दिल्ली राजस्थान मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावी समर
संदीप भटट
राजधानी दिल्ली समेत राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में चुनावों की हलचलें रोजाना तेज हो रही हैं। दिल्ली में तकरीबन दस सालों से शीला दीक्षित का एकछत्र राज है। शीला कांग्रेस की पुरानी सिपहसालार हैं और बेहद बहादुरी के साथ दिल्ली के विकास का दावा कर रही हैं। मेरी दिल्ली मैं ही संवारू जैसे अभियानों की शुरूआत करने वाली दीक्षित ने इस तरह के भागीदारी अभियान से दिल्ली की सूरत बदलने की कवायद शुरू कर एक साहसिक कदम उठाया। इसके नतीजे बेहद सुखद रहे और दिल्ली दुनिया के उन महानगरों में शुमार हो गया जिन्होंने तेजी से कम होती जा रही हरियाली को रोका और शहर को हरा भरा कर गुलजार किया। दिल्ली में अब बिजली के हालात थोड़ा बेहतर हैं। इसका निजीकरण किया गया और बिजली चोरी के मामलों में थोड़ा कमी आई है। राष्ट्रमंडल खेलों के लिए दिल्ली शहर को सुंदर और सुविधाजनक बनाने के लिए प्रयासरत शीला सरकार अब भी प्रतिबद्ध है और वाकई दिल्ली में तेजी से काम चल रहा है। दिल्ली के एक नदी यमुना जो कंही से भी यंहा आकर नदी की शक्ल में नही दिखती, शीला ने इंजीनियर इंडिया लिमिटेड की मदद से इसे फिर से एक नदी बनाने की चुनौती पर भी काम शुरू किया है। उनकी सरकार का दावा है कि वर्ष 2010 तक यमुना का पानी आचमन के काबिल बना दिया जाएगा। हलांकि उनकी सरकार पर इस योजना के ऊपर करोड़ों रूपये बरबाद करने के बाद भी बेहतर परिणाम न देने के आरोप भी लगे हैं। लेकिन दिल्ली में पता चलता है कि वाकई काम हो तो रहा है।
शीला दिल्ली में बाहर से आने वाले लोगों के खिलाफ विवादित बयान के कारण भी सुर्खियों में रही थीं। हो सकता है कि उस बयान का खामियाजा उन्हे भुगतना पड़े क्योंकि आधे से अधिक लोग दिल्ली के बाहर से आकर यंहा बसे हैं। उनकी सबसे बड़ी नाकामी रही दिल्ली को एक सुरक्षित शहर न बना पाने की। मामले दिल्ली में बढ़ते अपराधों का हो या फिर आतंकवादी घटनाओं के, शीला सरकार को इस मोर्चे पर सफलता नही मिली। 15 अगस्त या 26 जनवरी के आसपास दिल्ली में हर चार कदम पर पुलिस का जवान दिखाई देता है और कुछ ही फासले पर पुलिस की गाड़ी। एक छावनी में तब्दील हो जाती है राजधानी। लोगों को इतनी पुलिस के साथ असहज भी लगता है,खासकर उनको जो बाहर से पहली बार यंहा आते हैं। लेकिन मामला सुरक्षा का होता है सो यह कवायद भी जरूरी है। अफसोस की बात है कि यही पुलिस बल तब कंही नही दिखता जब पॉश इलाकों में हत्या, बलात्कार,या कोई और अपराध घटित होते हैं, कई बार तो दिनदहाडे़ ही। महिलाओं के लिए तो यह देश के सबसे असुरक्षित शहरों में से एक है। लेकिन हद तो तब होती है जब भीड़ भाड़ वाले वाले इलाके में आतंकी बम विस्फोट करते हैं और पुलिस को मेल भी भेजते हैं। शीला दिल्ली वालों को सुरक्षा तो नही दे सकीं और यह भी आने वाले चुनावों में एक बड़ा मुददा रहेगा।
शीला के खिलाफ विपक्षियों में कोई खास दम नजर नही आता। भाजपा या अन्य किसी पार्टी के पास शीला के कद का कोई नेता नही है। शीला का कद और भी ऊंचा इसलिए है क्योंकि उनके पास संभालने के लिए एक अदद सा शहर दिल्ली ही तो है। हां पड़ोसी राज्य की मुखिया मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला शीला के और अन्य पार्टियों के गणित को गड़बड़ाने के लिए काफी है। वैसे भी एनसीआर के नोएडा तक तो मायाराज ही है।
छत्तीसगढ़ की अपनी ही अलग समस्याएं हैं। ये राज्य अगर चैनलों अक्सर नक्सली हमलों की वजह से ही सुर्खियों में आता है। राजधानी रायपुर में तेजी से बनते जा रहे शापिंग मॉलों की ऊंचाइयों को देख लगता है कि यंहा कुछ जरूर नया हुआ है, जमीन के भाव आसमानों को छू रहे हैं, मुख्यमंत्री रमन सिंह विकास का मजबूत दावा करते हैं। उन्होंने बायोडीजल वाली गाड़ी इस्तेमाल की और इसे राजशाही में हो रहे खर्चो में कटौती कहा। उनकी एक मात्र उपलब्धि है बेहद सस्ते दामों पर लोगों को चावल मुहैया कराना। यह मंहगाई के दौर में आम आदमी को थोड़ा राहत पंहुचाने वाला काम है। राजधानी रायपुर में ही बड़े बड़े नक्सली नेताओं की गिरफ्तारियों ने रमन सिंह सरकार के सामने चुनौती पेश की, जिसे उन्होंने बखूबी कबूल किया। लेकिन यह एक ऐसी समस्या है जो केंद्र और राज्य सरकार के बेहतर सामंजस्य के बिना खत्म नही होने वाली। लेकिन फिर भी जिम्मेदारी को यह कह कर टाला नही जा सकता और इस पैमाने पर रमन सरकार कुछ खास नही कर पाई। छत्तीसगढ़ का एक अलग किस्म का दर्द भी है और वो है आम छत्तीसगढ़ी का विकास। रायपुर स्टेशन हो, राजनांदगांव या फिर बिलासपुर, छत्तीसगढ़ का बासिंदा अब भी ठहरा हुआ ठगा हुआ सा महसूस करता है। अधिकांश सरकारी दफ्तरों या कुछ एक कंपिनयों के आफिसों में काम करने वालों में वो लोग अधिक हैं जो उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश,बिहार या महाराष्ट्र से आए हैं। आम छत्तीसगढ़ी तो अब भी विकास से कासों दूर है। चुनावों में यंहा रमन सिंह के खिलाफ कोई खास कददावर अजीत सिंह के अलावा कोई नेता कांग्रेस के पास नही है। और कांग्रेस की अंतरकलह जगजाहिर है। जोगी भी लंबे समय से रायपुर के राजनैतिक धरातल से गायब रहे। चुनावों की घोषणा से पहले ही बसपा सुप्रीमों मायावती ने राजनैतिक जमीन की तलाश यंहा शुरू कर दी थी। लेकिन आदिवासी बहुल और नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी शायद उत्तरप्रदेश के र्फामूले पर न हो सके।
राजस्थान की रेतीली धरती पिछले कुछ महीनों पहले गुर्जर आंदोंलन की आग से और भी गर्म हो गई। भाजपा की वसुंधरा राजे सूबे की मुखिया हैं। कुछ समय पहले कांग्रेस और भाजपा दोनों के बड़े नेताओं के दैवीय स्वरूप वाले कैलेंडर या पोस्टर छपने की खबरें प्रकाश में आई थी। राजे का नाम भी उन नेताओं में शुमार था। बाद में एनडीए सरकार में रक्षा मंत्री रह चुके जसवंत सिंह और राजे की राजनैतिक खींचतान भी चर्चाओं में रही। असली विवादों और सुर्खियों में वे गुर्जर आंदोलन के दौरान रहीं। आरक्षण के मसले पर गुर्जर समुदाय सड़कों पर उतर आया। रेलें रोकी गई, सरकारी बसों को जलाया गया, करोड़ों का नुक्सान हुआ और जानमाल का भी नुक्सान हुआ। सरकार आंदोलन को रोकने में नाकाम रही और गुजर्रो का असंतोष अभी भी खत्म नही हुआ है। राजस्थान में आतंकी घटनाओं का होना भी चुनावों में एक बडा मुददा रहेगा। जयपुर के बम धमाकों की आवाज चुनाव के परिणामें में परिणित होगी। आजकल भाजपा के नेता और राजस्थान में मजबूत पकड़ रखने वाले भूतपूर्व उप राष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम भी चुनावों को एक अलग रूख देगी। कांग्रेस के भीतर का कलह राजस्थान में भी पार्टी को कोई खास फायदा नही होने देगा। प्रदेश में बसपा भी अपनी उम्मीदवारी को मजबूत करने में लगी है और चूंकि इसके कुछ इलाके खासकर भरतपुर आदि उत्तरप्रदेश की सीमा से सटे हैं सो कम से कम इन इलाकों में पार्टी कुछ सीटें झटक सकती है।
मध्यप्रदेश ने भाजपा के इस शासनकाल मे तीन मुख्यमंत्री देखे हैं। उमाभारती जो अब भाजपा से नाता तोड़ चुकी हैं, बाबूलाल गौर और युवा छवि वाले मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान । इससे पहले कांग्रेस राज से आजिज आकर जनता ने सत्ता पलट कर दिया और भाजपा को मौका दिया। पहले कुछ साल अस्थिरता के बावजूद मध्यप्रदेश के लोगों को सरकार सही हाथों में दिखी। कई सर्वेक्षणों में प्रदेश को तेजी से विकास की ओर अग्रसर बताया गया। योजनाओं और घोषणाओं की धाराएं प्रदेश में बहने लगी। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, रोजगार आदि फ्रंटों पर शिवराज सरकार को सफलतम घोषित करने की स्वनामधन्य कोशिशें की गई। लेकिन जो यहां रहते हैं असलियत उन्हें ही पता है। जिला मुख्यालयों से कुछ ही दूरी के ऐसे सैकड़ों गांव है जिनमें दीपावली के दिन भी बिजली का कोई पता नही होता। पानी तो इंदौर जैसे महानगर में भी एक दो दिन छोड़कर आता है। अपराधों में कोई कमी नही आई। सबसे चिंताजन पहलू ये है कि कमजोर वर्गों के प्रति बेहद असंवेदनशीलता दिखाई देती है। कमजोर वर्ग सबसे असुरक्षित महसूस करता है। राजधानी भोपाल में ही अपराध का ग्राफ पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है। एक बार तो नक्सली नेताओं की पूरी फौज ही भोपाल से पकड़ी गई। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की बदहाली अब भी जगजाहिर है। हाल के दिनों में कुपोषण के मामले जाहिर होने पर लीपापोती की गई लेकिन हकीकत है कि यंहा हालात वाकई गंभीर हैं। आंतकी संगठनों से जुड़े लोगों की प्रदेश के छोटे शहरों से जुड़े होने की खबरों ने बताया है कि यंहा का तंत्र सुरक्षा को लेकर कितना सचेत है। मध्यप्रदेश के राजनेताओं में मौजूदा मानव संसाधन मंत्री अर्जुनसिहं, स्व माधवराव सिंधिया, दिगविजय सिंह, वर्तमान वाणिज्य मंत्री कमलनाथ समेत कई दिग्गज नेताओं के नाम शुमार हैं लेकिन फिर भी यह प्रश्न यथावत रहता है कि क्यों देश का ह्दय कहलाने वाल मध्यप्रदेश विकास की दौड़ में इतना पीछे है। क्यों यंहा के किसानों, आदिवासियों के हालात भी कतिपय छत्तीसगढ़ जैसे ही हैं। 2004-05 के दौरान एक खबर आई थी कि आदिवासी अंचल के जिलों के किसानों ने तत्काली राष्ट्रपति डा. कलाम से स्वैच्छा मृत्यु की अनुमति मांगी थी। किसान वाकई परेशान हैं और आम आदमी भी आहत है कि जिन ख्वाबों के साथ उसने इस नई सरकार के नेतृत्व करने वालों कों वोट दिया था वे तो पूरे ही नही हुए। इन आम आदमियों सवालों के जवाब तो सरकार को देने ही होंगे। कांग्रेस का अंर्तकलह यंहा कोई नई बात नही है। वैसे कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी भी प्रदेश के अंचलों के कई दौरे कर चुके हैं और बेहद संजीदगी के साथ उन्होंने रणनीतिकारों की एक लाबी तैयार की है। राहुल कभी किसी गांव मे सभा करते हैं तो कभी किसी गरीब की झोपड़ी में रात बिताते हैं। वाकई वे गंभीरता से कांगेस की खोई राजनैतिक जमीन की तलाश की जददोजहद मे लगे हैं, लेकिन उनकी समस्या यह है कि इस पार्टी में लार्जर देन पार्टी कई लोग हैं जो पीढ़ीयों से पार्टी पर काबिज हैं और सत्ता सुख भोगते आ रहे हैं। यही खेमेबाजी कांगेस की परेशानी का कारण बनती जा रही है।कई गुटों में बंटी इस पार्टी का प्रदेश में क्या हाल होगा कहा नही जा सकता है। उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी भाजपा को कुछ हद तक नुकसान पंहुचा सकती है। मौजूदा सरकार में भी कई ऐसे मंत्री हैं जिनक मन में उमा के प्रति आदरभाव अब भी है। बुंदेलखंड से लगे इलाको में बसपा का हाथी हावी होने की जुगत में है। वैसे पार्टी सुप्रीमो मायावती प्रदेश के दौरे कर चुकीं हैं और उन्हे उम्मीद है कि इस प्रदेश के बहुजन बसपा के साथ होंगे। अगर मायावती सोशल इंजीनियरिंग की जोरआजमाइश बेहतर ढंग से करें तो थोडे़ बेहतर परिणाम तो आ ही सकते हैं। इन दलों के अलावा प्रदेश में समाजवादियों का भी दखल है और कुछेक और स्थानीय दल भी आशान्वित होंगे।
बहरहाल ये चारों राज्य बेहद महत्वपूर्ण हैं और इनके चुनाव परिणाम काफी हद तक ये स्पष्ट करेंगे कि देश में सरकार किसकी बनेगी।
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