आतंक के खिलाफ जोर की मुहिम की जरूरत
संदीप भटट
जयपुर दिल्ली और अब असम। धमाकों का एक सिलसिलेवार आतंकी युद्ध। हर बार की तरह निशाने पर आम आदमी। आम आदमी जो अदद रोजी रोटी की तलाश में घर से निकलता है, इस उम्मीद के साथ कि दो जून का जुगाड़ कर वापस आ जाएगा। एक बार फिर बम के धमाकों से दहल गया है। गुवाहाटी के गणेशगुडी, कछारी, फैंसी बाजार और पान बाजा और बोगाइगांव इलाकों में सुबह साढे़ 11 बजे के आसपास 4 धमाके हुए। धमाकों में तत्कालिक तौर पर करीबन 65 से अधिक लोगों की मौत हो गई और 60 से अधिक लोग घायल हुए जिनकी संख्या शुक्रवार तक साढ़े चार सौ का आंकड़ा पार कर गई । ये आंकड़े लगातार बढ़ ही रहे हैं। शुरूआती रिपोर्टो के मुताबिक पूरे राज्य में 12 विस्फोट हुए हैं। विस्फोट के बाद सूबे के मुखिया तरूण गोगोई ने इन हमलों की कड़ी निंदा की। इन धमाकों को असम में हुए अब तक के सबसे बडे धमाकों में से एक माना जा रहा है। विस्फोट के बाद से आमतौर पर जैसा होता है, असम में भी अनिश्चितताओं का माहौल व्याप्त बन गया। पिछले कुछ दिनों में देश में आतंकियो द्वारा बमधमाकों की वारदातों में तेजी आई है। सिलसिलेवार आतंकी धमाकों की शुरूआत इस साल जयपुर में मई माह में हुई वंहा नौ सिलसिलेवार धमाकों से गुलाबी नगरी दहल उठी। जयपुर में हुए धमाकों में 65 से अधिक लोगों की जानें गईं और 150 लोग घायल हुए। इसके बाद सिलिकॉन सिटी बेंगलुरु में नौ सिलसिलेवार धमाके हुए। इसके ठीक एक दिन बाद ही अहमदाबाद में हुए 18 सिलसिलेवार धमाकों में 57 लोग मारे गए तथा 130 अन्य घायल हुए। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी सिलसिलेवार धमाकों से नहीं बच सकी। दिल्ली में छह सिलसिलेवार धमाकों में 26 लोग मारे गए तथा 50 अन्य घायल हुए। भीड़ भरे बाजार और खुले स्थान जंहा पर लोगों की आवाजाही अधिक होती है, आतंकियों के निशाने पर रहते हैं। ये बात सही है कि आतंकवादी हमले कंही भी हो सकते हैं लेकिन तमाम सुरक्षा व्यवस्थाओं और खूफिया तंत्रों के होने के बावजूद अगर आतंकी खुलेआम इस तरह की वारदातों को अंजाम देते हैं तो यह तंत्र की नाकामी को ही दर्शाता है। असम पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा राज्य है जंहा, असमी, बंगाली और बड़ी संख्या में हिंदी भाषी लोग साथ साथ रहते हैं। अपनी इसी खासियत के कारण असम हमेशा से ही अलगाव वादियों के प्रमुख निशाने पर रहा है। यंहा यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ असाम (उल्फा) और अल्फा का बेहद प्रभाव है और आमतौर पर हिंसक वारदातों में इनका नाम भी शुमार होता है। इन हमलों में भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि इसमें प्रतिबंधित उल्फा या हुजी का हाथ हो सकता है।धमाकों के बाद जैसा कि आमतौर पर होता है कि पुलिस तंत्र पूरी तरह से चौकस हो जाता है, इलाके की नाकेबंदी कर दी जाती है, वैसा ही असम में भी किया गया। पूरे राज्य में हाई एलर्ट घोषित कर दिया गया, गुवहाटी में धारा 144 लगा दी गई। प्रधानमंत्री का बयान आया कि विघटनकारी ताकतें देश की बढ़ती आर्थिक तरक्की को कमजोर करना चाहती हैं। विपक्ष के नेता आडवाणी का बयान भी रटे रटाए जुमले की तरह रहा कि यूपीए सरकार के आने के बाद देश में आतंकवाद की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है। आडवाणी अपने दल की सरकार के समय की घटनाओं को भूल जाते हैं। उन्हे कारगिल में आतंकियों की घुसपैठ और कांधार विमान अपहरण वाली बातें तों जैसे याद ही नही। कारगिल तो ऐसी घटना थी जो सीधे तौर पर रक्षा एवं गुप्तचर संस्थाओं की नाकामियों और आपसी तालमेल न होने का नतीजा थीं। यह जिम्मेदार मंत्रालय उस वक्त आडवाणी के पास ही था। लेकिन अब उन्हें लगता है कि ये सारी आतंकी घटनाएं यूपीए की नाकामियों का नतीजा हैं। दरअसल वे सरकार के खिलाफ आतंकवाद के आरोपों को को सिर्फ राजनैतिक रोटियां सेंकने वाली बेहतरीन आग की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं । जबकि यह समस्या बेहद गंभीर है और सभी राजनैतिक दलों को इसके खिलाफ एक साथ खड़ा होना चाहिए। यह सारे मुल्क की समस्या है। मौजूदा समय में आतंकी वारदातें न सिर्फ भारत बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन और तमाम अन्य मुल्कों के लिए भारी परेशानी का कारण बन गई हैं। भारत में आतंक के अलग अलग चेहरे मोहरे हैं। जम्मू काश्मीर और पूर्वोत्तर के असम समेत कई अन्य राज्यों में अलगाववादी संगठन लंबे समय से आतंक का पर्याय बने हुए हैं। पिछले कुछ सालों में तो गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस के विशेष मौकों पर ये संगठन बाकायदा आगाह करते हुए आतंकी घटनाओं को अंजाम देते हैं। सेना समेत गृह विभाग के तहत कार्यरत सुरक्षाबलों की यंहा तैनातिया वर्षों से हैं। लेकिन हर बार की तरह आतंकी वारदातों को अंजाम दे देते हैं और सुरक्षाबलों के लिए एक नई मुसीबत पैदा कर देते हैं। जम्मू काश्मीर में लगभग रोजाना आतंकियों और सेना के बीच मुठभेड़ें चलती रहती हैं। आतंकियों से मुठभेड़ों के दौरान सैकड़ों निर्दोष नागरिकों की जान जाती है और असंख्य सैनिक शहीद होते हैं। यह आतंकवाद से पीड़ित भारत जैसे तमाम और मुल्कों में एक अंतहीन और सतत प्रक्रिया बनती नजर आ रही है। मुल्क के अन्य राज्यों जिनमें छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, झारखंड और महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश भी शामिल हैं, नक्सलियों से त्रस्त हैं। सबसे अधिक आंध्र और छत्तीसगढ़ इस आतंक से प्रभावित हैं। आये दिन छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा की वारदातें होती ही रहती हैं। यदाकदा महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में भी नक्सली वारदातों की खबर आती ही रहती है। भाजपा शासित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में नक्सलियों के कई सरगनाओं को पकड़ा जा चुका है। आतंकवाद के मुद्दे पर केंद्र सरकार की घोर आलोचना करने वाली भाजपा हर बार यह भूल जाती है कि आतंकवाद के लिए सिर्फ आरोप प्रत्यारोपों से ही काम नही चलता है इसके लिए सहयोग, समर्थन और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। सरकार को भी चाहिए कि सुरक्षाबलों और खूफिया विभागों को सतर्क रहने और आतंकवादी हमलों से पूरी तरह से निपटने की चेतावनी दे। निस्संदेह सरकार के कड़े रवैये से इस तरह के काम करने वालों की शैलिया और प्रभावशीलता बढ़ेंगी। सबसे अहम यह भी होगा कि सभी सुरक्षा बलों और खूफिया तंत्रों के बीच बेहतर तालमेल स्थापित किया जाए। क्योंकि अक्सर बाद में यह बात सामने आती है कि अगर इनके आपस में अच्छा तालमेल हो तो आतंकी वारदातों को काफी हद तक नाकाम करने में मदद मिल सकती है। आज आतंकवाद सिर्फ भारत की ही समस्या नही है बल्कि पूरे विश्व के लिए एक चुनौती है। अब आतंक के लगातार नए चेहरे सामने आ रहे हैं। आतंकी बेहतरीन प्रशिक्षण प्राप्त और तकनीक से लैस होकर चुनौतियां पेश कर रहे हैं। यह तकनीक और आतंक का मिलाजुला रूप है जो बेहद घातक है। हमारे राजनैतिक दलों को इस तरह की बयानबाजियों से बाज आते हुए आतंकवाद के विरोध में आवाज बुलंद करनी चाहिए। अमेरिका से इस मामले में सीख ली जा सकती है जंहा 13 सितंबर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद पूरा मुल्क आतंक के विरोध में एक स्वर से उठ खड़ा हुआ। भारत को भी इसी तरह की इच्छाशक्ति और बुलंद आवाज की जरूरत है।
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