण संदर्भ की तरह है। वे अपने देश के लिए भी सुधारों और क्रांति की अपेक्षा करते थे, इस निमित्त वे सतत प्रयत्नशील और क्रियाशील रहे। एक तरफ भारत में अंग्रेजी सत्ता अपने को बचाए रखने या सुरक्षित अपने वतन वापस जाने की जद्दोजहद कर रही थी, वहीं दुनिया में भी लगातार नए-नए समीकरण बन रहे थे। छोटी-बड़ी घटनाएं देशों की परराष्ट्र नीतियों और संबंधों को प्रभावित कर रहा था। इस समय भी नवीन जी ने अपने पत्रकारीय धर्म का बखूबी निर्वाह किया। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर भी खूब लिखा। तिब्बत को लेकर इंगलैंड के रवैये और उसकी नीति का अत्यन्त रोचक व मार्मिक वर्णन किया है। इटली और रूस के बारे में उन्होंने लिखा - अभी तक फ्रांस, रूस को स्वीकार करने में आनाकानी कर रहा है। इसका कारण यह है कि जारकालीन रूस ने फ्रांस से कई अरब रूपया उधार लिया था। सोवियत सरकार जार के कुकर्मों का उत्तरदायित्व अपने उपर लेने को तैयार नहीं। श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन ने अपने संपादकीय टिप्पणियों में जहां एक ओर निर्भिकता और बेबाकपन का परिचय दिया है, वहीं उनमें गहरी समझ और संतुलन भी देखने को मिलता है। इनके अग्रलेखों में साम्राज्यवादी शक्तियों के गठजोड़ और आर्थिक शोषण की निंदा भी है। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की स्थितियों पर पैनी नज़र से मूल्यांकन भी दिखता है। हांलाकि वे कई बार पक्ष लेते हुए भी दिखते हैं। उनके आलेखों से रूसी क्रांति के प्रति उनकी निष्ठा व्यक्त होती है। ट्राटस्की की तुलना में स्टालिन का समर्थन करते हुए वे आध्यात्मिकता और मानवीयता का पक्ष लेते हुए दिखते हैं। उनके लेखन में महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन और डांगे पर चलाये गए बोल्शेविक मुकदमें पर तल्ख टिप्पणियां हैं, साम्राज्यवादियों और महात्मा गांधी के समझौते पर विचार हैं, मजदूर आंदोलनों और अछूत आंदोलनों पर महत्वपूर्ण सामग्री पाठकों को मिलती है। ‘प्रताप’ के संपादकीय विभाग में श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के पश्चात् नवीन जी का ही स्थान था। श्री गणेश जी के निधन के बाद वे प्रताप के मुद्रक और संपादक दोनों बन गए। नवीन जी को जिन वरिष्ठों का सानिध्य मिला, उनका प्रभाव उनके व्यक्तित्व और पत्रकारिता पर भी पड़ा। सर्वाधिक प्रभाव श्री विद्यार्थी जी का ही था। यद्यपि विद्यार्थी जी की पत्रकारिता के आदर्श तथा सिद्धान्त और संपादकीय लेखन पद्धति को नवीन जी ने अपने में उतार लिया था, लेकिन भाषा के आधार पर दोनों में अंतर स्पष्ट था। श्री विद्यार्थी जी की भाषा ‘जनभाषा’ थी, लेकिन नवीन जी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का उपयोग करते थे। भाषा को लेकर वे गांधी जी से भी मतभेद रखते थे। हां, नवीन जी की पत्रकारिता पर उनके कवित्व और साहित्यकार का भी काफी प्रभाव रहा। श्री नवीन जी का लेखन किसानों की पीड़ा व्यक्त करता था, नवजवानों की आवाज बनता और उन्हें आवाज देता था। उनका लेखन, आम जनता को उठाने और अहंकारियों को नीचा दिखाने का प्रयत्न था। उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक बार पाखंडियों की पोल खोली और त्रस्त और पीड़ितों को अभयदान दिया। वे सिर्फ घटनाओं का विवरण नहीं देते थे, बल्कि घटनाओं और तथ्यों के सटीक और व्यापक विश्लेषण, उनकी विशेषता थी। इन विशेषताओं के कारण ही वे पाठकों को झंकृत कर पाते थे। श्री नवीन जी की देशसेवा, पत्रकारिता के लिए एक गौरवपूर्ण मिशाल है। पत्रकारिता, उनका लक्ष्य नहीं, बल्कि राष्ट्रसेवा का एक माध्यम था। इस माध्यम को उन्होनें आमजन के हितार्थ जीवनपर्यन्त उपयोग किया। आमजन को साहस और पहल के लिए प्रेरित किया। सज्जन शक्ति को संगठित होने की शक्ति दी। नवीन जी के लेखन ने देश में तत्कालीन बौद्धिक, रचनात्मक और आंदोलनात्मक गतिविधियों को बल प्रदान किया। हम अगर वर्तमान संदर्भों में नवीन जी के लेखन, उनके संपादकीय टिप्पणियों और अग्रलेखों को देखें तो परिस्थतियों का जायजा भी मिलेगा और समाधान के रास्ते भी दिखेंगे। समाज और पत्रकारिता, नवीन जी के जमाने से काफी आगे निकल चुकी है। लेकिन दोनों दिशाभ्रम की स्थिति में प्रतीत हो रहे हैं। श्री नवीन का लेखन आज भी प्रासंगिक है, तब की छोटी दिखने वाली समस्या आज बडे रूप में हमारे सामने खड़ी है। हमें आज की पत्रकारिता में भी बालकृष्ण की खोज करनी है, बालकृष्ण का नवीन रूप, अखबारों और पत्रिकाओं में भी दिखे यह वक्त का तकाजा है।

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

एचआई.वी./एड्स को मुख्यधारा में लाने की जरूरत क्यों?-

डा. परशुराम तिवारी

एच.आई.वी./एड्स वर्तमान समय की सबसे चिंतनीय स्वास्थ्य एवं सामाजिक समस्याओं में से एक है। लगभग ढाई दशक पहले दुनिया को इस समस्या का पता चला था। निरंतर हस्तक्षेपों के बाद अब तक विश्व भर में लगभग 33.2 मिलियन अर्थात् 33 करोड़ 20 लाख से अधिक एच.आई.वी./एड्स संक्रमित एवं बीमार व्यक्तियों की पहचान हो चुकी है। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इनमें से लगभग 30 करोड़ व्यक्ति युवा आयु समूह (15 से 49 वर्ष) के हैं। इनमें से भी लगभग आधी आबादी महिलाओं की है। वर्तमान में अकेले भारत में ही लगभग 25 लाख एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्ति जीवन जी रहे हैं। म.प्र. में अब तक लगभग 2780 एड्स रोगियों की पहचान हो चुकी है। इनका पंजीयन जिलों में स्थित एकीकृत जांच एवं परामर्ष केन्द्रों पर है। आशंका है कि इससे कहीं अधिक एड्स रोगी और एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्ति प्रदेश में हो सकते हैं। इनका पंजीयन जिलों में स्थित एकीकृत जांच एवं परामर्ष केन्द्रों पर है। यहां यह भी गौरतलब है कि तमाम प्रयासों के बावजूद अब तक इस गंभीर बीमारी के उपचार की कोई दवा नहीं खोजी जा सकी हैे अरबो रूपये प्रति वर्ष खर्च करने के बावजूद आखिर क्यों एच.आई.वी./एड्स पर नियंत्रण नहीं पाया जा सका है? इस यक्ष प्रश्न का उत्तर पाने से पहले हमें इसके विभिन्न पहलुओं पर मंथन करना होगा। अव्वल तो ये कि जनमानस में (और पढ़े-लिखे वर्ग में भी) एच.आई.वी./एड्स को लेकर कुछ-कुछ उसी तरह की गलत धारणायें या भ्रांतियाॅ हैं जो प्रायः कुष्ठ अथवा तपेदिक (टी.बी.) जैसे रोगों के बारे में रही है। यही कारण है कि एच.आई.वी./एड्स के बचाव व उपचार का कार्य सफल नहीं हुआ। एच.आई.वी./एड्स का मुद्दा शर्म और भेदभाव से जुड़ा है जिसका परोक्ष असर मानव संसाधनों, उत्पादन व विकास पर पड़ता है। लोकलाज के भय से लोग भ्प्ट की जाॅच करवाने से भागते हैं, इसके बारे में बोलने से कतराते हैं। संक्रमित व्यक्ति देखभाल के लिए नहीं जाते और निवारक उपाय करने से कतराते हैं। काउंसलिंग और जांच करवाने का सुझाव देने के बाद भी लोग यह नहीं जानना चाहते कि वे भ्प्ट से संक्रमित हैं और उनका यह संक्रमण दूसरों में भी फैल सकता है। समन्वित प्रयासों के अभाव में ऐसे लोग दबे-छुपे हैं और उपलब्ध सेवाओं का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। फलस्वरूप वे असमय ही मौत के शिकार हो रहे हैं। यह हालात बदलना होंगे ताकि प्रदेश को देश के अधिक प्रभावित राज्यों - तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश अथवा महाराष्ट्र जैसे राज्यों में फैले संक्रमण की श्रेणी में जाने से रोका जा सके। जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों और योजनाओं में इस मुद्दे पर पूर्व में गंभीरता से कार्य न होना, मानव विकास सूचकांकों की बहेतरी के लिये कार्य करने वाले विभागों, संस्थाओं अथवा उपक्रमों की इस कार्यक्रम में भागीदारी न होना, उद्योग जगत और सामाजिक एवं गैर सरकारी संस्थाओं, आध्यात्मिक एवं धार्मिक समूहों की व्यापक भागीदारी न होना भी एच.आई.वी./एड्स पर नियंत्रण न होने के प्रमुख कारण रहे हैं। विगत दो-ढाई दशक के अनुभवों से सबक लेते हुये दुनिया के देशो ने एच.आई.वी./एड्स के खिलाफ लड़ने, इसे नियंत्रित करने एवं सफलता हासिल करने के लिये और अधिक सघन एवं प्रभावी रणनीति बनाई है। इस दिशा में पहला कदम है- सहस्त्राब्दि विकास के 8 लक्ष्यों में एच.आई.वी./एड्स के खिलाफ लड़ाई को भी शामिल किया जाना। दुनिया के 150 स्वतंत्र और सम्प्रभु राष्ट्रों की तरह भारत ने भी इन विकास लक्ष्यों को हासिल करने का संकल्प व्यक्त किया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन कार्यरत राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) ने 2007 से 2012 तक चलने वाले तृतीय चरण के अंतर्गत अन्य गतिविधियों के साथ एच.आई.वी./एड्स को मुख्यधारा में लाने की कार्य योजना भी बनाई गई है। इसके तहत एच.आई.वी./एड्स के मुद्दे को शासकीय विभागों, उपक्रमों संस्थानों, उद्योग जगत, गैर सरकारी संस्थानों और समूहों में ले जाने एवं उनकी सहमति से उनके कार्यस्थल में लागू करना शामिल है। इस तरह के हस्तक्षेप से बढ़े पैमाने पर अलग-थलग पड़ी संगठित व असंगठित आबादी को समस्या की गंभीरता के प्रति जागरूक कर उनकी सोच और व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकेगा। साथ ही इन विभागों और संस्थाओं के कार्यस्थलों में एच.आई.वी./एड्स के प्रति सरोकार की नीति भी बन सकेगी।क्या होगा मुख्यधारा में? - चॅूकि एच.आई.वी./एड्स व्यवसाय का भी मुद्दा है, अतः विकास के क्षेत्र में काम करने वाले विभागों/संस्थानों के नीति निर्माण, प्रबंधन, उत्पादन अथवा क्रियान्वयन कार्य में संलग्न लोगों को उनके दैनिक काम काज के साथ ही थोड़ा सा वक्त निकालकर विषय पर जानकारी दी जायेगी। इस प्रक्रिया में संस्थान के उच्च, मध्यम व निचली पंक्ति के विशेषकर प्रचार-प्रसार, शिक्षण -प्रशिक्षण, मानव संसाधन विकास, जन संपर्क, मीडिया प्रबंधन से जुड़े लोगों को विषय पर प्रशिक्षण देकर संवेदनशील बनाया जायेगा। इनमें से कुछ लोग संस्थान में निरंतर नई जानकारी देने, रिफ्रेशर करने अथवा नये कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने का काम करेंगे। कार्य के सफल संचालन हेतु कार्यस्थल नीति बनेगी और एक अधिकारी की प्रभारी के रूप में क्रियान्यवन की जवाबदेही तय होगी। मुख्यधारा की इस प्रक्रिया से संस्थान के भीतर एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्तियों की पहचान होगी, उन्हें परामर्श व सेवायें मिल सकेंगीं। साथ ही उनके मानव अधिकारों की रक्षा व परिवार की देखभाल की व्यवस्था भी सुनिश्चित हो सकेगी। मुख्यधारा की इस पहल से सकल राष्ट्रीय आय और उत्पादन के संभावित नुकसान को कम किया जा सकेगा। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) ने मुख्यधारा की दिशा में प्रयासों को गति देते हुये भारत सरकार के लगभग 30 मंत्रालयों एवं सार्वजनिक क्षेत्र की विभिन्न इकाइयों में एच.आई.वी./एड्स को उनके मूल कार्यो के साथ नियमित कार्यकलापों से जोड़ने हेतु सहमति प्राप्त कर ली है। राज्य एड्स नियंत्रण समितियों के माध्यम से राज्यों व जिला स्तर पर मैदानी गतिविधियाॅ प्रारंभ हो गई हैं। मध्यप्रदेश में ही मुख्यधारा का कार्य महिला एवं बाल विकास, उच्च शिक्षा, पुलिस विभाग एवं पंचायत राज संचालनालय के साथ तथा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के अंतर्गत कुछ उद्योग समूहों से संवाद व प्रशिक्षणों का काम शुरू हो गया है। शासन के हर विभाग व निजी क्षेत्र के उद्योग या कंपनी के नीति निर्माण से जुड़े व्यक्ति को इस संवेदनशील विषय पर काम करने के लिये स्वेच्छा से विचार करना चाहिये, ताकि एच.आई.वी. संक्रमण के शिकार किन्तु दबे छुपे लोगों को सामने लाकर उनकी समय रहते देखभाल हो सके व उपलब्ध उपचार का लाभ दिलाया जा सके। यह इसलिये भी संभव है क्योंकि इसमें संस्थान को विशेष अतिरिक्त धन या समय नहीं खर्च करना पड़ेगा। बल्कि यह कार्य करने से वे उत्पादन हेतु ‘एक्सट्रा माइलेज’ ही प्राप्त करेंगे जो राष्ट्र निर्माण, स्वयं के लाभ कर्मकार कल्याण के लिये आवश्यक है। इसी तरह से एच.आई.वी./एड्स की रोकथाम में श्रमिक संगठनों, स्वयं सेवी एवं धार्मिक संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका नाको ने महसूस की है। इन समूहों की अपने वर्ग, समुदाय या जन साधारण में व्यापक मान्यता होती है। अतः इनका विषय पर संवेदनशील होना बहुत जरूरी है। इस हेतु अन्य देशों में मिली सफलताओं के मद्देनजर एवं स्थानीय सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि में सामाजिक समूहों को संक्रमण की रोकथाम, सेवाओं के प्रचार-प्रसार एवं एच.आई.वी./एड्स के प्रति शर्म और भेदभाव को समाप्त करने हेतु जोड़ा जा रहा है। इस कार्य में संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न इकाईयाॅ, दानदाता संस्थायें व नेटवर्क सपोर्ट संस्थाओं का भी सहयोग लिया जा रहा है। लेकिन राज्यों व स्थानीय स्तर पर राजनीतिक इच्छा शक्ति बढ़ाने की अभी भी आवश्यकता है। कुल मिलाकर भारत में एच.आई.वी./एड्स से लड़ने के लिये अब सरकारी, गैर सरकारी, निजी व उद्योग जगत के स्तर से भी जंग की शुरूआत हो गयी है। यदि सभी सम्बद्ध पक्षों ने ईमानदार प्रयास किये तो हम कुछ अफ्रीकी या एशियाई देशों की तरह अपनी बहुमूल्य श्रम एवं युवा शक्ति को खोने से बचा सकेंगे। ‘मुख्यधारा’ की कार्यनीति व भावना साझी जिम्मेदारी से है। आइये चुप्पी तोडें और जिम्मेदारी निभाने का वादा करें ।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

देश के सामने युद्ध या आपातकाल की स्थिति!

क्या हम तैयार हैं ?

अनिल सौमित्र

देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति सामान्य नहीं है । एक तरफ दुनिया भर में आई आर्थिक मंदी का असर भारत पर हो रहा है । देश के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक वातावरण तनावपूर्ण हो चुका है । जातीय, सांप्रदायिक और आर्थिक विषमताएं तनाव के मुख्य कारण के तौर पर उभरे हैं । देश की वर्तमान राजनैतिक स्थिति भी नाजुक दौर में है । केन्द्र में बड़े दल कमजोर और संकुचित होते जा रहे हैं । कांग्रेस और भाजपा, दोनों की अन्य दलों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है । आने वाले लोकसभा चुनाव में इस स्थिति में और भी अधिक बढ़ोतरी की संभावना है । अंदेशा है कि आसन्न लोकसभा में कांग्रेस और भाजपा दोनों मिलकर 250 सीटों तक सिमट जायेंगे । जाहिर है छोटे और क्षेत्रीय दलों का दखल केन्द्रीय राजनीति में बढ़ने वाला है । यह भी जगजाहिर है कि क्षेत्रीय दल, सरकार बनाने और सरकार चलाने की अपनी-अपनी कीमत वसूलते हैं । कहना न होगा कि बड़े दल कहीं-न-कहीं, छोटे दलों के भयादोहन के शिकार हैं । इन सब का परिणाम है कि ''राज्य'' लगातार कमजोर होता जा रहा है । समाज तो पहले ही कुव्यवस्थाओं का शिकार होकर कमजोर हो चुका है । समाज और राज्य का कमजोर होना एक खतरनाक संकेत है । समाज या राज्य में से कोई भी एक मजबूत हो तो राष्ट्र, अस्तित्व की चुनौतियों का सामना बखूबी कर सकता है । लेकिन आज हालात समाज और राज्य के तंत्र से फिसलते हुए दिख रहे हैं । भारत में लोकतंत्र और राजनीतिक व्यवस्था अभी भी वयस्क होने की प्रक्रिया में है । लेकिन इस दिशा में उच्च स्तर पर किसी स्वस्थ्य प्रयास का नितान्त अभाव है । राजनैतिक दल विचार, सिद्धांत और नीतियों से दूर होकर परिवारवाद, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा और येनकेन सत्ता प्राप्ति की लालसा में लिप्त हैं । देश की सुरक्षा, शिक्षा, आर्थिक और सामरिक मामलों में सत्ता दल और विपक्ष उहापोह की स्थिति में है । आतंकवाद जैसी समस्या पर भी देश का राजनैतिक नेतृत्व आवश्यक समझ-बूझ और एकता प्रदर्शित नहीं कर सका । आतंकवाद, बंगलादेशी घुसपैठ, मतान्तरण, नक्सलवाद, रामसेतु, अमरनाथ श्राईन बोर्ड, महंगाई और लगातार हो रहे विस्फोट जैसे मुद्दों पर केन्द्र सरकार आंख-मिचैली खेल रही है । लोकसभा चुनाव निकट है । कांग्रेस के पास मुद्दों की कमी है, लेकिन विपक्ष आक्रामक तेवरों के साथ धावा बोलने को तैयार । पक्ष-विपक्ष दोनों ने तात्कालिक लाभ को ध्यान में रखते हुए दीर्घकालिक दृष्टि से अपना पल्ला झाड़ लिया । कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है तो कोई प्रधानमंत्री बने रहना । यूपीए सरकार की वास्तविक मुखिया सोनिया गांधी अपने सभी पत्ते खेल चुकी हैं । राहुल और प्रियंका का तिलिस्म भी अब काम नहीं आया । कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज धराशायी हो रहे हैं । मुम्बई पर हालिया आतंकवादी आक्रमण अब अपना असर दिखाने लगा है । देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बन चुका है । आम जनता आतंकवाद के मामले पर पाकिस्तान से हिसाब चुकता करना चाहती है । केन्द्र सरकार पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दबाव है । अमेरिका और इजरायल जैसे आतंकवाद से आहत देशों ने भारत को कड़ी कार्यवाई करने की सलाह दी है । घरेलू ही नहीं, बल्कि वैश्विक जनमत भी आतंकवाद के खिलाफ एकमत है । कठोर और जबाबी कार्यवाई होनी चाहिए । लाख टके का सवाल यही है । क्या केन्द्र की यूपीए सरकार इतना दम रखती है ? वह भारत की आम मंशा और अंतरराष्ट्रीय सलाह को लागू करने का नैतिक, राजनैतिक और निर्णायक पहल का साहस व्यक्त कर सकती है? इसका जवाब खोजना शायद इतना आसान भी नहीं है । लेकिन परिस्थितियों के मद्देजर कुछ संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है, कुछ अनुमान व्यक्त किए जा सकते हैं । बात घूम फिर कर आने वाले लोकसभा चुनाव के आस-पास जा टिकती है । यूपीए सरकार और सोनिया गांधी के रणनीतिकार आतंकवादियों के संभावित ठिकानों पर कार्यवाई के फलाफल और प्रभावों के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं । इसका राजनैतिक प्रभाव अगर सकारात्मक दिखा तो निश्चित तौर पर राजग के करगिल प्रयोग को दुहराने का साहस यूपीए भी कर सकती है, अन्यथा आतंकवाद को ठंढे बस्ते में डाल दिया जायेगा । वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने ताजा आतंकी हमले के बाद इस्तीफे की पेशकश की है । बहुत संभावना है कि इस मामले में उनकी बलि नहीं ली जायेगी । श्री नारायणन के साथ दो महत्वपूर्ण सच्चाइयां जुड़ी है, एक तो वे बहुत ही सूझ-बूझ और दम-खम वाले नौकरशाह हैं, दूसरे यह कि गांधी परिवार के प्रति उनकी निष्ठा असंदिग्ध है । वे गांधी परिवार के अलावा किसी और के हाथों में देश का भविष्य नहीं देखते । उनकी निष्ठा गांधी प्ररिवार के प्रति प्राथमिक है, देश के प्रति दोयम । गांधी परिवार के लिए वे गुमनाम तौर पर काम करें यह तो जायज है, लेकिन आतंकवाद जैसे महत्वपूर्ण मसले पर उनकी चुप्पी खतरनाक है । वे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं, वे अपनी जिम्मवारियों से मुंह नहीं चुरा सकते । सिर्फ इस्तीफे की पेशकश कर वे अपनी असफलताओं से बच नहीं सकते । आखिर उनकी जानकारी में ''हिन्दू आतंकवाद'' का सिद्धांत गढ़ा और विकसित हुआ । खुफिया विभाग के कई अधिकारी दबी जुबान यह कहने लगे हैं कि यूपीए के आने के बाद से हमारी प्राथमिकताएं बदल गई हैं । आईबी, एटीएस और सुरक्षा से जुड़े तमाम एजेंसियों पर लापरवाही और राजनैतिक दुरूपयोग का आरोप लग रहा है । इसके छींटे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पर भी पड़ेंगे । क्या यह सच नहीं है कि समूचा सुरक्षा महकमा मालेगांव के नाम पर आतंकवाद का ''हिन्दू सिद्धांत'' गढ़ने और विकसित करने में लगा रहा, और पाकिस्तान से आतंकवाद का लश्कर मुम्बई में आ बैठा । मालेगांव (दो) पर कार्यवाई का तौर-तरीका स्पष्टतः इसे उक राजनैतिक दृष्ठि से किया गया सुरक्षात्मक पहल का संकेत दे रहे थे । आम पाठक, श्रोता, दर्शक और सामान्य जन को भी यह लग रहा था-'' मालेगांव (दो) लोकसभा चुनाव का आॅपरेशन है । साध्वी, सेना और संघ को कटघरे में खड़ा कर इस्लामी आतंकवाद को फलने का मौका दिया गया । बिना विचार किए ही चहुं ओर यह घोषणा कर दी गई कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता । क्या यह सच किसी से छुपा है कि वर्तमान आतंकवाद 'इस्लाम, अल्लाह और मोहम्मद साहब' के नाम पर स्थापित किया गया है । क्या इस्लाम का दर्शन और उसका ग्रंथ आतंकवाद को तार्किक और सैद्धांतिक मान्यता नहीं देता? लेकिन झूठ-दर-झूठ, सत्य से मुंह चुराने की बार-बार और लगातार असफल कोशिश की जा रही है । मालेगांव प्रकरण में श्री नारायणन, आईबी प्रमुख श्री हलधर के साथ प्रधानमंत्री के दावेदार और पूर्व प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी को अपनी सफाई देने गए थे । यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि इस मुलाकात के बाद श्री आडवाणी और अधिक आक्रामक हो गए थे । इन्हीं परिस्थितियों में छुपी है एक और आशंका । इसकी पूरी संभावना है कि राजग को निस्तेज और स्तब्ध करने के लिए कांग्रेस सीमापार आतंकवादी ठिकानों पर हमला करे । इसका राजनैतिक लाभ उसे लोकसभा के चुनाव में मिलेगा । इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पूर्व में इस तरह का लाभ ले चुकी है । कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर भले हो, लेकिन मौका उसके हाथ लगा है । लेकिन इन्हीं आशंकाओं और परिस्थितियों के बीच एक सवाल भी मुंह बाए खड़ा है, जवाब की तलाश में । क्या देश की आंतरिक स्थिति ऐसी है कि वह सीमापार हमलों की इजाजत दे ? सीमा को तो देश के सैनिक संभाल लेंगे, लेकिन देश को कौन संभालेगा? आइएसआई, सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और इसके जैसे कई संगठन क्या चुप बैठेंगे? देश में फैली हजारों की संख्या में विदेशी संस्थाएं क्या भारत को मदद करेंगी? देश की आंतरिक असुरक्षा क्या सीमा पार आतंकी ठिकानों को तबाह करने की इजाजत देगी? युद्ध जैसे हालात सिर्फ सीमा पर ही नहीं, सीमा के भीतर भी हैं । कांग्रेस, देश में युद्ध जैसे हालात का वास्ता देकर, देश में गृहयुद्ध का अंदेशा जता कर देश को एक और इमरजेंसी (आपातकाल) दे सकती है । देश की सज्जन शक्ति असंगठित है, कमजोर है । विषम परिस्थितियों में वह देश के लिए बहुत अधिक प्रभावी होगी इसकी संभावना कम ही है । मोमबत्ती जलाकर आतंकवाद की खिलाफत करना कर्मकांड से अधिक कुछ भी नहीं । कर्मकांडों का अपना महत्व और प्रभाव होता है, लेकिन आज जरूरत इससे बढ़कर है । संघ, साध्वी और सेना फिर एक बार अपेक्षाओं के कटघरे में हैं । परिस्थितियों की मांग है कि मान, अपमान, आरोप और लांछन को भूला कर संघ और संत, समाज का नेतृत्व करे, सीमा पर डटी सेना का साथ दे । संघ, संत और सेना, सरकारों के निशाने पर भले ही रही हों, लेकिन समाज का विश्वास उन्हें हमेशा मिला है । संघ ने सरकार का साथ पहले भी दिया है, वह आज भी तैयार हो । देश के सामने युद्ध और आपातकाल की स्थिति है । लेकिन हम इन दोनों स्थितियों के लिए तैयार नहीं हैं । युद्ध और आपातकाल में क्या और कैसी आंतरिक स्थिति निर्मित होगी, हमें इसका ध्यान में रखकर तैयार होना होगा । सरकार ने आंतरिक सुरक्षा में भी सेना को लगा रखा है, समाज अपनी सुरक्षा के लिए तैयार हो और सेना को सिर्फ सीमा की सुरक्षा के लिए मुक्त करे । संघ और संत, समाज की सुरक्षा की जिम्मेदारी लें, सेना तो मोर्चा संभाल ही लेगी ।

बुधवार, 26 नवंबर 2008

अभिनव भारत पर आरोप निराधार-हिमानी सावरकर

हिमानी सावरकर उस संस्था अभिनव भारत की अध्यक्ष हैं जिसके ऊपर मालेगांव विस्फोट की योजना बनाने का आरोप लग रहा है. वे वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण दामोदर सावरकर की पुत्रबधू और नाथूराम गोड्से के छोटे भाई गोपाल गोड्से की पुत्री हैं. अभिनव भारत के साथ-साथ वे हिन्दू महासभा की अध्यक्ष भी हैं. वे दिल्ली आयीं थी, इसी यात्रा के दौरान हमने उनसे मिलकर मालेगांव विस्फोट के सिलसिले में लंबी बातचीत की. प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश-
अभिनव भारत के बारे में बताईये?अभिनव भारत की स्थापना स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने १९०४ में की थी. लेकिन १९५२ में उन्होंने खुद इस संस्था को विसर्जित कर दिया था. उनका कहना था कि स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य पूरा हो गया अब इस संस्था की जरूरत नहीं है. लेकिन इधर पिछले कुछ सालों से जिस तरह से देश पर आतंकवादी हमले बढ़ रहे हैं उसने हिन्दू समाज के सामने एक नये तरह की चुनौती पेश कर दी है. इसको देखते हुए इस संस्था को २००६ में पुनः गठित किया गया. इसी साल अप्रैल में मैं इस संस्था की अध्यक्ष बनी.और आपके आते ही धमाके शुरू हो गये?हमारे ऊपर जो आरोप लगाये गये हैं उनमें कोई सच्चाई नहीं है. सरासर झूठ है. हकीकत में कहीं कुछ है ही नहीं. एक महीने से एटीएस तरह-तरह से जांच कर रही है, पकड़े गये लोगों का नार्को करके सच सामने लाने का दावा कर रही है. अब तक क्या निकला है? आज एटीएस एक दावा करती है और अगले ही दिन उसका खण्डन करना पड़ता है. पहली बात तो यह है कि नार्को टेस्ट प्रमाणित ही नहीं मानी जाती. अगर ऐसा होता तो तेलगी के नार्कों के आधार पर अब तक शरद पवार और भुजबल को अभियुक्त होना चाहिए था. लेकिन विस्फोट के सिलसिले में आप लोगों ने बैठक की या नहीं?ऐसी कोई मीटिंग नहीं हुई है. अगर हम एटीएस के दावों को ही सही मान लें तो क्या मीटिंग करना कोई अपराध है? और मीटिंग हुई तो क्या लोगों ने वहां बम विस्फोट की प्लानिंग की? उनके सारे आरोपों का आधार नार्को टेस्ट है. बेहोश आदमी क्या बोलता है, इसको प्रमाण मानकर वे लगातार आरोप लगा रहे हैं. आपको समझना होगा कि यह सारा काम हिन्दू समाज को अंदर से तोड़ने के लिए किया जा रहा है. इसकी शुरूआत शंकराचार्य की गिरफ्तारी से होती है. आप देखिए उसके बाद कितने हिन्दू सन्तों को किस-किस तरह से परेशान किया जा रहा है. शंकराचार्य के बाद रामदेव बाबा, फिर तोड़कर महाराज, फिर संत आशाराम और अब श्री श्री रविशंकर पर भी आरोप लगाये जा रहे हैं. क्या यह सब देखकर भी समझ में नहीं आता कि ये सारे काम किसके इशारे पर और क्यों किये जा रहे हैं? हिन्दू संत अब शिविर नहीं ले सकते. श्री श्री रविशंकर के बारे में कहा जा रहा है वे दिन में शिविर लेते हैं और रात में दूसरे प्रकार का प्रशिक्षण देते हैं. जबकि इसी साल १५ अगस्त को बंगलौर में खुलेआम पाकिस्तान समर्थकों ने २५ हजार लोगों की फौज बनाकर परेड कराई लेकिन उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं हुई. आपकी नजर में इसके लिए दोषी कौन है?कांग्रेस ही एकमात्र दोषी है. वह नहीं चाहती कि इस देश के हिन्दू एक हों. वह सालों से बांटों और राज करो की नीति पर काम कर रही है. यह सब जो हो रहा है वह अपनी नाकामी को छिपाने के लिए इस तरह के षण्यंत्र को अंजाम दे रही है. साध्वी प्रज्ञा आपसे जुड़ी हुई हैं?हां, एकाध सभाओं में वे शामिल हुई हैं. लेकिन इसका मतलब आप क्या निकालना चाहते हैं?कर्नल पुरोहित, या समीर कुलकर्णी?नहीं. कर्नल प्रसाद पुरोहित एक सरकारी अधिकारी हैं. वे सरकारी अधिकारी रहते हुए किसी संस्था के सदस्य कैसे हो सकते हैं? हां, वे सेना के खुफिया विभाग में है. वे हमसे संपर्क में थे तो क्या काम कर रहे थे यह एटीएस कैसे निर्धारित कर सकती है? हो सकता है वे अपनी सेवाओं के तहत ही हमसे संपर्क में आये हों. सारी दुनिया यह देख रही है और हंस रही है कि हम अपने ही सेना के साथ क्या कर रहे हैं. अगर सेना में इस बात को लेकर विद्रोह हो गया तो क्या होगा? कर्नल पुरोहित पर बम बनाने का आरोप लगा रहे हैं. क्या आपको पता है कि सेना में बम बनाने की शिक्षा ही नहीं दी जाती. कह रहे हैं कि पुरोहित ६० किलो आरडीएक्स लेकर गये सूटकेस में. क्या यह संभव है? वहां एक एक ग्राम का हिसाब होता है. ६० किलो आरडीएक्स उठाकर ले जाना कोई आलू प्याज उठाकर ले जाना नहीं है. ६० किलो आरडीएक्स को सुरक्षित रूप से एक से दूसरे जगह पहुंचाने के लिए रेलवे के दो वैगन जितनी जगह चाहिए.
मैं अभी समीर कुलकर्णी से मिली थी खिड़की न्यायालय में. मैं देखकर दंग रह गयी कि उनके साथ कितनी मारपीट की जा रही है. आठ दिन तक समीर कुलकर्णी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया. कर्नल पुरोहित का १६ किलो और समीर कुलकर्णी का वजन २० किलो घट गया है. क्या इन बातों की जानकारी आपको है? आपको वही पता है जो एटीएस बता रही है. आखिर इतना जुल्म इन लोगों पर किस बात के लिए किया जा रहा है. इसीलिए न कि एटीएस जो कहती है वे इसे स्वीकार कर लें. और करकरे कहते हैं कि वहां पिटाई नहीं हो रही है. एटीएस औरंगजेब से ज्यादा क्रूर व्यवहार कर रही है.एटीएस ने आपको भी संपर्क किया है?अभी तक नहीं किया है. आगे करेगी तो पता नहीं. केन्द्र सरकार का हस्तक्षेप नहीं है?केन्द्र में बैठी कांग्रेसी सरकार को इससे तो फायदा है. वह तो हिन्दू आतंकवाद के नये दर्शन से ही खुश है. वह क्यों हस्तक्षेप करेगी. आपकी किसी से मुलाकात हुई है?हम केन्द्र सरकार में कुछ लोगों से मिलने की कोशिश कर रहे हैं और उनसे मिलकर सारी बातें साफ तौर पर उनके सामने रखेंगे. आगे वे जैसा करना चाहें. आपकी संस्था को प्रतिबंधित किया जा सकता है?हमें इस बात की कोई चिंता नहीं है. सरकार को अगर यही उचित लगता है तो वह कर सकती है.और हिन्दू धर्म में इस तरह हिंसा को स्थापित करना कहां तक जायज है?हमारा हिंसा में कोई विश्वास नहीं है. हम निरपराध लोगों को नुकसान पहुंचाने के पक्ष में कतई नहीं हैं. लेकिन हम इतना जरूर कहते हैं कि अगर आप हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश करोगे तो हिन्दू समाज भी चुप नहीं बैठेगा. अगर हिन्दू समाज पर कोई अन्याय करेगा तो हम ईंट का जवाब पत्थर से भी देना जानते हैं. जो हमारे ऊपर मारने के लिए हाथ उठायेंगे तो हम उसका हाथ तो पकड़ेगें. क्या कुछ हिन्दूवादी नेताओं से आपकी बात हुई है?हमारी जिनसे भी बात हुई है वे सब यही कह रहे हैं कि यह जो कुछ हो रहा है वह गलत है. सब एक पार्टी विशेष के इशारों पर हो रहा है और हम सब इस मामले एक होकर संघर्ष करेंगे.संघर्ष से आपका आशय?अहिंसक संघर्ष और क्या? और हम क्या कर सकते हैं. जो लोकतांत्रिक तरीके हैं हम उनके ही जरिए संघर्ष करेंगे.आप भगवा राजनीति की बात कर रही हैं. लेकिन इसी भगवा राजनीति में राज ठाकरे भी हैं.हम हिन्दवी राजनीति में जातिवाद, क्षेत्रवाद को समर्थन नहीं करते हैं.आपके भगवा राजनीति में धार्मिक अल्पसंख्यकों की जगह कहां है?वीर सावरकर ने कभी यह नहीं कहा था कि गैर-हिन्दुओं को मारो काटो या देश से निकाल दो. उन्होंने कहा था कि इस देश में जिनको रहना है वह हिन्दू राष्ट्र का अंग होकर रहेगा. यहां मैं हिन्दू को धर्मवाचक नहीं बल्कि राष्ट्रवाचक संज्ञा के रूप में रख रही हूं. कानून की नजर में सबको एक समान होना होगा, सबकी निष्ठा यहां होगी.अभिनव भारत को लेकर क्या योजनाएं हैं?अभिनव भारत राजनीति नहीं करेगा. हम तरूणों को अभिनव भारत में शािमल करेंगे. उनके जरिए यह संदेश लोगों तक ले जाएंगे कि यह देश हमारा है और हम इसपर होनेवाले किसी हमले को स्वीकार नहीं करेंगे और हर प्रकार के लोकतांत्रिक तरीके से इसका जवाब देंगे. वीर सावरकर का जो मंत्र है- राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण. हम उस आदर्श को स्थापित करने के लिए काम करेंगे.

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

मैं साध्वी प्रज्ञा

मैं साध्वी प्रज्ञा चंद्रपाल सिंह ठाकुर, उम्र-38 साल, पेशा-कुछ नहीं, 7 गंगा सागर अपार्टमेन्ट, कटोदरा, सूरत,गुजरात राज्य की निवासी हूं जबकि मैं मूलतः मध्य प्रदेश की निवासिनी हूं. कुछ साल पहले हमारे अभिभावक सूरत आकर बस गये. पिछले कुछ सालों से मैं अनुभव कर रही हूं कि भौतिक जगत से मेरा कटाव होता जा रहा है. आध्यात्मिक जगत लगातार मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था. इसके कारण मैंने भौतिक जगत को अलविदा करने का निश्चय कर लिया और 30-01-2007 को संन्यासिन हो गयी.
जब से सन्यासिन हुई हूं मैं अपने जबलपुर वाले आश्रम से निवास कर रही हूं. आश्रम में मेरा अधिकांश समय ध्यान-साधना, योग, प्राणायम और आध्यात्मिक अध्ययन में ही बीतता था. आश्रम में टीवी इत्यादि देखने की मेरी कोई आदत नहीं है, यहां तक कि आश्रम में अखबार की कोई समुचित व्यवस्था भी नहीं है. आश्रम में रहने के दिनों को छोड़ दें तो बाकी समय मैं उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सों में धार्मिक प्रवचन और अन्य धार्मिक कार्यों को संपन्न कराने के लिए उत्तर भारत में यात्राएं करती हूं. 23-9-2008 से 4-10-2008 के दौरान मैं इंदौर में थी और यहां मैं अपने एक शिष्य अण्णाजी के घर रूकी थी. 4 अक्टूबर की शाम को मैं अपने आश्रम जबलपुर वापस आ गयी.

7-10-2008 को जब मैं अपने जबलपुर के आश्रम में थी तो शाम को महाराष्ट्र से एटीएस के एक पुलिस अधिकारी का फोन मेरे पास आया जिन्होंने अपना नाम सावंत बताया. वे मेरी एलएमएल फ्रीडम बाईक के बारे में जानना चाहते थे. मैंने उनसे कहा कि वह बाईक तो मैंने बहुत पहले बेच दी है. अब मेरा उस बाईक से कोई नाता नहीं है. फिर भी उन्होंने मुझे कहा कि अगर मैं सूरत आ जाऊं तो वे मुझसे कुछ पूछताछ करना चाहते हैं. मेरे लिए तुरंत आश्रम छोड़कर सूरत जाना संभव नहीं था इसलिए मैंने उन्हें कहा कि हो सके तो आप ही जबलपुर आश्रम आ जाईये, आपको जो कुछ पूछताछ करनी है कर लीजिए. लेकिन उन्होंने जबलपुर आने से मना कर दिया और कहा कि जितनी जल्दी हो आप सूरत आ जाईये. फिर मैंने ही सूरत जाने का निश्चय किया और ट्रेन से उज्जैन के रास्ते 10-10-2008 को सुबह सूरत पहुंच गयी. रेलवे स्टेशन पर भीमाभाई पसरीचा मुझे लेने आये थे. उनके साथ मैं उनके निवासस्थान एटाप नगर चली गयी.

यहीं पर सुबह के कोई 10 बजे मेरी सावंत से मुलाकात हुई जो एलएमएल बाईक की खोज करते हुए पहले से ही सूरत में थे. सावंत से मैंने पूछा कि मेरी बाईक के साथ क्या हुआ और उस बाईक के बारे में आप पडताल क्यों कर रहे हैं? श्रीमान सावंत ने मुझे बताया कि पिछले सप्ताह सितंबर में मालेगांव में जो विस्फोट हुआ है उसमें वही बाईक इस्तेमाल की गयी है. यह मेरे लिए भी बिल्कुल नयी जानकारी थी कि मेरी बाईक का इस्तेमाल मालेगांव धमाकों में किया गया है. यह सुनकर मैं सन्न रह गयी. मैंने सावंत को कहा कि आप जिस एलएमएल फ्रीडम बाईक की बात कर रहे हैं उसका रंग और नंबर वही है जिसे मैंने कुछ साल पहले बेच दिया था.

सूरत में सावंत से बातचीत में ही मैंने उन्हें बता दिया था कि वह एलएमएल फ्रीडम बाईक मैंने अक्टूबर 2004 में ही मध्यप्रदेश के श्रीमान जोशी को 24 हजार में बेच दी थी. उसी महीने में मैंने आरटीओ के तहत जरूरी कागजात (टीटी फार्म) पर हस्ताक्षर करके बाईक की लेन-देन पूरी कर दी थी. मैंने साफ तौर पर सावंत को कह दिया था कि अक्टूबर 2004 के बाद से मेरा उस बाईक पर कोई अधिकार नहीं रह गया था. उसका कौन इस्तेमाल कर रहा है इससे भी मेरा कोई मतलब नहीं था. लेकिन सावंत ने कहा कि वे मेरी बात पर विश्वास नहीं कर सकते. इसलिए मुझे उनके साथ मुंबई जाना पड़ेगा ताकि वे और एटीएस के उनके अन्य साथी इस बारे में और पूछताछ कर सकें. पूछताछ के बाद मैं आश्रम आने के लिए आजाद हूं.

यहां यह ध्यान देने की बात है कि सीधे तौर पर मुझे 10-10-2008 को गिरफ्तार नहीं किया गया. मुंबई में पूछताछ के लिए ले जाने की बाबत मुझे कोई सम्मन भी नहीं दिया गया. जबकि मैं चाहती तो मैं सावंत को अपने आश्रम ही आकर पूछताछ करने के लिए मजबूर कर सकती थी क्योंकि एक नागरिक के नाते यह मेरा अधिकार है. लेकिन मैंने सावंत पर विश्वास किया और उनके साथ बातचीत के दौरान मैंने कुछ नहीं छिपाया. मैं सावंत के साथ मुंबई जाने के लिए तैयार हो गयी. सावंत ने कहा कि मैं अपने पिता से भी कहूं कि वे मेरे साथ मुंबई चलें. मैंने सावंत से कहा कि उनकी बढ़ती उम्र को देखते हुए उनको साथ लेकर चलना ठीक नहीं होगा. इसकी बजाय मैंने भीमाभाई को साथ लेकर चलने के लिए कहा जिनके घर में एटीएस मुझसे पूछताछ कर रही थी.

शाम को 5.15 मिनट पर मैं, सावंत और भीमाभाई सूरत से मुंबई के लिए चल पड़े. 10 अक्टूबर को ही देर रात हम लोग मुंबई पहुंच गये. मुझे सीधे कालाचौकी स्थित एटीएस के आफिस ले जाया गया था. इसके बाद अगले दो दिनों तक एटीएस की टीम मुझसे पूछताछ करती रही. उनके सारे सवाल 29-9-2008 को मालेगांव में हुए विस्फोट के इर्द-गिर्द ही घूम रहे थे. मैं उनके हर सवाल का सही और सीधा जवाब दे रही थी.

अक्टूबर को एटीएस ने अपनी पूछताछ का रास्ता बदल दिया. अब उसने उग्र होकर पूछताछ करना शुरू किया. पहले उन्होंने मेरे शिष्य भीमाभाई पसरीचा (जिन्हें मैं सूरत से अपने साथ लाई थी) से कहा कि वह मुझे बेल्ट और डंडे से मेरी हथेलियों, माथे और तलुओं पर प्रहार करे. जब पसरीचा ने ऐसा करने से मना किया तो एटीएस ने पहले उसको मारा-पीटा. आखिरकार वह एटीएस के कहने पर मेरे ऊपर प्रहार करने लगा. कुछ भी हो, वह मेरा शिष्य है और कोई शिष्य अपने गुरू को चोट नहीं पहुंचा सकता. इसलिए प्रहार करते वक्त भी वह इस बात का ध्यान रख रहा था कि मुझे कोई चोट न लग जाए. इसके बाद खानविलकर ने उसको किनारे धकेल दिया और बेल्ट से खुद मेरे हाथों, हथेलियों, पैरों, तलुओं पर प्रहार करने लगा. मेरे शरीर के हिस्सों में अभी भी सूजन मौजूद है.

13 तारीख तक मेरे साथ सुबह, दोपहर और रात में भी मारपीट की गयी. दो बार ऐसा हुआ कि भोर में चार बजे मुझे जगाकर मालेगांव विस्फोट के बारे में मुझसे पूछताछ की गयी. भोर में पूछताछ के दौरान एक मूछवाले आदमी ने मेरे साथ मारपीट की जिसे मैं अभी भी पहचान सकती हूं. इस दौरान एटीएस के लोगों ने मेरे साथ बातचीत में बहुत भद्दी भाषा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. मेरे गुरू का अपमान किया गया और मेरी पवित्रता पर सवाल किये गये. मुझे इतना परेशान किया गया कि मुझे लगा कि मेरे सामने आत्महत्या करने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा है.

14 अक्टूबर को सुबह मुझे कुछ जांच के लिए एटीएस कार्यालय से काफी दूर ले जाया गया जहां से दोपहर में मेरी वापसी हुई. उस दिन मेरी पसरीचा से कोई मुलाकात नहीं हुई. मुझे यह भी पता नहीं था कि वे (पसरीचा) कहां है. 15 अक्टूबर को दोपहर बाद मुझे और पसरीचा को एटीएस के वाहनों में नागपाड़ा स्थित राजदूत होटल ले जाया गया जहां कमरा नंबर 315 और 314 में हमे क्रमशः बंद कर दिया गया. यहां होटल में हमने कोई पैसा जमा नहीं कराया और न ही यहां ठहरने के लिए कोई खानापूर्ति की. सारा काम एटीएस के लोगों ने ही किया.

मुझे होटल में रखने के बाद एटीएस के लोगों ने मुझे एक मोबाईल फोन दिया. एटीएस ने मुझे इसी फोन से अपने कुछ रिश्तेदारों और शिष्यों (जिसमें मेरी एक महिला शिष्य भी शामिल थी) को फोन करने के लिए कहा और कहा कि मैं फोन करके लोगों को बताऊं कि मैं एक होटल में रूकी हूं और सकुशल हूं. मैंने उनसे पहली बार यह पूछा कि आप मुझसे यह सब क्यों कहलाना चाह रहे हैं. समय आनेपर मैं उस महिला शिष्य का नाम भी सार्वजनिक कर दूंगी.

एटीएस की इस प्रताड़ना के बाद मेरे पेट और किडनी में दर्द शुरू हो गया. मुझे भूख लगनी बंद हो गयी. मेरी हालत बिगड़ रही थी. होटल राजदूत में लाने के कुछ ही घण्टे बाद मुझे एक अस्पताल में भर्ती करा दिया गया जिसका नाम सुश्रुसा हास्पिटल था. मुझे आईसीयू में रखा गया. इसके आधे घण्टे के अंदर ही भीमाभाई पसरीचा भी अस्पताल में लाये गये और मेरे लिए जो कुछ जरूरी कागजी कार्यवाही थी वह एटीएस ने भीमाभाई से पूरी करवाई. जैसा कि भीमाभाई ने मुझे बताया कि श्रीमान खानविलकर ने हास्पिटल में पैसे जमा करवाये. इसके बाद पसरीचा को एटीएस वहां से लेकर चली गयी जिसके बाद से मेरा उनसे किसी प्रकार का कोई संपर्क नहीं हो पाया है.

इस अस्पताल में कोई 3-4 दिन मेरा इलाज किया गया. यहां मेरी स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा था तो मुझे यहां से एक अन्य अस्पताल में ले जाया गया जिसका नाम मुझे याद नहीं है. यह एक ऊंची ईमारत वाला अस्पताल था जहां दो-तीन दिन मेरा ईलाज किया गया. इस दौरान मेरे साथ कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं रखी गयी. न ही होटल राजदूत में और न ही इन दोनो अस्पतालों में. होटल राजदूत और दोनों अस्पताल में मुझे स्ट्रेचर पर लाया गया, इस दौरान मेरे चेहरे को एक काले कपड़े से ढंककर रखा गया. दूसरे अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद मुझे फिर एटीएस के आफिस कालाचौकी लाया गया.

इसके बाद 23-10-2008 को मुझे गिरफ्तार किया गया. गिरफ्तारी के अगले दिन 24-10-2008 को मुझे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, नासिक की कोर्ट में प्रस्तुत किया गया जहां मुझे 3-11-2008 तक पुलिस कस्टडी में रखने का आदेश हुआ. 24 तारीख तक मुझे वकील तो छोड़िये अपने परिवारवालों से भी मिलने की इजाजत नहीं दी गयी. मुझे बिना कानूनी रूप से गिरफ्तार किये ही 23-10-2008 के पहले ही पालीग्रैफिक टेस्ट किया गया. इसके बाद 1-11-2008 को दूसरा पालिग्राफिक टेस्ट किया गया. इसी के साथ मेरा नार्को टेस्ट भी किया गया.

मैं कहना चाहती हूं कि मेरा लाई डिटेक्टर टेस्ट और नार्को एनेल्सिस टेस्ट बिना मेरी अनुमति के किये गये. सभी परीक्षणों के बाद भी मालेगांव विस्फोट में मेरे शामिल होने का कोई सबूत नहीं मिल रहा था. आखिरकार 2 नवंबर को मुझे मेरी बहन प्रतिभा भगवान झा से मिलने की इजाजत दी गयी. मेरी बहन अपने साथ वकालतनामा लेकर आयी थी जो उसने और उसके पति ने वकील गणेश सोवानी से तैयार करवाया था. हम लोग कोई निजी बातचीत नहीं कर पाये क्योंकि एटीएस को लोग मेरी बातचीत सुन रहे थे. आखिरकार 3 नवंबर को ही सम्माननीय अदालत के कोर्ट रूम में मैं चार-पांच मिनट के लिए अपने वकील गणेश सोवानी से मिल पायी.

10 अक्टूबर के बाद से लगातार मेरे साथ जो कुछ किया गया उसे अपने वकील को मैं चार-पांच मिनट में ही कैसे बता पाती? इसलिए हाथ से लिखकर माननीय अदालत को मेरा जो बयान दिया था उसमें विस्तार से पूरी बात नहीं आ सकी. इसके बाद 11 नवंबर को भायखला जेल में एक महिला कांस्टेबल की मौजूदगी में मुझे अपने वकील गणेश सोवानी से एक बार फिर 4-5 मिनट के लिए मिलने का मौका दिया गया. इसके अगले दिन 13 नवंबर को मुझे फिर से 8-10 मिनट के लिए वकील से मिलने की इजाजत दी गयी. इसके बाद शुक्रवार 14 नवंबर को शाम 4.30 मिनट पर मुझे मेरे वकील से बात करने के लिए 20 मिनट का वक्त दिया गया जिसमें मैंने अपने साथ हुई सारी घटनाएं सिलसिलेवार उन्हें बताई, जिसे यहां प्रस्तुत किया गया है.

(मालेगांव बमकांड के संदेह में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर द्वारा नासिक कोर्ट में दिये गये शपथपत्र पर आधारित.)

बुधवार, 19 नवंबर 2008

IN THE COURT OF THE HON'BLE CHIEF JUDICIAL MAGISTRATE, NASIKC.R. NO. I – 130/08(RE-NUMBERED AS C.R. No. 1 – 18/08 at ATS)State of Maharashtra ... ComplainantThru' ATSV/s.Sadhwi Prgyna Singh Thukar & Ors. .... Accused AFFIDAVITI, Sadhwi Pragyan Chandrapal Singh Thakur, Age 38 years, Occupation – Nil, residing at 7, Ganga Sagar Apartment, Katodara Road, Surat, Gujarat State do hereby state on solemn affirmation as under:-1. I say that I am a resident of Madhya Pradesh. My parents live in Surat, Gujarat where they shifted residence a couple of years ago. I say that for some years now, I found myself becoming increasingly detached from the material world and correspondingly found tremendous comfort and solace in Spiritualism . Accordingly I decided to renounce the material world and become a Sanyasin. On 30.1.2007, after performing the appropriate Hindu Religious rites and prayers I became a Sadhwi. I say that ever since then, I have been residing in a ashram at Jabalpur, Madhya Pradesh. My life at the Ashram almost exclusively consisted of prayers, meditation, yoga and the reading of spiritual texts. At the ashram I did not watch T.V. channels and had practically no access to newspapers.2. I say that apart from my activities at the ashram, I traveled chiefly around North India for the purpose of religious discourses and sermons. In connection with these latter activities, between 23.9.2008 and 4.10.2008, I was in Indore where I stayed at the residence of one Annaji who is my disciple. In the evening of 4th October, 2008, I returned to my ashram in Jabalpur. 3. I say that on 7.10.2008, when I was at Jabalpur Ashram, I received a call from a police officer from the ATS, Maharashtra, called Mr. Sawant, who wanted to know about my LML Freedom vehicle. However, I told him I had sold it long back and not concerned with it. However, he insisted me to come down to Surat as he wanted to question me at length about it. I was reluctant to go to Surat by leaving the Ashram and insisted for him to come down to Jabalpur, but he refused and told me to come down to Surat as early as possible. 4. I further say that accordingly I travelled to Surat by train via Ujjain and arrived at Surat on 10.10.2008 early in the morning and my disciple Shri. Bhimbhai Pasricha had to receive me at Railway Station and I went to his place at Atop Nagar. 5. I say that here at about 10 AM, I met officer Mr. Sawant who had apparently traveled to Surat to trace the ownership of a LML Freedom two wheeler and I questioned him as to what had happened to my vehicle and why you are asking about it. I say that I it was at this point time, Mr. Sawant told me that my vehicle had been allegedly planted with the explosives and subsequently detonated in Malegaon in the last week of September. I also say that it was here for the first time, I came to know that my old vehicle had been allegedly used in Malegaon blast, which was completely shocking to me. I confirmed to Mr. Sawant that the LML Freedom 2 wheeler of the colour and number, he mentioned had once belonged to me. 6. I say that in Surat during the course of my interrogation with Mr. Sawant, I mentioned to him that the LML Freedom two wheeler once owned by me was subsequently sold to one Sunil Joshi of Madhya Pradesh way back in October, 2004 and that Mr. Joshi had paid me Rs. 24,000/- for the same. I had also signed the necessary T.T. Form for RTO transfer in October, 2004 itself. I categorically asserted to Mr. Sawant that since October, 2004 I had no control over the vehicle or its movements and usage.7. I further say that inspite of my answers, Mr. Sawant repeatedly asked me how the vehicle reached Malegaon and how it came to be involved in the bomb blast on 29.9.2008. I repeatedly replied that I could not answer his questions as I had no control of the vehicle since October, 2004.8. I also say that Mr. Sawant however informed me that he did not believe me and that I would have to accompany him and his ATS team to Mumbai for further interrogation and he assured me that after such interrogation I would be free to go back to my ashram. 9. It is significant to mention that I was not formally arrested on 10.10.2008. Even though no formal summons to attend as a Witness was served upon me to make my self available for interrogation in Mumbai, and even though I was within my rights to insist that I be interrogated at the place where I reside i.e. Jabalpur, trusting Mr. Sawant and having nothing to hide, I agreed to accompany the ATS team to Mumbai . I say Mr. Sawant told me take my father along with me. However, due to his old age, I told him it was not proper take down him to Mumbai and suggested that my disciple, one Mr. Bhimbhai Pasricha, in whose very residence my questioning was being done by the ATS. I further say that at 5.15 PM myself, Mr. Pasricha and the ATS officer left Surat and reached Bombay on the very night of 10.10.2008 . In Bombay I was taken straight away to the ATS office at Kalachowkie.10. Thereafter for two days I was detained and interrogated by the ATS team in Mumbai. The questions were repetitive and directed at somehow involving me in the bomb blast in Malegaon on 29.9.2008. My answers remained constant throughout.11. I further say that on 12.10.2008 the ATS changed the mode of interrogation and became extremely aggressive with me. At first they asked my said disciple Mr. Bhimbhai Pasricha to beat me with sticks, belts etc., on my palms, forehands, soles, etc. When Mr. Pasricha refused to do so, he was severely beaten by the ATS. Ultimately with the greatest reluctance, he complied with the ATS orders but obviously being my disciple, he exerted the very minimum of force on me. He was then pushed aside by a member of the ATS squad knows as Khanwilkar, who then himself commenced beating me severely with a belt on my hands, forearms, palms, feet, soles, causing me bruises, swelling and contusions in these areas.12. I say that from the 13th onwards, I say that I was beaten during the day , night and midnight. On two occasions I was even woken up in the early hours of the morning at 4 a.m. and questioned about my knowledge of the blasts. On these occasions, I was beaten by a senior officer having a moustache, whom I can identify. In addition I was subject to vulgar abuse and obscene language by members of the ATS team interrogating me. My Guru was abused and my chastity was questioned. I was physically and verbally traumatized to the extent that I wanted to commit suicide. 13. I further say that on 14th taken out for the examination at a far away place from ATS and was brought back in the afternoon and that I day I had no meeting or even knowledge about Mr. Pasricha.14. I say that on 15th October, after noon, both myself and Mr. Pasricha were taken by ATS vehicles to Hotel Rajdoot in Nagpada locality of Mumbai and were kept in Room Nos. 315 and 314 respectively and we were made to sign the Hotel Entry register, however, we did not pay or deposit any money with the hotel manager, which was done by the ATS. 15. I say that after putting into this hotel I was asked to make phone calls from mobile No. 94066 00004 and from one more mobile instrument not belonging to me to speak couple of persons including one of my female disciple and I was asked to say that I was in a hotel in Mumbai and hale & hearty and was doing fine. I say that at that time, I did not know why I was made to say so. I would reveal the name of my female disciple at an appropriate time. 16. I say that as a result of the custodial violence / torture, mental stress, anxiety that were developed in the process, I was subjected to, I developed acute abdominal and kidney pains. I lost my appetite, became nauseous and giddy and prone to having bouts of unconsciousness. In view of this, within few hours after putting in Rajdoot Hospital, I was removed from the ATS office and was taken a hospital which learnt it to be Shusrusha Hospital wherein I was kept in ICU. I say that within half an hour Mr. Bhimbhai Pasricha came down to Shushrusha Hospital with some ATS men and my Hospital admission forms, and other medical examination forms, etc. were signed by him. I say that Mr. Khanwilkar deposited money to the hospital management for me, which I learnt from Mr. Bhimbhai. I say that after some time Mr. Pasricha left the Hospital along with the ATS men and thereafter I have no contact with of any nature. 17. I say that I underwent a treatment over here for 3 to 4 days. I say that as my condition did not improve, I was taken to another hospital whose name I cannot recall. This hospital consisted of a high rise building where I was treated for 2 to 3 days. I say that no female police constable was by my side either in Hotel Rajdoot or in either of the two hospitals.18. I say that both at the hotel and the hospitals, I was carried on a stretcher and my face was always covered with a black hood to avoid my face from being seen . From the second hospital, I was brought back to the ATS office at Kalachowkie.19. I say that I was finally arrested on 23.10.2008 and produced before the Chief Judicial Magistrate, Nasik on 24.1.2008. I was remanded to police custody on that date till 3.11.2008. Upto the 24.10.2008 and even sometime thereafter, I was denied access to a Lawyer or any member of my family. A polygraph test was conducted on me while I was in illegal detention prior to 23.10.2008. Thereafter a second polygraph test was conducted on 01.11.2008. On 04.11.2008, after I was remanded to Judicial custody on being presented before Nasik court on 03.11.2008, I also say that a Narco analysis test was also conducted on me.20. I say that both the lie detector test as well as the Narco analysis test were conducted with out my consent. Never the less all these investigative tests have only established my innocence in the Malegaon bomb blast that took place on 29.9.2008. I finally was allowed to meet my sister Mrs. Parthibha Bhagwan Jha on the evening of 02.11.2008, who had brought vakalatnamas of Advocate Ganesh Sovani who was engaged by my sister and her husband Mr. Bhagwan Jha and had met him couple times in that week. This meeting was not conducted in private since members of the ATS stood within hearing distance of my sister and myself. I met my Advocate Ganesh Sovani for the first time in the court room of this Hon'ble Court very briefly for 4 to 5 minutes prior to the arguments commencing on my remand application on 03.11.2008. 21. I say that this period of 4 to 5 minutes was too short for me to give complete instructions as to what had transpired from 10th October onwards, about my vehicle, my stay at Kalachowkie, my illegal detention, the ill-treatment mitigated to me by ATS men, the beating job that was forced on my disciple to beat me, but which he carried out reluctantly, without any force, etc. I say that for this reasons, all the details had not reflected in the hand written application that was placed on record by my advocate Mr. Sovani, for paucity of time to give all these instructions. 22. I say that on the evening of Wednesday 12.11.2008, I was allowed to meet my Advocate Ganesh Sovani for about 5-6 minutes again in the presence of female staff of Byculla jail. I say that again on 13.11.2008 I was allowed to talk to my said lawyer for 8-10 minutes to give him some more details. Thereafter, on Friday 14.11.2008 evening at about 04.30 PM, I was given nearly 20 minutes to talk to my said lawyer at length, and it was during this period I could narrate my entire ordeal with the ATS which is reproduced hereinabove.23. I unambiguously state that I am totally innocent of any offence whatsoever. In particular I have no connection with the Malegaon bomb blast of 29.9.2008. While my former ownership of LML Freedom 2 wheeler, which was allegedly used in the Malegaon bomb blast entitled the ATS to interrogate me, that agency was not entitled to subject me to the treatment mentioned hereinabove. Their conduct discloses a blatant violation of statutory provisions of law, custodial abuse and violence, mental and physical torture and prolonged illegal detention. The ATS are fully aware that I am innocent. It appears however that they have a mandate from their political superiors to necessarily implicate me with Malegaon blasts with a view to suggest that Hindu Religious extremists were resorting to terrorism. The prolonged illegal detention, custodial abuse and physical torture were designed to compel me to confess to crimes I had not committed. This attempt of false implication persisted for the entire period between 10.10.2008 and 02.11.2008 . During this entire period I was deliberately isolated from my family and denied access to Lawyers. I say that no arrest panchanama was done after my arrest on 23.10.2008 and I was never asked about the names, addresses and telephone / mobile Nos. details to whom I would like to convey my arrest. I say that attention from my illegal detention was sought to be diverted by the ATS by daily leaking information regarding my involvement which was manifestly false and only indicated the malafide nature of the investigation..24. I say that While I was thus painted as a sinister mastermind of the Malegaon blasts, a role which has now been subtly reassigned by the ATS to Lt. Col. Purohit – crippled and vulnerable as I was by the detention, abuse and torture, I could not protest my innocence. Nor was I allowed access to family, friends and Lawyers who could have done so.25. I say that it is necessary that a detailed enquiry of my illegal detention, custodial torture, etc. needs to be done and for which I am ready and willing to get subjected to any such medical test or tests and I also want the ATS officers, who interrogated me, tortured me, etc. should also be put to the same tests. 26. I say that the ATS has caused blatant violations of my human rights and I should get a justice and they need to be adequately dealt with as per the provisions of law. …8/-27. In the circumstances I now pray for the following relief:- a) that the ATS be directed to submit an explanation for my detention without authority of law between 10.10.2008 and 23.10.2008; b). that enquiry / investigation be conducted into my accusation made hereinabove on oath, regarding custodial torture/violence and mental and psychological abuse; c). that such investigation as referred to in (b) above, include a polygraph test, as well as Narco analysis on me to determine the veracity of my accusations; d). that such investigation to include a polygraph test and narco analysis on officers of the ATS named by me, and also of those officers whose names, I do not know, but I can identify, for they subjecting me to mental and physical abuse during custody as well as others to be identified by me; e) that a report be called for from the ATS for the reasons of my admission in two hospitals ( Shusrusha an another) and the medical treatment undergone by me at the said two hospitals ; f) The ATS be directed to disclose the reasons for my stay at Hotel Rajdoot at Mumbai.; g) For such further and other reliefs as may be fit and proper in the facts and circumstances of the case.Filed in court on 17.11.2008Contents Explained to the Deponent in Hindi & Confirmed with Deponent.. (Deponent)Identified by me:ADVOCATE

सोमवार, 17 नवंबर 2008

धर्म से निरपेक्ष कौन ? .................
पवन कुमार अरविन्द
धर्म की अवधारणा के विविध पक्षों में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और सदा चर्चा में रहने वाला शब्द "सेक्युलर" है। इस शब्द के हिन्दी अनुवाद के रुप में देष के कुछ बुद्धिजीवी व राष्टीªयनेताओं ने "धर्मनिरपेक्ष" शब्द कहना शुरु कर दिया है, जो एकदम अनुचित है। भारतीय संस्कृति की विषिष्टता "सर्वधर्म समभाव" की है। अतः धर्म विरोधी कोई भी विचार भारत में स्वीकार्य नहीं है। सेकुलर ;ैमबनसंतद्ध शब्द का भारत और भारतीयता के सम्बन्ध में सही स्थान क्या हो सकता है, यह गम्भीर विचार का विषय है। इसी सन्दर्भ में इस लेख में यह प्रयास किया गया है कि क्या धर्म से निरपेक्ष कोई हो सकता है ? यदि इस देष के सभ्य समाज व विद्वत जन से यह प्रष्न किया जाय कि धर्म से निरपेक्ष कौन है? तो इसका एक ही उत्तर आयेगा,....कोई नहीं! संविधान के नये हिन्दी संस्करण में सेक्युलर का अनुवाद पंथनिरपेक्ष करके इस भूल के परिमार्जन का प्रयास हुआ है। फिर भी, आज की राजनीति में "धर्मनिरपेक्ष" शब्द का बोलबाला है। इस दौर की भारतीय राजनीति में दो शब्द "सेक्युलर" और "कम्युनल" (साम्प्रदायिक) अधिक सुनने को मिलते हैं। लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल स्वयं को सेक्युलर और शेष अन्य दलों को कम्युनल होने का आरोप लगा देते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में ही सेक्युलर का अनुवाद पंथनिरपेक्ष या सम्प्रदाय निरपेक्ष कर दिया जाता तो अनेक आषंकाए जन्म नहीं लेती। सेक्युलर शब्द के अर्थ के बारे में भले ही भिन्न-भिन्न मत रहे हों किन्तु उस मतभिन्नता में इस बात पर एकता थी कि राज्य का स्वरुप असाम्प्रदायिक होना चाहिए। इस प्रष्न पर आज भी एकमत हैं। इसलिए सेक्युलर शब्द के उद्भव पर चर्चा करना समीचीन होगा। राजनीतिक फलक पर सेक्युलराइजेषन ;ैमबनसंतपेंजपवदद्ध शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1648 ई० में तब हुआ जब यूरोप के गिरिजाघरों की सम्पत्ति पर वहंा के राजकुमारों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो गया था। ऐसा निरन्तर 30 वर्षों के यु़द्ध के पष्चात सम्भव हो सका था। इस घटना के बाद पूरे यूरोप में गिरिजाघरों की सम्पत्ति को लेकर एक बहस छिड़ गयी थी। फ्रंासीसी क्रान्ति के पष्चात 2 नवम्बर, 1789 ई० को वहां की नेषनल एसेम्बली में टैरीलैण्ड महोदय के द्वारा की गयी एक घोषणा के अनुसार गिरिजाघरों की सम्पूर्ण सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया। 50 वर्ष पष्चात् इंग्लैण्ड के रेषनलिस्ट मूवमेण्ट (तर्कवादी/बुद्धिवादी आन्दोलन) के नेता जार्ज जैकब हाॅलियोक (1817-1906), जिन्हें निरीष्वरवादी विचारक भी कहा जाता है, ने तत्कालीन परिस्थितियों में अपनी विचारधारा को व्यक्त करने के लिए एक नये शब्द ैमबनसंतपेउ का प्रचलन किया था। यदि हम वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृष्य पर विचार करें तो एक ऐसे शब्द ैमबनसंत की चर्चा बार-बार होती है जिसका प्रयोग भारतीय संविधान के मूल रुप में अनुच्छेद 25, खण्ड 2 के उपखण्ड (क) में केवल एक बार किया गया है, जिसके अन्तर्गत धर्म की स्वतन्त्रता के अधिकार पर उपबन्ध किया गया है। आपातकाल के दिनों में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने "42 वाँ संविधान संषोधन अधिनियम 1976" के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द "सोषलिस्ट" और "सेक्युलर" जोड़ दिया था, लेकिन इनमें से एक महत्वपूर्ण षब्द सेक्युलर को कहीं भी स्पष्ट परिभाषित नहीं किया गया। आज भी यह शब्द अपरिभाषित है। सेक्युलर को धर्मनिरपेक्ष कहना कितना सही है? यदि हम चिन्तन करें तो इसका अर्थ स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। 'धर्मसापेक्ष' शब्द का विलोम 'धर्मनिरपेक्ष' है। ये दोनों शब्द दो-दो शब्दों से मिलकर बने हैं। पहला धर्म$सापेक्ष व दूसरा धर्म$निरपेक्ष। पहले शब्द 'धर्म' का अर्थः इस शब्द के मूल में "धृ" धातु है, जिसका सम्बन्ध धारण करने से है। वेदों में कहा गया है कि, 'धारयते इति धर्मः' अर्थात जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जो जिसका वास्तकविक रुप है, उसे बनाए रखने और उस पर बल देने में जो सहायक हो वही उसका धर्म है। धर्म, वस्तु और व्यक्ति में सदा रहने वाली सहज वृत्ति, उसका स्वभाव, उसकी प्रकृति अथवा गुण को सूचित करता है। धर्म, कर्तव्य के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। जैसे- व्यक्तियों और समाज के सम्बन्धों को नियमित करने वाली जो चीजें हैं, उनको धर्म कहा जाता है। जहां तक कर्तव्य की बात है तो मातृधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, छात्रधर्म, प्रजा धर्म, पड़ोस धर्म आदि। ये सब हमारे कर्तव्य को बताते हैं। जैसे- माता का कर्तव्य क्या है, पिता का कर्तव्य क्या है, पुत्र का कर्तव्य क्या है, छात्र का कर्तव्य क्या है, राजा का कर्तव्य क्या है, प्रजा का कर्तव्य क्या है, एक पड़ोसी का दूसरे पड़ोसी के प्रति कर्तव्य क्या है, आदि-आदि ? अर्थात सबके कर्तव्य का निरूपण जिससे होता है, वह धर्म है। दूसरे शब्द "सापेक्ष" का अर्थ है- दूसरे पर निर्भर रहने वाला और इसका विलोम है "निरपेक्ष" यानि दूसरे पर निर्भर न रहने वाला या अलग, विलग, पक्षविहीन होकर रहना। अतः हम कह सकते हैं कि धर्म पर निर्भर रहने वाला या धर्म के अनुसार चलने वाला धर्मसापेक्ष है और धर्म पर निर्भर न रहने वाला या इससे पृथक या विलग रहने वाला "धर्मनिरपेक्ष" है। उदाहरण के लिए, सड़क पर बाएं चलने का नियम है। यदि हम दायें चलने लगें तो एक दूसरे को क्रास करना दुर्घटना को निमन्त्रण देना ही है, क्योंकि दाएं चलना स्वाभाविक नहीें है। दूसरा उदाहरण, यदि रास्ते में कोई पीड़ित या घायल व्यक्ति हमसे मिल जाये, जिसको हमारी सहायता की आवष्यकता है। हमारा धर्म भी है और मानवता भी कि हम उसकी यथोचित सहायता करें। इस प्रकार कर्तव्य के रुप में "धर्म" हमारे सामने उपस्थित है। यदि हम उसकी सहायता न करके कर्तव्य से विमुख हो जायें अर्थात धर्म से विमुख या धर्मनिरपेक्ष हो जायें, तो उस समय हमारी मानवता मर जायेगी। यानि धर्म से निरपेक्ष होना न तो मानव के हित में है और न ही मानवता के हित में। अब प्रष्न उठता है कि इस सृष्टि में धर्म से निरपेक्ष होकर कौन चल सकता है ? भारत और भारत के लोग तो कदापि नहीं। क्योंकि श्रीमöगवद्गीता के चैथे अध्याय के आठवें श्लोक में लीला पुरूषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण, अपने अवतार का हेतु बताते हुए कहते हैं कि, "जब-जब देष में अधर्म का बोलबाला और धर्म अथवा सुव्यवस्था का नाष होने लगता है, तब-तब मैं अवतार लेता हूं और साधु सज्जनों की रक्षा तथा दुष्टों का विनाष कर, धर्म की स्थापना करता हंू।" कुछ इसी प्रकार का वाक्य तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में वर्णन किया है- जब-जब होई धरम के हानी, बाढ़हिं असुर, अधम अभिमानी।। करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी, सीदहिं विप्र धेनु सुर धरनी।। तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा, हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।उपर्यक्त आधार पर मैं कह सकता हूं कि जिस धर्म की स्थापना के लिए स्वयं साक्षात् नारायण और सभी सत्पुरुष समाज सतत् प्रयत्नषील रहते हैं, उससे निरपेक्ष होकर कौन चल सकता है। भारत के मा० सर्वोच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ ने भी डेण् ।तनदं त्वल - व्जीमते टे न्दपवद व िप्दकपं - व्जीमते के केस के सन्दर्भ में 12 सितम्बर, 2002 के अपने फैसले में ैमबनसंतपेउ को विधिवत परिभाषित किया है- ।बबवतकपदह जव श्रनेजपबम क्ींतउंकीपांतपए श्ज्ीम तमंस उमंदपदह व िैमबनसंतपेउ पद जीम संदहनंहम व िळंदकीप पे ष्ैंतअं।क्ींतउं.ैंउइींअष् उमंदपदह मुनंस जतमंजउमदज - तमेचमबज वित ंसस तमसपहपवदेए इनज ूम ींअम उपेनदकमतेजववक जीम उमंदपदह व िेमबनसंतपेउ ंे ष् ैंतअं.क्ींतउं.ैंउ.।इींअ ष् उमंदपदह दमहंजपवद व िंसस तमसपहपवदेण्श् प्रथम राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार, "सेकुलर का वास्तविक अर्थ यह है कि इस देष में सभी लोग अपनी इच्छा की आस्था का पालन अथवा प्रचार करने के लिए स्वतन्त्र हैं, तथा हम सभी धर्मों की सफलता की कामना करते हैं और उन्हें बिना बाधा के अपने ढंग से ही विकसित होने देना चाहते हैं। " अतः ैमबनसंत शब्द का हिन्दी अनुवाद धर्मनिरपेक्ष करना गलत है। सही अनुवाद होगा पंथनिरपेक्ष, मजहबनिरपेक्ष, सम्प्रदाय निरपेक्ष या सर्वधर्म समभाव, और यह अवधारणा भी राज्य के सन्दर्भ में है। भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में अपने पंथ की निरपेक्षता भी अनुचित है। भारतीय दर्षन, पंथ से निरपेक्ष होने की बात सोच भी नहीं सकता। भारतीयता का भाव "सर्वधर्म समादर भाव" है। किन्तु "धर्मनिरपेक्ष" तो अधार्मिक और पतित ही कहा जायेगा। कोई राज्य धर्म से निरपेक्ष हो कर नहीं चल सकता क्योंकि नागरिकों के प्रति राज्य के कुछ कर्तव्य होते हैं। धर्मसापेक्ष राज्य ही पंथनिरपेक्ष हो सकता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य अर्थात कर्तव्यपरायणता से विमुख राज्य, पंथनिरपेक्षता का पालन कभी नहीं कर सकता। अतः हम कह सकते हैं कि सेकुलरवाद की भारतीय परिकल्पना अधिक सकारात्मक है, साथ ही यूरोपीय धर्मेत्तर सेकुलरवाद के सिद्धान्त से भिन्न भी है। ब्यूरो चीफदिव्य भारत साप्ताहिक144 बी /12, गुरुनानकपुरालक्ष्मीनगर , नई दिल्ली-92मोबाइल- 09873875050

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

आतंक के खिलाफ जोर की मुहिम की जरूरत
संदीप भटट
जयपुर दिल्‍ली और अब असम। धमाकों का एक सिलसिलेवार आतंकी युद्ध। हर बार की तरह निशाने पर आम आदमी। आम आदमी जो अदद रोजी रोटी की तलाश में घर से निकलता है, इस उम्‍मीद के साथ कि दो जून का जुगाड़ कर वापस आ जाएगा। एक बार फिर बम के धमाकों से दहल गया है। गुवाहाटी के गणेशगुडी, कछारी, फैंसी बाजार और पान बाजा और बोगाइगांव इलाकों में सुबह साढे़ 11 बजे के आसपास 4 धमाके हुए। धमाकों में तत्‍कालिक तौर पर करीबन 65 से अधिक लोगों की मौत हो गई और 60 से अधिक लोग घायल हुए जिनकी संख्‍या शुक्रवार तक साढ़े चार सौ का आंकड़ा पार कर गई । ये आंकड़े लगातार बढ़ ही रहे हैं। शुरूआती रिपोर्टो के मुताबिक पूरे राज्‍य में 12 विस्‍फोट हुए हैं। विस्‍फोट के बाद सूबे के मुखिया तरूण गोगोई ने इन हमलों की कड़ी निंदा की। इन धमाकों को असम में हुए अब तक के सबसे बडे धमाकों में से एक माना जा रहा है। विस्‍फोट के बाद से आमतौर पर जैसा होता है, असम में भी अनिश्‍चितताओं का माहौल व्‍याप्‍त बन गया। पिछले कुछ दिनों में देश में आतंकियो द्वारा बमधमाकों की वारदातों में तेजी आई है। सिलसिलेवार आतंकी धमाकों की शुरूआत इस साल जयपुर में मई माह में हुई वंहा नौ सिलसिलेवार धमाकों से गुलाबी नगरी दहल उठी। जयपुर में हुए धमाकों में 65 से अधिक लोगों की जानें गईं और 150 लोग घायल हुए। इसके बाद सिलिकॉन सिटी बेंगलुरु में नौ सिलसिलेवार धमाके हुए। इसके ठीक एक दिन बाद ही अहमदाबाद में हुए 18 सिलसिलेवार धमाकों में 57 लोग मारे गए तथा 130 अन्य घायल हुए। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी सिलसिलेवार धमाकों से नहीं बच सकी। दिल्‍ली में छह सिलसिलेवार धमाकों में 26 लोग मारे गए तथा 50 अन्य घायल हुए। भीड़ भरे बाजार और खुले स्‍थान जंहा पर लोगों की आवाजाही अधिक होती है, आतंकियों के निशाने पर रहते हैं। ये बात सही है कि आतंकवादी हमले कंही भी हो सकते हैं लेकिन तमाम सुरक्षा व्‍यवस्‍थाओं और खूफिया तंत्रों के होने के बावजूद अगर आतंकी खुलेआम इस तरह की वारदातों को अंजाम देते हैं तो यह तंत्र की नाकामी को ही दर्शाता है। असम पूर्वोत्‍तर का सबसे बड़ा राज्‍य है जंहा, असमी, बंगाली और बड़ी संख्‍या में हिंदी भाषी लोग साथ साथ रहते हैं। अपनी इसी खासियत के कारण असम हमेशा से ही अलगाव वादियों के प्रमुख निशाने पर रहा है। यंहा यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ असाम (उल्‍फा) और अल्‍फा का बेहद प्रभाव है और आमतौर पर हिंसक वारदातों में इनका नाम भी शुमार होता है। इन हमलों में भी आशंका व्‍यक्‍त की जा रही है कि इसमें प्रतिबंधित उल्‍फा या हुजी का हाथ हो सकता है।धमाकों के बाद जैसा कि आमतौर पर होता है कि पुलिस तंत्र पूरी तरह से चौकस हो जाता है, इलाके की नाकेबंदी कर दी जाती है, वैसा ही असम में भी किया गया। पूरे राज्‍य में हाई एलर्ट घोषित कर दिया गया, गुवहाटी में धारा 144 लगा दी गई। प्रधानमंत्री का बयान आया कि विघटनकारी ताकतें देश की बढ़ती आर्थिक तरक्‍की को कमजोर करना चाहती हैं। विपक्ष के नेता आडवाणी का बयान भी रटे रटाए जुमले की तरह रहा कि यूपीए सरकार के आने के बाद देश में आतंकवाद की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है। आडवाणी अपने दल की सरकार के समय की घटनाओं को भूल जाते हैं। उन्‍हे कारगिल में आतंकियों की घुसपैठ और कांधार विमान अपहरण वाली बातें तों जैसे याद ही नही। कारगिल तो ऐसी घटना थी जो सीधे तौर पर रक्षा एवं गुप्‍तचर संस्‍थाओं की नाकामियों और आपसी तालमेल न होने का नतीजा थीं। यह जिम्‍मेदार मंत्रालय उस वक्‍त आडवाणी के पास ही था। लेकिन अब उन्‍हें लगता है कि ये सारी आतंकी घटनाएं यूपीए की नाकामियों का नतीजा हैं। दरअसल वे सरकार के खिलाफ आतंकवाद के आरोपों को को सिर्फ राजनैतिक रोटियां सेंकने वाली बेहतरीन आग की तरह इस्‍तेमाल कर रहे हैं । जबकि यह समस्‍या बेहद गंभीर है और सभी राजनैतिक दलों को इसके खिलाफ एक साथ खड़ा होना चाहिए। यह सारे मुल्‍क की समस्‍या है। मौजूदा समय में आतंकी वारदातें न सिर्फ भारत बल्‍कि अमेरिका, ब्रिटेन और तमाम अन्‍य मुल्‍कों के लिए भारी परेशानी का कारण बन गई हैं। भारत में आतंक के अलग अलग चेहरे मोहरे हैं। जम्‍मू काश्‍मीर और पूर्वोत्‍तर के असम समेत कई अन्‍य राज्‍यों में अलगाववादी संगठन लंबे समय से आतंक का पर्याय बने हुए हैं। पिछले कुछ सालों में तो गणतंत्र दिवस या स्‍वतंत्रता दिवस के विशेष मौकों पर ये संगठन बाकायदा आगाह करते हुए आतंकी घटनाओं को अंजाम देते हैं। सेना समेत गृह विभाग के तहत कार्यरत सुरक्षाबलों की यंहा तैनातिया वर्षों से हैं। लेकिन हर बार की तरह आतंकी वारदातों को अंजाम दे देते हैं और सुरक्षाबलों के लिए एक नई मुसीबत पैदा कर देते हैं। जम्‍मू काश्‍मीर में लगभग रोजाना आतंकियों और सेना के बीच मुठभेड़ें चलती रहती हैं। आतंकियों से मुठभेड़ों के दौरान सैकड़ों निर्दोष नागरिकों की जान जाती है और असंख्‍य सैनिक शहीद होते हैं। यह आतंकवाद से पीड़ित भारत जैसे तमाम और मुल्‍कों में एक अंतहीन और सतत प्रक्रिया बनती नजर आ रही है। मुल्‍क के अन्‍य राज्‍यों जिनमें छत्‍तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, झारखंड और महाराष्‍ट्र तथा मध्‍यप्रदेश भी शामिल हैं, नक्‍सलियों से त्रस्‍त हैं। सबसे अधिक आंध्र और छत्‍तीसगढ़ इस आतंक से प्रभावित हैं। आये दिन छत्‍तीसगढ़ में नक्‍सली हिंसा की वारदातें होती ही रहती हैं। यदाकदा महाराष्‍ट्र और मध्‍यप्रदेश में भी नक्‍सली वारदातों की खबर आती ही रहती है। भाजपा शासित मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल में नक्‍सलियों के कई सरगनाओं को पकड़ा जा चुका है। आतंकवाद के मुद्दे पर केंद्र सरकार की घोर आलोचना करने वाली भाजपा हर बार यह भूल जाती है कि आतंकवाद के लिए सिर्फ आरोप प्रत्‍यारोपों से ही काम नही चलता है इसके लिए सहयोग, समर्थन और दृढ़ इच्‍छाशक्‍ति की आवश्‍यकता होती है। सरकार को भी चाहिए कि सुरक्षाबलों और खूफिया विभागों को सतर्क रहने और आतंकवादी हमलों से पूरी तरह से निपटने की चेतावनी दे। निस्‍संदेह सरकार के कड़े रवैये से इस तरह के काम करने वालों की शैलिया और प्रभावशीलता बढ़ेंगी। सबसे अहम यह भी होगा कि सभी सुरक्षा बलों और खूफिया तंत्रों के बीच बेहतर तालमेल स्‍थापित किया जाए। क्‍योंकि अक्‍सर बाद में यह बात सामने आती है कि अगर इनके आपस में अच्‍छा तालमेल हो तो आतंकी वारदातों को काफी हद तक नाकाम करने में मदद मिल सकती है। आज आतंकवाद सिर्फ भारत की ही समस्‍या नही है बल्‍कि पूरे विश्‍व के लिए एक चुनौती है। अब आतंक के लगातार नए चेहरे सामने आ रहे हैं। आतंकी बेहतरीन प्रशिक्षण प्राप्‍त और तकनीक से लैस होकर चुनौतियां पेश कर रहे हैं। यह तकनीक और आतंक का मिलाजुला रूप है जो बेहद घातक है। हमारे राजनैतिक दलों को इस तरह की बयानबाजियों से बाज आते हुए आतंकवाद के विरोध में आवाज बुलंद करनी चाहिए। अमेरिका से इस मामले में सीख ली जा सकती है जंहा 13 सितंबर को वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद पूरा मुल्‍क आतंक के विरोध में एक स्‍वर से उठ खड़ा हुआ। भारत को भी इसी तरह की इच्‍छाशक्‍ति और बुलंद आवाज की जरूरत है।
मालेगावं,मालेगावं,मालेगावं।क्या मालेगावं के अलावा कहीं धमाके नही हुए?
मालेगावं,मालेगावं,मालेगावं।क्या मालेगावं के अलावा देश में कहीं और धमाके नही हुए?क्या दुसरे शहरों मे हुए धमाकों की जांच मे ये तेजी नज़र आई?क्या मालेगावं के धमाकों मे हिन्दूवादी संगठन से जुडे लोगों पर शक होने से बाकी शहरों में हुए धमाको का पाप धुल सकता है?मालेगावं की गल्ती क्या बाकी गल्तियों को कम साबित कर सकती है?क्या बाट्ला हाऊस काण्ड की न्यायिक जांच की मांग करने वालों को इस मामले मे जांच की जरुरत नज़र नही आती?क्या मालेगावं काण्ड का शक हिन्दू उग्रवाद जैसी धारणा बनाने के लिये काफ़ी है?अगर काफ़ी है तो फ़िर इस्लामिक उग्रवाद पर आपत्ति क्यों?मालेगावं धमाके की जांच को जितनी प्राथमिकता से सार्वजनिक किया जा रहा है,क्या अन्य धमाको की जांच को सार्वजनिक किया गया?क्या मालेगावं के धमाको के तार एक साध्वी से लेकर सेना के अफ़सर तक जोडने वाले एटीएस के अफ़सरो ने दूसरें शहरों के धमाको के तार सिमी के बाद आगे कहीं किसी से जोड कर दिखाये थे?इसका मतलब ये नही है कि मालेगावं के धमाके जायज हैं,वो भी उतने ही नापाक थे जितने दूसरे शहरों मे हुए धमाके।मगर दोनो धमाकों को अलग-अलग नज़रिये से देखने-दिखाने का षडयण्त्र बंद होना चाहिये।कुछ सवाल ऐसे है जिनके ज़वाब ढूंढना ज़रूरी है?वर्ना इस्लामिक उग्रवाद की उग्रता को कम करने के लिये हिन्दू उग्रवाद,मराठी अलगाववाद की तपिश को कम करने के लिये उल्फ़ा और हुज़ी और उल्फ़ा और हुज़ी को छिपाने के लिये पता नही किस-किस का सहारा लेना पडेगा?देशवासी सब देख रहे हैं और समझ रहे हैं,उन्हे नेता बहुत ज्यादा समय तक अंधेरे मे नही रख सकते हैं।
हिन्दु आतंकवादी एक और कंलक का कोशिश
द्वारा प्रकाशित किया गया चन्दन चौहान पर 8:55 AM लेबल: , , , ,
14 नवम्बर 2004 दिपावली के ठीक पहले शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र स्वामी को ठीक पुजा करते समय गिरफ्तार किया गया सेकुलर के द्वारा यह किसी विश्व विजय से कम नही था जम कर खुशीयाँ मनायी गया। इस खुशी के माहौल को दुगना करने में मिडीया का भरपुर सहयोग मिला मिडीया पुलिस और खूफिया ऎजेन्सी से ज्यादा तेज निकला और डेली एक नया सबूत लाकर टी.वी समाचार के माध्यम से दिखाया जाने लगा हिन्दु साधु-संत को जम कर गालिया दिया जाने लगा सभी को हत्यारा कहा जाने लगा। लेकिन सेकुलर और मिडीया का झुठ ज्यादा दिन तक नही टिका और शकराचार्य स्वामी जयेन्द्र स्वामी के खिलाफ सेकुलर और मिडीया कुछ भी नहीं साबित कर रहा था, सभी आरोप को बकवास करार दिया गया, उच्चतम न्यायालय का फैसला शकराचार्य स्वामी जयेन्द्र स्वामी के पक्ष में आया उन्हे हत्या के आरोप से जमानत के द्वारा रिहा कर दिया गया।इस दीवाली हिन्दुओ के उपर एक और कंलक लगाने का कोशिश किया जा रहा हिन्दु आतंकवादी का बैगर किसी सबूत के एक हिंदू साध्वी को मालेगांव विस्फोटों में उसकी कथित तौर पर शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। पुलिस के पास सबूत नही है। जिस मोटर बाइक का उपयोग विस्फोट में करने के बारे में बताया जा रहा है उस बाइक को कुछ साल पहले बेच दिया गया था। स्पेशल पुलिस रविवार को साध्वी प्रज्ञा सिंह के किराए के मकान पर छापा मारा, लेकिन वहाँ से कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला। मुंबई एटीएस प्रदेश में साध्वी प्रज्ञा से जुड़े लोगों की गतिविधियों की जानकारी एकत्रित कर रही है। लेकिन अभी तक पुलिस को कोई खास सफलता मिला लगता नही है। लेकिन इस मुद्दे पर काग्रेसी और उसके सहयोगी के द्वारा झुठा प्रचार सुरु कर दिया गया है । चुनाव से पहले खुफिया ऎजेन्सी और पुलिस को अपने चुनाव ऎजेन्ट के रुप में काम करवाया जा करवा दिया है। काग्रेस के नेता और उनके सहयोगी दल इसी कोशीश में लगे हैं कि किस हिन्दु संघठन को चुनाव तक हिन्दु आतंकवादी का तगमा लगा कर रखा जाये जिससे चुनाव में फायदा उठाया जा सके। कांग्रेस सरकार इस पांच साल में इस देश को क्या दिया है। इस सरकार के दौरान सबसे ज्यादा मुस्लिम आतंकी का भयावह चेहरा हिन्दुस्तान देखा है। आंतकी को सरक्षण देने के लिये पोटा हटा दिया गया। परमाणु करार के द्वारा सरकार अपना परमाणु और रक्षा निती अमेरिका के हाथ में गिरवी रख दिया है। आखिर कौन सा चेहरा मुंह कांग्रेस उन किसानो के पास वोट मागने जायेगा जिसके परिजन आत्महत्या कर चुके हैं। हिन्दुस्तान का अर्थव्यवस्था आज जिस गति से निचे गिर रहा है उतना तेजी से शायद सचिन और धोनी ने रन भी नही बनाता है। हमारे अमेरिकन स्कालर प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी वित्त मंत्री के द्वारा लाख भरोसा और आश्वासन के बाबजुद भी अर्थव्यवस्था का गिरना बन्द नही हो रहा है अगर हालत यही रहा तो 1-2 महीना के अन्दर हिन्दुस्तान में भुखमरी सुरु हो जायेगा। सोचने योग्य बाते हैं आखिर हिन्दु अपने देश हिन्दुस्तान में क्यों बम विस्फोट करेंगे। उन्हें ना तो किसी देवता के द्वारा जिहाद करने को कहा गया है। नही हिन्दु इस देश को दारुल हिन्दुस्तान बनाना चाहता है। हिन्दु के किसी धर्म ग्रन्थ में कही भी यैसा भी नही लिखा है कि दुसरे धर्म वालो को तलवार से सर कलम कर दो। उसके बच्चों को उसी के सामने पटक कर मार दो उसकी बहन और बेटी का बलात्कार करो। किसी हिन्दु धर्मगुरु ने मंदिर के उपर चढकर अपने भक्तों को कभी नही कहा होगा की तुम्हे अपने घर में हथियार रखना जरुरी है और हिन्दु जिहाद के नाम पर चन्दाँ इकट्ठा कर के आतंकवादीयों को सुरक्षा मुहैया करना है आतंकवादीयों को अपने घर में पनाह देना है। और उसे न तो किसी आतंकवादी देश के द्वारा छ्दम युद्ध लड़ने के लिये पैसा मिलता है। आखिर क्या कारण है कि हिन्दु अपने घर को तवाह करना चाहते हैं। कोई कारण समझ में नही आता है सिर्फ इतना ही समझ में आरहा है कि हिन्दु आतंकवाद का डर दिखा कर कुछ मुस्लिम तुस्टिकरण में लिप्त, आतंकवादियों के सहयोगी राजनिती पार्टी को चुनाव में फायदा होगा। और कोई कारण नही है इस हिन्दु आतंकवादी का। सत्यमेव जयते के सिद्धान्त का पालन करते हुये हिन्दु इसी आशा में बैढे हैं कि जिस तरह से शकराचार्य स्वामी जयेन्द्र स्वामी को न्यायालय के द्वारा बाइज्जत बरी किया गया उसी तरह इस साध्वी प्रज्ञा सिंह भी एक दिन इज्जत के साथ जेल से रिहा होगी और तथाकथित सेकुलरिज्म का नकाव पहने, समाचार के नाम पर दलाली करने बाले मिडीया के गाल में तमाचा मारते हुये। फिर से इस देश में अपने ओजस्वी भाषण, देशभक्ती कार्य के द्वारा इस देश को परम वैभव में पहुचाने के कार्य में लग जायेगी।http://ckshindu.blogspot.com

2 प्रतिक्रियाऐं:
Anonymous said...
भाई हिन्‍दु आतंकवाद के खिलाफ कार्यवाही होने पर यह दर्द क्‍यों। आतंकवाद के खिलाफ आज तक जितनी गिरफतारियॉं हुई हैं, वे सभी बिना किसी सुबूत के खिलाफ होती रही हैं। पर इससे पहले आप ही कहते रहे थे कि इन देश द्रोहियों को फांसी दो। अब यह हायतौबा क्‍यों।
October 31, 2008 11:01 AM
Anonymous said...
हम आज भी कहते हैं अफजल, नागोरी, अबु फजल जैसे देशद्रोहियों को फांसी दो क्यों ये हरामी आतंकवादी हैं और ये आतंकवादी अपने मुह से कबुला है, हजारो सबुत है आतंकवादी के खिलाफ। पुलिस के उपर बाटला हाउस में गोली चलाने बाला क्या देशभक्त होता है। किसी कुरान में यैसे दोगले चरित्र वाले देशद्रोही आतंकवादी का महिमामंडन किया जाता है। या फिर दिगले नेता चरित्र वाले नेता जो वोट के लिये आतंकवादी का गुनगाण करता होगा। लेकिन साध्वि के खिलाफ अगर सबूत है तो उसे मकोका के तहत क्यों नही गिरफ्तार किया गया। जब पुलिस को साध्वि से पुछ ताछ में कुछ भी हाथ नही लगा नार्को टेस्ट और ब्रेन मैपिक करवाया जा रहा है।मुस्लिम आतंकवादी के समर्थन करने बाले भी दोगले और देशद्रोही हैं
दिल्‍ली राजस्‍थान मध्‍यप्रदेश और छत्‍तीसगढ़ के चुनावी समर

संदीप भटट

राजधानी दिल्‍ली समेत राजस्‍थान, मध्‍यप्रदेश, छत्‍तीसगढ़ में चुनावों की हलचलें रोजाना तेज हो रही हैं। दिल्‍ली में तकरीबन दस सालों से शीला दीक्षित का एकछत्र राज है। शीला कांग्रेस की पुरानी सिपहसालार हैं और बेहद बहादुरी के साथ दिल्‍ली के विकास का दावा कर रही हैं। मेरी दिल्‍ली मैं ही संवारू जैसे अभियानों की शुरूआत करने वाली दीक्षित ने इस तरह के भागीदारी अभियान से दिल्‍ली की सूरत बदलने की कवायद शुरू कर एक साहसिक कदम उठाया। इसके नतीजे बेहद सुखद रहे और दिल्‍ली दुनिया के उन महानगरों में शुमार हो गया जिन्‍होंने तेजी से कम होती जा रही हरियाली को रोका और शहर को हरा भरा कर गुलजार किया। दिल्‍ली में अब बिजली के हालात थोड़ा बेहतर हैं। इसका निजीकरण किया गया और बिजली चोरी के मामलों में थोड़ा कमी आई है। राष्‍ट्रमंडल खेलों के लिए दिल्‍ली शहर को सुंदर और सुविधाजनक बनाने के लिए प्रयासरत शीला सरकार अब भी प्रतिबद्ध है और वाकई दिल्‍ली में तेजी से काम चल रहा है। दिल्‍ली के एक नदी यमुना जो कंही से भी यंहा आकर नदी की शक्‍ल में नही दिखती, शीला ने इंजीनियर इंडिया लिमिटेड की मदद से इसे फिर से एक नदी बनाने की चुनौती पर भी काम शुरू किया है। उनकी सरकार का दावा है कि वर्ष 2010 तक यमुना का पानी आचमन के काबिल बना दिया जाएगा। हलांकि उनकी सरकार पर इस योजना के ऊपर करोड़ों रूपये बरबाद करने के बाद भी बेहतर परिणाम न देने के आरोप भी लगे हैं। लेकिन दिल्‍ली में पता चलता है कि वाकई काम हो तो रहा है।
शीला दिल्‍ली में बाहर से आने वाले लोगों के खिलाफ विवादित बयान के कारण भी सुर्खियों में रही थीं। हो सकता है कि उस बयान का खामियाजा उन्‍हे भुगतना पड़े क्‍योंकि आधे से अधिक लोग दिल्‍ली के बाहर से आकर यंहा बसे हैं। उनकी सबसे बड़ी नाकामी रही दिल्‍ली को एक सुरक्षित शहर न बना पाने की। मामले दिल्‍ली में बढ़ते अपराधों का हो या फिर आतंकवादी घटनाओं के, शीला सरकार को इस मोर्चे पर सफलता नही मिली। 15 अगस्‍त या 26 जनवरी के आसपास दिल्‍ली में हर चार कदम पर पुलिस का जवान दिखाई देता है और कुछ ही फासले पर पुलिस की गाड़ी। एक छावनी में तब्‍दील हो जाती है राजधानी। लोगों को इतनी पुलिस के साथ असहज भी लगता है,खासकर उनको जो बाहर से पहली बार यंहा आते हैं। लेकिन मामला सुरक्षा का होता है सो यह कवायद भी जरूरी है। अफसोस की बात है कि यही पुलिस बल तब कंही नही दिखता जब पॉश इलाकों में हत्‍या, बलात्‍कार,या कोई और अपराध घटित होते हैं, कई बार तो दिनदहाडे़ ही। महिलाओं के लिए तो यह देश के सबसे असुरक्षित शहरों में से एक है। लेकिन हद तो तब होती है जब भीड़ भाड़ वाले वाले इलाके में आतंकी बम विस्‍फोट करते हैं और पुलिस को मेल भी भेजते हैं। शीला दिल्‍ली वालों को सुरक्षा तो नही दे सकीं और यह भी आने वाले चुनावों में एक बड़ा मुददा रहेगा।
शीला के खिलाफ विपक्षियों में कोई खास दम नजर नही आता। भाजपा या अन्‍य किसी पार्टी के पास शीला के कद का कोई नेता नही है। शीला का कद और भी ऊंचा इसलिए है क्‍योंकि उनके पास संभालने के लिए एक अदद सा शहर दिल्‍ली ही तो है। हां पड़ोसी राज्‍य की मुखिया मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला शीला के और अन्‍य पार्टियों के गणित को गड़बड़ाने के लिए काफी है। वैसे भी एनसीआर के नोएडा तक तो मायाराज ही है।
छत्‍तीसगढ़ की अपनी ही अलग समस्‍याएं हैं। ये राज्‍य अगर चैनलों अक्‍सर नक्‍सली हमलों की वजह से ही सुर्खियों में आता है। राजधानी रायपुर में तेजी से बनते जा रहे शापिंग मॉलों की ऊंचाइयों को देख लगता है कि यंहा कुछ जरूर नया हुआ है, जमीन के भाव आसमानों को छू रहे हैं, मुख्‍यमंत्री रमन सिंह विकास का मजबूत दावा करते हैं। उन्‍होंने बायोडीजल वाली गाड़ी इस्‍तेमाल की और इसे राजशाही में हो रहे खर्चो में कटौती कहा। उनकी एक मात्र उपलब्‍धि है बेहद सस्‍ते दामों पर लोगों को चावल मुहैया कराना। यह मंहगाई के दौर में आम आदमी को थोड़ा राहत पंहुचाने वाला काम है। राजधानी रायपुर में ही बड़े बड़े नक्‍सली नेताओं की गिरफ्तारियों ने रमन सिंह सरकार के सामने चुनौती पेश की, जिसे उन्‍होंने बखूबी कबूल किया। लेकिन यह एक ऐसी समस्‍या है जो केंद्र और राज्‍य सरकार के बेहतर सामंजस्‍य के बिना खत्‍म नही होने वाली। लेकिन फिर भी जिम्‍मेदारी को यह कह कर टाला नही जा सकता और इस पैमाने पर रमन सरकार कुछ खास नही कर पाई। छत्‍तीसगढ़ का एक अलग किस्‍म का दर्द भी है और वो है आम छत्‍तीसगढ़ी का विकास। रायपुर स्‍टेशन हो, राजनांदगांव या फिर बिलासपुर, छत्‍तीसगढ़ का बासिंदा अब भी ठहरा हुआ ठगा हुआ सा महसूस करता है। अधिकांश सरकारी दफ्तरों या कुछ एक कंपिनयों के आफिसों में काम करने वालों में वो लोग अधिक हैं जो उत्‍तरप्रदेश, मध्‍यप्रदेश,बिहार या महाराष्‍ट्र से आए हैं। आम छत्‍तीसगढ़ी तो अब भी विकास से कासों दूर है। चुनावों में यंहा रमन सिंह के खिलाफ कोई खास कददावर अजीत सिंह के अलावा कोई नेता कांग्रेस के पास नही है। और कांग्रेस की अंतरकलह जगजाहिर है। जोगी भी लंबे समय से रायपुर के राजनैतिक धरातल से गायब रहे। चुनावों की घोषणा से पहले ही बसपा सुप्रीमों मायावती ने राजनैतिक जमीन की तलाश यंहा शुरू कर दी थी। लेकिन आदिवासी बहुल और नक्‍सल प्रभावित छत्‍तीसगढ़ में सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी शायद उत्‍तरप्रदेश के र्फामूले पर न हो सके।
राजस्‍थान की रेतीली धरती पिछले कुछ महीनों पहले गुर्जर आंदोंलन की आग से और भी गर्म हो गई। भाजपा की वसुंधरा राजे सूबे की मुखिया हैं। कुछ समय पहले कांग्रेस और भाजपा दोनों के बड़े नेताओं के दैवीय स्‍वरूप वाले कैलेंडर या पोस्‍टर छपने की खबरें प्रकाश में आई थी। राजे का नाम भी उन नेताओं में शुमार था। बाद में एनडीए सरकार में रक्षा मंत्री रह चुके जसवंत सिंह और राजे की राजनैतिक खींचतान भी चर्चाओं में रही। असली विवादों और सुर्खियों में वे गुर्जर आंदोलन के दौरान रहीं। आरक्षण के मसले पर गुर्जर समुदाय सड़कों पर उतर आया। रेलें रोकी गई, सरकारी बसों को जलाया गया, करोड़ों का नुक्‍सान हुआ और जानमाल का भी नुक्‍सान हुआ। सरकार आंदोलन को रोकने में नाकाम रही और गुजर्रो का असंतोष अभी भी खत्‍म नही हुआ है। राजस्‍थान में आतंकी घटनाओं का होना भी चुनावों में एक बडा मुददा रहेगा। जयपुर के बम धमाकों की आवाज चुनाव के परिणामें में परिणित होगी। आजकल भाजपा के नेता और राजस्‍थान में मजबूत पकड़ रखने वाले भूतपूर्व उप राष्‍ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत की भ्रष्‍टाचार विरोधी मुहिम भी चुनावों को एक अलग रूख देगी। कांग्रेस के भीतर का कलह राजस्‍थान में भी पार्टी को कोई खास फायदा नही होने देगा। प्रदेश में बसपा भी अपनी उम्‍मीदवारी को मजबूत करने में लगी है और चूंकि इसके कुछ इलाके खासकर भरतपुर आदि उत्‍तरप्रदेश की सीमा से सटे हैं सो कम से कम इन इलाकों में पार्टी कुछ सीटें झटक सकती है।
मध्‍यप्रदेश ने भाजपा के इस शासनकाल मे तीन मुख्‍यमंत्री देखे हैं। उमाभारती जो अब भाजपा से नाता तोड़ चुकी हैं, बाबूलाल गौर और युवा छवि वाले मौजूदा मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान । इससे पहले कांग्रेस राज से आजिज आकर जनता ने सत्‍ता पलट कर दिया और भाजपा को मौका दिया। पहले कुछ साल अस्‍थिरता के बावजूद मध्‍यप्रदेश के लोगों को सरकार सही हाथों में दिखी। कई सर्वेक्षणों में प्रदेश को तेजी से विकास की ओर अग्रसर बताया गया। योजनाओं और घोषणाओं की धाराएं प्रदेश में बहने लगी। शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, ग्रामीण विकास, रोजगार आदि फ्रंटों पर शिवराज सरकार को सफलतम घोषित करने की स्‍वनामधन्‍य कोशिशें की गई। लेकिन जो यहां रहते हैं असलियत उन्‍हें ही पता है। जिला मुख्‍यालयों से कुछ ही दूरी के ऐसे सैकड़ों गांव है जिनमें दीपावली के दिन भी बिजली का कोई पता नही होता। पानी तो इंदौर जैसे महानगर में भी एक दो दिन छोड़कर आता है। अपराधों में कोई कमी नही आई। सबसे चिंताजन पहलू ये है कि कमजोर वर्गों के प्रति बेहद असंवेदनशीलता दिखाई देती है। कमजोर वर्ग सबसे असुरक्षित महसूस करता है। राजधानी भोपाल में ही अपराध का ग्राफ पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है। एक बार तो नक्‍सली नेताओं की पूरी फौज ही भोपाल से पकड़ी गई। स्‍वास्‍थ्‍य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की बदहाली अब भी जगजाहिर है। हाल के दिनों में कुपोषण के मामले जाहिर होने पर लीपापोती की गई लेकिन हकीकत है कि यंहा हालात वाकई गंभीर हैं। आंतकी संगठनों से जुड़े लोगों की प्रदेश के छोटे शहरों से जुड़े होने की खबरों ने बताया है कि यंहा का तंत्र सुरक्षा को लेकर कितना सचेत है। मध्‍यप्रदेश के राजनेताओं में मौजूदा मानव संसाधन मंत्री अर्जुनसिहं, स्‍व माधवराव सिंधिया, दिगविजय सिंह, वर्तमान वाणिज्‍य मंत्री कमलनाथ समेत कई दिग्‍गज नेताओं के नाम शुमार हैं लेकिन फिर भी यह प्रश्‍न यथावत रहता है कि क्‍यों देश का ह्दय कहलाने वाल मध्‍यप्रदेश विकास की दौड़ में इतना पीछे है। क्‍यों यंहा के किसानों, आदिवासियों के हालात भी कतिपय छत्‍तीसगढ़ जैसे ही हैं। 2004-05 के दौरान एक खबर आई थी कि आदिवासी अंचल के जिलों के किसानों ने तत्‍काली राष्‍ट्रपति डा. कलाम से स्‍वैच्‍छा मृत्‍यु की अनुमति मांगी थी। किसान वाकई परेशान हैं और आम आदमी भी आहत है कि जिन ख्‍वाबों के साथ उसने इस नई सरकार के नेतृत्‍व करने वालों कों वोट दिया था वे तो पूरे ही नही हुए। इन आम आदमियों सवालों के जवाब तो सरकार को देने ही होंगे। कांग्रेस का अंर्तकलह यंहा कोई नई बात नही है। वैसे कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी भी प्रदेश के अंचलों के कई दौरे कर चुके हैं और बेहद संजीदगी के साथ उन्‍होंने रणनीतिकारों की एक लाबी तैयार की है। राहुल कभी किसी गांव मे सभा करते हैं तो कभी किसी गरीब की झोपड़ी में रात बिताते हैं। वाकई वे गंभीरता से कांगेस की खोई राजनैतिक जमीन की तलाश की जददोजहद मे लगे हैं, लेकिन उनकी समस्‍या यह है कि इस पार्टी में लार्जर देन पार्टी कई लोग हैं जो पीढ़ीयों से पार्टी पर काबिज हैं और सत्‍ता सुख भोगते आ रहे हैं। यही खेमेबाजी कांगेस की परेशानी का कारण बनती जा रही है।कई गुटों में बंटी इस पार्टी का प्रदेश में क्‍या हाल होगा कहा नही जा सकता है। उमा भारती की भारतीय जनशक्‍ति पार्टी भाजपा को कुछ हद तक नुकसान पंहुचा सकती है। मौजूदा सरकार में भी कई ऐसे मंत्री हैं जिनक मन में उमा के प्रति आदरभाव अब भी है। बुंदेलखंड से लगे इलाको में बसपा का हाथी हावी होने की जुगत में है। वैसे पार्टी सुप्रीमो मायावती प्रदेश के दौरे कर चुकीं हैं और उन्‍हे उम्‍मीद है कि इस प्रदेश के बहुजन बसपा के साथ होंगे। अगर मायावती सोशल इंजीनियरिंग की जोरआजमाइश बेहतर ढंग से करें तो थोडे़ बेहतर परिणाम तो आ ही सकते हैं। इन दलों के अलावा प्रदेश में समाजवादियों का भी दखल है और कुछेक और स्‍थानीय दल भी आशान्‍वित होंगे।
बहरहाल ये चारों राज्‍य बेहद महत्‍वपूर्ण हैं और इनके चुनाव परिणाम काफी हद तक ये स्‍पष्‍ट करेंगे कि देश में सरकार किसकी बनेगी।

बुधवार, 29 अक्टूबर 2008

आतंकवाद को सेक्यूलरी जामा पहनाने की कवायद

अनिल सौमित्र

पिछले दिनों आतंकवाद को लेकर एक संप्रदाय विशेष पर उंगलियां उठनी शुरू हो गई थीं। सिमी जैसे संगठनों ने संगठित आतंक के कारण न सिर्फ पुलिस व्यवस्था, बल्कि मुस्लिम समुदाय के नाक में दम कर रखा था। घुसपैठ, आतंकवाद, नक्सलवाद और सांप्रदायिकता से जुड़े कई पहलुओं पर यूपीए सरकार और खास तौर पर कांग्रेस आरोपों के घेरे में थी। भाजपा ने राजनीतिक तौर पर और अन्य संगठनों ने सामाजिक तौर पर कांग्रेस और यूपीए सरकार की घेरेबंदी शुरू कर दी थी। रामसेतु, अमरनाथ भूमि विवाद और अफ़ज़ल को फांसी देने का का मुद्दा केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार के लिए गले की हड्डी बन गया। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस को मुद्दों के साथ-साथ मुस्लिम वोटों को अपने पाले में लाने के लिए मौकों की तलाश है। उसके सामने दूसरी चुनौती थी भाजपा और दूसरे भगवा संगठनों के आरोपों का सामना करने और उसकी धार को कुंद करने की।
मालेगांव विस्फोट में साध्वी प्रज्ञा के आरोपी बनने से कांग्रेस और उसके सहयोगी दल इसमें अपनी सारी मुश्किलों का हल ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। न्यूज़ चैनलों पर कुछ टीवी एंकर और कांग्रेस प्रवक्ताओं की बाजीगरी गौर से देखिए, बस थोड़ा सोचिए सब समझ में आ जाएगा। मालेगांव विस्फोट और आतंकवाद पर चर्चा और छानबीन के बजाए पूरा जोर इस पर है कि संघ परिवार और भाजपा को कैसे लपेटे में लिया जाए। कैसे सिद्ध किया जाए कि अब भाजपा भी आतंकवादी संगठन हो गया है। महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते और मध्य प्रदेश व गुजरात पुलिस पर जांच को प्रभावित करने का दबाव बनाया जा रहा है। न्यूज चैनलों की पूर्वाग्रह से ग्रस्त रिपोर्टिंग और विश्लेषण किसी सुनियोजित षड्यंत्र का संकेत देते हैं।
इस मामले को रातोंरात इतना बड़ा बना दिया गया कि उसके कारण आतंकवाद, सीरियल ब्लास्ट, सिमी, मतांतरण, कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या, केरल में संघ के स्वयंसेवकों की हत्या, असम में घुसपैठ विरोधी जनांदोलन, अफ़ज़ल की फांसी और न जाने कितने मुद्दे गौण हो गए। सितंबर, 2006 में मालेगांव में ही हुए उस विस्फोट कैसे भुला दिया गया जिसमें 38 लोग मारे गए थे और अनेक लोग घायल हुए थे। कहना न होगा कि साध्वी प्रज्ञा, अभिनव भारत संगठन और श्रीराम सेना को आरोपी बनाना और संघ परिवार, भाजपा व समूचे हिंदू समाज को कठघरे में खड़ा करना किसी बड़ी सुनियोजित साज़िश का हिस्सा है। फिलहाल तो ऐसा ही लग रहा है कि साज़िश रचने वाले और इसे अमल करने वाले अपने इरादे में सफल हो गए हैं और आतंकवाद के मुद्दे पर आक्रामक संघ परिवार व भाजपा को बैकफुट पर धकेल दिया है।
समूचा संघ परिवार, साधु-संतों के संगठनों और अपने को हिंदुओं का पैरोकार बताने वाले राजनैतिक दलों भाजपा और शिवसेना का साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी मामले में एक अजीब-सी चुप्पी समूचे हिंदू समाज के लिए खतरनाक है। इन संगठनों को सोचना होगा कि सवाल से बचा जाए, चुप्पी साध ली जाए या फ्रंटफुट पर आकर सवाल पूछा जाए और पलटवार किया जाए। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि हिन्दू समाज अपने ऊपर हो रहे अन्याय कब तक सहता रहेगा। संतों को समाज जागरण के लिए आक्रामक तेवर अपनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है? हिन्दू समाज अपने ही देश में न्याय और सम्मान की खातिर क्रुद्ध और हताश क्यों है? सालों से वह पिटता ही क्यों आ रहा है? कांग्रेस के इतने वर्षों के राज में हिन्दू समाज दमन, अपमान और अन्याय का भागीदार ही क्यों बना? आखिर कौन पूछेगा ये सवाल, कौन देगा इन सवालों का जवाब? जब सवाल पूछने वाले ही असमंजस में हों, अंजाने अपराधबोध से ग्रस्त हो जाएं, तो समाज तो अवसादग्रस्त हो ही जाएगा।
पुलिस के एक आला अधिकारी ने व्यक्तिगत चर्चा में इस बात का खुलासा किया कि डंडे के बल पर किसी को भी आरोपी बनाया जा सकता है। किसी से भी कुछ भी कबूल कराया जा सकता है। यह तब और भी आसान हो जाता है जब पुलिस और अन्य सरकारी एजेंसियों का उच्चस्तरीय राजनीतिक दुरुपयोग होने लगे। यह कौन दावा करेगा कि साध्वी प्रज्ञा को पुलिस ने प्रताड़ित नहीं किया। सिर्फ आरोपी से अपराधी और आतंकी जैसा सलूक नहीं किया? अब सिर्फ राज्य पुलिस और विभिन्न आयोगों का ही नहीं, बल्कि सीबीआई, आईबी और विशेष पुलिस दस्ते का भी राजनैतिक उपयोग होने लगा है। जब षड्यंत्र और उसे अमल में लाने की रणनीति सत्ता के शीर्ष स्रोत से हो, तो सामान्य लोगों के लिए इसे समझना मुश्किल हो जाता है। वे तो कही-सुनी गई बातें, टीवी चैनलों की व्याख्या और अखबारों के आंशिक सच को ही संपूर्ण सत्य मान लेते हैं। लेकिन जागरूक पाठक और दर्शक तो आंशिक सच को शक के नजरिये से देखेगा, विवेकपूर्ण विचार करेगा और तब कोई समझ बनाएगा। साध्वी प्रज्ञा के टेलिफोन और मोबाइल में से जांच एजेंसियों के कुछ लक्षित और उद्देश्यप्रेरित नंबरों की ही जांच क्यों की जाए, उन सभी नंबरों से पर्दा उठाया जाए जो उसके पास उबलब्ध है। उनके साथ सिर्फ भाजपा नेताओं के फोटो न दिखाए जांए, बल्कि आज तक के उनके सभी संपर्कों की छानबीन की जाए। सच तब उजागर होगा। तब कई सरकारी एजेंसियों और लोगों व राजनीतिक दलों के बारे में राज खुलेंगे। जांच व्यापक और निष्पक्ष होनी चाहिए, किसी निर्दिष्ट उद्देश्य और लक्ष्य से प्रेरित नहीं।
गांधी की हत्या में भी संघ को फंसाया गया था। इस मामले में न्यायालय द्वारा संघ को निर्दोष करार देने के बाद भी कांग्रेसी और संघ विरोधी आज भी गांधी हत्या के मामले में संघ का नाम लेने से बाज नहीं आते। न्यायालय की इस अवमानना के बारे में कोई कुछ बोलता भी नहीं। तब से लेकर आज तक संघ ही नहीं सभी छोटे-बड़े हिन्दू संगठनों को बदनाम, अपमानित और अस्तित्वहीन कर देने का षड्यंत्र लगातार जारी है। तमिलनाडु में पू. शंकराचार्य जी पर आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार किया गया, उन्हें अपमानित किया गया। अब उस मामले का क्या हुआ, किसी को नहीं मालूम। संभव है साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी भी किसी बड़े राजनीतिक हेतु के लिए किया गया हो। योजनाकार की मंशा पूरी होते ही इसे भी दफन कर दिया जाएगा।
हिन्दू समाज और संगठन आज चारों ओर से विरोधों और आक्रमणों से घिर गया है। दुनियाभर की ईसाई और इस्लामिक ताकतें सुरसा की तरह मुंह बाए भारत को क्षत-विक्षत करने को आतुर हैं। वे भारत को खंडित कर देने का हर संभव प्रयास कर रही हैं। यहां आतंकवाद, नक्सलवाद, मतांतरण और घुसपैठ को देशहित के नज़रिए से देखने के बजाए तुष्टिकरण के चश्में से देखा जा रहा है। देश में काम कर रहे सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को प्रतिबंध की धमकी दी जा रही है। इन संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं को आरोपी बनाया जा रहा है। शेष समाज को इन संगठनों से न जुड़ने की अप्रत्यक्ष चेतावनी दी जा रही है। दुस्साहस का भयावह परिणाम दिखाया जा रहा है। अब आतंकवाद पर वैसी बात नहीं की जाएगी। इसमें सेक्युलरिज़्म का तड़का लगाया जा रहा है। अब मुस्लिम और ईसाई आतंकवाद के साथ थोड़ी चर्चा हिन्दू आतंकवाद की भी होगी।
यह चुप रहने का समय नहीं है। चुप्पी के भयावह और खतरनाक प्रभाव होंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व के पैरोकार सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दलों को आगे आना ही होगा। कोई बोले न बोले, इन्हें बोलना ही पड़ेगा। इन संगठनों को चुनौतियों से मुंह चुराने के बजाए तर्क और त्वरा शक्ति, आक्रामक शैली और संगठन कौशल के साथ आतंकवाद के खिलाफ और साध्वी प्रज्ञा के पक्ष में खड़े होना होगा। यह विचार, संगठन और कार्यकर्ताओं की परीक्षा की घड़ी है। साध्वी प्रज्ञा के गुरु स्वामी अवधेशानंद जी को आगे आकर हिन्दू शक्तियों का उत्साहवर्द्धन करना चाहिए। वह अपने शिष्या के पक्ष में जिरह करें, यह परिस्थितियों की मांग है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सज़ा सुनाने के बाद भी आतंकियों के पक्ष में कितने वकील, समाजसेवी और लेखक-बुद्धिजीवी सामने आ गए थे। आतंकियों के एन्काउंटर में एक पुलिस अधिकारी की शहादत के बाद भी उस मामले की जांच की मांग राजनैतिक दलों द्वारा की गई। उन्हें इसका ज़रा-सा भी मलाल नहीं। आज साध्वी के पक्ष में कोई क्यों नहीं आ रहा? कोई वकील नहीं, कोई पैसे वाला नहीं, कोई लेखक-बुद्धिजीवी नहीं, कोई समाजसेवी नहीं, कोई साधु-संत नहीं, कोई नेता-राजनेता नहीं। क्या सिर्फ इसलिए कि हिन्दू दुनिया में अल्पसंख्यक है, अपने ही देश में जलालत और अपमान की ज़िंदगी जीने को अभिशप्त है! देश के सामने अनेक ज्वलंत समस्याएं और चुनौतियां हैं। ये समस्याएं और चुनौतियां राजनीति और चुनाव के मुद्दे बन गए हैं। भाजपा और उनके सहयोगी दलों ने भरसक कोशिश करके विधानसभा और आने वाले लोकसभा चुनावों में इन्हें मुद्दा बनाने की योजना बखूबी बना ली थी, लेकिन बहुत ही कुशलता से उन मुद्दों से ध्यान बांटने और हटाने की एक चतुर चाल चली गई है। तोप का मुंह चलाने वाले की तरफ ही कर दिया गया है। सभी राष्ट्रवादी शक्तियों को इस चाल से खुद को भी बचाना है और देश व समाज को भी।