गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008
संदीप भटट
जयपुर दिल्ली और अब असम। धमाकों का एक सिलसिलेवार आतंकी युद्ध। हर बार की तरह निशाने पर आम आदमी। आम आदमी जो अदद रोजी रोटी की तलाश में घर से निकलता है, इस उम्मीद के साथ कि दो जून का जुगाड़ कर वापस आ जाएगा। एक बार फिर बम के धमाकों से दहल गया है। गुवाहाटी के गणेशगुडी, कछारी, फैंसी बाजार और पान बाजा और बोगाइगांव इलाकों में सुबह साढे़ 11 बजे के आसपास 4 धमाके हुए। धमाकों में तत्कालिक तौर पर करीबन 65 से अधिक लोगों की मौत हो गई और 60 से अधिक लोग घायल हुए जिनकी संख्या शुक्रवार तक साढ़े चार सौ का आंकड़ा पार कर गई । ये आंकड़े लगातार बढ़ ही रहे हैं। शुरूआती रिपोर्टो के मुताबिक पूरे राज्य में 12 विस्फोट हुए हैं। विस्फोट के बाद सूबे के मुखिया तरूण गोगोई ने इन हमलों की कड़ी निंदा की। इन धमाकों को असम में हुए अब तक के सबसे बडे धमाकों में से एक माना जा रहा है। विस्फोट के बाद से आमतौर पर जैसा होता है, असम में भी अनिश्चितताओं का माहौल व्याप्त बन गया। पिछले कुछ दिनों में देश में आतंकियो द्वारा बमधमाकों की वारदातों में तेजी आई है। सिलसिलेवार आतंकी धमाकों की शुरूआत इस साल जयपुर में मई माह में हुई वंहा नौ सिलसिलेवार धमाकों से गुलाबी नगरी दहल उठी। जयपुर में हुए धमाकों में 65 से अधिक लोगों की जानें गईं और 150 लोग घायल हुए। इसके बाद सिलिकॉन सिटी बेंगलुरु में नौ सिलसिलेवार धमाके हुए। इसके ठीक एक दिन बाद ही अहमदाबाद में हुए 18 सिलसिलेवार धमाकों में 57 लोग मारे गए तथा 130 अन्य घायल हुए। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी सिलसिलेवार धमाकों से नहीं बच सकी। दिल्ली में छह सिलसिलेवार धमाकों में 26 लोग मारे गए तथा 50 अन्य घायल हुए। भीड़ भरे बाजार और खुले स्थान जंहा पर लोगों की आवाजाही अधिक होती है, आतंकियों के निशाने पर रहते हैं। ये बात सही है कि आतंकवादी हमले कंही भी हो सकते हैं लेकिन तमाम सुरक्षा व्यवस्थाओं और खूफिया तंत्रों के होने के बावजूद अगर आतंकी खुलेआम इस तरह की वारदातों को अंजाम देते हैं तो यह तंत्र की नाकामी को ही दर्शाता है। असम पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा राज्य है जंहा, असमी, बंगाली और बड़ी संख्या में हिंदी भाषी लोग साथ साथ रहते हैं। अपनी इसी खासियत के कारण असम हमेशा से ही अलगाव वादियों के प्रमुख निशाने पर रहा है। यंहा यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रंट ऑफ असाम (उल्फा) और अल्फा का बेहद प्रभाव है और आमतौर पर हिंसक वारदातों में इनका नाम भी शुमार होता है। इन हमलों में भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि इसमें प्रतिबंधित उल्फा या हुजी का हाथ हो सकता है।धमाकों के बाद जैसा कि आमतौर पर होता है कि पुलिस तंत्र पूरी तरह से चौकस हो जाता है, इलाके की नाकेबंदी कर दी जाती है, वैसा ही असम में भी किया गया। पूरे राज्य में हाई एलर्ट घोषित कर दिया गया, गुवहाटी में धारा 144 लगा दी गई। प्रधानमंत्री का बयान आया कि विघटनकारी ताकतें देश की बढ़ती आर्थिक तरक्की को कमजोर करना चाहती हैं। विपक्ष के नेता आडवाणी का बयान भी रटे रटाए जुमले की तरह रहा कि यूपीए सरकार के आने के बाद देश में आतंकवाद की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है। आडवाणी अपने दल की सरकार के समय की घटनाओं को भूल जाते हैं। उन्हे कारगिल में आतंकियों की घुसपैठ और कांधार विमान अपहरण वाली बातें तों जैसे याद ही नही। कारगिल तो ऐसी घटना थी जो सीधे तौर पर रक्षा एवं गुप्तचर संस्थाओं की नाकामियों और आपसी तालमेल न होने का नतीजा थीं। यह जिम्मेदार मंत्रालय उस वक्त आडवाणी के पास ही था। लेकिन अब उन्हें लगता है कि ये सारी आतंकी घटनाएं यूपीए की नाकामियों का नतीजा हैं। दरअसल वे सरकार के खिलाफ आतंकवाद के आरोपों को को सिर्फ राजनैतिक रोटियां सेंकने वाली बेहतरीन आग की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं । जबकि यह समस्या बेहद गंभीर है और सभी राजनैतिक दलों को इसके खिलाफ एक साथ खड़ा होना चाहिए। यह सारे मुल्क की समस्या है। मौजूदा समय में आतंकी वारदातें न सिर्फ भारत बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन और तमाम अन्य मुल्कों के लिए भारी परेशानी का कारण बन गई हैं। भारत में आतंक के अलग अलग चेहरे मोहरे हैं। जम्मू काश्मीर और पूर्वोत्तर के असम समेत कई अन्य राज्यों में अलगाववादी संगठन लंबे समय से आतंक का पर्याय बने हुए हैं। पिछले कुछ सालों में तो गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस के विशेष मौकों पर ये संगठन बाकायदा आगाह करते हुए आतंकी घटनाओं को अंजाम देते हैं। सेना समेत गृह विभाग के तहत कार्यरत सुरक्षाबलों की यंहा तैनातिया वर्षों से हैं। लेकिन हर बार की तरह आतंकी वारदातों को अंजाम दे देते हैं और सुरक्षाबलों के लिए एक नई मुसीबत पैदा कर देते हैं। जम्मू काश्मीर में लगभग रोजाना आतंकियों और सेना के बीच मुठभेड़ें चलती रहती हैं। आतंकियों से मुठभेड़ों के दौरान सैकड़ों निर्दोष नागरिकों की जान जाती है और असंख्य सैनिक शहीद होते हैं। यह आतंकवाद से पीड़ित भारत जैसे तमाम और मुल्कों में एक अंतहीन और सतत प्रक्रिया बनती नजर आ रही है। मुल्क के अन्य राज्यों जिनमें छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, झारखंड और महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश भी शामिल हैं, नक्सलियों से त्रस्त हैं। सबसे अधिक आंध्र और छत्तीसगढ़ इस आतंक से प्रभावित हैं। आये दिन छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा की वारदातें होती ही रहती हैं। यदाकदा महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में भी नक्सली वारदातों की खबर आती ही रहती है। भाजपा शासित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में नक्सलियों के कई सरगनाओं को पकड़ा जा चुका है। आतंकवाद के मुद्दे पर केंद्र सरकार की घोर आलोचना करने वाली भाजपा हर बार यह भूल जाती है कि आतंकवाद के लिए सिर्फ आरोप प्रत्यारोपों से ही काम नही चलता है इसके लिए सहयोग, समर्थन और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। सरकार को भी चाहिए कि सुरक्षाबलों और खूफिया विभागों को सतर्क रहने और आतंकवादी हमलों से पूरी तरह से निपटने की चेतावनी दे। निस्संदेह सरकार के कड़े रवैये से इस तरह के काम करने वालों की शैलिया और प्रभावशीलता बढ़ेंगी। सबसे अहम यह भी होगा कि सभी सुरक्षा बलों और खूफिया तंत्रों के बीच बेहतर तालमेल स्थापित किया जाए। क्योंकि अक्सर बाद में यह बात सामने आती है कि अगर इनके आपस में अच्छा तालमेल हो तो आतंकी वारदातों को काफी हद तक नाकाम करने में मदद मिल सकती है। आज आतंकवाद सिर्फ भारत की ही समस्या नही है बल्कि पूरे विश्व के लिए एक चुनौती है। अब आतंक के लगातार नए चेहरे सामने आ रहे हैं। आतंकी बेहतरीन प्रशिक्षण प्राप्त और तकनीक से लैस होकर चुनौतियां पेश कर रहे हैं। यह तकनीक और आतंक का मिलाजुला रूप है जो बेहद घातक है। हमारे राजनैतिक दलों को इस तरह की बयानबाजियों से बाज आते हुए आतंकवाद के विरोध में आवाज बुलंद करनी चाहिए। अमेरिका से इस मामले में सीख ली जा सकती है जंहा 13 सितंबर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद पूरा मुल्क आतंक के विरोध में एक स्वर से उठ खड़ा हुआ। भारत को भी इसी तरह की इच्छाशक्ति और बुलंद आवाज की जरूरत है।
मालेगावं,मालेगावं,मालेगावं।क्या मालेगावं के अलावा देश में कहीं और धमाके नही हुए?क्या दुसरे शहरों मे हुए धमाकों की जांच मे ये तेजी नज़र आई?क्या मालेगावं के धमाकों मे हिन्दूवादी संगठन से जुडे लोगों पर शक होने से बाकी शहरों में हुए धमाको का पाप धुल सकता है?मालेगावं की गल्ती क्या बाकी गल्तियों को कम साबित कर सकती है?क्या बाट्ला हाऊस काण्ड की न्यायिक जांच की मांग करने वालों को इस मामले मे जांच की जरुरत नज़र नही आती?क्या मालेगावं काण्ड का शक हिन्दू उग्रवाद जैसी धारणा बनाने के लिये काफ़ी है?अगर काफ़ी है तो फ़िर इस्लामिक उग्रवाद पर आपत्ति क्यों?मालेगावं धमाके की जांच को जितनी प्राथमिकता से सार्वजनिक किया जा रहा है,क्या अन्य धमाको की जांच को सार्वजनिक किया गया?क्या मालेगावं के धमाको के तार एक साध्वी से लेकर सेना के अफ़सर तक जोडने वाले एटीएस के अफ़सरो ने दूसरें शहरों के धमाको के तार सिमी के बाद आगे कहीं किसी से जोड कर दिखाये थे?इसका मतलब ये नही है कि मालेगावं के धमाके जायज हैं,वो भी उतने ही नापाक थे जितने दूसरे शहरों मे हुए धमाके।मगर दोनो धमाकों को अलग-अलग नज़रिये से देखने-दिखाने का षडयण्त्र बंद होना चाहिये।कुछ सवाल ऐसे है जिनके ज़वाब ढूंढना ज़रूरी है?वर्ना इस्लामिक उग्रवाद की उग्रता को कम करने के लिये हिन्दू उग्रवाद,मराठी अलगाववाद की तपिश को कम करने के लिये उल्फ़ा और हुज़ी और उल्फ़ा और हुज़ी को छिपाने के लिये पता नही किस-किस का सहारा लेना पडेगा?देशवासी सब देख रहे हैं और समझ रहे हैं,उन्हे नेता बहुत ज्यादा समय तक अंधेरे मे नही रख सकते हैं।
द्वारा प्रकाशित किया गया चन्दन चौहान पर 8:55 AM लेबल: मिडीया, शंकराचार्य, सेकुलर, हिन्दु धर्म, हिन्दु संगठन
14 नवम्बर 2004 दिपावली के ठीक पहले शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र स्वामी को ठीक पुजा करते समय गिरफ्तार किया गया सेकुलर के द्वारा यह किसी विश्व विजय से कम नही था जम कर खुशीयाँ मनायी गया। इस खुशी के माहौल को दुगना करने में मिडीया का भरपुर सहयोग मिला मिडीया पुलिस और खूफिया ऎजेन्सी से ज्यादा तेज निकला और डेली एक नया सबूत लाकर टी.वी समाचार के माध्यम से दिखाया जाने लगा हिन्दु साधु-संत को जम कर गालिया दिया जाने लगा सभी को हत्यारा कहा जाने लगा। लेकिन सेकुलर और मिडीया का झुठ ज्यादा दिन तक नही टिका और शकराचार्य स्वामी जयेन्द्र स्वामी के खिलाफ सेकुलर और मिडीया कुछ भी नहीं साबित कर रहा था, सभी आरोप को बकवास करार दिया गया, उच्चतम न्यायालय का फैसला शकराचार्य स्वामी जयेन्द्र स्वामी के पक्ष में आया उन्हे हत्या के आरोप से जमानत के द्वारा रिहा कर दिया गया।इस दीवाली हिन्दुओ के उपर एक और कंलक लगाने का कोशिश किया जा रहा हिन्दु आतंकवादी का बैगर किसी सबूत के एक हिंदू साध्वी को मालेगांव विस्फोटों में उसकी कथित तौर पर शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। पुलिस के पास सबूत नही है। जिस मोटर बाइक का उपयोग विस्फोट में करने के बारे में बताया जा रहा है उस बाइक को कुछ साल पहले बेच दिया गया था। स्पेशल पुलिस रविवार को साध्वी प्रज्ञा सिंह के किराए के मकान पर छापा मारा, लेकिन वहाँ से कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला। मुंबई एटीएस प्रदेश में साध्वी प्रज्ञा से जुड़े लोगों की गतिविधियों की जानकारी एकत्रित कर रही है। लेकिन अभी तक पुलिस को कोई खास सफलता मिला लगता नही है। लेकिन इस मुद्दे पर काग्रेसी और उसके सहयोगी के द्वारा झुठा प्रचार सुरु कर दिया गया है । चुनाव से पहले खुफिया ऎजेन्सी और पुलिस को अपने चुनाव ऎजेन्ट के रुप में काम करवाया जा करवा दिया है। काग्रेस के नेता और उनके सहयोगी दल इसी कोशीश में लगे हैं कि किस हिन्दु संघठन को चुनाव तक हिन्दु आतंकवादी का तगमा लगा कर रखा जाये जिससे चुनाव में फायदा उठाया जा सके। कांग्रेस सरकार इस पांच साल में इस देश को क्या दिया है। इस सरकार के दौरान सबसे ज्यादा मुस्लिम आतंकी का भयावह चेहरा हिन्दुस्तान देखा है। आंतकी को सरक्षण देने के लिये पोटा हटा दिया गया। परमाणु करार के द्वारा सरकार अपना परमाणु और रक्षा निती अमेरिका के हाथ में गिरवी रख दिया है। आखिर कौन सा चेहरा मुंह कांग्रेस उन किसानो के पास वोट मागने जायेगा जिसके परिजन आत्महत्या कर चुके हैं। हिन्दुस्तान का अर्थव्यवस्था आज जिस गति से निचे गिर रहा है उतना तेजी से शायद सचिन और धोनी ने रन भी नही बनाता है। हमारे अमेरिकन स्कालर प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी वित्त मंत्री के द्वारा लाख भरोसा और आश्वासन के बाबजुद भी अर्थव्यवस्था का गिरना बन्द नही हो रहा है अगर हालत यही रहा तो 1-2 महीना के अन्दर हिन्दुस्तान में भुखमरी सुरु हो जायेगा। सोचने योग्य बाते हैं आखिर हिन्दु अपने देश हिन्दुस्तान में क्यों बम विस्फोट करेंगे। उन्हें ना तो किसी देवता के द्वारा जिहाद करने को कहा गया है। नही हिन्दु इस देश को दारुल हिन्दुस्तान बनाना चाहता है। हिन्दु के किसी धर्म ग्रन्थ में कही भी यैसा भी नही लिखा है कि दुसरे धर्म वालो को तलवार से सर कलम कर दो। उसके बच्चों को उसी के सामने पटक कर मार दो उसकी बहन और बेटी का बलात्कार करो। किसी हिन्दु धर्मगुरु ने मंदिर के उपर चढकर अपने भक्तों को कभी नही कहा होगा की तुम्हे अपने घर में हथियार रखना जरुरी है और हिन्दु जिहाद के नाम पर चन्दाँ इकट्ठा कर के आतंकवादीयों को सुरक्षा मुहैया करना है आतंकवादीयों को अपने घर में पनाह देना है। और उसे न तो किसी आतंकवादी देश के द्वारा छ्दम युद्ध लड़ने के लिये पैसा मिलता है। आखिर क्या कारण है कि हिन्दु अपने घर को तवाह करना चाहते हैं। कोई कारण समझ में नही आता है सिर्फ इतना ही समझ में आरहा है कि हिन्दु आतंकवाद का डर दिखा कर कुछ मुस्लिम तुस्टिकरण में लिप्त, आतंकवादियों के सहयोगी राजनिती पार्टी को चुनाव में फायदा होगा। और कोई कारण नही है इस हिन्दु आतंकवादी का। सत्यमेव जयते के सिद्धान्त का पालन करते हुये हिन्दु इसी आशा में बैढे हैं कि जिस तरह से शकराचार्य स्वामी जयेन्द्र स्वामी को न्यायालय के द्वारा बाइज्जत बरी किया गया उसी तरह इस साध्वी प्रज्ञा सिंह भी एक दिन इज्जत के साथ जेल से रिहा होगी और तथाकथित सेकुलरिज्म का नकाव पहने, समाचार के नाम पर दलाली करने बाले मिडीया के गाल में तमाचा मारते हुये। फिर से इस देश में अपने ओजस्वी भाषण, देशभक्ती कार्य के द्वारा इस देश को परम वैभव में पहुचाने के कार्य में लग जायेगी।http://ckshindu.blogspot.com
2 प्रतिक्रियाऐं:
Anonymous said...
भाई हिन्दु आतंकवाद के खिलाफ कार्यवाही होने पर यह दर्द क्यों। आतंकवाद के खिलाफ आज तक जितनी गिरफतारियॉं हुई हैं, वे सभी बिना किसी सुबूत के खिलाफ होती रही हैं। पर इससे पहले आप ही कहते रहे थे कि इन देश द्रोहियों को फांसी दो। अब यह हायतौबा क्यों।
October 31, 2008 11:01 AM
Anonymous said...
हम आज भी कहते हैं अफजल, नागोरी, अबु फजल जैसे देशद्रोहियों को फांसी दो क्यों ये हरामी आतंकवादी हैं और ये आतंकवादी अपने मुह से कबुला है, हजारो सबुत है आतंकवादी के खिलाफ। पुलिस के उपर बाटला हाउस में गोली चलाने बाला क्या देशभक्त होता है। किसी कुरान में यैसे दोगले चरित्र वाले देशद्रोही आतंकवादी का महिमामंडन किया जाता है। या फिर दिगले नेता चरित्र वाले नेता जो वोट के लिये आतंकवादी का गुनगाण करता होगा। लेकिन साध्वि के खिलाफ अगर सबूत है तो उसे मकोका के तहत क्यों नही गिरफ्तार किया गया। जब पुलिस को साध्वि से पुछ ताछ में कुछ भी हाथ नही लगा नार्को टेस्ट और ब्रेन मैपिक करवाया जा रहा है।मुस्लिम आतंकवादी के समर्थन करने बाले भी दोगले और देशद्रोही हैं
संदीप भटट
राजधानी दिल्ली समेत राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में चुनावों की हलचलें रोजाना तेज हो रही हैं। दिल्ली में तकरीबन दस सालों से शीला दीक्षित का एकछत्र राज है। शीला कांग्रेस की पुरानी सिपहसालार हैं और बेहद बहादुरी के साथ दिल्ली के विकास का दावा कर रही हैं। मेरी दिल्ली मैं ही संवारू जैसे अभियानों की शुरूआत करने वाली दीक्षित ने इस तरह के भागीदारी अभियान से दिल्ली की सूरत बदलने की कवायद शुरू कर एक साहसिक कदम उठाया। इसके नतीजे बेहद सुखद रहे और दिल्ली दुनिया के उन महानगरों में शुमार हो गया जिन्होंने तेजी से कम होती जा रही हरियाली को रोका और शहर को हरा भरा कर गुलजार किया। दिल्ली में अब बिजली के हालात थोड़ा बेहतर हैं। इसका निजीकरण किया गया और बिजली चोरी के मामलों में थोड़ा कमी आई है। राष्ट्रमंडल खेलों के लिए दिल्ली शहर को सुंदर और सुविधाजनक बनाने के लिए प्रयासरत शीला सरकार अब भी प्रतिबद्ध है और वाकई दिल्ली में तेजी से काम चल रहा है। दिल्ली के एक नदी यमुना जो कंही से भी यंहा आकर नदी की शक्ल में नही दिखती, शीला ने इंजीनियर इंडिया लिमिटेड की मदद से इसे फिर से एक नदी बनाने की चुनौती पर भी काम शुरू किया है। उनकी सरकार का दावा है कि वर्ष 2010 तक यमुना का पानी आचमन के काबिल बना दिया जाएगा। हलांकि उनकी सरकार पर इस योजना के ऊपर करोड़ों रूपये बरबाद करने के बाद भी बेहतर परिणाम न देने के आरोप भी लगे हैं। लेकिन दिल्ली में पता चलता है कि वाकई काम हो तो रहा है।
शीला दिल्ली में बाहर से आने वाले लोगों के खिलाफ विवादित बयान के कारण भी सुर्खियों में रही थीं। हो सकता है कि उस बयान का खामियाजा उन्हे भुगतना पड़े क्योंकि आधे से अधिक लोग दिल्ली के बाहर से आकर यंहा बसे हैं। उनकी सबसे बड़ी नाकामी रही दिल्ली को एक सुरक्षित शहर न बना पाने की। मामले दिल्ली में बढ़ते अपराधों का हो या फिर आतंकवादी घटनाओं के, शीला सरकार को इस मोर्चे पर सफलता नही मिली। 15 अगस्त या 26 जनवरी के आसपास दिल्ली में हर चार कदम पर पुलिस का जवान दिखाई देता है और कुछ ही फासले पर पुलिस की गाड़ी। एक छावनी में तब्दील हो जाती है राजधानी। लोगों को इतनी पुलिस के साथ असहज भी लगता है,खासकर उनको जो बाहर से पहली बार यंहा आते हैं। लेकिन मामला सुरक्षा का होता है सो यह कवायद भी जरूरी है। अफसोस की बात है कि यही पुलिस बल तब कंही नही दिखता जब पॉश इलाकों में हत्या, बलात्कार,या कोई और अपराध घटित होते हैं, कई बार तो दिनदहाडे़ ही। महिलाओं के लिए तो यह देश के सबसे असुरक्षित शहरों में से एक है। लेकिन हद तो तब होती है जब भीड़ भाड़ वाले वाले इलाके में आतंकी बम विस्फोट करते हैं और पुलिस को मेल भी भेजते हैं। शीला दिल्ली वालों को सुरक्षा तो नही दे सकीं और यह भी आने वाले चुनावों में एक बड़ा मुददा रहेगा।
शीला के खिलाफ विपक्षियों में कोई खास दम नजर नही आता। भाजपा या अन्य किसी पार्टी के पास शीला के कद का कोई नेता नही है। शीला का कद और भी ऊंचा इसलिए है क्योंकि उनके पास संभालने के लिए एक अदद सा शहर दिल्ली ही तो है। हां पड़ोसी राज्य की मुखिया मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला शीला के और अन्य पार्टियों के गणित को गड़बड़ाने के लिए काफी है। वैसे भी एनसीआर के नोएडा तक तो मायाराज ही है।
छत्तीसगढ़ की अपनी ही अलग समस्याएं हैं। ये राज्य अगर चैनलों अक्सर नक्सली हमलों की वजह से ही सुर्खियों में आता है। राजधानी रायपुर में तेजी से बनते जा रहे शापिंग मॉलों की ऊंचाइयों को देख लगता है कि यंहा कुछ जरूर नया हुआ है, जमीन के भाव आसमानों को छू रहे हैं, मुख्यमंत्री रमन सिंह विकास का मजबूत दावा करते हैं। उन्होंने बायोडीजल वाली गाड़ी इस्तेमाल की और इसे राजशाही में हो रहे खर्चो में कटौती कहा। उनकी एक मात्र उपलब्धि है बेहद सस्ते दामों पर लोगों को चावल मुहैया कराना। यह मंहगाई के दौर में आम आदमी को थोड़ा राहत पंहुचाने वाला काम है। राजधानी रायपुर में ही बड़े बड़े नक्सली नेताओं की गिरफ्तारियों ने रमन सिंह सरकार के सामने चुनौती पेश की, जिसे उन्होंने बखूबी कबूल किया। लेकिन यह एक ऐसी समस्या है जो केंद्र और राज्य सरकार के बेहतर सामंजस्य के बिना खत्म नही होने वाली। लेकिन फिर भी जिम्मेदारी को यह कह कर टाला नही जा सकता और इस पैमाने पर रमन सरकार कुछ खास नही कर पाई। छत्तीसगढ़ का एक अलग किस्म का दर्द भी है और वो है आम छत्तीसगढ़ी का विकास। रायपुर स्टेशन हो, राजनांदगांव या फिर बिलासपुर, छत्तीसगढ़ का बासिंदा अब भी ठहरा हुआ ठगा हुआ सा महसूस करता है। अधिकांश सरकारी दफ्तरों या कुछ एक कंपिनयों के आफिसों में काम करने वालों में वो लोग अधिक हैं जो उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश,बिहार या महाराष्ट्र से आए हैं। आम छत्तीसगढ़ी तो अब भी विकास से कासों दूर है। चुनावों में यंहा रमन सिंह के खिलाफ कोई खास कददावर अजीत सिंह के अलावा कोई नेता कांग्रेस के पास नही है। और कांग्रेस की अंतरकलह जगजाहिर है। जोगी भी लंबे समय से रायपुर के राजनैतिक धरातल से गायब रहे। चुनावों की घोषणा से पहले ही बसपा सुप्रीमों मायावती ने राजनैतिक जमीन की तलाश यंहा शुरू कर दी थी। लेकिन आदिवासी बहुल और नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी शायद उत्तरप्रदेश के र्फामूले पर न हो सके।
राजस्थान की रेतीली धरती पिछले कुछ महीनों पहले गुर्जर आंदोंलन की आग से और भी गर्म हो गई। भाजपा की वसुंधरा राजे सूबे की मुखिया हैं। कुछ समय पहले कांग्रेस और भाजपा दोनों के बड़े नेताओं के दैवीय स्वरूप वाले कैलेंडर या पोस्टर छपने की खबरें प्रकाश में आई थी। राजे का नाम भी उन नेताओं में शुमार था। बाद में एनडीए सरकार में रक्षा मंत्री रह चुके जसवंत सिंह और राजे की राजनैतिक खींचतान भी चर्चाओं में रही। असली विवादों और सुर्खियों में वे गुर्जर आंदोलन के दौरान रहीं। आरक्षण के मसले पर गुर्जर समुदाय सड़कों पर उतर आया। रेलें रोकी गई, सरकारी बसों को जलाया गया, करोड़ों का नुक्सान हुआ और जानमाल का भी नुक्सान हुआ। सरकार आंदोलन को रोकने में नाकाम रही और गुजर्रो का असंतोष अभी भी खत्म नही हुआ है। राजस्थान में आतंकी घटनाओं का होना भी चुनावों में एक बडा मुददा रहेगा। जयपुर के बम धमाकों की आवाज चुनाव के परिणामें में परिणित होगी। आजकल भाजपा के नेता और राजस्थान में मजबूत पकड़ रखने वाले भूतपूर्व उप राष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम भी चुनावों को एक अलग रूख देगी। कांग्रेस के भीतर का कलह राजस्थान में भी पार्टी को कोई खास फायदा नही होने देगा। प्रदेश में बसपा भी अपनी उम्मीदवारी को मजबूत करने में लगी है और चूंकि इसके कुछ इलाके खासकर भरतपुर आदि उत्तरप्रदेश की सीमा से सटे हैं सो कम से कम इन इलाकों में पार्टी कुछ सीटें झटक सकती है।
मध्यप्रदेश ने भाजपा के इस शासनकाल मे तीन मुख्यमंत्री देखे हैं। उमाभारती जो अब भाजपा से नाता तोड़ चुकी हैं, बाबूलाल गौर और युवा छवि वाले मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान । इससे पहले कांग्रेस राज से आजिज आकर जनता ने सत्ता पलट कर दिया और भाजपा को मौका दिया। पहले कुछ साल अस्थिरता के बावजूद मध्यप्रदेश के लोगों को सरकार सही हाथों में दिखी। कई सर्वेक्षणों में प्रदेश को तेजी से विकास की ओर अग्रसर बताया गया। योजनाओं और घोषणाओं की धाराएं प्रदेश में बहने लगी। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, रोजगार आदि फ्रंटों पर शिवराज सरकार को सफलतम घोषित करने की स्वनामधन्य कोशिशें की गई। लेकिन जो यहां रहते हैं असलियत उन्हें ही पता है। जिला मुख्यालयों से कुछ ही दूरी के ऐसे सैकड़ों गांव है जिनमें दीपावली के दिन भी बिजली का कोई पता नही होता। पानी तो इंदौर जैसे महानगर में भी एक दो दिन छोड़कर आता है। अपराधों में कोई कमी नही आई। सबसे चिंताजन पहलू ये है कि कमजोर वर्गों के प्रति बेहद असंवेदनशीलता दिखाई देती है। कमजोर वर्ग सबसे असुरक्षित महसूस करता है। राजधानी भोपाल में ही अपराध का ग्राफ पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है। एक बार तो नक्सली नेताओं की पूरी फौज ही भोपाल से पकड़ी गई। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की बदहाली अब भी जगजाहिर है। हाल के दिनों में कुपोषण के मामले जाहिर होने पर लीपापोती की गई लेकिन हकीकत है कि यंहा हालात वाकई गंभीर हैं। आंतकी संगठनों से जुड़े लोगों की प्रदेश के छोटे शहरों से जुड़े होने की खबरों ने बताया है कि यंहा का तंत्र सुरक्षा को लेकर कितना सचेत है। मध्यप्रदेश के राजनेताओं में मौजूदा मानव संसाधन मंत्री अर्जुनसिहं, स्व माधवराव सिंधिया, दिगविजय सिंह, वर्तमान वाणिज्य मंत्री कमलनाथ समेत कई दिग्गज नेताओं के नाम शुमार हैं लेकिन फिर भी यह प्रश्न यथावत रहता है कि क्यों देश का ह्दय कहलाने वाल मध्यप्रदेश विकास की दौड़ में इतना पीछे है। क्यों यंहा के किसानों, आदिवासियों के हालात भी कतिपय छत्तीसगढ़ जैसे ही हैं। 2004-05 के दौरान एक खबर आई थी कि आदिवासी अंचल के जिलों के किसानों ने तत्काली राष्ट्रपति डा. कलाम से स्वैच्छा मृत्यु की अनुमति मांगी थी। किसान वाकई परेशान हैं और आम आदमी भी आहत है कि जिन ख्वाबों के साथ उसने इस नई सरकार के नेतृत्व करने वालों कों वोट दिया था वे तो पूरे ही नही हुए। इन आम आदमियों सवालों के जवाब तो सरकार को देने ही होंगे। कांग्रेस का अंर्तकलह यंहा कोई नई बात नही है। वैसे कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी भी प्रदेश के अंचलों के कई दौरे कर चुके हैं और बेहद संजीदगी के साथ उन्होंने रणनीतिकारों की एक लाबी तैयार की है। राहुल कभी किसी गांव मे सभा करते हैं तो कभी किसी गरीब की झोपड़ी में रात बिताते हैं। वाकई वे गंभीरता से कांगेस की खोई राजनैतिक जमीन की तलाश की जददोजहद मे लगे हैं, लेकिन उनकी समस्या यह है कि इस पार्टी में लार्जर देन पार्टी कई लोग हैं जो पीढ़ीयों से पार्टी पर काबिज हैं और सत्ता सुख भोगते आ रहे हैं। यही खेमेबाजी कांगेस की परेशानी का कारण बनती जा रही है।कई गुटों में बंटी इस पार्टी का प्रदेश में क्या हाल होगा कहा नही जा सकता है। उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी भाजपा को कुछ हद तक नुकसान पंहुचा सकती है। मौजूदा सरकार में भी कई ऐसे मंत्री हैं जिनक मन में उमा के प्रति आदरभाव अब भी है। बुंदेलखंड से लगे इलाको में बसपा का हाथी हावी होने की जुगत में है। वैसे पार्टी सुप्रीमो मायावती प्रदेश के दौरे कर चुकीं हैं और उन्हे उम्मीद है कि इस प्रदेश के बहुजन बसपा के साथ होंगे। अगर मायावती सोशल इंजीनियरिंग की जोरआजमाइश बेहतर ढंग से करें तो थोडे़ बेहतर परिणाम तो आ ही सकते हैं। इन दलों के अलावा प्रदेश में समाजवादियों का भी दखल है और कुछेक और स्थानीय दल भी आशान्वित होंगे।
बहरहाल ये चारों राज्य बेहद महत्वपूर्ण हैं और इनके चुनाव परिणाम काफी हद तक ये स्पष्ट करेंगे कि देश में सरकार किसकी बनेगी।
बुधवार, 29 अक्टूबर 2008
आतंकवाद को सेक्यूलरी जामा पहनाने की कवायद
अनिल सौमित्र
पिछले दिनों आतंकवाद को लेकर एक संप्रदाय विशेष पर उंगलियां उठनी शुरू हो गई थीं। सिमी जैसे संगठनों ने संगठित आतंक के कारण न सिर्फ पुलिस व्यवस्था, बल्कि मुस्लिम समुदाय के नाक में दम कर रखा था। घुसपैठ, आतंकवाद, नक्सलवाद और सांप्रदायिकता से जुड़े कई पहलुओं पर यूपीए सरकार और खास तौर पर कांग्रेस आरोपों के घेरे में थी। भाजपा ने राजनीतिक तौर पर और अन्य संगठनों ने सामाजिक तौर पर कांग्रेस और यूपीए सरकार की घेरेबंदी शुरू कर दी थी। रामसेतु, अमरनाथ भूमि विवाद और अफ़ज़ल को फांसी देने का का मुद्दा केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार के लिए गले की हड्डी बन गया। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस को मुद्दों के साथ-साथ मुस्लिम वोटों को अपने पाले में लाने के लिए मौकों की तलाश है। उसके सामने दूसरी चुनौती थी भाजपा और दूसरे भगवा संगठनों के आरोपों का सामना करने और उसकी धार को कुंद करने की।
मालेगांव विस्फोट में साध्वी प्रज्ञा के आरोपी बनने से कांग्रेस और उसके सहयोगी दल इसमें अपनी सारी मुश्किलों का हल ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। न्यूज़ चैनलों पर कुछ टीवी एंकर और कांग्रेस प्रवक्ताओं की बाजीगरी गौर से देखिए, बस थोड़ा सोचिए सब समझ में आ जाएगा। मालेगांव विस्फोट और आतंकवाद पर चर्चा और छानबीन के बजाए पूरा जोर इस पर है कि संघ परिवार और भाजपा को कैसे लपेटे में लिया जाए। कैसे सिद्ध किया जाए कि अब भाजपा भी आतंकवादी संगठन हो गया है। महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते और मध्य प्रदेश व गुजरात पुलिस पर जांच को प्रभावित करने का दबाव बनाया जा रहा है। न्यूज चैनलों की पूर्वाग्रह से ग्रस्त रिपोर्टिंग और विश्लेषण किसी सुनियोजित षड्यंत्र का संकेत देते हैं।
इस मामले को रातोंरात इतना बड़ा बना दिया गया कि उसके कारण आतंकवाद, सीरियल ब्लास्ट, सिमी, मतांतरण, कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या, केरल में संघ के स्वयंसेवकों की हत्या, असम में घुसपैठ विरोधी जनांदोलन, अफ़ज़ल की फांसी और न जाने कितने मुद्दे गौण हो गए। सितंबर, 2006 में मालेगांव में ही हुए उस विस्फोट कैसे भुला दिया गया जिसमें 38 लोग मारे गए थे और अनेक लोग घायल हुए थे। कहना न होगा कि साध्वी प्रज्ञा, अभिनव भारत संगठन और श्रीराम सेना को आरोपी बनाना और संघ परिवार, भाजपा व समूचे हिंदू समाज को कठघरे में खड़ा करना किसी बड़ी सुनियोजित साज़िश का हिस्सा है। फिलहाल तो ऐसा ही लग रहा है कि साज़िश रचने वाले और इसे अमल करने वाले अपने इरादे में सफल हो गए हैं और आतंकवाद के मुद्दे पर आक्रामक संघ परिवार व भाजपा को बैकफुट पर धकेल दिया है।
समूचा संघ परिवार, साधु-संतों के संगठनों और अपने को हिंदुओं का पैरोकार बताने वाले राजनैतिक दलों भाजपा और शिवसेना का साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी मामले में एक अजीब-सी चुप्पी समूचे हिंदू समाज के लिए खतरनाक है। इन संगठनों को सोचना होगा कि सवाल से बचा जाए, चुप्पी साध ली जाए या फ्रंटफुट पर आकर सवाल पूछा जाए और पलटवार किया जाए। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि हिन्दू समाज अपने ऊपर हो रहे अन्याय कब तक सहता रहेगा। संतों को समाज जागरण के लिए आक्रामक तेवर अपनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है? हिन्दू समाज अपने ही देश में न्याय और सम्मान की खातिर क्रुद्ध और हताश क्यों है? सालों से वह पिटता ही क्यों आ रहा है? कांग्रेस के इतने वर्षों के राज में हिन्दू समाज दमन, अपमान और अन्याय का भागीदार ही क्यों बना? आखिर कौन पूछेगा ये सवाल, कौन देगा इन सवालों का जवाब? जब सवाल पूछने वाले ही असमंजस में हों, अंजाने अपराधबोध से ग्रस्त हो जाएं, तो समाज तो अवसादग्रस्त हो ही जाएगा।
पुलिस के एक आला अधिकारी ने व्यक्तिगत चर्चा में इस बात का खुलासा किया कि डंडे के बल पर किसी को भी आरोपी बनाया जा सकता है। किसी से भी कुछ भी कबूल कराया जा सकता है। यह तब और भी आसान हो जाता है जब पुलिस और अन्य सरकारी एजेंसियों का उच्चस्तरीय राजनीतिक दुरुपयोग होने लगे। यह कौन दावा करेगा कि साध्वी प्रज्ञा को पुलिस ने प्रताड़ित नहीं किया। सिर्फ आरोपी से अपराधी और आतंकी जैसा सलूक नहीं किया? अब सिर्फ राज्य पुलिस और विभिन्न आयोगों का ही नहीं, बल्कि सीबीआई, आईबी और विशेष पुलिस दस्ते का भी राजनैतिक उपयोग होने लगा है। जब षड्यंत्र और उसे अमल में लाने की रणनीति सत्ता के शीर्ष स्रोत से हो, तो सामान्य लोगों के लिए इसे समझना मुश्किल हो जाता है। वे तो कही-सुनी गई बातें, टीवी चैनलों की व्याख्या और अखबारों के आंशिक सच को ही संपूर्ण सत्य मान लेते हैं। लेकिन जागरूक पाठक और दर्शक तो आंशिक सच को शक के नजरिये से देखेगा, विवेकपूर्ण विचार करेगा और तब कोई समझ बनाएगा। साध्वी प्रज्ञा के टेलिफोन और मोबाइल में से जांच एजेंसियों के कुछ लक्षित और उद्देश्यप्रेरित नंबरों की ही जांच क्यों की जाए, उन सभी नंबरों से पर्दा उठाया जाए जो उसके पास उबलब्ध है। उनके साथ सिर्फ भाजपा नेताओं के फोटो न दिखाए जांए, बल्कि आज तक के उनके सभी संपर्कों की छानबीन की जाए। सच तब उजागर होगा। तब कई सरकारी एजेंसियों और लोगों व राजनीतिक दलों के बारे में राज खुलेंगे। जांच व्यापक और निष्पक्ष होनी चाहिए, किसी निर्दिष्ट उद्देश्य और लक्ष्य से प्रेरित नहीं।
गांधी की हत्या में भी संघ को फंसाया गया था। इस मामले में न्यायालय द्वारा संघ को निर्दोष करार देने के बाद भी कांग्रेसी और संघ विरोधी आज भी गांधी हत्या के मामले में संघ का नाम लेने से बाज नहीं आते। न्यायालय की इस अवमानना के बारे में कोई कुछ बोलता भी नहीं। तब से लेकर आज तक संघ ही नहीं सभी छोटे-बड़े हिन्दू संगठनों को बदनाम, अपमानित और अस्तित्वहीन कर देने का षड्यंत्र लगातार जारी है। तमिलनाडु में पू. शंकराचार्य जी पर आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार किया गया, उन्हें अपमानित किया गया। अब उस मामले का क्या हुआ, किसी को नहीं मालूम। संभव है साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी भी किसी बड़े राजनीतिक हेतु के लिए किया गया हो। योजनाकार की मंशा पूरी होते ही इसे भी दफन कर दिया जाएगा।
हिन्दू समाज और संगठन आज चारों ओर से विरोधों और आक्रमणों से घिर गया है। दुनियाभर की ईसाई और इस्लामिक ताकतें सुरसा की तरह मुंह बाए भारत को क्षत-विक्षत करने को आतुर हैं। वे भारत को खंडित कर देने का हर संभव प्रयास कर रही हैं। यहां आतंकवाद, नक्सलवाद, मतांतरण और घुसपैठ को देशहित के नज़रिए से देखने के बजाए तुष्टिकरण के चश्में से देखा जा रहा है। देश में काम कर रहे सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को प्रतिबंध की धमकी दी जा रही है। इन संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं को आरोपी बनाया जा रहा है। शेष समाज को इन संगठनों से न जुड़ने की अप्रत्यक्ष चेतावनी दी जा रही है। दुस्साहस का भयावह परिणाम दिखाया जा रहा है। अब आतंकवाद पर वैसी बात नहीं की जाएगी। इसमें सेक्युलरिज़्म का तड़का लगाया जा रहा है। अब मुस्लिम और ईसाई आतंकवाद के साथ थोड़ी चर्चा हिन्दू आतंकवाद की भी होगी।
यह चुप रहने का समय नहीं है। चुप्पी के भयावह और खतरनाक प्रभाव होंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व के पैरोकार सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दलों को आगे आना ही होगा। कोई बोले न बोले, इन्हें बोलना ही पड़ेगा। इन संगठनों को चुनौतियों से मुंह चुराने के बजाए तर्क और त्वरा शक्ति, आक्रामक शैली और संगठन कौशल के साथ आतंकवाद के खिलाफ और साध्वी प्रज्ञा के पक्ष में खड़े होना होगा। यह विचार, संगठन और कार्यकर्ताओं की परीक्षा की घड़ी है। साध्वी प्रज्ञा के गुरु स्वामी अवधेशानंद जी को आगे आकर हिन्दू शक्तियों का उत्साहवर्द्धन करना चाहिए। वह अपने शिष्या के पक्ष में जिरह करें, यह परिस्थितियों की मांग है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सज़ा सुनाने के बाद भी आतंकियों के पक्ष में कितने वकील, समाजसेवी और लेखक-बुद्धिजीवी सामने आ गए थे। आतंकियों के एन्काउंटर में एक पुलिस अधिकारी की शहादत के बाद भी उस मामले की जांच की मांग राजनैतिक दलों द्वारा की गई। उन्हें इसका ज़रा-सा भी मलाल नहीं। आज साध्वी के पक्ष में कोई क्यों नहीं आ रहा? कोई वकील नहीं, कोई पैसे वाला नहीं, कोई लेखक-बुद्धिजीवी नहीं, कोई समाजसेवी नहीं, कोई साधु-संत नहीं, कोई नेता-राजनेता नहीं। क्या सिर्फ इसलिए कि हिन्दू दुनिया में अल्पसंख्यक है, अपने ही देश में जलालत और अपमान की ज़िंदगी जीने को अभिशप्त है! देश के सामने अनेक ज्वलंत समस्याएं और चुनौतियां हैं। ये समस्याएं और चुनौतियां राजनीति और चुनाव के मुद्दे बन गए हैं। भाजपा और उनके सहयोगी दलों ने भरसक कोशिश करके विधानसभा और आने वाले लोकसभा चुनावों में इन्हें मुद्दा बनाने की योजना बखूबी बना ली थी, लेकिन बहुत ही कुशलता से उन मुद्दों से ध्यान बांटने और हटाने की एक चतुर चाल चली गई है। तोप का मुंह चलाने वाले की तरफ ही कर दिया गया है। सभी राष्ट्रवादी शक्तियों को इस चाल से खुद को भी बचाना है और देश व समाज को भी।
आतंकवाद नहीं, सिर्फ मुद्दे से निजात की कोशिश
साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी पर कई सवाल। क्या सचमुच हिंदुओं के सब्र का प्याला भर चुका। क्या रिटायर्ड फौजी भी आतंकवाद के तुष्टिकरण की नीति से खफा। पर इन दो सवालों से पहले एक मूल सवाल। सवाल पुलिस एफआईआर की विश्वसनीयता का। अदालत में आधे केस ठहरते ही नहीं। इमरजेंसी में इसी पुलिस ने कितने मनघढ़ंत केस बनाए। संघ के अधिकारियों पर भैंस चोरी तक के केस बने। बर्तन चोरी तक के केस बनाए गए। अपने पास ऐसे एक-आध नहीं। दर्जनों केसों के सबूत मौजूद। पुलिस आकाओं के इशारे पर काम करने में माहिर। सो पहला अंदेशा राजनीतिक दखल का। आखिर राजनीतिक दखल से ही अफजल की फांसी अब तक नहीं हुई। अगर यह केस राजनीतिक दखल से नहीं बना। तब भी एक तकनीकी सवाल बाकी। क्या मोटर साईकिल का चेसी नंबर ही प्रज्ञा को आतंकी साबित कर देगा? अगर ऐसा संभव। तो दिल्ली के जामा मस्जिद के पीछे जितनी चाहे चेसियां खरीद लो। मोटर साईकिलों की या कारों की भी। अपन को नहीं लगता। कोर्ट में इतना सबूत ही काफी होगा। दिल्ली के करोलबाग में सेकिंडहैंड मोटर साईकिलों का बाजार। हर रोज दर्जनों मोटर साईकिलों की खरीद-फरोख्त। आधे सिर्फ स्टांप पेपर पर बिक जाते हैं। रजिस्ट्री तक नहीं होती। रजिस्ट्री के मामले में कानून में ही सुराख। बेचने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं। रजिस्ट्री करवाना खरीदने वाले की जिम्मेदारी। अपन दो कारें बेच चुके। किसी की रजिस्ट्री करवाने नहीं गए। पर इससे गंभीर किस्सा स्कूटर का। अपन जब चंडीगढ़ में हुआ करते थे। तो अपन ने बजाज का चेतक स्कूटर खरीदा। दिल्ली में जब अपन ने कार ले ली। तो स्कूटर कई महीने गैराज में धूल फांकता रहा। इनकम टेक्स में अपने एक मित्र हुआ करते थे बीबी सिंह। उनने अपने दामाद को देने के लिए अपन से स्कूटर मांगा। तो अपन ने फौरन हां कर दी। खरीद-फरोख्त की बात ही नहीं थी। पर कुछ महीने बाद उनने लिफाफे में रखकर कुछ पैसे थमा दिए। पैसे स्कूटर की कीमत से ज्यादा थे। सो बातचीत की गुंजाइश नहीं बची। बीबी सिंह अब इस दुनिया में नहीं। उनके दामाद का अपन को अता-पता नहीं। कबाड़ में बिका हुआ स्कूटर किसी दिन अपन को आतंकी न बना दे। दुनियादारी में ऐसे सेकड़ों-हजारों किस्से मिलेंगे। कानूनदानों की नजर में प्रज्ञा का मोटर साईकिल सबूत नहीं। तो क्या पुलिस के पास कुछ और भी सबूत। अपन ने आईबी के एक अफसर से पूछा। तो वह बोला- ‘फिलहाल नहीं।’ अब सवाल पुलिस की एफआईआर का। कहीं आतंकवाद का मुद्दा खत्म करने की रणनीति तो नहीं? आतंकवाद की गंभीरता कम करने की साजिश तो नहीं? आखिर बीजेपी वाले कहने लगे थे- ‘हर मुसलमान आतंकी नहीं। पर पकड़ा गया हर आतंकी मुसलमान।’ इस आरोप की हवा निकालने की साजिश तो नहीं? कांग्रेस और यूपीए आतंकवाद का तुष्टिकरण करते पकड़े जा चुके। आतंकवाद के तुष्टिकरण से निजात पाने की कोशिश तो नहीं? सरकार जरा इस पर गंभीरता से सोच ले। हिंदुओं और मुसलमानों में खाई बढ़ा देगी यह साजिश। पर अगर यह सब नहीं। तो क्या सचमुच हिंदुओं के सब्र का प्याला भर चुका। क्या आतंकवादियों के हाथों जान गंवाने वाले फौजियों का शासन से भरोसा उठ चुका? अगर सचमुच प्रज्ञा ने बदला लेने की ठानी? अगर सचमुच रिटायर्ड फौजियों ने प्रज्ञा का साथ दिया? जैसा कि पुलिस की थ्योरी ने कहा। तो सचमुच देश की जनता का हुकमरानों से मोह भंग हो चुका। मोह भंग हो चुका- कि मौजूदा शासक आतंकवाद से निजात दिला सकते हैं। दीपावली पर सरकार को भी रोशनी मिले। तो मुद्दे से नहीं, आतंकवाद से निपटने की कोशिश शुरू हो।
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गुरुवार, 16 अक्टूबर 2008
विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज गई
भोपाल। चुनाव आयोग ने बहुप्रतीक्षित विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी है। आयोग के दिशा-निदेर्शों के मुताबिक मध्यप्रदेश सहित पांच राज्यों में नवम्बर माह की अलग-अलग तारीखों में चुनाव कराए जायेंगे। मध्यप्रदेश में मतदान की तारीख 25 नवम्बर है। अन्य चार राज्यों - छत्तीसगढ़ में दो चरणों में - 14 और 20 नवम्बर को, दिल्ली और मिजोरम में 29 नवम्बर और राजस्थान में 4 दिसंबर को मतदान होगा। आयोग ने सभी राज्यों की मतगणना 8 दिसंबर को कराने का निर्णय लिया है। इसी दिन इन राज्यों में नई सरकार के गठन का रास्ता साफ हो जायेगा।
मध्यप्रदेश में 12 विधानसभाओं का गठन हो चुका है। दिसंबर में 13 वीं विधानसभा का गठन होगा। मध्यप्रदेश के गठन के बाद से भाजपा को तीन बार सरकार बनाने का मौका मिला। लेकिन भाजपा की दो सरकारें, कांग्रेस की बदनीयत का शिकार हो गईं । पहली बार भाजपा को पांच साल सरकार चलाने का अवसर मिला है। लेकिन भाजपा ने पूर्व की ही भांति इस बार भी तीन मुख्यमंत्री दिए। उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व भी जब संविद सरकार बनी थी तो कैलाश जोशी, वीरेन्द्र सखलेचा और सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने थे। बाद में जब 1990 में भाजपा की सरकार बनी तो पुनः सुन्दरलाल पटवा ही मुख्यमंत्री बने लेकिन केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने दो साल में ही पटवा सरकार को बर्खास्त कर दिया। वर्ष 2003 में जब भाजपा को पुनः दो तिहाई बहुमत मिला तो उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं, उसके बाद बाबूलाल गौर और फिर शिवराज सिंह चैहान। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश के 42 वर्षीय लोकतांत्रिक सफर में 32 वर्ष तक कांग्रेस का राज रहा है, भाजपा सिर्फ 10 वर्षों तक ही सत्ता में रह पायी। मुख्यमंत्री बदलने में भी कांग्रेस भाजपा से आगे ही रही है। 32 वर्षों के शासन में कांग्रेस ने 21 मुख्यमंत्री दिए।
भाजपा, वर्तमान चुनाव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के नेतृत्व में ही लड़ रही है। मुख्यमंत्री की लोकप्रियता, आम जनता के नेता की छवि और सरकार की उपलब्धियों के बूते भाजपा फिर से सरकार बनाने को तैयार है। भाजपा की चुनावी तैयारी भी काफी पहले ही शुरू हो गई थी। अब जबकि चुनावी रणभेरी बज चुकी है सभी पार्टियों ने अपनी-अपनी चालें चलनी शुरू कर दी हैं। उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया अंतिम चरण में है, प्रचार की सामग्री तैयार हो चुकी है और चुनावी वायदों और घोषणाओं को आकर्षक और लोकलुभावन बनाने की तैयारी भी लगभग पूरी हो चुकी है।
मध्यप्रदेश का राजनैतिक परिद्श्य पूर्व की अपेक्षा अधिक रोचक प्रतीत हो रहा है। इस विधानसभा चुनाव में पहली बार भाजपा और कांग्रेस के अलावा अन्य पार्टियां पूरी ताकत के साथ मैदान में हैं। उनकी कोशिश है कि मध्यप्रदेश की 13 वीं विधानसभा को त्रिशुंकू बना दिया जाए। बसपा, सपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी भी पूरी दमखम के साथ चुनाव मैदान में है। उमा भारती की पूरी कोशिश है कि भाजपा का अधिक से अधिक नुकसान कर अपने लिए कुछेक सीटें निकाल ली जाएं। उनकी मंशा है कि चुनाव के बाद ऐसी स्थिति बन जाये कि सरकार बनाने के कांग्रेस और भाजपा दोनों अन्य दलों का समर्थन लेने को मजबूर हो जाएं।
मध्यप्रदेश में राजनैतिक स्थिति ऐसी है कि अभी कोई भी अनुमान लगाना जल्दीबाजी होगी। सभी पार्टियों, खासकर भाजपा और कांग्रेस के द्वारा उम्मीदवारों की घोषणा के बाद ही कोई अनुमान सार्थक होगा। हाल की स्थितियों को देखकर यही लगता है कि सभी पार्टियों के नेताओं में टिकटों को लेकर ऐसी भागमभाग मची है कि हरेक नेता स्वयं को सर्वोत्तम उम्मीदवार बताने में लगा है। एक पार्टी छोड़कर दूसरे का दामन थामने का सिलसिला शुरू हो गया है। राजनैतिक लहरें हिचकोलें ले रही हैं, इसके थमने के बाद ही चुनावी आकलन किया जा सकेगा। फिलहाल हवा का रूख भाजपा के पक्ष में है। चुनावी तैयारी के लिहाज से भाजपा अन्य दलों से आगे है। भाजपा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के हांथों में चुनाव प्रचार की पतवार थमा दी है। पार्टी के नेता अपने सरकार की उपलब्धियों को लेकर जनता के बीच जा रहे हैं। कार्यकर्ता कुंभ और जन आशीर्वाद रैली में शिवराज सिंह चैहान ने अपनी उपलब्धियों का बखान किया। पार्टी के कार्यकर्ता इसे ही आगे बढ़ा रहे हैं। भाजपा, केन्द्र की यूपीए सरकार की नाकामियों, मंहगाई और आतंकवाद को भी मुद्दा बनायेगी।
कांग्रेस की तैयारियों को भी कमतर नहीं आंका जा सकता। कांग्रेेस भी आक्रामक प्रचार के मूड में है। कांग्रेस, भाजपा सरकार की नाकामियां और मंत्रियों के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की वह पुरजोर कोशिश कर रही है। यूपीए सरकार की उपलब्धियां इस चुनाव में प्रचार का मुद्दा होंगी। सपा, बसपा और अन्य पार्टियां भी कामोबेश भाजपा सरकार की असफलता और सरकार के भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनायेंगी। पूर्व भाजपा नेत्री उमा भारती ने सरकार के खिलाफ 51 आरोपों को कच्चा चिट्ठा जरूर जारी किया है। उमा भारती, सरकारी योजनाओं की विफलता और मुख्यमंत्री की घोषणाओं के आधार पर भाजपा को घेरने की तैयारी कर रही हैं। उल्लेखनीय है कि उमा भारती भाजपा के ही मुद्दों, मतों और नेताओं के बीच सेंध लगाने की कोशिश में हैं। भाजपा को कमजोर करना उनका प्राथमिक लक्ष्य है। बिजली, पानी और सड़क इस बार भी चुनावी मुद्दा है।
हालांकि अन्य पार्टियां, मध्यप्रदेश में दो दलीय राजनैतिक परंपरा को चुनौती देने का प्रयास कर रही हैं, लेकिन इन पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण तीसरी शक्ति के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है। भाजश और गोगपा में विभान हो गया है। सपा में नेताओं का विवाद चल ही रहा है। प्रदेश के छोटे दल संसाधनों की कमी से भी जूझ रहे हैं। लेकिन एक तरफ कांग्रेस को बसपा से नुकसान होने का अंदेशा है, वहीं भाजपा को भाजश से। भाजपा ने समझदारी से टिकटों का बंटवारा किया और असंतोष और विद्रोह पर काबू रखा तो चुनाव में अच्छा परिणाम दे सकती है। कांग्रेस, नेतृृत्व के संकट से जूझ रही रही है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचैरी को अभी भी पूरे प्रदेश का नेता नहीं माना जा रहा है। कांग्रेस के सूबेदारों ने अपने-अपने सूबे बांट लिए हैं। इस रणनीति में कांग्रेस आलाकमना सोनिया गांधी की भी सहमति है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, वर्तमान केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित सुरेश पचैरी, अजय सिंह, जमुना देवी और सुभाष यादव ने अपने-अपने सूबों में तैयारी शुरू कर दी है।
तमाम सर्वे, राजनैतिक विश्लेषकों की राय और राजनैतिक कयासों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने 2003 के विधानसभा चुनाव में 173 सीटों पर कब्जा जमाया था, लेकिन इस बार वह इससे पीछे आयेगी। कांग्रेस अपने सबसे खराब प्रदर्शन 38 सीटों से उबरेगी। बसपा, सपा और गोगपा अपनी पुरानी स्थिति को बचाए रखने में सफल होगी। भाजपा से अलग होकर भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन करने वाली उमा भारती भी अपनी राजनैतिक जमीन बनाने में सफल होंगी।
बुधवार, 15 अक्टूबर 2008
बांग्लादेशी घुसपैठिए - भारतीय अर्थव्यवस्था पर बोझ

राष्ट्र की अपनी ही समस्याएँ कम नहीं हैं। सुरसा के मुँह की तरह आम आदमी को डंसती महंगाई, देश की कानून-व्यवस्था को धता बताते हुए स्थान-स्थान पर आतंकी विस्फोट, क्षेत्रवाद की राजनीति के चलते पूर्वोत्तर प्रान्तों व महाराष्ट्र में देश के नागरिकों के साथ किया जा रहा दुर्व्यवहार, कृषि क्षेत्रों में कम उपज व अकाल के कारण आत्महत्या हेतु विवश किसान सहित अनेक ऐसी समस्याएँ हैं, जिनसे राष्ट्र जूझ रहा है। इन समस्याओं के चलते राष्ट्र की समृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, ऐसे में विदेशी घुसपैठियों की देश में उपस्थिति देश की अर्थव्यवस्था एवं कानून-व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालने में पीछे नहीं है।
कहना गलत न होगा कि संकीर्ण स्वार्थों के चलते राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की अवधारणा को तिल-तिल खंडित करने का कुचक्र जारी है, यदि ऐसा न होता तो बांग्लादेशी घुसपैठियों को सरलता से देश में आश्रय नहीं मिल पाता। आज स्थिति यह है कि देश के कुछ शहरों में बांग्लादेशी घुसपैठियों की अलग बस्तियाँ हैं।
कुछेक घुसपैठियों को नागरिकता प्रदान करके खुलकर खेलने का अवसर प्रदान कर दिया गया है। धरपकड़ जैसी कोई स्थिति नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों में बांग्लादेशी घुसपैठिए भारतीय अर्थव्यवस्था पर बोझ बनते जा रहे हैं। उन्हें देश से निकालने के लिए कारगर प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। यही स्थिति अन्य घुसपैठियों की भी है। देश की मिली-जुली संस्कृति का लाभ उठाकर घुसपैठिए भारतीय जनमानस में इतने अधिक घुल-मिल गए हैं कि उनकी पहचान करना भी टेढ़ी खीर हो गया है।
देश निर्धारित सीमाओं में बसे नागरिकों को सुख-सुविधाएँ देने हेतु बाध्य हैं। नीतियाँ भी राष्ट्र के नागरिकों के सर्वांगीण विकास को दृष्टिगत करते हुए बनाई जाती हैं किन्तु निर्धारित एवं वास्तविक नागरिकों से इतर विदेशी घुसपैठिए यदि भारतीय जनमानस में घुसपैठ करेंगे तो अतिरिक्त जनसंख्या का दबाव क्या भारतीय अर्थव्यवस्था को पंगु नहीं करेगा? भारतीय कानून-व्यवस्था को चुनौती देते घुसपैठियों की स्थिति से यह प्रशन स्वयं स्फुटित है। निसंदेह यदि बांग्लादेशी घुसपैठियों सहित अन्य विदेशी घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें देश से नहीं खदेड़ा गया तो राष्ट्र को अपनी अस्मिता की पहचान बनाने के लिए जूझना पड़ सकता है, क्योंकि जो इस देश के नागरिक नहीं हैं, उन्हें राष्ट्रीय अस्मिता एवं गौरव से भला क्यों कर कोई सरोकार होगा?
सोमवार, 6 अक्टूबर 2008
मिशनरी-वामपंथी मोर्चेबंदी
जो समझते हैं कि मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनवाने के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी को आज हमारे कम्युनिस्ट अपनी 'भूल' मानते हैं, वे स्वयं भूल पर हैं। भारतीय कम्युनिस्टों का हिन्दू-विरोध यथावत है। चूंकि आज 'मुसलमानों के आत्मनिर्णय का अधिकार' जैसे नारे सीधे-सीधे दुहराना हानिकारक हो सकता है, इसलिए कामरेड तनिक मौन हैं। किंतु जैसे ही किसी गैर-हिन्दू समुदाय की उग्रता बढ़ती है-चाहे वह नागालैंड हो या कश्मीर-उनके प्रति कम्युनिस्टों की सहानुभूति तुरंत बढ़ने लगती है। अत: प्रत्येक किस्म के कम्युनिस्ट मूलत: हिन्दू विरोधी हैं। केवल उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग रंग में होती है। पीपुल्स वार ग्रुप के आंध्र नेता रामकृष्ण ने कहा ही है कि 'हिन्दू धर्म को खत्म कर देने से ही हरेक समस्या सुलझेगी।' अन्य कम्युनिस्टों को भी इस बयान से कोई आपत्ति नहीं है। अभी-अभी सी.पी.आई.(माओवादी) ने अपने गुरिल्ला दस्ते का आह्वान किया है कि वह कश्मीर को 'स्वतंत्र देश' बनाने के संघर्ष में भाग ले। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में चल रहे प्रत्येक अलगाववादी आंदोलन का हर गुट के माओवादी पहले से ही समर्थन करते रहे हैं। अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थिति भी बहुत भिन्न नहीं। माकपा के प्रमुख अर्थशास्त्री और मंत्री रह चुके अशोक मित्र कह ही चुके हैं, 'लेट गो आफ्फ कश्मीर'-यानी, कश्मीर को जाने दो। इसलिए जो समझते हैं कि मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनवाने के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी को आज हमारे कम्युनिस्ट अपनी 'भूल' मानते हैं, वे स्वयं भूल पर हैं। भारतीय कम्युनिस्टों का हिन्दू-विरोध यथावत है। चूंकि आज 'मुसलमानों के आत्मनिर्णय का अधिकार' जैसे नारे सीधे-सीधे दुहराना हानिकारक हो सकता है, इसलिए कामरेड तनिक मौन हैं। किंतु जैसे ही किसी गैर-हिन्दू समुदाय की उग्रता बढ़ती है-चाहे वह नागालैंड हो या कश्मीर-उनके प्रति कम्युनिस्टों की सहानुभूति तुरंत बढ़ने लगती है। अत: प्रत्येक किस्म के कम्युनिस्ट मूलत: हिन्दू विरोधी हैं। केवल उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग रंग में होती है। पीपुल्स वार ग्रुप के आंध्र नेता रामकृष्ण ने कहा ही है कि 'हिन्दू धर्म को खत्म कर देने से ही हरेक समस्या सुलझेगी।' अन्य कम्युनिस्टों को भी इस बयान से कोई आपत्ति नहीं है। इसलिए कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या में माओवादियों की भागीदारी न भी हो, यह तथ्य तो सामने आया ही है कि जिन ईसाई मिशनरी गिरोहों ने यह कार्य किया, उनमें पुराने माओवादी भी हैं। पर ध्यान देने की बात यह है कि भारतीय वामपंथियों ने इस पर कोई चिंता नहीं प्रकट की, जबकि उसके बाद मिशनरियों के विरुध्द हुई हिंसा पर तीखी प्रतिक्रिया की। यह ठीक गोधरा कांड के बाद हुई हिंसा पर बयानबाजी का दुहराव है। तब भी साबरमती एक्सप्रेस में 59 हिन्दुओं को जिंदा जलाने वाली मूल घटना गुम कर दी गई, और केवल उसकी प्रतिक्रिया में हुई हिंसा की ही चर्चा की जाती रही। ये उसी हिन्दू विरोधी मनोवृत्ति की अभिव्यक्तियां हैं जो यहां वामपंथ की मूल पहचान हैं। पिछले दस वर्षों में कई वामपंथी अंतरराष्ट्रीय ईसाई मिशनरी संगठनों के एजेंट बन चुके हैं। सोवियत विघटन के बाद से वे भौतिक-वैचारिक रूप से अनाथ हो गए थे। इस रिक्तता को उन्होंने साधन-सत्ता संपन्न मिशनरियों से भर लिया है। इसीलिए वंचितों के संबंध में अब वामपंथियों की बातें मिशनरी प्रवक्ताओं से मिलने लगी हैं। वे वंचितों, वनवासियों का संगठित व अवैध मतांतरण कराने का उग्र बचाव करते हैं। अब वे वंचितों के 'मानव अधिकार' और 'मुक्ति' की ठीक वही शब्दावली दुहराते हैं जो आज सभी मिशनरी संगठनों का प्रिय कार्यक्रम है। वामपंथियों और अंतरराष्ट्रीय मिशनरियों की चिंताओं का यह सहमेल कदापि संयोग नहीं। मीडिया में भी मिशनरी-मार्क्सवादी दबाव इतना संयुक्त हो चुका है कि विदेशी धन से वंचितों के शिकार पर कभी विचार नहीं होने दिया जाता। विदित है कि इंडोनेशिया में सुनामी हो, गुजरात का भूकंप या इराक में तबाही, जब भी विपदाएं आती हैं तो दुनिया भर के मिशनरियों के मुंह से लार टपकने लगती है, कि अब उन्हें 'आत्माओं की फसल' काटने का अवसर मिलेगा। इसके बावजूद हमारे मीडिया में राहत के लिए मिशनरियों की वाहवाही की जाती है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों की नि:स्वार्थ सेवाओं का उल्लेख कभी नहीं होता। हिन्दू संस्थाओं के संदर्भ में यह दोहरापन क्यों? यदि मिशनरी 'सेवा' करके हिन्दुओं को ईसाई बनाने का प्रयास करते हैं, तो ठीक। किंतु जब हिन्दुत्वनिष्ठ संगठन घर-वापसी कार्यक्रम चलाकर उन्हें पुन: हिन्दू धारा में वापस लाते हैं, तो गलत। यह कैसा मानदंड है? फिर, क्या कारण है कि जो मार्क्सवादी हर बात में 'मूल समस्या' की रट लगाते थे, वे मिशनरी हरकतों से होने वाली अशांति पर कभी मूल समस्या का प्रश्न नहीं उठाते? केवल इसलिए कि ग्राहम स्टींस की हत्या हो या स्वामी लक्ष्मणानंद की, उत्तर-पूर्व का अलगाववाद हो या जगह-जगह भड़काऊ हिन्दू-विरोधी साहित्य का वितरण-हर कहीं मूल समस्या मिशनरी मतांतरण कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम विश्व में ईसाई विस्तारवाद की सर्वविदित, पुरानी साम्राज्यवादी परियोजना का ही अंग है। चूंकि कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद पराजित हो चुका है, इसलिए हमारे कम्युनिस्टों ने अपनी बची-खुची शक्ति ईसाई एवं इस्लामी साम्राज्यवाद को मदद पहुंचाने में लगा दी है। कम से कम इससे उन्हें अपने शत्रु - हिन्दुत्व - को कमजोर करने का सुख तो मिलता है। इसीलिए भारतीय वामपंथ हर उस झूठ-सच पर कर्कश शोर मचाता है जिससे हिन्दू बदनाम हो सकें। न उन्हें तथ्यों से मतलब है, न ही देश-हित से। विदेशी ताकतें उनकी इस प्रवृत्ति को पहचानकर अपने हित में जमकर इस्तेमाल करती है। मिशनरी एजेंसियों की यहां बढ़ती ढिठाई के पीछे यह ताकत भी है। इसीलिए वे चीन या अरब देशों में इतने ढीठ या आक्रामक नहीं हो पाते, क्योंकि वहां इन्हें भारतीय वामपंथियों जैसे स्थानीय सहयोगी उपलब्ध नहीं हैं। चीन सरकार विदेशी ईसाई मिशनरियों को चीन की धरती पर काम करने देना अपने राष्ट्रीय हितों के विरुध्द मानती है। किंतु हमारे देश में चीन-भक्त वामपंथियों का भी ईसाई मिशनरियों के पक्ष में खड़े दिखना उनकी हिन्दू विरोधी प्रतिज्ञा का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है। जब चार वर्ष पहले अंग्रेजी साप्ताहिक 'तहलका' ने अमरीका प्रशासन द्वारा भारत में बड़े पैमाने पर मतांतरण कराने की योजना को समर्थन देने की विस्तृत रिपोर्ट छापी तो इस पर कोई तहलका नहीं मचा। क्योंकि देश-विदेश से चल रही हिन्दू विरोधी कार्रवाइयों पर हमारे वामपंथी बौध्दिकों में एक मौन सहमति है। इसके लिए उन्हें पुरस्कार भी मिल रहा है। पिछले कुछ वर्षों में प्रफुल्ल बिदवई, अचिन विनायक, तीस्ता सीतलवाड़, एडमिरल रामदास आदि प्रमुख वामपंथी, सेकुलरों को अंतरराष्ट्रीय मिशनरी संस्थाओं (जैसे पैक्स क्रिस्टी का 'पैक्स क्रिस्टी इंटरनेशनल पीस प्राइज', इंटरनेशनल काउंसिल आफ इवांजेलिकल चर्चेज का 'ग्राहम स्टींस इंटरनेशनल अवार्ड फार रिलीजियस हार्मोनी' आदि) द्वारा बार-बार पुरस्कृत किया गया। यदि इन सेकुलरों के तमाम बयानों, क्रियाकलापों पर ध्यान दें तो कारण तुरंत समझ में आ जाएगा। उन्हें भारत-विरोध, विशेषकर हिन्दू-विरोधी कार्रवाइयों के लिए प्रोत्साहित किया गया।